अनुच्छेद 1

किसी भाव विशेष या विचार विशेष को व्यक्त करने के लिए कहते हैं। इसे भाव-पल्लवन भी कहा जाता है। इसको लिखने का स्पष्ट करना होता है। अनुच्छेद अपने-आप में स्वतंत्र एवं पूर्ण होता डालता है। अत: यह एक प्रभावी एवं उपयोगी लेखन-शैली है।

अनुच्छेद लेखन हेतु निम्नलिखित विशेषताओं का होना आवश्यक है

  1. भाव या विषय का अच्छी तरह से ज्ञान।
  2. संबंधित भाषा के शब्द-भंडार पर अधिकार।
  3. भाषा के व्याकरणिक बिंदुओं का ज्ञान।
  4. विषय से संबंधित उक्तियों का संग्रह।

अनुच्छेद लेखन से संबंधित ध्यान देने योग्य बातें-

  1. यह एक सक्षिप्त शैली है। अत: विषय-केंद्रित रहना चाहिए।
  2. एक भी वाक्य अनावश्यक नहीं होना चाहिए।
  3. अपनी बात संक्षिप्त एवं प्रभावपूर्ण तरीके से व्यक्त करनी चाहिए।
  4. अनुच्छेद का प्रथम एवं अंतिम वाक्य प्रभावी होना चाहिए।
  5. अनुच्छेद के प्रत्येक वाक्य परस्पर संबद्ध होने चाहिए।
  6. अनुच्छेद की भाषा शैली विषयानुरूप होनी चाहिए।
  7. अनुच्छेद का प्रथम वाक्य ऐसा होना चाहिए, जिसे पढ़कर पाठक के मन में पूरा अनुच्छेद पढ़ने हेतु कौतुहल जागृत हो।
  8. भाव या विषय की स्पष्टता में अधूरापन नहीं होना चाहिए।

(अनुच्छेद के उदाहरण)
1. अध्ययन का आनंद

विद्या मनुष्य का तीसरा नेत्र है। विद्या की प्राप्ति उसी को हो सकती है जो निरंतर अध्ययन करता रहता हो तथा जो अध्ययन को आनंद का विषय अनुभव करे। संसार का इतिहास पढ़ने से पता चलता है कि विश्व में जितने भी महान महापुरुष हुए हैं, उनकी सफलता का मूलमंत्र अध्ययन है। गांधी जी के संबंध में कहा जाता है कि वे अवकाश का एक भी क्षण ऐसा नहीं जाने देते थे जिसमें वे कुछ पढ़ते न रहे हों। लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर, जवाहरलाल नेहरू, जार्ज वाशिंगटन, माक्स आदि महान नेताओं ने जो महाग्रंथ मानव-जाति को प्रदान किए, वे उनके अध्ययन के ही परिणाम थे। लोकमान्य तिलक ने ‘गीता-रहस्य’ नामक महान पुस्तक काले पानी की सजा के दौरान लिखी।

वीर सावरकर का ‘सन 1857 की क्रांति’ नामक खोजपूर्ण ग्रंथ भी कारागार में तैयार हुआ। ये लोग जेल के दूषित वातावरण में रहकर भी इतना उत्तम साहित्य तभी दे सके क्योंकि वे अध्ययन को आनंद का विषय मानते थे। अध्ययन के आनंद की कोई तुलना नहीं है। एक विचारक का यह कहना ठीक ही है कि “पूरा दिन मित्रों की गोष्ठी में बरबाद करने के बजाय प्रतिदिन केवल एक घंटा अध्ययन में लगा देना कहीं अधिक लाभप्रद है।” अध्ययन के लिए न कोई विशेष आयु है और न ही उसका समय निर्धारित है। अध्ययन मानव-जीवन का अटूट अंग है। कविवर रहीम ने कहा है-

उत्नम विदृया लीजिए, जदपि नीच पै होय।

कवि वृंद भी कहते हैं-

सरस्वती भंडार कां, बहीं अपूरब बाता।
ज्यों-ज्यों खरचे त्यों बढे, बिन खरचे घटि जाता।

अध्ययन मनुष्य की चिंतन-शक्ति और कार्य-शक्ति बढ़ाता है। यह कायरों में शक्ति तथा निराश व्यक्तियों में आनंद का संचार करता है। अध्ययन के बिना मनुष्य का जीवन अधूरा है। हर व्यक्ति अपनी आयु, रुचि के अनुसार अध्ययन करता है। किसी को विज्ञान संबंधी विषय पढ़ना पसंद है तो कोई कविता पढ़ना चाहता है। हालांकि कुछ लोग बहुत ज्यादा अध्ययन करते हैं, परंतु फिर भी पिछड़े हुए होते हैं।

अधिक अध्ययन से स्वास्थ्य व आजीविका में भी बाधा होती है। केवल किताबी कीड़ा बनकर रहना उचित नहीं है। इसके साथ-साथ जीवन के विकास की अन्य बातों का भी ध्यान रखना जरूरी है। इसके अतिरिक्त, जीवन को सत्पथ पर ले जाने वाले साहित्य का भी अध्ययन करना चाहिए। इसके लिए पुस्तकों के चयन में सावधानी बरतना बहुत आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, केवल पढ़ने मात्र से ही अध्ययन नहीं होता। यह मनन से होता है। अत: अध्ययन का मूल मंत्र है-पढ़ो, समझो और ग्रहण करो।

2. आज का

विज्ञान की प्रगति, नई शिक्षा, नए युग के कारण समाज में चारों तरफ ‘विद्यार्थी’ के बारे में चर्चा होने लगी है। समाज का हर वर्ग ‘विद्यार्थी’ से बहुत अधिक अपेक्षाएँ करने लगा है और विद्यार्थी की स्थिति अभिमन्यु के समान हो गई है जो समस्याओं के चक्रव्यूह से घिरा हुआ है। जिस प्रकार अभिमन्यु को सात शत्रु महारथियों ने घेर लिया था, उसी प्रकार आज के विद्यार्थी को राजनीति, अर्थतंत्र, शिक्षा जगत, समाज, अधिकारी-शासक वर्ग आदि ने घेर रखा है। उनके चक्रव्यूह में वह स्वयं को अकेला महसूस कर रहा है। उसका पहला संघर्ष खुद को विद्यार्थी बनाने का है। स्कूलों में दाखिले के लिए भारी फ़ीस, सिफ़ारिशों आदि की जरूरत होती है।

विद्यार्थी को येन-केन-प्रकारेण दाखिला मिल भी जाए तो उसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सर्वप्रथम तो विद्यार्थी के आवास से शिक्षण संस्थान इतनी दूरी पर स्थित होता है कि उसका अधिकांश समय स्कूल आने-जाने में ही व्यतीत हो जाता है। पढ़ाई के लिए पर्याप्त समय ही नहीं मिल पाता है। योग्य अध्यापक, अच्छे स्तर की किताबें तथा पर्याप्त समय, ये सभी चीजें तो किसी भाग्यशाली विद्यार्थी को ही मिल पाती हैं। अध्यापक भी आधुनिकता के प्रभाव से अछूते नहीं हैं। वे उन्हीं विद्यार्थियों की सहायता करते हैं जो अच्छी पारिवारिक पृष्ठभूमि से हैं या जो उनके काम आ सकें।

अधिकांश ! पर भी फैशन और राजनीति का भूत इस कदर सवार है कि शिक्षा उन्हें फालतू लगने लगी है। अत: राजनीतिज्ञ भी का प्रयोग आंदोलनों में करते हैं। चैनलों पर कार्यक्रमों की बाढ़ उन्हें पढ़ने से विमुख करती है। व्यापारियों के लिए विद्यार्थी एक वस्तु बन गया है। साथ-साथ बेरोजगारी की स्थिति को देखकर आज का विद्यार्थी यह समझ चुका है कि वह चाहे कितनी ही मेहनत कर ले, चाहे कितने ही अंक प्राप्त कर ले, उसे मनमर्जी का व्यवसाय नहीं मिलेगा। ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ लेकर भी नौकरी सिफ़ारिश या रिश्वत के बल पर मिलती है।

अत: भविष्य की अनिश्चितता उसे उत्साहहीन कर देती है। फलत: विद्यार्थी समाज, अध्यापक व परिवार की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाता है और उसे तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। पर तिरस्कार करने वाले यह भूल जाते हैं कि विद्यार्थी के ऐसे व्यवहार के लिए जिम्मेदार कौन है? जिम्मेदार लोग अपनी परिस्थितियाँ अपनी जिम्मेदारी को भूल जाते हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि विद्यार्थी वही करेगा जो उसके बड़े करेंगे।

इन विकट दशाओं में भी हालाँकि कुछ विद्यार्थी सतर्क हैं। वे पुरानी पीढ़ी की निरर्थकता को पहचान चुके हैं और यह भी समझ चुके हैं कि पुरानों के पास देने के लिए कुछ नहीं है। वह अपनी योग्यता व क्षमता से आने वाली चुनौती को खत्म करते चले जा रहे हैं। डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, पत्रकार, वैज्ञानिक या व्यवसायी बनकर समाज को विकसित बनाने की दिशा में कार्य कर रहे है। वे जब भी कहीं समाज के किसी भी क्षेत्र में अपना आहवान सुनते हैं, वहीं तुरंत उपस्थित होकर मैदान सँभाल लेते हैं। कुल मिलाकर आज का विद्यार्थी अपनी वास्तविक स्थिति व शक्ति से परिचित हो चुका है। वह जानता है कि ‘विद्यार्थी-शक्ति’ ही राष्ट्र-शक्ति है।

3. आधुनिकता और नारी

आधुनिकता एक विचारधारा है। पुराने से स्वयं को अलग करके नए विचार व दिशा बनाना ही आधुनिकता है। हम आधुनिक युग उस समय से प्रारंभ करते हैं जब दुनिया में शासन व जीवन में नए स्वरूप का प्रादुर्भाव हुआ। नई जीवन-व्यवस्था प्रारंभ हुई। इस प्रकार से समाज का क्रमिक विकास हुआ। किसी भी समाज के विकास में नर-नारी का समान योगदान होता है। प्राचीन काल में मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी। धीरे-धीरे राजवंशों का प्रचलन हुआ और नारी का महत्व घटने लगा। मध्यकाल में नारी की स्थिति और गिर गई।

सामंतवादी संस्कृति ने नारी को मात्र भोग्या बना दिया। वह पुरुष की विलास-सामग्री बन गई और चारदीवारी में कैद कर दी गई। हालाँकि आधुनिक युग की शुरुआत से जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन आ गया। नारी की स्थिति सुधारने के लिए प्रयास किए जाने लगे। भारत में समाज-सुधारकों ने सती-प्रथा, शिशु-हत्या प्रथा आदि कुप्रथाओं का डटकर विरोध किया। स्त्री-शिक्षा व विधवा-विवाह के प्रोत्साहन के लिए सरकारी व गैर-सरकारी प्रयास किए गए। नारी-सुधार आंदोलन शुरू हुए।

आजादी मिलने के बाद देश में लोकतंत्र स्थापित हुआ। नए शासन में स्त्रियों को पुरुष के बराबर का दर्जा दिया गया। सैद्धांतिक व कानूनी तौर पर नारी को वे समस्त अधिकार प्राप्त हो गए जो पुरुष को उपलब्ध हैं। सच्चे अर्थों में इन समस्त अधिकारों का उपभोग करने वाली, वर्तमान जीवन की चेतना से पूर्णत: अनुरंजित नारी का नाम ही आधुनिक नारी है। आधुनिक नारी का अर्थ, रूप व सौंदर्य से संपन्न नारी से कतई नहीं है। यद्यपि भारत में विकास के चाहे कितने ही दावे किए जाएँ तथापि आज भी वास्तविकता यह है कि स्त्रियों को बराबरी का अधिकार नहीं दिया गया है। हालाँकि अब समय के साथ-साथ वैश्विक पटल पर स्थिति में परिवर्तन आ रहा है।

इस परिवर्तन में नारी को दो स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है। पहला समाज नारी को परंपरागत दृष्टिकोण से देखता है। इस संघर्ष में नारी कुछ हद तक दिग्भ्रमित हो चुकी है। वह आधुनिकता के नाम पर उच्छंखलता को ग्रहण कर रही है। भारतीय नारी को चाहिए कि वह समाज की श्रेष्ठ जीवनोपयोगी परंपराओं को स्वीकार करे तथा पश्चिम के अंधानुकरण से बचे। नारी के समक्ष दूसरा संघर्ष क्रियात्मक है। पुरुष नारी पर अपना अधिकार समझता है। सैद्धांतिक तौर पर वह नारी की स्वतंत्रता का हिमायती है, परंतु व्यावहारिक स्तर पर इसे प्रदान करने में हिचकता है।

उच्च व शिक्षित वर्ग में भी इस कारण संघर्ष रहता है। इस बात का उदाहरण महिला आरक्षण विधेयक है। सभी राजनीतिक दल इसे लागू करने का विरोध कर रहे हैं। सामान्य बुद्धस्तर के समुदाय के बीच आज भी नारी जटिल परिस्थितियों में जीवन व्यतीत कर रही है। नारी-मुक्ति का प्रमुख आधार है उसका आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना। जब नारी आर्थिक रूप से समर्थ होगी तब उसे निर्णय करने का अधिकार मिलेगा। कभी-कभी नौकरी भी उसे परिवार में प्रमुख स्थान नहीं दिला पाती। बाहर निकलने पर नारी को स्थान-स्थान पर बाधाएँ झेलनी पड़ती हैं। बुरे लोगों के संपर्क में पड़कर वह पतन के गर्त में चली जाती है। नारी को इस स्थिति में सँभलकर रहना चाहिए।

उन्हें समझना होगा कि जिस प्रकार उच्च शिक्षा, गंभीर चिंतन व श्रेष्ठ आचरण आदर्श पुरुष के सनातन लक्षण हैं, उसी प्रकार नारी के भी। नारी को इन गुणों को आधुनिक संदर्भों में विकसित करना होगा।

