Chapter 2 Collection of Data (आँकड़ों का संग्रह)
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा विकल्प सही है
(i) जब आप एक नई पोशाक खरीदते हैं तो इनमें से किसे सबसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं
(क) कपड़े का रंग
(ख) कपड़े की कीमत
(ग) कपड़े को किस कम्पनी ने बनाया है।
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी
(ii) आप कम्प्यूटर का इस्तेमाल कितनी बार करते हैं
(क) दिन में एक बार
(ख) कभी-कभी
(ग) दिन में तीन बार
(घ) दिन में अनेक बार
उत्तर :
(घ) दिन में अनेक बार
(iii) निम्नलिखित में से आप किस समाचार-पत्र को नियमित रूप से पढ़ते हैं|
(क) हिन्दुस्तान
(ख) दैनिक जागरण
(ग) दैनिक भास्कर
(घ) टाइम्स ऑफ इण्डिया
उत्तर :
(ख) दैनिक जागरण
(iv) पेट्रोल की कीमत में वृद्धि न्यायोचित है
(क) यदि पेट्रोल की माँग में वृद्धि हुई है।
(ख) यदि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि हुई है।
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर :
(ग) उपर्युक्त दोनों
(v) आपके परिवार की मासिक आमदनी कितनी है–
(क) 5 हजार से कम
(ख) 10 हजार से कम
(ग) 15 हजार से कम
(घ) 20 हजार
उत्तर :
(घ) 20 हजार
प्रश्न 2.
पाँच द्धिमार्गी प्रश्नों की रचना करें (हाँ/नहीं के साथ)
उत्तर :
(क) क्या आप रोज सुबह टहलने जाते हैं? (हाँ/नहीं)
(ख) क्या आप नियमित रूप से नहाते हैं? (हाँ/नहीं)
(ग) क्या आप घर पर कम्प्यूटर का प्रयोग करते हैं? (हाँ/नहीं)
(घ) क्या आपके पास मारुति कार है? (हाँ/नहीं)
(ङ) क्या आपके पास एक हरा कलम है? (हाँ/नहीं)
प्रश्न 3.
सही विकल्प को चिह्नित करें
(क) आँकड़ों के अनेक स्रोत होते हैं। (सही/गलत)
उत्तर :
सही।
(ख) आँकड़ा-संग्रह के लिए टेलीफोन सर्वेक्षण सर्वाधिक उपयुक्त विधि है, विशेष रूप से जहाँ पर जनता निरक्षर हो और दूर-दराज के काफी बड़े क्षेत्रों में फैली हो। (सही/गलत)
उत्तर :
सही।
(ग) सर्वेक्षक/शोधकर्ता द्वारा संग्रह किए गए आँकड़े द्वितीय आँकड़े कहलाते हैं। ” (सही/गलत)
उत्तर :
गलत।
(घ) प्रतिदर्श के अयादृच्छिक चयन में पूर्वाग्रह (अभिनति) की संभावना रहती है। (सही/गलत)
उत्तर :
सही
(ङ) अप्रतिचयन त्रुटियों को बड़ा प्रतिदर्श अपनाकर कम किया जा सकता है। (सही/गलत)
उत्तर :
गलत।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रश्नों के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या आपको इन प्रश्नों में कोई समस्या दिखाई दे रही है? यदि हाँ, तो कैसे?
(क) आप अपने सबसे नजदीक के बाजार से कितनी दूर रहते हैं?
उत्तर :
मैं अपने नजदीक के बाजार से 5 किमी दूर रहता हूँ।
(ख) यदि हमारे कूड़े में प्लास्टिक की थैलियों की मात्रा 5 प्रतिशत है तो क्या इन्हें निषेधित किया जाना चाहिए?
उत्तर :
हाँ, क्योंकि प्लास्टिक एक अविघटनीय पदार्थ है। यह मृदा-प्रदूषण पैदा करता है। प्लास्टिक की थैलियाँ नालों और नालियों में पानी के बहाव को अवरुद्ध करती हैं। इस प्रकार पर्यावरण के हिसाब से प्लास्टिक की थैलियों का प्रयोग हानिकारक है और इनको निषेध किया जाना चाहिए।
(ग) क्या आप पेट्रोल की कीमत में वृद्धि का विरोध नहीं करेंगे?
उत्तर :
पेट्रोल की कीमत में वृद्धि होने पर आवश्यक वस्तुओं के दामों में भी वृद्धि हो जाती है, इसलिए । पेट्रोल की कीमत में वृद्धि का विरोध अवश्य करना चाहिए।
(घ) क्या आप रासायनिक उर्वरक के उपयोग के पक्ष में हैं?
उत्तर :
रासायनिक उर्वरक के उपयोग से हम फसल की उत्पादन मात्रा बढ़ा सकते हैं। परन्तु हमें उर्वरकों का प्रयोग सीमित मात्रा में कराना चाहिए। इनके अधिक प्रयोग से मृदा तथा जल प्रदूषण होता है।
(ङ) (अ) क्या आप अपने खेतों में उर्वरक इस्तेमाल करते हैं?
उत्तर :
हाँ, परन्तु सीमित मात्रा में।
(ब) आपके खेत में प्रति हेक्टेयर कितनी उपज होती है?
उत्तर :
40 क्विटल प्रति हेक्टेयर।
प्रश्न 5.
आप बच्चों के बीच शाकाहारी आटा नूडल की लोकप्रियता का अनुसंधान करना चाहते हैं। इस उद्देश्य से सूचना-संग्रह करने के लिए उपयुक्त प्रश्नावली बनाएँ।
उत्तर :
प्रश्नावली
- क्या आप शाकाहारी आटा नूडल का प्रयोग करते हैं?
- क्या आपको इसका स्वाद दूसरे खाद्य पदार्थों की तुलना में अधिक अच्छा लगता है?
- आप दिन में कब और कितनी बार इसको खाते हैं?
- क्या आपको इसकी कीमत उचित लगती है।
- एक दिन में आप इस पर कितना खर्च करते हैं?
- क्या आप इसे घर पर ही तैयार करते हैं अथवा बाजार से खरीदते हैं?
- आप इसे क्यों पसन्द करते हैं?
- क्या यह आपकी सेहत के लिए अच्छी है?
- क्या आप इसके स्थान पर कुछ औरोंग करना चाहेंगे?
प्रश्न 6.
200 फार्म वाले एक गाँव में फसल उत्पादन के स्वरूप पर एक अध्ययन आयोजित किया गया। इनमें से 50 फार्मों का सर्वेक्षण किया गया, जिनमें से 50 प्रतिशत पर केवल गेहूँ उगाए जाते हैं। यहाँ पर समष्टि एवं प्रतिदर्श को पहचान कर बताएँ।
उत्तर :
समष्टि : 200 फार्म ।
प्रतिदर्श : 50 फार्म, जिनका सर्वेक्षण किया गया है।
प्रश्न 7.
प्रतिदर्श, समष्टि तथा चर के दो-दो उदाहरण दें।
उत्तर :
प्रतिदर्श – प्रतिदर्श समष्टि के एक खण्ड या एक समूह का प्रतिनिधित्व करता है, जिससे सूचना प्राप्त की जा सकती है। एक आदर्श प्रतिदर्श सामान्यतः समष्टि से छोटा होता है।
उदाहरण –
- एक कॉलेज के 5000 विद्यार्थियों में से 500 विद्यार्थियों का चयन।
- एक गाँव के 700 कृषि-श्रमिकों में से अध्ययन के लिए 70 कृषि-श्रमिकों का चयन।
समष्टि – सांख्यिकी में समष्टि शब्द से तात्पर्य है-अध्ययन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली सभी मदों/इकाइयों की समग्रता।
उदाहरण –
- एक जिले के समस्त कृषि-श्रमिक।
- एक फैक्ट्री के समस्त मजदूर।
चर – वे मूल्य जिनका मान एक मद से दूसरे मद में बदलता रहता है और जो संख्यात्मक रूप में मापे जा सकते हैं, तब उन्हें चर कहा जाता है।
उदाहरण–
- प्रत्येक वर्ष खाद्यान्न उत्पादन।
- लोगों की आयु।
प्रश्न 8.