4. फिल्मों की सामाजिक भूमिका

फ़िल्में आधुनिक जीवन में मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन हैं। ये समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को प्रभावित करती हैं। फ़िल्मों में कलाकारों के अभिनय को लोग अपने जीवन में उतारने की कोशिश करते हैं। इस दृष्टि से फ़िल्मों का सामाजिक दायित्व भी बनता है। वे केवल मनोरंजन का ही नहीं, अपितु सामाजिक बुराइयों को दूर करने का भी साधन हैं। फ़िल्में समाज में व्याप्त विभिन्न बुराइयों को दूर करके स्वस्थ वातावरण के निर्माण में सहायता करती हैं। हालाँकि समाज में रहते हुए हमें इन बुराइयों की भयानकता का पता नहीं चलता। फिल्म देखकर इनकी बुराइयों से हम दो-चार होते हैं।

उदाहरणस्वरूप ‘प्यासा’ और ‘प्रभात’ जैसी फ़िल्मों को देखकर अनेक नारियों ने वेश्यावृत्ति त्यागकर स्वस्थ जीवन जीना शुरू किया। ‘पा’ फ़िल्म असमय वृद्ध होने वाले बच्चों की कठिनाइयों को दर्शाती है। इसी प्रकार से फ़िल्में समाज का सूक्ष्म इतिहास प्रकट करती हैं। इतिहासकार जहाँ इतिहास की स्थूल घटनाओं को शब्दबद्ध करता है, वहाँ फ़िल्में व्यक्ति के मन में छिपे उल्लास और पीड़ा की भावना को व्यक्त करती हैं। ‘गदर’ फ़िल्म में भारत-पाक युद्ध तथा 1971 की प्रमुख घटनाओं को दर्शाया गया है। ‘रैंग दे बसंती’ फ़िल्म में आजादी के संघर्ष को संवेदनशील तरीके से दिखाया गया है। ‘गोदान’ में 1930 के समय के पूँजीपतियों के शोषण तथा किसानों की करुण जीवन-गाथा चित्रित है।

आधुनिक समाज श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों से दूर होता जा रहा है। इस दूरी को कम करने में फ़िल्मों की अह भूमिका है। ‘आँधी’ और ‘मौसम” फ़िल्में कमलेश्वर की साहित्यिक कृतियों पर आधारित हैं, तो शरतचंद्र चटर्जी के ‘देवदास’ उपन्यास पर हिंदी व बांग्ला सहित कई भाषाओं में अनेक सफल फ़िल्में बन चुकी हैं। फ़िल्मों के गीत भी सुख-दुख के साथी बन जाते हैं। वे व्यक्ति के एकाकीपन, निराशा, दुख आदि को कम करते हैं। स्वतंत्रता दिवस व गणतत्र दिवस पर ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ गीत को सुनकर लोगों में आज भी देशभक्ति का जज्बा जाग उठता है। विदाई के अवसर पर ‘पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली’ गीत सुनकर वधू पक्ष के लोग भावुक हो उठते हैं। हालाँकि फ़िल्मों के केवल सकारात्मक प्रभाव ही समाज पर पड़ते हैं, ऐसा नहीं है। आज के युग में युवा फ़िल्मों से अधिक गुमराह हो रहे हैं।

फ़िल्मों में अपराध करने के नए-नए तरीके दिखाए जाते हैं, जिनका अनुसरण युवा करते हैं। नित्य प्रति हत्या के नए तरीके देखने में आ रहे हैं। बच्चे इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। वे झूठ बोलना, चोरी करना, घर से भागना आदि गलत आदतें प्राय: फ़िल्मों से ही सीखते हैं। नारी देह को प्रदर्शन की वस्तु फ़िल्मों ने ही बनाई है। लड़कियाँ मिनी स्कर्ट को आधुनिकता का पर्याय समझने लगी हैं तो लड़के फटी जींस व गले में स्कार्फ को आकर्षण का केंद्र मानते हैं। आजकल के फ़िल्म-निर्माता पैसा कमाने के लिए सस्ते गीतों पर अश्लील नृत्य करवाते हैं।

छोटे-छोटे बच्चों की जबान पर चालू भाषा के गीत होते हैं। आजकल गानों में भी भद्दी गालियों का प्रयोग बढ़ने लगा है। फ़िल्मों के शीर्षक ‘कमीने’ आदि बच्चों को गलत प्रवृत्ति की ओर अग्रसर करते हैं। फ़िल्मों के इस रूप की तुलना कैंसर से की जा सकती है। यह कैंसर धीरे-धीरे हमारे समाज के शरीर को जहरीला कर रहा है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि फ़िल्में समाज को तभी नयी दिशा दे सकती हैं जब वे कोरी व्यावसायिकता से ऊपर उठे तथा समाज की समस्याओं को सकारात्मक ढंग से अभिव्यक्त करें।

5. आधुनिक युग में कंप्यूटर

वस्तुत: कंप्यूटर ऐसे यांत्रिक मस्तिष्कों का रूपात्मक और समन्वयात्मक योग है जो तेज गति से कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक काम कर सकता है। गणना करने में इसका कोई सानी नहीं है। अत: कंप्यूटर आधुनिक विज्ञान की सबसे बड़ी देन है। विज्ञान का प्रसार जिन-जिन क्षेत्रों में होता जा रहा है, उन-उन क्षेत्रों में कंप्यूटर की उपयोगिता, उसकी लोकप्रियता व आवश्यकता निरंतर बढ़ती जा रही है। कंप्यूटर जीवन के हर क्षेत्र में पहुँच गया है। उसके प्रभाव का इतना असर है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह उच्च वर्ग का हो या साधारण वर्ग का, कंप्यूटर सीखने की इच्छा रखता है। इसकी बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए सरकारें भी स्कूल व कॉलेज स्तर पर कंप्यूटर शिक्षा को अनिवार्य बना रही हैं। ,

आज रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, हवाई अड्डों, कारखानों से लेकर शिक्षण संस्थाओं व अस्पतालों तक में कंप्यूटर ने अपनी जगह बना ली है। बैंकों के खातों के संचालन से लेकर पुस्तकों, पत्रिकाओं तथा समाचार-पत्रों के प्रकाशन के क्षेत्र में कंप्यूटर ने क्रांति ला दी है। संचार के क्षेत्र में तो कंप्यूटर का एकछत्र राज है। टेलीफोन, मोबाइल सेवा आदि कंप्यूटर के बिना संभव नहीं हैं। इंटरनेट ने ‘विश्व ग्राम’ की अवधारणा को सच किया है। यह भी कंप्यूटर की बदौलत हुआ ही है। अंतरिक्ष से चित्र लेने तथा उनका विश्लेषण करने का काम भी कंप्यूटर ही करता है।

मौसम संबंधी घोषणाएँ कंप्यूटर की गणनाओं पर आधारित होती हैं। यहाँ तक कि ज्योतिष विद्या भी कंप्यूटर-आधारित हो गई है। मेडिकल क्षेत्र में कंप्यूटर जीवन-रक्षक कवच बनकर अवतरित हुआ है। यह विभिन्न तरह के परीक्षणों का विश्लेषण करके तुरंत मरीज की स्थिति बता देता है। शल्य-चिकित्सा में कंप्यूटर अह भूमिका निभाता है। आधुनिक विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि रोबोट को माना जाता है, क्योंकि यह आज जटिल से जटिल कार्य विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में सफलतापूर्वक संपन्न करता है। जैसे-वेलिंडग, पेंटिग, आयरन गलाना, परमाणु भट्ठी के पास काम करना, भारी सामान उठाना, कचरा साफ़ करना आदि।

यह सब कार्य रोबोट के मस्तिष्क में लगा छोटा-सा कंप्यूटर करता है। युद्ध में जासूसी करना, सही निशाने पर बम या मिसाइल फेंकना आदि कार्य भी कंप्यूटर आसानी से कर लेता है। साथ-साथ भवन-निर्माण, क्षेत्र-विकास, परिसर-नियोजन आदि के लिए शिल्पकार को अधिक समय लगता है। कंप्यूटर का डिजाइनिंग प्रोग्राम क्षेत्र की लंबाई, चौड़ाई और आँकड़ों के अनुसार कुछ ही घंटों में नक्शा तैयार कर देता है। नए डिजाइन बनाने में तो यह कलाकार की भूमिका निभाता है।

कंप्यूटर के इतने फ़ायदे देखकर कहा जा सकता है कि कंप्यूटर आज के युग की अनिवार्यता है। इसके बिना आधुनिक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके बावजूद यह एक मशीन है। इसका सदुपयोग या दुरुपयोग मानव की प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। इससे भी बढ़कर, यह मानव मस्तिष्क का पर्याय नहीं बन सकता क्योंकि इसे मानव ने ही बनाया है।

6. भूकंप त्रासदी

‘भूकंप” शब्द सुनते ही सब कुछ हिलता नजर आता है। इसका अर्थ होता है-पृथ्वी का कंपन। पृथ्वी के गर्भ में किसी प्रकार की हलचल के कारण जब पृथ्वी का कोई भाग हिलने लगता है, कंपित होने लगता है तो उसे भूकंप की संज्ञा दी जाती है। पृथ्वी लगभग हर समय हिलती रहती है, परंतु हम उन्हीं झटकों को भूकंप कहते हैं जिनका हम अनुभव करते हैं। भूकंप के अनेक कारण होते हैं-पृथ्वी के अंदर की चट्टानों का हिलना, ज्वालामुखी फटना, परमाणु विस्फोट, बड़े बाँध, भूस्खलन, बम फटना आदि। भूकंप प्राकृतिक आपदाओं में सर्वाधिक विनाशकारी होता है।

यह प्रलय का दूसरा नाम है। यह पल भर में मानव की प्रगति व ताकत को तहस-नहस कर देता है तथा मनुष्य को यह अहसास करा देता है कि वह प्रकृति पर कभी नियंत्रण नहीं कर सकता। यह विज्ञान व वैज्ञानिकों का दंभ क्षण-भर में खत्म कर देता है। भूकंप के आने से ऊँची-ऊँची इमारतें धराशायी हो जाती हैं, बड़ी संख्या में लोग असमय ही काल के मुँह में समा जाते हैं। कभी-कभी पूरा शहर ही धरती के गर्भ में समा जाते हैं। इससे नदियाँ अपना मार्ग तक बदल लेती हैं। कहीं-कहीं नए भू-आकार भी जन्म ले लेते हैं।

देश के इतिहास में सर्वाधिक विनाशकारी भूकंप 11 अक्तूबर, 1737 को बंगाल में आया था जिसमें लगभग तीन लाख लोग काल के गाल में समा गए थे। महाराष्ट्र के लातूर व उस्मानाबाद जिले में 40 गाँव भूकंप के कहर से तबाह हो गए। 26 जनवरी, 2001 का दिन भारतीय गणतंत्र में काला दिन बन गया। इस दिन गुजरात पर भूकंप ने अपना तीसरा नेत्र खोला। क्षणमात्र में भुज, अंजार और भचाऊ क्षेत्र कब्रिस्तान में बदल गए। गुजरात का वैभव खंडहरों में परिवर्तित हो गया। इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6.9 थी तथा इसका केंद्र भुज से 20 कि०मी० उत्तर-पूर्व में था। इस त्रासदी में हजारों लोग मारे गए, कई हजार घायल हुए तथा लाखों बेघर हो गए। सारा देश स्तब्ध था।

भयंकर विनाश देखकर सहायता के लिए अनेक हाथ आगे आए। स्वयंसेवी संस्थाओं ने राहत व बचाव-कार्य में दिन-रात एक कर दिया। मीडिया के प्रचार से भारत सरकार की नींद खुली और समूचा विश्व सहायता के लिए आगे आया। विश्व के अनेक देशों व भारत के कोने-कोने से सहायता सामग्री का अंबार लग गया। इस प्रकार भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में जिंदगी ठहर-सी गई। अरबों की संपत्ति नष्ट हो गई। विकास-कार्य रुक गया।

भूकंप जनित घटनाएँ मानव के अनिश्चित भविष्य को दर्शाती हैं। एक तरफ हम विकास व तकनीक की श्रेष्ठता का दावा करते हैं, दूसरी तरफ हम भूकंप की पूर्व सूचना तक नहीं दे पाते। भूकंप को रोकना अभी तक मानव के वश से बाहर है परंतु क्या हम ऐसी तकनीक विकसित कर पाएँगे जिससे भूकंप आने के पूर्व ही सूचना प्राप्त कर सकें? यदि ऐसा संभव हुआ तो निश्चय ही हम असमय होने वाली जन-धन-हानियों को बचा पाएँगे।

7. पर्यटन का महत्व

मानव अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण दूसरे देशों या अलग-अलग स्थानों की यात्रा करना चाहता है। उसे दूसरे क्षेत्र की संस्कृति, सभ्यता, प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिक जानकारी के बारे में जानने की इच्छा होती है। इसी कारण वह अपना सुखचैन छोड़कर अनजान, दुर्गम व बीहड़ रास्तों पर घूमता रहता है। आधुनिक युग में इंटरनेट व पुस्तकों के माध्यम से वह हर स्थान की जानकारी प्राप्त कर सकता है, परंतु यह सब कागज के फूल की तरह होते हैं।

आदिमानव एक ही स्थान पर रहता तो क्या दुनिया विकसित हो पाती। एक स्थान पर टिके न रहने के कारण ही मानव को ‘घुमक्कड़’ कहा गया है। महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन का कहना है-‘घुमक्कड़ दुनिया की सर्वश्रेष्ठ विभूति है इसलिए कि उसी ने आज की दुनिया को बनाया है। अगर घुमक्कड़ों के काफिले न आते-जाते, तो सुस्त मानव-जातियाँ सो जातीं और पशु स्तर से ऊपर नहीं उठ पातीं।”