इनमे से कौन-सी विधि द्वारा बेहतर परिणाम प्राप्त होते हैं, और क्यों?
(क) गणना(जनगणना),
(ख) प्रतिदर्श।।
उत्तर :
गणना विधि की तुलना में प्रतिदर्श विधि द्वारा आँकड़े एकत्र करने से बेहतर परिणाम प्राप्त होते हैं। सांख्यिकी में प्रतिदर्श विधि को निम्नलिखित कारणों से प्राथमिकता दी जाती है
- प्रतिदर्श कम खर्च में एवं अल्प समय में पर्याप्त विश्वसनीय एवं सही सूचनाएँ उपलब्ध करा सकते
- प्रतिदर्श में सघन पूछताछ के द्वारा अधिक विस्तृत जानकारियाँ संगृहीत की जा सकती हैं।
- प्रतिदर्श के लिए परिगणकों की छोटी टोली की ही जरूरत होगी जिन्हें आसानी से प्रशिक्षित किया जा सकता है तथा उनके कार्य की निगरानी भली-भाँति की जा सकती है।
- गणना संबंधी त्रुटियों की संभावना घट जाती है।
प्रश्न 9.
इनमें कौन-सी त्रुटि अधिक गंभीर है और क्यों?
(क) प्रतिचयन त्रुटि
(ख) अप्रतिचयन त्रुटि।
उत्तर :
(क) प्रतिचयन त्रुटि – प्रतिचयन त्रुटियाँ प्रतिदर्श आकलन और समष्टि विशेष के वास्तविक मूल्य (जैसे-औसत आय आदि) के बीच अंतर प्रकट करती हैं। यह त्रुटि, तब सामने आती है जब आप समष्टि से प्राप्त किए गए प्रतिदर्श का प्रेक्षण करते हैं। जैसे-देहरादून के 5 कृषकों की आमदनी का उदाहरण लें। मान लें चर x (आमदनी) के मापन 600, 650, 700, 750, 800 हैं।
हमने देखा कि यहाँ समष्टि का औसत 600 + 650 + 700 + 750 + 800 +5=3500 * 700 है। अब मान लीजिए कि हम दो कृषकों का एक ऐसा प्रतिदर्श चुनते हैं जहाँ चर (X) का मूल्य 600 व 700 है। तब प्रतिदर्श का औसत (600 + 700 + 2 = 1300 + 2 = 650) होता है। यहाँ आकलन की प्रतिचयन त्रुटि है-700 (असली मान) – 650 (आकलन) = 50
(ख) अप्रतिचयन त्रुटियाँ – सर्वेक्षण क्षेत्र से आँकड़ों के संकलन के समय मापन, प्रश्नावली, रिकॉर्डिंग, अंकगणित संबंधी त्रुटियों को अप्रतिचयन त्रुटियाँ कहा जाता है। अप्रतिचयन त्रुटियाँ प्रतिचयन त्रुटियों की अपेक्षा गंभीर होती है।
प्रश्न 10.
मान लीजिए आपकी कक्षा में 10 छात्र हैं। इनमें से आपको तीन चुनने हैं तो इसमें कितने प्रतिदर्श संभव हैं?
उत्तर :
कक्षा में 10 छात्रों में से 3 छात्रों को चुनने के लिए प्रतिचयनों की संख्या = “0X2= 30 अत: इसमें 30 प्रतिदर्श संभव हैं।
प्रश्न 11.
अपनी कक्षा के 10 छात्रों में से 3 को चुनने के लिए आप लॉटरी विधि का उपयोग कैसे करेंगे? चर्चा करें।
उत्तर :
अपनी कक्षा के 10 छात्रों में से 3 छात्रों को चुनने के लिए हम लॉटरी विधि का प्रयोग इस प्रकार करेंगे
- सर्वप्रथम कागज की एक ही आकार की 10 चिटें तैयार करेंगे।
- इन चिटों पर छात्रों का नाम अलग-अलग चिट पर लिखेंगे।
- चिटों को एक बक्से/घड़े में डालकर अच्छी तरह हिलाएँगे।
- बक्से/घड़े से एक-एक करके तीन चिट निकालेंगे।
- निकाली गई चिटों पर अंकित छात्रों के नाम ही लॉटरी विधि से निकाले गए छात्रों के नाम होंगे।
प्रश्न 12.
क्या लॉटरी विधि सदैव एक यादृच्छिक प्रतिदर्श देती है? बताइए।
उत्तर :
लॉटरी विधि द्वारा हमेशा यादृच्छिक का प्रतिचयन ही प्राप्त होता है। इस विधि में प्रत्येक इकाई को शामिल किया जाता है। समग्र की सभी इकाइयों की पर्चियाँ अथवा गोलियाँ बना ली जाती हैं और उन पर्चियों को एक डिब्बे में डाल दिया जाता है। फिर किसी निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा अथवा स्वयं आँखें बंद करके उतनी ही पर्चियाँ या गोलियाँ उठा ली जाती हैं जितनी इकाइयाँ प्रतिचयन में शामिल करनी होती हैं। प्रतिचयन की इकाइयों के निष्पक्ष चुनाव के लिए यह आवश्यक है कि सभी पर्चियाँ या गोलियाँ एक-सी बनाई जाएँ, उनका आकार एवं रूप एकसमान हो तथा छाँटने से पूर्व उन्हें हिला-मिला लिया जाए। इस प्रकार इस प्रणाली में प्रत्येक इकाई के चुनाव की समान सम्भावना रहती है।
प्रश्न 13.
यादृच्छिक संख्या सारणी का उपयोग करते हुए, अपनी कक्षा के 10 छात्रों में से 3 छात्रों के चयन के लिए यादृच्छिक प्रतिदर्श की चयन प्रक्रिया की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
10 छात्रों को दिए जाने वाले अंक हैं – 01 02 03 04 05 06 07 08 09 10
इन संख्याओं में से किसी एक संख्या को दैव आधार पर चयन किया जाएगा। इसके बाद दो क्रमागत संख्याओं का चयन करके 3 छात्रों का चुनाव कर लिया जाएगा। माना, दैव आधार पर चयनित संख्या 5 है तो चयनित छात्रों की संख्याएँ होंगी-5, 6 व 7.
प्रश्न 14.
क्या सर्वेक्षणों की अपेक्षा प्रतिदर्श बेहतर परिणाम देते हैं? अपने उत्तर की कारण सहित व्याख्या करें।
उत्तर :
हाँ, यह सत्य है कि सर्वेक्षणों की अपेक्षा प्रतिदर्श बेहतर परिणाम देते हैं। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं—
- प्रतिदर्श प्रणाली में समय, धन व श्रम सर्वेक्षणों की तुलना में कम व्यय होता है।
- इस प्रणाली का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत क्षेत्र में किया जा सकता है।
- इस प्रणाली में गणना संबंधी त्रुटियाँ कम होती हैं।
- इस प्रणाली में अपेक्षाकृत कम गणनाकारों व पर्यवेक्षकों की आवश्यकता होती है।
संक्षेप में प्रतिदर्श प्रणाली अधिक सरल, मितव्ययी व शुद्ध निष्कर्ष देने वाली हैं।
परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान रीति का प्रयोग सर्वप्रथम भारत में किसने किया?
(क) ली प्ले ने
(ख) आर्थर यंग ने
(ग) यूल ने
(घ) सैलिगमैन ने
उत्तर :
(ख) आर्थर यंग ने
प्रश्न 2.
द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने से पूर्व इनमें से किस बात की जाँच कर लेनी चाहिए?