‘घुमक्कड़ी’ का आधुनिक रूप ‘पर्यटन” बन गया है। पहले घुमक्कड़ी अत्यंत कष्टसाध्य थी क्योंकि संचार व यातायात के साधनों का अभाव था। संसाधन भी कम थे तथा पर्यटन-स्थल पर सुविधाएँ भी विकसित नहीं थीं। आज विज्ञान का प्रताप है कि मनुष्य को बाहर जाने में कोई कठिनाई नहीं होती। आज सिर्फ़ मनुष्य में बाहर घूमने का उत्साह, धैर्य, साहस, जोखिम उठाने की तत्परता होनी चाहिए, शेष सुविधाएँ विज्ञान उन्हें प्रदान कर देता है।

20वीं सदी से पर्यटन एक उद्योग के रूप में विकसित हो गया है। विश्व के लगभग सभी देशों में पर्यटन मंत्रालय बनाए गए हैं। हर देश अपने ऐतिहासिक स्थलों, अद्भुत भौगोलिक स्थलों को सजा-सँवारकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना चाहता है। मनोरम पहाड़ी स्थलों पर पर्यटक आवास स्थापित किए जा रहे हैं।

पर्यटकों के लिए आवास, भोजन, मनोरंजन आदि की व्यवस्था के लिए नए-नए होटलों, लॉजों और पर्यटन-गृहों का निर्माण किया जा रहा है। यातायात के सभी प्रकार के सुलभ व आवश्यक साधनों की व्यवस्था की जा रही है। पर्यटन आज मुनाफ़ा देने वाला व्यवसाय बन गया है। पर्यटन के लिए रंग-बिरंगी पुस्तिकाएँ आकर्षक पोस्टर, पर्यटन-स्थलों के रंगीन चित्र, आवास, यातायात आदि सुविधाओं का विस्तृत ब्यौरा लगभग सभी प्रमुख सार्वजनिक स्थलों पर मिलता है। पर्यटन के प्रति रुचि जगाने के लिए लघु फ़िल्में भी तैयार की जाती हैं।

कई पर्यटन-स्थलों पर पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए संगीत, नृत्य, नाटक आदि का आयोजन किया जाता है। पर्यटन के अनेक लाभ हैं, जैसे-आनंद-प्राप्ति, जिज्ञासा की पूर्ति आदि। इसके अतिरिक्त, पर्यटन से अंतर्राष्ट्रीयता की समझ विकसित होती है। मनुष्य का दृष्टिकोण विस्तृत होता है। प्रेम व सौहाद्र का प्रसार होता है। सभ्यता-संस्कृतियों का परिचय मिलता-बढ़ता है। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना को पर्यटन से ही बढ़ावा मिलता है। पर्यटन के दौरान ही व्यक्ति को यथार्थ जीवन का आभास होता है तथा जीवन की एकरसता भी पर्यटन से ही समाप्त होती है।

8. पूंजीवाद का विश्वव्यापी संकट

पहले विश्व में केवल दो व्यवस्थाएँ थीं-पूँजीवाद व साम्यवाद। सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व में पूँजीवाद का आधिपत्य हो गया। हालाँकि 21वीं सदी में विश्व के पूँजीवाद के चिर स्थायित्व की पोल खुल गई। आज पूँजीवादी व्यवस्था दीर्घकालीन मंदी की चपेट में है। आज अमेरिका जैसे सबल देश की अर्थव्यवस्था भी आर्थिक मंदी से जूझ रही है। अत: सारे विश्व में हड़कंप मचा है। उत्पादन, रोजगार और उपभोग में हो रही कमी से सारे देश प्रभावित हो रहे हैं। यह मंदी कितनी भयानक होगी, इसका आकलन नहीं किया जा सकता।

पूँजीवाद के पहले प्राकृतिक कारणों के परिणामस्वरूप मुख्यतया उत्पादन में, उतार-चढ़ाव आते थे या विदेशी हमलों और शासकों के उत्पीड़न से प्रजा के राज्य छोड़कर भागने पर भी उत्पादन में गिरावट आती थी। हालाँकि इन सबके प्रभाव सीमित होते थे। औद्योगिक पूँजीवाद के उदय के साथ उत्पादक शक्तियों का अभूतपूर्व विकास हुआ और भारी मात्रा में अधिशेष उत्पादन संभव हुआ। बाज़ार समाज से अलग होकर स्वतंत्र हस्ती बन गया। आवागमन के साधनों के विस्तार और सूचना के क्षेत्र में हुए परिवर्तनों के फलस्वरूप उत्पादन, माँग, कीमत, भविष्य की स्थिति आदि को देखते हुए व्यापार के परिमाण और स्वरूप में भारी बदलाव आया। उत्पादन अब उपभोग के लिए न होकर अधिकतम मुनाफ़े के लिए होने लगा।

आधुनिक पूँजीवाद के उदय के साथ ही आर्थिक उतार-चढ़ाव एक नियमित परिघटना के रूप में सामने आया। अनेक विद्वानों ने बाजार के उतार-चढ़ाव को अवश्यंभावी बताया और राज्य के सक्रिय हस्तक्षेप की सलाह दी। पूँजी बाजार का उदय आधुनिक पूँजीवाद के साथ हुआ। यह मुद्रा बाजार से भिन्न है। मुद्रा बाजार में लेन-देन अल्पकाल के लिए होता है, जबकि पूँजी बाजार में लंबे समय के लिए। पूँजी बाजार आधुनिक पूँजीवाद का सहजीवी है। आधुनिक पूँजीवाद की धुरी’ज्वायंट स्टॉक कंपनी’ है, इसके जरिए असीमित मात्रा में पूँजी इकट्ठी की जाती है। इसमें पूँजी लगाने वालों का जोखिम सीमित रहता है।

कंपनी के घाटे में जाने या धराशायी होने पर निवेशक की निजी संपत्ति पर कोई असर नहीं होता, बल्कि उसके द्वारा खरीदे गए शेयरों पर अंकित राशि भर डूब जाती है। शेयर बाज़ार में कंपनी के शेयर अंकित कीमत से अधिक भाव पर बिकने से कंपनी की तरक्की का पता चलता है। पूँजी बाजार परियोजना का मूल्यांकन करता है। नई परियोजना शुरू करने से पहले उसकी रूपरेखा व संभावनाओं के बारे में बाज़ार को बताना होता है। बाजार का निर्णय अनुकूल होने पर उसके शेयरों की खरीद-फ़रोख्त होती है। शेयरों की बिक्री न होने का मतलब उस परियोजना को बाजार द्वारा अस्वीकृत होना माना जाता है।

अमेरिका में पूँजी बाजार के विनियमन के लिए ‘सेक’ और भारत में ‘सेबी’ है, परंतु व्यापारी ‘हेज फेज’ जैसे तरीके निकाल लेते हैं जो कानून के दायरे से बाहर हैं। शेयर बाजार और धोखाधड़ी एक-दूसरे के पर्याय हैं। यहाँ हेराफेरी, अफ़वाह आदि की भारी भूमिका होती है। शेयर बाजार वस्तुत: पूँजीपति वर्ग के मनोबल का प्रतिबिंब है। यहाँ वे एक-दूसरे का शोषण करते हैं। अगर शेयरों का सूचकांक बढ़ या गिर रहा है तो इसका मतलब यह होता है कि पूँजीपति वर्ग का मनोबल बढ़ या घट रहा है। गिरावट की स्थिति लंबे समय तक रहने पर सरकार की नीतियों में पूँजीपति वर्ग का विश्वास घटने का पर्याय माना जाता है। इसी कारण सरकार पूँजीपति वर्ग को आश्वस्त करने की कोशिश में रहती है और राहत पैकेजों की घोषणा करती हैं। हालाँकि वित्तीय नीतियों की समीक्षा करके उनमें सुधार की कोशिशें जारी हैं। साथ-साथ विकासशील देशों को सहयोगी बनाने की कवायद जारी है।

9. भाषाई साम्राज्यवाद की चुनौती

दुनिया में अंग्रेजी भाषा का विस्तार और प्रचार-प्रसार बहुत ज्यादा व तेजी के साथ हो रहा है। इसका कारण अंग्रेजी भाषा की खूबी नहीं है। यह भाषाई साम्राज्यवाद है। साम्राज्यवाद यह प्रचार करता है कि अंग्रेजी ही ऐसी भाषा है जिसके बिना दुनिया का काम नहीं चल सकता; यह ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय संवाद व संचार की भाषा है। आज अंग्रेजी न जानने वाला पिछड़ जाएगा भले ही वह कितना ही विद्वान क्यों न हो, आदि-आदि। 17वीं, 18वीं व 19वीं सदियों में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रसार के साथ अंग्रेजी भाषा का भी प्रसार हुआ।

बीसवीं सदी से अमेरिका ने यह कार्यभार सँभाला। यह कार्य अमेरिकी साम्राज्यवाद को बढ़ाने-फैलाने के लिए किया गया। हालाँकि आज का साम्राज्यवाद पहले की तरह कार्य नहीं करता। पहले के साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों पर अपनी भाषा थोपकर अपने साम्राज्यवाद को सुदृढ़ बनाते थे। मैकाले भारत में एक ऐसा दुभाषिया वर्ग बनाना चाहता था जो रक्त और वर्ण से भारतीय हो, लेकिन रुचि, सोच व नैतिकता आदि से अंग्रेज हो। अब भाषाई साम्राज्यवाद का रूप बदल गया है। अब अमेरिका अंग्रेजी को सारी दुनिया पर थोपना चाहता है। यह कार्य परोक्ष रूप से किया जा रहा है; जैसे-रोजी-रोटी कमाने के लिए अंग्रेजी जानना अनिवार्य कर दिया गया है।

भाषाई साम्राज्यवाद का एक और रूप सामने आया है। अब वह दुनिया की दूसरी भाषाओं के माध्यम से भी साम्राज्यवाद को फैलाने व मजबूती से जमाने का कार्य करता है। आज का साम्राज्यवाद दूसरी भाषाओं में अपनी विचारधारा बेचता है और अन्य देशों की भाषा को उसने अनुवाद की भाषा बना दिया है। मौलिक चिंतन यूरोप या अमेरिका में होगा और दुनिया के बाकी देश अपनी भाषा में उसका अनुवाद करेंगे। उदाहरण के लिए संरचनावाद, विखंडनवाद, उत्तर आधुनिकवाद, विमर्श आदि सब कुछ बाहर की देन हैं। कुल मिलाकर भाषाई साम्राज्यवाद एक चुनौती है। उससे हमें संघर्ष करना है।

कुछ लोग लड़ाने के पुराने तरीके अपनाते हैं। वे ‘अंग्रेजी हटाओ’ का नारा देकर हिंदी को बैठाना चाहते हैं, इससे देश में अंग्रेजी भाषा या अन्य भाषाओं के लोग उनके विरोधी बन जाते हैं। वे इसे हिंदी का भाषाई साम्राज्यवाद कहने लगते हैं। साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए राष्ट्रवाद जरूरी है, परंतु अब राष्ट्रवाद एक बेहतर दुनिया बनाने का संकल्प होना चाहिए। भाषाई साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनतांत्रिक नारा है-दुनिया में सब हों समान, सब भाषाएँ बनें महान।

इसका अभिप्राय यह है कि भाषा किसी की बपौती नहीं होती। हर व्यक्ति किसी भी भाषा को सीख सकता है, उसमें दैनिक कार्य कर सकता है। किसी भाषा को दूसरी भाषाओं से श्रेष्ठ बताना और उसे दूसरों पर थोपना अमानवीय है।

10. शीत युद्ध के बाद की भारत-नीति

सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व में एक ही महाशक्ति रह गई और शीत युद्ध समाप्त हो गया। ऐसे में भारतीय विदेश नीति में मूलभूत बदलाव आए हैं। पहले भारत की नीति स्वयं को दोनों गुटों में से किसी भी गुट में शामिल न होने देने की थी। आज भारत की विदेश व सुरक्षा नीति अधिक यथार्थवादी और भारत के मुख्य हितों को साधने वाली है। इस दिशा में भारत के नीतिकारों ने दक्षता से कदम उठाए। उन्होंने अमेरिका से रिश्ते बेहतर किए हैं। चीन के साथ तनाव कम किया है तथा उपेक्षित दक्षिण-पूर्वी देशों की ओर रुख किया है।

भारत के परमाणु व प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रमों को तेजी से आगे बढ़ाया गया है और 1991 के वित्तीय संकट से सीख लेते हुए घरेलू व आर्थिक नीतियों को यथार्थवादी रूप दिया गया है। इन बदलावों से देश उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था में अप्रासंगिक होने से बच गया। इन सुधारों के बावजूद भारत के सामने अनेक चुनौतियाँ हैं। एशिया व अन्य क्षेत्रों में चीन की लगातार मजबूत होती आर्थिक व सैन्य शक्ति से निपटने के लिए भारत को अपनी रणनीति तय करनी है। पाकिस्तान से निपटने के लिए सक्षम नीति बनाने की जरूरत है।

कश्मीर में शांति बहाल करना आवश्यक है और अमेरिका के साथ पनपे बेहतर रिश्तों को सँभालना है। साथ-साथ वैश्विक स्तर पर भारत को अमेरिका व यूरोपीय समुदाय के साथ मिलकर विश्व-पर्यावरण में बदलाव, आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार-व्यवस्था जैसे मुद्दों पर काम करना चाहिए। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भारत को मानव पूँजी में निवेश की आवश्यकता है। लंबे समय तक भारत के विदेश और सुरक्षा नीतिकार चुनौतियों का सामना करने के लिए केवल नौकरशाही विशेषज्ञता पर निर्भर रहे, लेकिन अब उनके अलावा रक्षा व विदेश नीति के विशेषज्ञ भी चाहिए।

भविष्य में आने वाले मुद्दों का मुकाबला विभिन्न विषयों के योग्य जानकारों के बगैर कठिन होगा। अत: देश को बेहतर अध्ययन कार्यक्रमों और अंतर्राष्ट्रीय व कूटनीतिक अध्ययन के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों का विकास करने तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में कार्यक्रमों को मजबूत बनाने की जरूरत है। नीतिकारों को इन लक्ष्यों को पाने के लिए राष्ट्रीय सहमति बनाने के प्रयास करने चाहिए। राष्ट्रीय सहमति के बिना देश विचारधारा पर आधारित पुरानी नीतियों पर लौट सकता है। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद ठोस नीतियों के चुनाव ने भारत को क्षेत्रीय व वैश्विक मामलों में अभूतपूर्व स्थान दिया है। अब भारत को अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखनी चाहिए।