(क) समंकों की उद्देश्य के प्रति अनुकूलता
(ख) समंकों की विश्वसनीयता
(ग) समंकों की पर्याप्तता
(घ) उपर्युक्त सभी की
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी की।
प्रश्न 3.
संकलन के विचार से समंकों के प्रकार हैं
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
उत्तर :
(क) दो।
प्रश्न 4.
अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान रीति का दोष है
(क) यह रीति मितव्ययी है।
(ख) यह रीतिं सरल एवं सुविधाजनक है।
(ग) यह रीति विस्तृत क्षेत्र में उपयोगी है।
(घ) इसमें समंकों में एकरूपता नहीं रहती।
उत्तर :
(घ) इसमें समंकों में एकरूपता नहीं रहती
प्रश्न 5.
“एक दैव प्रतिदर्श वह प्रतिदर्श है, जिनका चयन इस प्रकार हुआ हो कि समग्र की प्रत्येक इकाई को सम्मिलित होने का समान अवसर रहा हो।” यह कथन किसका है?
(क) पीगू का
(ख) प्रो० हाटे का
(ग) हार्पर का
(घ) पार्टन का
उत्तर :
(ग) हार्पर का
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्राथमिक समंक किसे कहते हैं?
उत्तर :
प्राथमिक समंक वे समंक होते हैं जिन्हें अनुसंधानकर्ता प्रयोग में लाने के लिए पहली बार स्वयं एकत्रित करता है।
प्रश्न 2.
द्वितीयक समंक से क्या आशय है?
उत्तर :
द्वितीयक समंक वे समंक हैं जो पहले से अस्तित्व में हैं और वर्तमान प्रश्नों के उत्तर में नहीं बल्कि किसी दूसरे उद्देश्य के लिए एकत्रित किए गए हैं।
प्रश्न 3.
प्राथमिक और द्वितीयक समंकों में एक अंतर बताइए।
उत्तर :
प्राथमिक समंकों के संकलन में धन, समय, श्रम व बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है जबकि द्वितीय समंकों को सिर्फ उद्धृत किया जाता है।
प्रश्न 4.
प्राथमिक समंकों को एकत्र करने की प्रमुख रीतियाँ बताइए।
उत्तर :
- प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान,
- अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान,
- स्थानीय स्रोतों या संवाददाताओं द्वारा सूचना प्राप्ति,
- सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ/प्रश्नावली भरना तथा
- प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरना।
प्रश्न 5.
प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान रीति के दो गुण बताइए।
उत्तर :
- एकत्रित समंक अत्यधिक विश्वसनीय होते हैं।
- समंकों में मौलिकता रहती है।
प्रश्न 6.
अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान रीति क्या है?
उत्तर :
इस रीति के अनुसार, सूचकों से प्रत्यक्ष रूप में समंक प्राप्त न करके उन व्यक्तियों से प्राप्त किए जाते हैं, जिनका उन समंकों से कोई प्रत्यक्ष संबंध होता है।
प्रश्न 7.
सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ/प्रश्नावली भरना रीति के दो दोष बताइए।
उत्तर :
- यह प्रणाली लोचदार नहीं है।
- यदि प्रश्नावली जटिल है तो उत्तर अशुद्ध होंगे और फलस्वरूप परिणाम भी अशुद्ध होंगे।
प्रश्न 8.
द्वितीयक समंकों के स्रोत बताइए।
उत्तर :
- सरकारी प्रकाशन
- अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रकाशन
- पत्र-पत्रिकाओं द्वारा
- अर्द्ध-सरकारी संस्थाओं के प्रकाशन।
प्रश्न 9.
अनुसूची से क्या आशय है?
उत्तर :
‘अनुसूची’ प्रश्नों की वह सूची है जिसे प्रगणकों द्वारा सूचकों से पूछताछ करके भरा जाता है।
प्रश्न 10.