11. तनाव : आधुनिक जीवन-शैली की देन

आज मनुष्य विकास के उच्चतम स्तर पर पहुँच चुका है, परंतु वह और अधिक की लालसा कर रहा है। इसकी वजह से वह एक नई बीमारी की गिरफ़्त में आ रहा है। वह है-तनाव। तनाव एक मानसिक प्रक्रिया है। यह हमारे दिमाग में हमेशा रहता है। घटनाएँ तनाव का कारण नहीं हैं, बल्कि मनुष्य इसे कैसे समझता या प्रभावित होता है, यह तनाव का कारण है। तनाव शक्तिशाली चीज है। यह या तो बहुत अच्छा हो सकता है, या नुकसान का कारण हो सकता है। यह बहती नदी के समान है। जब मनुष्य इस पर बाँध बनाता है तो वह पानी की दिशा को अन्य स्थान की ओर अपनी इच्छा से बदल सकता है, परंतु जब नदी पर बाँध नहीं होता तो वह बहुत विनाश करती है। तनाव भी ऐसा ही है। आज समाज में तनाव से एक बहुत बड़ा तबका ग्रस्त है।

मनुष्य हमेशा किसी-न- किसी उधेड़बुन में रहता है। ऐसा नहीं है कि तनाव पुराने युग में नहीं होता था। तब भी तनाव होता था परंतु बहुत कम होता था। आधुनिक जीवन-शैली से निरर्थक तनाव उत्पन्न हो रहा है; जैसे-बिजली का चला जाना, बच्चे का सही ढंग से होमवर्क न करना, भीड़ के कारण हर समय ट्रेन या बस छूटने का भय, दफ़्तर, स्कूल आदि गंतव्य पर सही समय पर न पहुँचने का भय, मीडिया द्वारा प्रचारित भय।

मनुष्य स्वयं को अमर या सर्वाधिक सुखी करना चाहता है, परंतु वह अपनी क्षमता व साधनों का ध्यान नहीं रखता। मनुष्य थोड़े समय में अधिक काम करना चाहता है। वह हमेशा जीतना चाहता है। अत: आज मानव नकारात्मक प्रवृत्ति से ग्रस्त है। उसे हर कार्य में नुकसान होने का भय रहता है। तनाव रहने से मनुष्य विभिन्न व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। मनुष्य निराशाजनक जीवन जीने लगता है। वह चिड़चिड़ा, गुस्सैल प्रवृत्ति का हो जाता है।

वस्तुत: तनाव हमारे जीवन के ‘लाभ-हानि खाते’ में उधार की प्रविष्टि है। जब मनुष्य अपनी मुश्किलों को हल नहीं कर पाता तो वह तनावग्रस्त हो जाता है। ये मुश्किलें वास्तविक विचार के न होने के कारण हैं। इसलिए मनुष्य को अधिक-से-अधिक अच्छे विचार सोचने चाहिए। मनुष्य को रचनात्मक ढंग से नए तरीके से व धैर्य से खुशी को ढूँढ़ना चाहिए। थोड़े समय में अधिक पाने की इच्छा त्याग देनी चाहिए।

मनुष्य को व्यापार के इस सिद्धांत का पालन करना चाहिए—अच्छे को बेहतर का दुश्मन न बनाइए। मनुष्य को अपनी मनोवृत्ति सकारात्मक बनानी चाहिए। मनुष्य का मस्तिष्क बहुत बड़ी भूमि के समान है यहाँ वह खुशी या तनाव उगा सकता है। दुर्भाग्य से यह मनुष्य का स्वभाव है कि अगर वह खुशी के बीज बोने की कोशिश न करे तो तनाव पैदा होता है। खुशी फसल है और तनाव घास-फूस है।

12. मानवतावाद बनाम आतकवाद
अथवा
आतंकवाद के बढ़ते चरण

‘मानवतावाद” और ‘आतंकवाद” सर्वथा दो विरोधी अवधारणाएँ हैं। मानवतावाद के मूल में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘विश्व-बंधुत्व’ की भावना है। यह ‘संपूर्ण विश्व एक परिवार है’ का संदेश देता है। इसके मूल में सह-अस्तित्व की भावना है जबकि आतंकवाद अलगाववाद पर आधारित है। आतंकवाद में मानवीय संवेदनाओं का स्थान नहीं होता। पिछले कुछ दशकों से जिस समस्या ने विश्व को सबसे अधिक आक्रांत किया है, वह है-विश्वव्यापी आतंकवाद। आतंकवाद वह प्रवृत्ति है, जिसमें कुछ लोग अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए हिंसात्मक और अमानवीय साधनों का प्रयोग करते हैं।

आतंकवाद का मुख्य उद्देश्य होता है शासन व्यवस्था को अपने अनुकूल फैसला लेने हेतु मजबूर करना। हालाँकि बेरोजगारी, अशिक्षा, सामाजिक-आर्थिक विषमताएँ आदि कारणों से किसी देश अथवा जाति का असंतुष्ट वर्ग देश से अलग होने, पृथक् राज्य स्थापित करने की माँग उठाता है और अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए पूरे देश तथा समाज को आतंकित करता है तथा इसके लिए अनेक बर्बर उपाय अपनाता है। आतंकवाद का स्वरूप या उद्देश्य कुछ भी हो, इसका भौगोलिक क्षेत्र कितना ही सीमित या विस्तृत क्यों न हो, आज इसने हमारे जीवन को अनिश्चित और असुरक्षित बना दिया है।

भारत के विभिन्न भागों में हो रही आतंकवादी गतिविधियों ने देश की राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा पैदा कर दिया है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण कश्मीर में देखने को मिल रहा है। कश्मीर के काफी बड़े भाग पर पाकिस्तान ने अनाधिकृत रूप से कब्जा कर रखा है। शेष कश्मीर को हथियाने के लिए वह कश्मीर के भोले-भाले नवयुवकों के मन में उन्माद पैदा करके उन्हें आतंकवाद के रास्ते पर ढकेल रहा है। फलत: समूची कश्मीर घाटी हिंसा की आग में जल रही है। इसी प्रकार के स्वार्थपूर्ण कारणों से आज आतंकवाद की समस्या विश्वव्यापी हो गई है।

सामान्यत: संसार के सभी देश इसके विरुद्ध संगठित हो रहे हैं। आतंकवाद मानव-जाति के लिए कलंक है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि इसका समूल नाश किया जाए। कोई भी देश इस प्रकार के आतंकवादी संगठनों को प्रश्रय न दे और न किसी प्रकार उनकी सहायता करे। आतंकवाद जैसी समस्या का समाधान बौद्धिक और सैनिक दोनों स्तरों पर किया जाना चाहिए। विश्व की सभी सरकारों को अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के विरुद्ध परस्पर सहयोग करना चाहिए ताकि कोई भी आतंकवादी गुट कहीं शरण या प्रशिक्षण न पा सके। आतंकवाद के समाप्त होने पर ही मानवता का स्वप्न पूरा हो सकेगा।

13. वैश्वीकरण

संचार तथा परिवहन के विकास, नई-नई वैज्ञानिक तकनीकों तथा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास से आज न केवल भौगोलिक दूरियाँ कम हुई हैं, बल्कि संसार के विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के बहुत निकट आ रहे हैं। इस प्रकार विश्व के राष्ट्रों के निकट आने की प्रक्रिया को ही ‘वैश्वीकरण’ कहा जा रहा है। विश्व के विकसित देशों के पास तकनीक है तो विकासशील और अविकसित राष्ट्रों के पास कच्चा माल और सस्ता श्रम। आज सभी विकासात्मक कार्यों और समस्याओं की व्याख्या विश्व-स्तर पर होती है। इसलिए विश्व-बंधुत्व की भावना को बढ़ावा मिल रहा है।

वैश्वीकरण में निरंतर बढ़ते औद्योगिक विकास तथा संचार के साधनों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। मुद्रण कला तथा इलेक्ट्रॉनिक के विकास से हमें समाचार-पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन आदि के द्वारा विश्व के किसी भाग में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी तत्काल मिल जाती है। उसकी विश्वव्यापी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है।

टेलीफोन, ई-मेल, फ़ैक्स के द्वारा हम अविलंब देश-विदेश में स्थित अपने मित्रों, संबंधियों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों से संपर्क कर सकते हैं। यातायात के साधन आज इतने विकसित और सुविधाजनक हो गए हैं कि हम अल्प समय में ही हम विश्व के किसी भी हिस्से में पहुँच जाते हैं। संचार एवं यातायात के विकसित साधनों के कारण व्यक्ति के जीवन-स्तर में अंतर आया है।आज हम

विभिन्न देशों में बनी वस्तुओं का उपभोग करते हैं। विभिन्न देशों के बीच व्यापारिक संबंध बढ़ रहे हैं। प्राकृतिक विपदाओं में भी राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग मिल जाता है। इस प्रकार से एक वैश्विक संस्कृति के उदय होने की संभावना बढ़ती जा रही है। प्रकृति ने संपूर्ण विश्व को भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियाँ दी हैं। जिसके कारण उन स्थानों की कृषि तथा अन्य उत्पादनों की गुणवत्ता और मात्रा में भी अंतर है। इस स्थिति में जहाँ जिस वस्तु का अभाव रहता है उसकी पूर्ति अन्य देशों से कर ली जाती है। इसी कारण उद्योगपति प्रत्येक स्तर की आवश्यकताओं और माँगों को ध्यान में रखकर अपेक्षित उत्पादन करते हैं।

यदि आज मानव सुखी, शांतिपूर्ण और उन्नत जीवन व्यतीत करना चाहता है तो इसके लिए आवश्यक है कि अधिकाधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सद्भावना में वृद्धि हो और विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के पूरक बनें। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि वर्तमान वैश्वीकरण के मूल में विकसित देशों के औद्योगिक प्रतियोगिता की भावना निहित है। इस क्षेत्र में जो देश आगे हैं, वे विकासशील और अविकसित

देशों में अपनी पूँजी लगाने, अपना उद्योग स्थापित करने, वहाँ के कच्चे माल और सस्ते श्रम का उपयोग करके अधिकाधिक लाभ उठाने की होड़ में लगे हैं। इस होड़ में वे देश अधिक सफल तो हो रहे हैं किंतु उनकी इस प्रतियोगिता से उन देशों की प्रगति रुक जाने का भय है जो तकनीकी और प्रौद्योगिकी दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। इससे विकसित और अविकसित देशों के बीच की खाई के और भी बढ़ जाने की आशंका है।

वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में विकासशील और अविकसित देशों को यह सावधानी बरतनी होगी कि वे इस होड़ में विकसित देशों के आर्थिक शोषण के शिकार न बनें तथा इसका उनके औद्योगिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। तभी वैश्वीकरण की भावना समता और सहयोग पर आधारित होगी और समूचे विश्व का विकास तथा कल्याण होगा और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का हमारा स्वप्न साकार होगा।

14. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

मन सांसारिक बंधनों का और उनसे छुटकारा पाने का सबसे प्रबल माध्यम है। कहा भी गया है-

” मन एवं मनुष्याणा करणं बाँध – मोक्षयो:।”

अर्थात मन ही व्यक्ति के बंधन व मोक्ष का कारण है। वस्तुत: मन मानव के व्यक्तित्व का वह ज्ञानात्मक रूप है जिससे उसके सभी कार्य संचालित होते हैं। मन में मनन करने की शक्ति होती है। यह संकल्प-विकल्प का पूँजीभूत रूप है। मननशीलता के कारण ही मनुष्य को चिंतनशील प्राणी की संज्ञा दी गई है। यदि यह मान लिया जाए कि मन से प्रेरित होकर व्यक्ति सारे कार्य करता है तो यह उक्ति सर्वथा सत्य है कि मन के हारने से बड़े-बड़े संकल्प धराशायी हो जाते हैं और जब तक मन की संकल्प शक्ति नहीं टूटती, तब तक व्यक्ति कठिन-से-कठिन कार्य को करने में भी असफल नहीं होता।

फलत: सफलता या असफलता उस कर्म के प्रति व्यक्ति की आसक्ति की मात्रा निर्भर होती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो मन की शक्ति के परिचायक हैं। शिवाजी द्वारा मुगलों पर विजय, गांधी के सत्य और अहिंसा के प्रति अटूट विश्वास से अंग्रेजों का भागना, सरदार पटेल की दृढ़ इच्छा-शक्ति से भारतीय रियासतों का एकीकरण आदि उदाहरण हमारे सामने हैं। गुरु नानक ने भी ‘मन जीते जग जीत’ कहकर मन की संकल्प शक्ति पर प्रकाश डाला है। गीता में भगवान कृष्ण ने दुर्बल अर्जुन को शक्ति का संदेश नहीं दिया, अपितु मन से हारने वाले अर्जुन को मानसिक दृढ़ता का संदेश दिया। महाबली कर्ण भी अंत में मन की दुर्बलता के कारण पराजित हुआ। राष्ट्रकवि दिनकर ने ‘रश्मिरथी’ में मन की अजेय शक्ति का वर्णन किया है-

दो वीरों ने किंतु लिया कर आपस में निपटारा हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण में हारा।

मन की संकल्प शक्ति अद्भुत होती है। मन ही अच्छे-बुरे का निर्णय करता है। मन के निर्णय के अनुसार ही मानव-शरीर कार्य करता है। मनोबल के बिना मनुष्य निर्जीव ढाँचा बनकर रह जाता है। मुसीबतों को देखकर जीवन-यात्रा से क्लांत नहीं होना चाहिए। हमें मन मैं कभी भी निराशा की भावना नहीं लानी चाहिए। हिम्मत के बलबूते पर हम अपने सभी कार्य सिद्ध कर सकते हैं। कहा भी गया है

“हारिए न हिम्मत, बिसारिए न हरिनाम। “

15. मेरे जीवन का लक्ष्य

जीवन एक यात्रा के समान है। जिस प्रकार यात्रा प्रारंभ करने से पहले व्यक्ति अपना गंतव्य स्थान निश्चित करता है, वैसे ही हमें भी अपनी जीवन-यात्रा प्रारंभ करने से पहले अपना कार्य-क्षेत्र निर्धारित कर लेना चाहिए। हर विद्यार्थी को अपने जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य निश्चित कर लेना चाहिए। लक्ष्यहीन जीव स्वच्छंद रूप से सागर में छोड़ी हुई नाव के समान होता है। ऐसी नौका या तो भेंवर में डूब जाती है या चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो जाती है। मैंने भी अपने जीवन में अध्यापक बनने का निश्चय किया है। मैं उस कर्म को श्रेष्ठ समझता हूँ, जिससे व्यक्ति अपना व अपने परिवार का तो कल्याण कर ही सके, साथ ही समाज को भी दिशा-निर्देश दे सके।

अध्यापक का कार्य भी कुछ इसी प्रकार का है। वह सरस्वती के मंदिर का एक ऐसा पुजारी है जो मनुष्य को सच्चा मानव बनाता है। बिना विद्या के मनुष्य बिना सींग और पूँछ के चलता-फिरता पशु है। महादेवी जी का कहना है-‘विकसते मुरझाने को फूल, उदय होता छिपने को चंद” अर्थात फूल मुरझाने के लिए विकसित होता है और चाँद छिपने के लिए, किंतु फूल मुरझाने से पहले अपनी सुगंध का प्रसार करता है और चाँद भी छिपने से पहले अपनी शीतल चाँदनी से संसार को आनंदित करता है। इस तरह में व्यक्ति की योग्यता को तब तक सार्थक नहीं समझता जब तक वह समाज के लिए लाभदायक न हो।

अध्यापक यह कार्य करने की सर्वाधिक क्षमता रखता है। मेरा विश्वास है कि शिक्षा के समुचित विकास के बिना कोई भी नागरिक न अपने अधिकारों को सुरक्षित रख सकता है और न कभी दूसरों के अधिकारों का सम्मान कर सकता है। मैं एक शिक्षक बनकर शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने का प्रयत्न करूंगा। प्रचलित शिक्षा-पद्धति में अनेक कमियाँ हैं। अंग्रेजों का उद्देश्य भारत में सस्ते क्लर्क पैदा करना था।

अत: उन्होंने गुलाम मानसिकता प्रदान करने वाली शिक्षा-व्यवस्था बनाई जो चंद परिवर्तनों को छोड़कर आज भी ज्यों-की-त्यों लागू है। मैं इस क्षेत्र में कुछ परिवर्तन करना चाहूँगा। विद्यालय परिसर के बाहर भी विद्यार्थियों के साथ अत्यंत निकट का संपर्क स्थापित करूंगा और हर विद्यार्थी की योग्यता व रुचि को समझने का प्रयत्न करूंगा।

पढ़ाई के साथ-साथ कला, शिल्प आदि सिखाने का भी भरसक प्रयास करूंगा, जिससे विद्यार्थी केवल नौकरी पर आश्रित न रहे, अपितु वह अन्य क्षेत्रों में भी रोजगारपरक कार्य कर सके। साथ-साथ मैं सदैव शिक्षा, सद्व्यवहार और सहानुभूति द्वारा विद्यार्थियों में श्रेष्ठ भाव उत्पन्न करने का प्रयत्न करूंगा। इस प्रकार अध्यापक ही बच्चों को मानवता और विश्व-बंधुत्व का पाठ पढ़ाता है। इसीलिए कबीर ने गुरु को गोविंद से भी उच्च आसन पर आसीन किया है-

” गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागौं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो बताय।।”

अत: मैं भी सफल और श्रेष्ठ अध्यापक बनकर विद्यार्थियों के मनमंदिर का देवता बनने का सौभाग्य प्राप्त करूंगा।

16. जो तोको काँटा बोवै, ताहि बोउ तू फूल

आमतौर पर व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आता है तो उसके व्यवहार की दो स्थितियाँ होती हैं-पहली में वह अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है तथा दूसरी स्थिति में व्यक्ति असमान व्यवहार करता है। अर्थात बुराई करने वाले के साथ भलाई या भलाई करने वाले के साथ बुराई करता है। हलाँकि बुराई के बदले भलाई करने वाला व्यक्ति महान होता है। सामान्यत: जीवन को देखने-विचारने के दृष्टिकोण इन्हीं व्यवहारों की दृष्टियों से बने हैं।

सज्जनता व दुर्जनता एक-दूसरे की कसौटी हैं। सज्जन की कसौटी दुर्जन है तो पुण्य की कसौटी पाप है। जो व्यक्ति प्रकृति से सज्जन होता है, वह कभी बुरा कार्य नहीं करता। मनुष्य जीवन की सच्ची सार्थकता स्वयं को सत्पथ पर ले जाने में है। वह बुराई छोड़कर अच्छाई को ग्रहण करे और आगे बढ़ता जाए। हमारे समाज में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि मनुष्य बुरों को क्षमा करता है। राम, पांडव, श्री कृष्ण आदि महापुरुषों ने सदैव बुराइयों का विरोध किया। महात्मा बुद्ध ने अपनी जान लेने वाले को भी क्षमा कर दिया।

महात्मा गांधी ने अपने हत्यारे को माफ़ किया। इससे यह सिद्ध होता है कि महान व्यक्ति ही इस विचार का पालन अपने जीवन में कर सकते हैं। महान व्यक्ति लाभ-हानि से प्रेरित होकर कोई काम नहीं करते हैं। जो लोग यह मानते हैं कि मनुष्य के सत्कर्म ही उसके जीवन की सबसे बड़ी पूँजी हैं वे अपने व्यवहार में त्याग, तप, परोपकार को सर्वोच्च स्थान देते हैं। ऐसे लोग यह चिंता नहीं करते कि उन्होंने किससे कैसा व्यवहार पाया और उत्तर में कैसा व्यवहार देना है?

वे अपनी अँगुली काटने वाले को भी क्षमा करके उसके प्रति भलाई करते हैं। ऐसे विचारक अहिंसावादी जीवन-दर्शन को मानकर भक्ति-भाव, परोपकार की स्थापना व्यक्ति-विशेष के लिए ही न करके सबके लिए करते हैं। भलाई और बुराई के साथ एक तथ्य यह भी है कि यदि व्यक्ति दूसरों की भलाई करना नहीं छोड़ता तो बुराई को कभी-न-कभी पराजय का मुँह देखना ही पड़ता है। शक्ति सत्य में है, असत्य में नहीं।

असत्य का फल चमकते हुए रेत की तरह जल का भ्रम पैदा कर सकता है, किंतु वह जल कदापि नहीं होता। इस प्रकार यह सिद्धांत आदर्शवादी रूप से मान्य हो सकता है कि जो हमारे साथ बुराई करे, हम उसके साथ भलाई करें, किंतु यथार्थ की दृष्टि से और आज के युग को देखते हुए यह सिद्धांत व्यावहारिक नहीं है।

17. सबै दिन होत न एक समान

व्यक्ति का जीवन सदैव एक जैसा नहीं रहता। वह कभी सुख का तो कभी दुख का अनुभव करता है। इसका प्रमुख कारण समय की परिवर्तनशीलता है। वस्तुत: मानव-जीवन के सभी दिन एक समान नहीं होते। उनमें परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तन होता रहता है। अत: मनुष्य को न तो गर्व करना चाहिए और न अधिक संतप्त। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी किसी बात के कारण अधिक गर्व करते हैं और अपने सामान्य परिचित व्यक्तियों से कम ही मिलते हैं, फिर कुछ समय व्यतीत होने पर जब उनके गर्व का कारण नष्ट हो जाता है तो उन्हें असली हालत में आना होता है!

‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में मिहिरदेव कहता है-“राजनीति ही मनुष्यों के लिए सब कुछ नहीं है। राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्व और मानव के साथ व्यापक संबंध है।” इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य को मानवता का त्याग नहीं करना चाहिए। वस्तुत: समाज में नित नवीन परिवर्तन देखने को मिलते हैं। इतिहास परिवर्तन का ही परिणाम है। किसी समय में भारत विश्व के संपन्न देशों में से एक था, आज उसकी गिनती गरीब देशों में की जाती है।

प्रगति की दौड़ में हम आज भी कई क्षेत्रों में बहुत आगे हैं तो कई क्षेत्रों में बहुत पीछे। आजादी का दुरुपयोग हो रहा है। समाज के हर क्षेत्र में परिवर्तन दिखाई दे रहा है। सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक क्षेत्र में भारी उथल-पुथल हो रही है। समाज की एकता व सौहाद्रभाव समाप्ति के कगार पर हैं। सामाजिक स्तर गिर रहा है। इस परिवर्तन से हमें निराश नहीं होना चाहिए। समय कभी एक जैसा नहीं रहता। बिना परिवर्तन के व्यक्ति सुख-दुख का अनुभव नहीं कर सकता। परिवर्तन की आशा में ही व्यक्ति कर्मरत रहता है। अत: प्रतिकूल समय में धैर्य बनाए रखना चाहिए। रहीम ने कहा है- .

रहिसन चुप हर्वे बैठिए, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहें बनत न लागे दर।।

बुरे दिनों में व्यक्ति को अधिक-से-अधिक सहनशील बनना चाहिए क्योंकि सहनशीलता से कष्टकारक दिन समाप्त हो जाते हैं। समय बीतने पर कष्ट समाप्त हो जाता है और व्यक्ति के बिगड़े हुए काम बन जाते हैं। यह उक्ति संपन्न व सुखी व्यक्तियों के लिए नसीहत देती है ताकि वे अपने से कमजोर के साथ उपयुक्त व्यवहार करें और साथ ही दुखी व कमजोर व्यक्तियों के लिए धैर्य धारण करने का संदेश देती है। मनुष्य के हाथ में कार्य करना है। वह अपनी इच्छानुसार फल प्राप्त नहीं कर सकता। अत: उसे कार्य करते रहना चाहिए। व्यक्ति अपने जीवन के विषय में कुछ नहीं कह सकता। मनुष्य अभाव में भी कुछ पाने की कल्पना करता हुआ कर्ममय बन सकता है।

18. परनिंदा : मनोरंजन का साधन

प्रशंसा और निंदा करना मनुष्य के स्वभाव में है। जो उसे अच्छा लगता है, उसकी प्रशंसा और जो बुरा लगता है, उसकी निंदा, उसके मुँह से निकल ही जाती है। निंदा एक रहस्यमय कार्य-व्यापार है जिसे हम समाज से छिपाकर करते हैं; दिल खोलकर करते हैं। निंदक बनने के लिए किसी डिग्री या डिप्लोमा की जरूरत नहीं होती। यह तो अभ्यास के द्वारा अपने-आप बढ़ने वाली शक्ति है। इसके लिए सर्वाधिक आवश्यकता है उस शक्ति की जिससे गुणों का हाथी दिखाई न दे और जो दोषों की राई को पहाड़ बना सके। निंदा रस समाज में सबसे व्यापक रस है।

निंदा और प्रशंसा के विषयों में तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि प्रशंसा के विषय कम हैं जबकि निंदा के विषय असंख्य। जिस चीज को आप चाहें, निंदा का विषय बना सकते हैं। भगवान के इस रंगीन जगत से प्रभावित होने वाले बहुत-से होंगे, पर इसे अधूरा बताने वाले दार्शनिकों की भी कमी नहीं है। निंदा करने वाले को तटस्थ भाव से निंदा करनी चाहिए। उसे अच्छे-बुरे का विवेक उठाकर ताक पर धर देना चाहिए।

यदि ऐसा नहीं तो अच्छा और आदर्श निंदक बनना किसी के लिए भी संभव नहीं। अच्छे निंदक बनने का काम भी एक तपस्या है। इसके लिए ‘निंदा की पूरी तकनीक’ जान लेना जरूरी होगा। सबसे पहले यह जानना चाहिए कि जिसकी निंदा की जा रही है और जिसके सामने निंदा की जा रही है, उनके संबंध कैसे हैं, कहीं वह उसका रिश्तेदार तो नहीं। ऐसे मामले में सावधानी से काम लेना चाहिए। इसके अलावा, निंदा के स्थूल रूप की अपेक्षा निंदा का सूक्ष्म रूप ग्रहण करना चाहिए। किसी को

साफ़-साफ़ गालियाँ देने की अपेक्षा ‘किंतु’, ‘परंतु’ में बात करनी चाहिए- वे’? आदमी, देवता हैं, किंतु बेवकूफ हैं। इसके अतिरिक्त, निंदा करते वक्त अपनी बात को विश्वसनीय बनाने के लिए कुछ मुहावरों का प्रयोग करना चाहिए; जैसे-‘ कसम तुम्हारी, झूठ बोल्यूँ तो नरक में जाऊँ’ आदि-आदि। किसी की निंदा किसी के प्रति प्रेम का प्रमाण भी है। भगवान के प्रति प्रेम उसकी स्तुतियाँ करके भी प्रकट किया जा सकता है, रावण या कंस को गालियाँ सुनाकर भी। तटस्थ को भी इसमें मजा आता है। प्रेमी अपनी प्रेमिका की प्रशंसा में सभी ‘रूपसियों’ को पनिहारिन सिद्ध कर देता है और प्रेमिका मान जाती है। परनिंदा कर आनंद अद्भुत होता है। इससे गोस्वामी तुलसीदास भी अछूते नहीं रह पाए हैं। उन्होंने लिखा है—

जन्म सिंधु पुनि बंधू बिस, दिनहि मलिन सकलंक ।
सिय मुख समता पाव किमि, चंद बापुरे रंक।।