प्रश्नावली व अनुसूची में अंतर बताइए।
उत्तर :
प्रश्नावली में प्रश्नों के उत्तर सूचकों द्वारा स्वयं दिए जाते हैं। इसके विपरीत, अनुसूची में प्रश्नों की सूची के प्रगणकों द्वारा सूचकों से सूचना प्राप्त करके भरा जाता है।
प्रश्न 11.
केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (CSO) का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर :
राष्ट्रीय आय के आँकड़ों का संकलन करना एवं उन्हें प्रकाशित करना।
प्रश्न 12.
समग्र से क्या आशय है?
उत्तर :
अनुसंधान क्षेत्र की संपूर्ण इकाइयाँ सामूहिक रूप से ‘समग्र’ कहलाती हैं।
प्रश्न 13.
संगणना अनुसंधान किसे कहते हैं?
उत्तर :
जब अनुसंधान के विषय में संबंधित समग्र या समूह की प्रत्येक इकाई का अध्ययन किया जाता है। तो वह ‘संगणना अनुसंधान’ कहलाएगा।
प्रश्न 14.
संगणना अनुसंधान रीति के दो गुण बताइए।
उत्तर :
- इस रीति द्वारा संकलित समंक अधिक शुद्ध एवं विश्वसनीय होते हैं।
- इस रीति के द्वारा समग्र की प्रत्येक इकाई के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त की जाती है।
प्रश्न 15.
निदर्शन अनुसंधान रीति के लिए उपयुक्त चार दशाएँ बताइए।
उत्तर :
- जब समग्र अनंत हो,
- जब समग्र विस्तृत हो,
- जब धन, समय की बचत करनी हो तथा
- जब समग्र की प्रकृति परिवर्तनशील हो।।
प्रश्न 16.
दैव निदर्शन की परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
दैव निदर्शन एक ऐसा रूप है जिसको चुनने की विधि के रूप में प्रयोग करने से यह निश्चित हो जाता है कि समग्र की प्रत्येक इकाई अथवा तत्त्व को चुने जाने का समान अवसर हो।
प्रश्न 17.
दैव निदर्शन रीति के दो गुण बताइए।
उत्तर :
- इस रीति द्वारा चयन में पक्षपात की कोई गुंजाइश नहीं रहती।
- यह प्रणाली मितव्ययी है क्योंकि इसमें श्रम, समय व धन की बचत होती है।
प्रश्न 18.
दैव निदर्शन रीति के दो दोष बताइए।
उत्तर :
- आकार के छोटा होने अथवा उसमें विषमता अधिक होने पर, इस रीति द्वारा लिए गए न्यादर्श समग्र का ठीक प्रकार प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते।
- अनुसंधान का क्षेत्र छोटा होने पर न्यादर्श की इकाइयों का चुनाव करना कठिन हो जाता है।
प्रश्न 19.
सम्पादन से क्या आशय है?
उत्तर :
सम्पादन से आशय संकलित समंकों की शुद्धता की जाँच करना, अशुद्धि को दूर करना तथा शुद्ध समंकों को प्राप्त करने से है।
प्रश्न 20.
उपसादन से क्या आशय है?
उत्तर :
वास्तविक और जटिल संख्याओं को किसी स्थानीय मान के आधार पर निकटतम सरल संख्याओं में व्यक्त करने की क्रिया को उपसादन कहते हैं।
प्रश्न 21.
सांख्यिकीय विभ्रम से क्या आशय है?
उत्तर :
सांख्यिकीय विभ्रम ‘वास्तविक मूल्य’ और ‘अनुमानित मूल्य’ का अंतर है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
सांख्यिकीय इकाई क्या है? एक आदर्श सांख्यिकीय इकाई की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
सांख्यिकीय इकाई का अर्थ-सांख्यिकीय इकाई माप करने का वह साधन है जिसके आधार पर आँकड़े एकत्र किए जाते हैं, उनका विश्लेषण किया जाता है तथा वे प्रस्तुत किए जाते हैं। अनुसंधान के प्रारम्भ से अंत तक सांख्यिकीय इकाई की एक ही परिभाषा आनी चाहिए ताकि आँकड़े एकरूप व तुलनीय बने रहें। एक आदर्श सांख्यिकीय इकाई की विशेषताएँ–
- सांख्यिकीय इकाई की परिभाषा सरल व स्पष्ट होनी चाहिए।
- इकाई निश्चित होनी चाहिए।
- सांख्यिकीय इकाई का मूल्य स्थिर, प्रामाणिक एवं सर्वमान्य होना चाहिए।
- इकाई की परिभाषा अनुसंधान के उद्देश्य के अनुरूप होनी चाहिए।
- सांख्यिकीय इकाई में सजातीयता एवं समानता होनी चाहिए।
प्रश्न 2.