निंदा रस मनोरंजन का सस्ता, विश्वसनीय, सुरक्षित व सर्वोत्तम साधन है। आनंद पाने का इससे अचूक नुस्खा ढूँढ़े नहीं मिलेगा। यह रस लोकरंजक भी है, लोकरक्षक भी। यह प्रेम से अधिक विस्तृत, वेदना से अधिक मधुर है। निंदा करने वाला कभी पछताता नहीं है। यह मनुष्य के अहं की ढाल है तो दूसरे के अहं के लिए तलवार।

19. करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान

मानव-जीवन में कर्म की प्रधानता है। कर्म अभ्यास के साथ जुड़ा है। अभ्यास का अर्थ है-किसी काम को करने का निरंतर प्रयत्न। किसी काम को करने से वांछित सफलता नहीं मिलती तो उसे निरंतर प्रयत्न करते रहना चाहिए। काम करते रहने पर भी सफलता न मिलने पर मनुष्य काम करना छोड़ देता है। महापुरुषों ने ऐसी स्थिति में निरंतर काम करने की प्रेरणा दी है-

देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं ।
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं।

निरंतर अभ्यास करने से मूख भी ज्ञानी हो जाता है जैसे पत्थर पर रस्सी के बार-बार आने-जाने से पत्थर पर निशान पड़ जाते हैं। यह कार्य-कुशलता का मूलमंत्र है। शरीर को सुडौल बनाने के लिए निरंतर व्यायाम आवश्यक है। विद्यार्थी को कोई चीज बार-बार याद करनी पड़ती है। कवि भी तभी प्रखर बनता है जब वह अभ्यास करता है। भारतीय काव्यशास्त्र में अभ्यास को प्रतिभा का उत्कर्ष बताया गया है।

अभ्यास से कई लाभ होते हैं। इससे मानव की कार्य-कुशलता बढ़ती है। इससे मनुष्य कार्य की कठिनाइयों के विषय में सिद्धहस्त हो जाता है और पुनरावृत्ति करने पर उसे कठिनाइयाँ कम लगती हैं। इससे ज्ञान में वृद्धि होती है। अभ्यास के प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि अभ्यास व्यक्ति स्वयं करता है या उसके लिए किसी के निर्देश की आवश्यकता होती है। यदि व्यक्ति स्वयं अभ्यास करता है तो उसमें पूर्णता नहीं आ पाती क्योंकि उसे अभ्यास के तरीकों में सिद्धहस्तता प्राप्त नहीं होगी। किसी विशेषज्ञ के निर्देशन में किया गया अभ्यास अधिक लाभदायक होता है।

अभ्यास के द्वारा व्यक्ति ज्ञान की विभिन्न धाराओं का परिचय प्राप्त करता है। यह विशेष प्रकार की आदत का निर्माण कर देता है। यह आदत कई रूपों में काम देती है। अभ्यास के कारण ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ग्लैडस्टोन मंच पर बोल सके। कालिदास की कहानी के बारे में सभी जानते हैं। पं० जवाहरलाल नेहरू को अपने विद्यार्थी-जीवन में भाषण न देने पर जुर्माना देना पड़ा था, परंतु आजादी की लड़ाई में भाषण देने का अभ्यास किया और शीघ्र ही जनता पर छा गए। इस प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए अभ्यास की जरूरत होती है।

अभ्यास मानव-जीवन के लिए वह पारस पत्थर है जिसका स्पर्श पाकर लोहा भी सोना हो जाता है। यह बिल्कुल सही है कि जड़ बुद्ध वाला व्यक्ति भी अभ्यास से सीख सकता है। उसकी अज्ञानता समाप्त हो जाती है। सफलता के लिए अभ्यास नितांत आवश्यक है। ठीक ही कहा गया है

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं।।

2o. परोपकार का महत्व
अथवा
परहित सरिस धर्म नहिं भाई

‘ परहित सरिस धर्म नहीं भाई।’ ‘ अथवा, अपने लिए जिए तो क्या जिए। ‘

परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है। परोपकार की भावना प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है। सूर्य, चंद्र, वायु नि:स्वार्थ भाव से संसार की सेवा में लीन हैं। नदियाँ कभी अपना जल नहीं पीतीं। वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते। बादल भी दूसरों की भलाई के लिए अपने अस्तित्व का बलिदान करते हैं। मैथिलीशरण गुप्त भी कहते हैं-

निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी।
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी।।

मनुष्य धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। इसमें परोपकार की भावना बहुत पुराने समय से चली आ रही है। शिव, दधीचि, कर्ण, महाराजा हरिश्चंद्र आदि को परोपकार के कारण ही याद किया जाता है। महर्षि दयानंद का उदाहरण किसी से छिपा नहीं है, परंतु आज इस भावना में बदलाव आ गया है। आज जब हम किसी व्यक्ति पर उपकार करना चाहते हैं या करते हैं तो हम उसमें स्वार्थ देखते हैं। दूसरे, हम परोपकार करने के बहाने दूसरे को परजीवी बना रहे होते हैं।

परोपकार की भावना का संबंध समाज से है, समूचे देश से है। गांधी जी ने परोपकार में अपना पूरा जीवन लगा दिया। आचार्य भावे भी हर समय परोपकार में लगे रहते थे। ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन परोपकार के लिए समर्पित कर दिया। एक अकेला व्यक्ति परोपकार कर सकता है। किसी एक को परोपकार करते देखकर समाज के दूसरे लोग साथ आकर जुड़ जाते हैं और एक संगठन बन जाता है।

परोपकार को आज हम समाज-सेवा या समाज-कल्याण के नामों से पुकारते हैं। परोपकार के अंतर्गत वैयक्तिक सेवा-कार्य व्यक्ति से संस्था में निवास तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके समाज से पूर्ण रूप से समायोजन तक चलाना चाहिए। चूँकि ये संस्थाएँ समस्याग्रस्त व्यक्ति का पुनर्वास करती हैं, अत: प्रारंभ से लेकर जब तक व्यक्ति के समाज से, कार्यकर्ता से और स्वयं से सामान्य व्यक्ति के रूप में स्वीकृति न मिल जाए, व्यक्ति को ये सेवाएँ प्रदान की जानी चाहिए।

वैयक्तिक सेवा-कार्य समाज-सेवा की एक ऐसी विधि है जिसमें समस्याग्रस्त व्यक्ति की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक व आर्थिक समस्याओं का उद्घाटन करके समाज के साथ समायोजन करने में उसकी सहायता की जाती है। परहित के लिए हमें पुरानी परंपराओं से प्रेरणा लेनी होगी तभी परहित किया जा सकता है। हमें स्वार्थ से हटकर कार्य करना चाहिए। भारतीय संस्कृति में परोपकार की भावना इस प्रकार व्यक्त की गई है-

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु , मा कश्चिद दुःख भाग भवेत्।।

21. चरित्र : सर्वश्रेष्ठ धन

मनुष्य जीवनपर्यत जिस तत्व की रक्षा करने के लिए चिंतित रहता है-वह है उसका चरित्र। चरित्र के रूप में हम मनुष्य के संपूर्ण कार्यकलाप व आचरण को शामिल करते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य जो कुछ करता है, उससे उसका चरित्र बनता है। चरित्र की महत्ता का वर्णन इस कथन स्पष्ट हो जाता है – “If wealth is lost, nothing is lost, if health is lost, something is lost, if character is lost, everything is lost.” चरित्र के नष्ट होने से धन, सत्ता, स्वास्थ्य का कोई महत्व नहीं रह जाता। सफल मानव वह है जो भयंकर बाधाओं में भी अपने जीवन-मूल्यों को नहीं छोड़ता और जीवन रूपी नैया को पार लगाता है।

वह दुनिया के आकर्षणों से दिग्भ्रमित नहीं होता, विधाता के विधान से नहीं घबराता। ऐसे मनुष्य संपूर्ण मानव-जाति के लिए प्रकाश-स्तंभ का कार्य करते हैं। चरित्र-शक्ति से ही मानव-जीवन सफल बनता है। यह शक्ति मनुष्य को आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, शौर्य, कार्यचातुर्य आदि की धात्री है। इसी के कारण मनुष्य निभीक होकर कार्य करता है। इस शक्ति से निर्मित व्यक्ति आतंक व भय से नहीं घबराता क्योंकि इस शक्ति के सम्मुख विरोधी की पाशविक शक्ति भी झुक जाती है।

महात्मा गांधी, महात्मा बुद्ध, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि की चारित्रिक शक्ति से विरोधियों को परास्त होना पड़ा था। हर मानव-जीवन के आदर्श के अनुसार अपने चरित्र का संगठन करता है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसे कदम-कदम पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है। चरित्र के बिना वह आदर्श जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। अत: चरित्र-शक्ति की महती आवश्यकता है। इसमें वह शक्ति विद्यमान है जो विद्या, बुद्ध और संपत्ति में नहीं। हलाँकि कुछ लोग चरित्र से तात्पर्य कामपरक आचरण की पवित्रता से लेते हैं। यह धारणा पूर्णतया सही नहीं है।

कामपरक आचरण चरित्र का अंग है, साथ ही चरित्र में गुण व कार्य-क्षमता का भी समावेश है। चोरी करने वाला, शराब पीने वाला, कामचोर, रिश्वतखोर आदि व्यक्ति कामपरक दृष्टि से अच्छा होने के बावजूद चरित्रवान नहीं कहे जा सकते। मन और तन की पवित्रता के साथ कर्मपरक शुद्धता भी चरित्र का अंग होती है। यदि कोई व्यक्ति देशद्रोह करता है तो वह सबसे भ्रष्ट चरित्र का होता है।

समाज की सेवा, परोपकार, गरीब व्यक्तियों की सहायता आदि सभी कार्य चरित्र के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार चरित्र का रूप व्यापक है। यह व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक जीवन को अपने में समाहित करता है। मानव-जीवन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने चरित्र को ऊँचा बनाए तथा उसके आधार पर आने वाले व्यक्तियों को भी शिक्षा दे। चरित्रवान व्यक्तियों के कारण ही समाज व राष्ट्र का चरित्र बनता है।

22. भारतीय समाज में अंधविश्वास

जीवन को व्यवस्थित करने के लिए मानव ने नियमों की संकल्पना की जिन्हें ‘धर्म’ की संज्ञा दी गई। इन नियमों का उद्देश्य मानव-जीवन को सुखी, संपन्न व व्यवस्थित बनाना था। समय बदलने के साथ-साथ कुछ नियम अप्रासंगिक हो गए और वे अंधविश्वास का रूप धारण करने लगे। आधुनिक युग में ये अंधविश्वास प्रगति में बाधक सिद्ध हो रहे हैं।

भारतीय समाज के अनेक विश्वास जीवन की गतिशीलता के साथ न चलने के कारण पंगु हो गए हैं। इन अंधविश्वासों में धर्म की रूढ़िबद्धता, आभूषण-प्रेम, जादू-टोने में विश्वास, देवी-देवताओं के प्रति अबौद्धक श्रद्धा आदि सामाजिक कुरीतियाँ हैं। ये कुरीतियाँ आज देश की प्रगति में बाधक सिद्ध हो रही हैं। उदाहरणस्वरूप हमारे धर्म में कर्म के अनुसार जाति-प्रथा का विधान किया गया, परंतु बाद में उसे जन्म के आधार पर मान लिया गया। आज उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो गई है, परंतु आरक्षण, जातिगत श्रेष्ठता के भाव संघर्ष का कारण बने हुए हैं। इसी तरह मुसलमानों के आगमन से देश में छुआछूत की भावना को बढ़ावा मिला।

युद्धों में गिरफ़्तार लोगों को मुसलमानों के हाथ का खाना पड़ता था, फलत: हिंदू समाज उन्हें बहिष्कृत कर देता था या उन्हें अस्पृश्य मान लिया जाता था। उनके साथ भोजन करना, उठना-बैठना आदि तक निषेध कर दिया गया। इससे समाज खोखला हुआ। इसी प्रकार भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग जादू-टोने में विश्वास रखता है। हालाँकि मीडिया के प्रसार व बौद्धिकता बढ़ने से जादू-टोने का जाल कम होने लगा है। फिर भी यदा-कदा नरबलि, सती-प्रथा आदि की घटनाएँ प्रकाश में आती ही रहती हैं। इसके अतिरिक्त समाज में अनेक तरह के अपशकुन अब भी प्रचलित हैं, जैसे बिल्ली द्वारा रास्ता काटा जाना, कोई काम शुरू करते समय किसी को छींक आना, पीछे से आवाज देना, चलते हुए अँधेरा होना आदि।

कई लोग इनके कारण अपने महत्वपूर्ण काम तक रोक देते हैं। हमारे समाज का सबसे बड़ा अंधविश्वास समग्र रूप में परंपराओं के प्रति अंधभक्ति है। आज भी हम अनेक अव्यावहारिक बातों से जुड़े हुए हैं। फलित ज्योतिष विद्या के नकली धनी इस प्रकार के विश्वास की आड़ में अपना पेट भरते हैं। लड़की के जन्म को अशुभ मानना, विवाह में सामथ्र्य से अधिक व्यय आदि भी इन्हीं अंधविश्वासों की उपज है। अब तो धर्मगुरुओं की एक ऐसी ‘जमात’ तैयार हो चुकी है जो आस्था के नाम पर जनता को भ्रमित कर रहे हैं। मीडिया भी इसमें पूरे मनोयोग से सहयोग कर रही है।

आवश्यकता इस बात की है कि धर्म के वास्तविक रूप को समझकर आचरण करें और अपनी प्रगति करें। समाज की चाहिए कि नए जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चले और अंध परंपराओं को सदा के लिए दफ़न कर दे।

23. परीक्षा की तैयारी

परीक्षा प्रत्येक प्रकार की शिक्षा के लिए अनिवार्य है। बिना परीक्षण के कोई वस्तु प्रयोग में नहीं लाई जाती अथवा वस्तु का महत्व नहीं जाना जा सकता और न ही उसका परिणाम जाना जा सकता है। बिना परिणाम के उसकी लाभ-हानि नहीं निकाली जा सकती। इसलिए वस्तु को प्रयोग में लाने से पूर्व परीक्षण किया जाता है। यही बात प्रत्येक परीक्षा पर लागू होती है। परीक्षा के बिना शिक्षा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता और न स्तर ज्ञात किया जा सकता है।

परीक्षा को बहुत कठिन मानकर विद्यार्थी भयभीत होता है। वह सोचता है कि परीक्षा आ रही है, अब क्या होगा? पर यह बात प्रत्येक विद्यार्थी पर लागू नहीं होती। जो विद्यार्थी प्रारंभ से ही सुचारु रूप से अध्ययन करते हैं, उनके सामने यह समस्या नहीं आती। परीक्षा समस्या उन विद्यार्थियों के लिए है, जिनका मन कहीं और होता है तथा आँखें किताब पर टिकी होती हैं। ऐसे विद्यार्थी को पाठ किस प्रकार याद हो सकता है? परीक्षा की तैयारी तो नए सत्र के आरंभ से ही योजना बनाकर शुरू कर देनी चाहिए।

हर कक्षा का पाठ्यक्रम कक्षा के स्तर के अनुसार बोर्ड या विश्वविद्यालय बनाता है। इसको आधार बनाकर शिक्षक विद्यार्थी को परीक्षा हेतु शिक्षा देता है। विद्यार्थी को चाहिए कि वह हर रोज अपने कक्षा-कार्य व गृहकार्य को याद करता रहे। ज्यों-ज्यों पाठ्यक्रम पढ़ाया जाए, अगला पाठ याद करने के साथ-साथ पिछले पाठों की दोहराई भी नियमित रूप से करता रहे। कक्षा में पाठ को ध्यानपूर्वक सुनें, घर पर इसका अध्ययन करके स्मरण करें।

विद्यार्थी को चाहिए कि वह प्रतिदिन प्रात:काल उठकर पूर्व पढ़ाए गए पाठ का स्मरण करे और पढ़ाए जाने वाला पाठ पढ़कर जाए। इस प्रकार के अध्ययन करने वाले विद्यार्थी को पढ़ाया गया पाठ शीघ्र समझ में आता है। समय-समय पर लिखकर भी इसका अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार के अभ्यास से परीक्षा में लिखने की तैयारी हो जाती है। लिखते समय प्रश्न संतुलन का भी ध्यान रखना चाहिए जिससे समय से सभी प्रश्नों का समुचित उत्तर दिया जा सके।

‘ज्यों-ज्यों भीजें कामरी, त्यों-त्यों भारी होय ‘अर्थात जो छात्र ऐसा नहीं करते, वे अध्ययन सुचारु रूप से नहीं करते उन्हें धीरे-धीरे पाठ्यक्रम पहाड़-सा लगने लगता है। वे असफल हो जाते हैं और अपना जीवन कष्ट में डाल देते हैं। अत: विद्यार्थी को चाहिए कि वे नियमबद्ध होकर परीक्षा की तैयारी करें। परीक्षा किसी भी प्रकार की हो, उससे कभी भयभीत नहीं होना चाहिए।

24. नारी शिक्षा

शिक्षा के बिना व्यक्ति का जीवन अधूरा होता है। किसी ने ठीक कहा है-‘बिना पढ़े नर पशु कहलावै’ अक्षरश: सत्य है। अच्छाई- बुराई का निर्णय शिक्षित व्यक्ति ही ले पाता है। शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य से हमारा तात्पर्य पुरुष एवं नारी दोनों से है। विशेष रूप से समाज में नारी जगत की अनदेखी प्रारंभ से ही की जा रही है। इसका कारण उनकी अशिक्षा रही है। उन्हें घर की चारदीवारी में बंद करके मात्र सेविका अथवा मनोरंजन का साधन समझा जाता रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि नारी हर क्षेत्र में पिछड़ गई। नारी सबको जन्म देने वाली है।

अत: उस पर सब तरह के प्रतिबंध लगाना पूर्णतया अनुचित है। प्रतिबंध लगाने वाले यह भूल जाते हैं कि बालक पर नारी के संस्कारों का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। नारी के गुणों का समावेश किसी-न-किसी रूप में बच्चे में होता है। फलत: परिवार का संपूर्ण विकास नारी पर निर्भर होता है। अत: नारी का शिक्षित होना अति आवश्यक है। हालाँकि नारी को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार वैदिक काल में था। अनेक सूक्तों में महिला रचनाकारों का नाम मिलता है। वेद व पुराणों में स्पष्ट कहा गया है कि नारी के बिना पुरुष कोई भी कार्य संपन्न नहीं कर सकता।

महाभारत, रामायण आदि महाकाव्यों से पता चलता है कि नारी ने विजय प्राप्त करके धर्म की स्थापना में सहयोग दिया है। फिर भी मध्यकाल में नारियों पर नाना प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए। हालाँकि आजादी के संघर्ष में भी नारियों ने कंधे-से-कंधा मिलाकर पुरुषों का साथ दिया। आज नारी जाग्रत हो चुकी है। नारी जाति की जागृति देखकर ही पुरुष को विवश होकर उसके लिए शिक्षा के द्वार खोलने पड़ रहे हैं। आज सरकार भी नारी-शिक्षा के लिए प्रयासरत है। सरकार अपने स्तर पर गाँव-गाँव में स्कूलों व कॉलेजों की स्थापना कर रही है तथा नारी-शिक्षा को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं को अनुदान देती है। आज मुक्त कंठ से कहा जा रहा है

‘पढ़ी – लिखी लड़की, रोशनी घर की। ‘

नारी-शिक्षा का ही परिणाम है कि आज प्रत्येक विभाग में नारी को स्थान मिल रहा है और वे उत्तम कार्य करके अपनी कार्यकुशलता का परिचय दे रही हैं। शिक्षित लड़कियाँ घर की जिम्मेदारियों का निर्वाह कर रही हैं। इससे दहेज-समस्या, पर्दा-प्रथा, शिशुहत्या आदि कुप्रथाओं में भारी कमी आई है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि नारियों को साथ लिए बिना देश का पूर्ण विकास संभव नहीं। इस विकास में एक कमी यह है कि नारी अभी भी पूरे देश में समग्र रूप से शिक्षित नहीं हो रही है। क्षेत्रों में शहरों की तुलना में काफी पिछड़ापन है। अत: नगरों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में नारियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

25. समाज-सुधारक : कबीर
अथवा
क्रांतिदशी कवि कबीर

कबीर निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत थे। पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने कहा भी है-

‘ मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही नहिं हाथ।’

फिर भी कबीरदास की पैनी दृष्टि उनकी अनौपचारिक शिक्षा ग्रहण करने की पुष्टि करती है। कबीरदास ईश्वर के निराकार रूप के उपासक थे। उनका निराकार ईश्वर समस्त शक्तियों से युक्त तथा सर्वव्यापक है। उनका कहना है कि हिंदुओं का राम और मुसलमानों का रहीम उसी के रूप हैं। यह ईश्वर कण-कण तथा हर साँसों की साँस में समाया हुआ है।

इन्होंने ईश्वर के अनेक नाम बताए हैं-राम, हरि, निरंजन आदि; परंतु इनके राम दशरथपुत्र-राम नहीं हैं। इनके राम को पाने के लिए किसी ढोंग की जरूरत नहीं है। इसके लिए तिलक लगाने, माला जपने या तीर्थ-यात्रा करने की भी आवश्यकता नहीं है। उसे पाने के लिए अंदर की सच्चाई, एकाग्रता, अनन्यता की आवश्यकता है। कबीर ने भक्ति के आडंबर पर प्रहार करते हुए कहा है-

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।
कर का मन का छोड़ के, मन का मनका फेर।

कबीर की भक्ति-साधना के मूल में प्रेम है। भक्ति का सार ही प्रेम है। उन्होंने परमात्मा की आराधना पति के रूप में की है। प्रियतम की राह देखते-देखते आत्मा जब व्याकुल हो जाती है तब प्रियतमा के प्रिय से मिलन के बाद ही साधना पूर्ण होती है। कबीरदास का लोकपक्ष सर्वाधिक प्रबल है। कबीरदास ने सामाजिक सुधारों पर बल दिया। उन्होंने ऊँच-नीच का भेदभाव मिटाने के लिए सबको समान स्तर पर समझने का प्रचार किया।

कबीर के लोकपक्ष के दो रूप हैं-व्यक्ति पक्ष और समाज पक्ष। इन दोनों पक्षों की दृष्टि से कबीर ने व्यक्ति के अहंकार को दूर करने का उपदेश दिया। अहंकार के कारण व्यक्ति स्वयं को दूसरे से बड़ा समझता है। इसी कारण सामाजिक संघर्ष बढ़ता है। कबीर ने धर्म के संकुचित व सांप्रदायिक रूप का विरोध करके एक लोकधर्म की स्थापना पर बल दिया। उन्होंने समाज के सभी गतिरोधों को दूर करने की बात कही है। सबसे बड़ा गतिरोध जाति-पाँति का था, अत: कबीर ने जाति का विरोध किया। उनका मानना था कि जाति का निर्माण ईश्वर ने नहीं, मनुष्य ने किया है।

कुल मिलाकर कबीरदास ने अपनी सधुक्कड़ी भाषा में जिस काव्य की रचना की उसका भाव पक्ष इतना प्रखर है कि भाषा उसके सामने लाचार दिखने लगती है। उन्होंने ब्रज, अवधी, राजस्थानी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है। उनके काव्य में गीत तत्व की प्रमुखता है। निष्कर्ष रूप से कबीर का काव्य सामाजिक कुरीतियों पर कठोर प्रहार करता है।

26. हिंदी साहित्य और स्वतंत्रता संघर्ष

किसी भी देश की उन्नति व अवनति उस देश के साहित्य पर ही अवलंबित है। कवि रवि से भी अधिक प्रकाश करता है। वह निजीव जाति में प्राण-प्रतिष्ठा करता है तथा निराश हृदयों में आशा का संचार करता है। हिंदी जगत के कवियों ने सदैव भारतवासियों को जगाया। स्वतंत्रता की पहली लड़ाई सन 1857 में लड़ी गई। इस लड़ाई में मिली असफलता के कारणों का कवियों ने विश्लेषण किया। भारतेंदु ने राष्ट्रीयता की चाँदनी बिखराई। उन्होंने भारत का अतीत व वर्तमान सुनाया-

रोवहु सब मिलिकै भारत भाहूँ।
हा! हा! मारत दुर्दशा न देखी जाई।

कवि की वाणी से सुषुप्त संस्कार जागे और 1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। इनके तुरंत बाद प्रेमधन, श्रीधर पाठक आदि ने भारतभूमि का गौरवगान किया। भारतेंदु युग के बाद देश के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में परिवर्तन आया। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ाया। इस युग में राष्ट्रीयता का रूप निखरा। कवियों ने स्वदेश-प्रेम की व्यंजना बलिदान की भावना से व्यक्त की। देश के सौंदर्य, उसके अतीत गौरव व साधन-संपन्नता के गीत गाए गए। प्रसाद के गीतों में यही अभिव्यंजना है-

अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज की मिलता एक सहारा।
मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ में भारत की दशा का वर्णन किया है-

भारत तुम्हारा आज यह कैसा भयंकर वेष है।
और सब निःशेष केवल नाम ती अवशेष है।
राम, हा हा कृष्ण हा हा नाथ, हा रक्षा करो।
मनुजत्व दो हमको दयामय, दुख दुर्बलता हरो।

इस प्रकार गुप्त जी ने राष्ट्र को सावधान किया। इस प्रकार कवि ही परतंत्रता की कठोर बेड़ी में जकड़े हुए मूल भारतीयों के कवि वकील थे माखनलाल चुतर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आदि कवियों ने स्वतंत्रता आंदोलन को वाणी दी। सुभद्राकुमारी चौहान ने हुंकार कर कहा-

सोलह सहस्र असहयोगिनियो, दहला दें ब्रहमाड सखी।
भारत-लक्ष्मी लौटाने को, रच दें लंकाकांड सखी।

इससे भारत के कण-कण से स्वतंत्रता की ध्वनि निकलने लगी। देश के नेताओं ने बलिदानों के गीत सुने और प्राणों की बाजी लगाने को कटिबद्ध हो गए। बंदी बने देश-प्रेमी ने रात्रि में कोयल का स्वर सुना। उसे उसकी स्वतंत्रता तथा अपनी परतंत्रता का मान होने लगा और वह गा उठा-

तेरे गीत कहावें वाह, रोना भी है मेरा गुनाह।

कबि बालकृष्ण शर्मा ने आहवान किया-

कबि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल – पुथल मच जाए।

भारतीयों ने वह तान सुनी और वे अंग्रेजों के खिलाफ़ खड़े हो गए। इस प्रकार कवियों की शंख-ध्वनि से उत्तेजित होकर गांधी जी के नेतृत्व में देश के कोने-कोने में स्वाधीनता की लहर फैल गई और फिर 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया। निष्कर्षत: यह भारतीय कवियों की ओजपूर्ण वाणी ही थी जिसने सोई हुई मानव-जाति को जगाया; जिसने प्राचीन गौरव का बखान किया; जिसने युवाओं में बलिदान का उत्साह जगाया; जिसने कुछ करने और मिटने की राह दिखाई।

27. सहशिक्षा की प्रासंगिकता

सहशिक्षा आधुनिक युग की देन है। आज का विचारक स्त्री-पुरुष के बीच प्राकृतिक भेद तो स्वीकार करता है, परंतु उस भेद को इतना गहरा नहीं मानता कि एक पक्ष को चारदीवारी में बंद कर दे तथा दूसरे को संपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारियाँ सौंपकर निश्चित हो जाए। पुराने जमाने में नारी को शिक्षा केवल धार्मिक स्तर की दी जाती थी, परंतु समय बदलने के साथ समाज में भी परिवर्तन आया। नारी और पुरुष के बीच धीरे-धीरे एक सहयोग भावना का जन्म हुआ।