प्राथमिक एवं द्वितीयक समंकों से क्या आशय है? प्रत्येक की एक-एक परिभाषा दीजिए। उत्तर-संकलन के विचार से समंक दो प्रकार के होते हैं
- प्राथमिक समंक तथा
- द्वितीयक समंक।
1. प्राथमिक समंक – प्राथमिक समंक, वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसंधानकर्ता प्रयोग में लाने के लिए पहली बार स्वयं एकत्रित करता है। दूसरे शब्दों में, यह अनुसंधाने मौलिक होता है। होरेस सेक्राइस्ट के शब्दों में-“प्राथमिक समंकों से यह आशय है कि वे मौलिक हैं अर्थात् उनका समूहीकरण बहुत ही कम हुआ है या नहीं हुआ है, घटनाओं का अंकन या गणन उसी प्रकार किया गया है जैसा पाया गया है। मुख्य रूप से वे कच्चे पदार्थ होते हैं।”
2. द्वितीयक समंक – “द्वितीयक समंक, वे समंक हैं, जो पहले से किसी अन्य अनुसंधानकर्ता द्वारा अपने किसी निजी उद्देश्य के लिए एकत्रित किए हुए होते हैं। इन्हें अनुसंधानकर्ता स्वयं संकलित नहीं करता अपितु वह किसी अन्य उद्देश्य के लिए संकलित सामग्री का प्रयोग करता है। ब्लेयर के शब्दों में “द्वितीयक समंक वे हैं जो पहले से अस्तित्व में हैं और जो वर्तमान प्रश्नों के उत्तर में नहीं बल्कि किसी दूसरे उद्देश्य के लिए एकत्रित किए गए हैं।”
प्रश्न 3.
द्वितीयक सामग्री का प्रयोग करैते समय क्या-क्या सावधानियाँ रखनी चाहिए?
उत्तर :
द्वितीयक सामग्री का प्रयोग करते समय निम्नलिखित सावधानियाँ रक्नी चाहिए
- पिछला अनुसंधानकर्ता योग्य, कार्यकुशल, ईमानदार व अनुभवी होना चाहिए।
- उद्देश्य एवं क्षेत्र समान होना चाहिए।
- न्यादर्श का आकार उपयुक्त होना चाहिए।
- समंक संकलन के लिए अपनाई गई रीति विश्वसनीय होनी चाहिए।
- इकाई उपयुक्त होनी चाहिए।
- शुद्धता का स्तर ऊँचा होना चाहिए।
- उपसादन कम-से-कम अंशों तक किया जाना चाहिए।
- इस बात की जाँच कर लेनी चाहिए कि समंक किस ‘समय’ में तथा किन ‘परिस्थितियों में प्रयुक्त | किए गए थे।
- यदि अनेक स्रोतों से समंक लिए जाएँ तो उनकी तुलनीयता की जाँच कर लेनी चाहिए।
- प्रतिशत, दर, गुणांक आदि की गणना करके उनकी सत्यता की जाँच कर लेनी चाहिए। द्वितीयक समंकों का प्रयोग करते समय यह देख लेना चाहिए कि समंक विश्वसनीय पर्याप्त एवं उपयुक्त
प्रश्न 4.
सर्वेक्षण अथवा संगणना एवं निदर्शन या प्रतिदर्श अनुसंधान से क्या आशय है?