आज सहशिक्षा एक विद्यमान सत्य है, इसलिए उसकी आवश्यकता और अनावश्यकता पर विचार करने का प्रश्न उतना चिंतन का नहीं है, जितना पहले कभी था। आज यह प्रश्न है कि-इस सहशिक्षा से वे उद्देश्य पूर्ण हुए या नहीं जिसके लिए उसे शुरू किया गया था? नि:संदेह सहशिक्षा ने हमारे मनों को उदारता दी है। लड़के-लड़कियाँ आपस में बोलने, आने-जाने व विचारने में अब नहीं शरमाते। उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। दूसरी तरफ लड़कों के भीतर नारी के प्रति कौतूहल भी प्राय: शांत हुआ है। उनके अंदर दंभ का विस्फोटक भी बुझ-सा गया है।

सहशिक्षा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में भी बदलाव आया है। अब लड़के-लड़की को साथ देखकर ‘हाय-तौबा’ नहीं मचती। इसके अतिरिक्त, कक्षा के माहौल में सुधार हुआ है। लड़के व लड़कियों को वेश-भूषा व वाणी पर संयम रखना पड़ता है। उन्हें अपमानित होने का भय हमेशा रहता है। यह आत्म-सजगता उन्हें जीने की मर्यादा का पहला पाठ पढ़ाती है।

अध्यापक को लड़के-लड़कियों को पढ़ाने के लिए एक संयम का निर्वाह करना पड़ता है ताकि कक्षा की मर्यादा न टूटे। यह संयम विषय की रोचकता को कम नहीं करता, बल्कि उसे और उपयोगी व सरल बना देता है। सहशिक्षा के कारण ही नारी हर तरह के कर्मक्षेत्र में कार्य करने में सक्षम हो सकी है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सहशिक्षा के दुष्परिणाम नहीं हैं। सहशिक्षा ने लड़कों व लड़कियों में आत्मप्रदर्शन की भावना भर दी है। प्राकृतिक रूप से दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, परंतु वे आकर्षण जगाने के लिए अप्राकृतिक उपकरणों का सहारा लेते हैं।

सहशिक्षा का सबसे बड़ा नुकसान है-उत्तरदायित्व का। समाज में पुरुष व नारी के उत्तरदायित्व अलग-अलग निर्धारित थे। लड़कियों को घर व्यवस्थित करना होता था तो पुरुष को बाहय संघर्ष झेलना होता था। दोनों के उद्देश्य अलग थे, परंतु सहशिक्षा द्विारा इस निर्धारित उत्तरदायित्व का क्रमश: क्षरण हो रहा है। नारी का घर से बाहर निकल जाना आर्थिक स्वतंत्रता की दृष्टि से कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, सामाजिक संतुलन की दृष्टि से घातक सिद्ध हो रहा है।

निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि सहशिक्षा तभी प्रभावी हो सकती है जब हम पहले शिक्षा के सामान्य उद्देश्य में परिवर्तन करें। नारी के कोमल गुणों को सुरक्षित रखना होगा, अन्यथा समाज बिखर जाएगा। सहशिक्षा जीवन को विकास तभी देगी जब शिक्षा का उद्देश्य होगा-विवेक का विकास और राष्ट्रीय भावना की समृद्धि। जब तक शिक्षा ज्ञान और कर्तव्य को नहीं जोड़ती, तब तक वह शिक्षा नहीं हो सकती।

28. राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता

वह राष्ट्र जिसमें हम बड़े होते हैं, शिक्षा पाते हैं और साँस लेते हैं-हमारा अपना राष्ट्र कहलाता है और उसकी सीमाओं में जन्म लेने वाले व्यक्तियों का धर्म, जाति, भाषा या संप्रदाय कुछ भी हो, आपस में स्नेह होना स्वाभाविक है। राष्ट्र के लिए जीना और काम करना, उसकी स्वतंत्रता के विकास के लिए काम करने की भावना ‘राष्ट्रीयता’ कहलाती है। किसी विशेष प्रकार की संस्कृति और धर्म को दूसरे पर आरोपित करने की भावना या धर्म अथवा संस्कृति के आधार पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने की क्रिया सांप्रदायिकता है।

सांप्रदायिकता समाज में वैमनस्थ पैदा करती है और सामाजिक या राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुँचाती है। सांप्रदायिकता राष्ट्रीयता के लिए बाधक है क्योंकि राष्ट्रीयता की अनिवार्य शर्त है-देश की प्राथमिकता के लिए अपने ‘स्व’ को मिटाना। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचंद्र बोस आदि के जीवन से पता चलता है कि राष्ट्रीयता की भावना के कारण उन्हें अनगिनत कष्ट उठाने पड़े। व्यक्ति को निजी अस्तित्व कायम रखने के लिए सभी पारस्परिक सीमाओं की बाधाओं को भुलाकर कार्य करना चाहिए तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँ ‘राष्ट्रीय’ कहलाने की भागीदार बन सकती हैं।

जबकि सांप्रदायिकता के फलस्वरूप एक संप्रदाय या धर्म वाला दूसरे संप्रदाय या धर्म की न केवल निंदा करता है, अपितु अपने धर्म को बेहतर सिद्ध करने के लिए दूसरे के विरुद्ध दलबंदी भी करता है। वह दूसरे मतावलंबी को नेस्तनाबूत करने का प्रयत्न करता है। दूसरे शब्दों में, एक धर्म व धर्मनीति जब मदांधता का वरण कर लेती है, तब वह ‘सांप्रदायिकता’ कहलाने लगती है। उसमें दूसरे धर्मों व जीवनदर्शनों की मान्यताओं के प्रति असहिष्णुता तीव्रतर होती है। इसका प्रभाव इतना भयंकर होता है कि हम मानव-धर्म भूलकर मानव-कृत धर्म को सर्वोपरि मानने लगते हैं।

बदला लेने की भावना को कभी भी श्रेयस्कर धर्म या पंथ नहीं कहा जा सकता। समान धर्मावलंबियों का दल बनाकर मारकाट आरंभ कर देना किसी भी धर्म का आदेश या सीख नहीं है। इस प्रकार ‘राष्ट्रीयता’ और ‘सांप्रदायिकता’ मानव-दर्शन के विपरीत मार्गी दो पक्ष हैं। किसी सांप्रदायिक भावना से संचालित व्यक्ति राष्ट्रीयता का समर्थक नहीं हो सकता। इसी प्रकार, राष्ट्रीयता का समर्थक कभी भी सांप्रदायिक नहीं हो सकता। वह भारत में रहने वाले सभी धर्मों, भाषाओं, जातियों आदि को समान दृष्टि से देखेगा। गांधी जी की प्रार्थना सभा में सभी धर्मों के अवतारों का नाम लेकर प्रार्थना की जाती थी। अकबर इलाहाबादी का भी कहना था-

मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।
हिंदी हैं हम, वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा।

आधुनिक युग में भी प्रचार तंत्र के कारण व्यक्ति सांप्रदायिक हो उठता है। कुछ ही लोग विवेकी होते हैं जिन पर संप्रदाय प्रभाव नहीं डाल पाता। धार्मिक आधार पर बने पाकिस्तान में आज भी भयंकर मारकाट मची रहती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राष्ट्रीयता से व्यक्ति का समग्र कल्याण होता है, जबकि सांप्रदायिकता से फूट और विघटनकारी तत्वों का जन्म होता है। राष्ट्रीयता में अहिंसा समाविष्ट होती है जबकि सांप्रदायिकता में हिंसा और संकुचित दृष्टि जैसे प्राणघाती तत्व निहित होते हैं।

29. विज्ञापन

जब समाचार-पत्रों में सर्वसाधारण के लिए कोई सूचना प्रकाशित की जाती है तो उसको ‘विज्ञापन” कहते हैं। यह सूचना नौकरियों से संबंधित हो सकती है, खाली मकान को किराये पर उठाने के संबंध में हो सकती है या किसी औषधि के प्रचार से संबंधित हो सकती है। कुछ लोग विज्ञापन के आलोचक हैं। वे इसे निरर्थक मानते हैं। उनका मानना है कि यदि कोई वस्तु यथार्थ रूप में अच्छी है तो वह बिना किसी विज्ञापन के ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो जाएगी, जबकि खराब वस्तुएँ विज्ञापन की सहायता से प्रचलित होने के बावजूद अधिक दिनों तक टिक नहीं पाएँगी, परंतु लोगों की यह सोच गलत है, क्योंकि आज के युग में उत्पादों की संख्या दिनपर-दिन बढ़ती जा रही है, ऐसे में विज्ञापनों का होना अनिवार्य हो जाता है।

किसी अच्छी वस्तु की वास्तविकता से परिचय पाना आज के विशाल संसार में विज्ञापन के बिना नितांत असंभव है। विज्ञापन ही वह शक्तिशाली माध्यम है जो उत्पादक और ‘उपभोक्ता’ दोनों को जोड़ने का कार्य करता है। वह उत्पाद को उपभोक्ता के संपर्क में लाता है तथा माँग और पूर्ति में संतुलन स्थापित करने का प्रयत्न करता है। पुराने जमाने में विज्ञापन मौखिक तरीके से होता था, जैसे-काबुल का मेवा, कश्मीर की जरी का काम, दक्षिण भारत के मसाले आदि।

उस समय आवश्यकता भी कम होती थी तथा लोग किसी वस्तु के अभाव की तीव्रता का अनुभव नहीं करते थे। आज समय तेजी का है। संचार क्रांति ने जिंदगी को ‘स्पीड’ दे दी है और मनुष्य की आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही हैं। लोग जिस वस्तु की खोज में रहते हैं, विज्ञापन द्वारा ही उसे कम खर्च में सुविधा के साथ प्राप्त कर लेते हैं, यही विज्ञापन की पूर्ण सार्थकता है। विज्ञापन से व्यक्ति अपने व्यापार व व्यवसाय को फैला सकता है। अत: आधुनिक संसार विज्ञापन का संसार है। यदि हम किसी समाचार-पत्र या पत्रिका के पन्ने उलटते हैं तो विभिन्न प्रकार के विज्ञापन हमारा स्वागत करते हुए दिखाई देते हैं।

विभिन्न मुद्राओं के चित्र, भावपूर्ण शैली, लालसा व कौतूहल पैदा करने वाले विज्ञापनों के ढंग हमारा मन मोह लेते हैं। घर से निकलते ही सड़कों पर होर्डिंग्स आपको रुकने पर विवश कर देते हैं तो घर के अंदर टी०वी० हर समय आपको कोई-न-कोई उत्पाद दिखाता रहता है। यह विज्ञापन का संसार इतना आकर्षण पैदा करता है कि संयमी व चतुर भी इससे बच नहीं पाता। आज विज्ञापन एक व्यापार बन गया है। विज्ञापन द्वारा व्यापार बढ़ता है। किसी वस्तु की माँग बढ़ती है। विज्ञापन के सिर्फ़ लाभ ही हों, ऐसा नहीं है। इसके नुकसान भी हैं।

विज्ञापन व्यवसाय के विश्वास को डगमगा देता है। धूर्तता के कारण वस्तु या सेवा के हानिकारक पक्षों को नहीं दिखाया जाता। कंपनियाँ बिक्री बढ़ाने के चक्कर में अश्लीलता की तमाम हदें पार कर जाती हैं। सरकार को चाहिए कि ऐसे विज्ञापनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए तथा दोषियों को सजा दे। भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ़ भी सख्त कार्यवाही होनी चाहिए।

30. खेलों का महत्व

खेल-कूद में रुचि बढ़ना देश के स्वास्थ्य का प्रतीक है, देशवासियों की समृद्धि का सूचक है। आजकल खेलों के प्रति दीवानगी बढ़ती जा रही है। इस दीवानगी को देखते हुए यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या यह भी स्वस्थ परंपरा का प्रतीक है? इसमें कोई दो राय नहीं कि पोषक भोजन के बिना मानव स्वस्थ नहीं रह सकता। यह भी उतना ही सच है कि अच्छे भोजन के साथ यदि मनुष्य खेलों में भाग न ले तो वह स्वस्थ नहीं रह सकता।

अत: खेलों का नियमित अभ्यास करना स्वास्थ्य के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि संतुलित भोजन। वैसे तो जीवन की सफलता के लिए शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों में से कोई भी एक शक्ति किसी से कम महत्वपूर्ण नहीं है। फिर भी आम जनमानस में प्रचलित उक्ति है कि ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है’। इसलिए शरीर को पूर्ण रूप से स्वस्थ व चुस्त बनाने के लिए कई प्रकार के शारीरिक अभ्यास किए जाते हैं, किंतु इनमें खेल-कूद सबसे प्रमुख हैं।

बिना खेल-कूद के जीवन अधूरा रह जाता है। कहा गया है-“सारे दिन काम करना और खेलना नहीं, यह होशियार को मूर्ख बना देता है।” अत: खेलों से हमारा जीवन अनुशासित और आनंदित होता है। खेल भावना के कारण खिलाड़ी सहयोग, संगठन, अनुशासन एवं सहनशीलता का पाठ सीखते हैं। खेलने वालों में संघर्ष करने की शक्ति आ जाती है। खेल में जीतने की दशा में उत्साह और हारने की स्थिति में सहनशीलता का भाव आता है।

खेलते समय खिलाड़ी जीत हासिल करने के लिए अनुचित तरीके नहीं अपनाता और पराजय की दशा में प्रतिशोध की आग में नहीं जलता। उसमें स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भाव होता है। खेल मनोरंजन का माध्यम भी हैं। खिलाड़ियों अथवा खेल-प्रेमियों-दोनों को खेलों से भरपूर मनोरंजन मिलता है। जो लोग सदैव काम में लगे रहते हैं खेलों के मनोरंजन से वंचित रह जाते हैं वे खेलों से मनुष्य अनुशासित जीवन जीना सीखता है। इससे मनुष्य नियमपूर्वक कार्य करने की शिक्षा लेता है।

नियमपूर्वक कार्य करने से व्यवस्था बनी रहती है तथा समाज का विकास होता है। इस प्रकार खेलों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। ये हमारे जीवन को संपन्न व खुशहाल बनाते हैं। इनके महत्व को देखते हुए हमें खेलों से अरुचि नहीं रखनी चाहिए।

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