उत्तर :
संगणना अथवा सर्वेक्षण अनुसंधान-जब अनुसंधान के विषय से संबंधित समग्र या समूह की प्रत्येक इकाई का अध्ययन किया जाता है तो वह संगणना अथवा सर्वेक्षण अनुसंधान कहलाता है। इस रीति के अनुसार अनुसंधान करते समय अनुसंधानकर्ता समस्त समूह की जाँच करता है और अनुसंधान से संबंधित प्रत्येक इकाई के संबंध में आवश्यक सूचनाएँ एकत्र करता है; जैसे-जनगणना, उत्पादन संगणना।
निदर्शन या प्रतिदर्श अनुसंधान – निदर्शन या प्रतिदर्श अनुसंधान के अंतर्गत समग्र में से कुछ इकाइयों को छाँटकर उनका विधिवत् अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए यदि हमें किसी कॉलेज के विद्यार्थियों के स्वास्थ्य से संबंधित सर्वेक्षण करना हो तो कॉलेज के प्रत्येक विद्यार्थी का अध्ययन न करके, हम कुछ विद्यार्थियों को लेकर ही उनको अध्ययन कर सकते हैं। इससे जो निष्कर्ष निकलेंगे, वे समस्त समग्र पर लागू होंगे।
प्रश्न 5.
निदर्शन अनुसंधान के लिए आवश्यक दशाएँ बताइए।
उत्तर :
निम्नलिखित दशाओं में निदर्शन प्रणाली का प्रयोग अत्यंत आवश्यक है
- जब समग्र अनंत अथवा कभी भी समाप्त न होने वाला हो।
- जब समग्र अत्यधिक विस्तृत हो।
- जब संगणना प्रणाली द्वारा समस्या का अध्ययन असंभव हो।
- जब समग्र नाशवान प्रकृति का हो।
- जब धन, समय व परिश्रम की बचत करनी हो।
- जब व्यापक दृष्टि से नियमों का प्रतिपादन करना हो।
- जब समग्र की प्रकृति परिवर्तनशील हो।
प्रश्न 6.
संगणना व निदर्शन प्रणाली में अंतर बताइए।
उत्तर :
संगणना व निदर्शन प्रणाली में अंतर
प्रश्न 7.
दैव (यादृच्छिक) निदर्शन के गुण व दोष बताइए।
उत्तर :
दैव निदर्शन रीति के गुण,
- इस नीति द्वारा चयन में पक्षपात की कोई गुंजाइश नहीं रहती क्योंकि समग्र की प्रत्येक इकाई को न्यादर्श के रूप में चुने जाने का अवसर प्राप्त होता है।
- यह प्रणाली मितव्ययी है क्योंकि इसमें श्रम, समय व धन की बचत होती है।
- दैव निदर्शन द्वारा चुने गए न्यादर्श समग्र के वास्तविक प्रतिनिधि होते हैं।
- इस रीति में निदर्शन विभ्रमों की माप की जा सकती है।
- दैव न्यादर्श में संभावना सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
- चुनाव के लिए कोई विस्तृत योजना नहीं बनानी पड़ती।
दैव निदर्शन रीति के दोष
- यदि केवल कुछ समंक ही उपलब्ध हों तो दैव निदर्शन संभव नहीं है।
- यदि समग्र का आकार छोटा है या उसमें विषमता अधिक है तो इस रीति द्वारा लिए गए न्यादर्श समग्र का ठीक प्रकार प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते।
- यदि अनुसंधान का क्षेत्र बहुत छोटा है तो न्यादर्श की इकाइयों का चुनाव करना कठिन हो जाता है। इन दोषों के कारण ही दैव न्यादर्श को पूर्ण न्यादर्श नहीं माना जाता है।
प्रश्न 8.
सांख्यिकीय विभ्रम क्या है? विभ्रम और अशुद्ध में अंतर बताइए।
उत्तर :
सांख्यिकीय विभ्रम का अर्थ–सांख्यिकीय विभ्रम समंकों के वास्तविक मूल्य’ व ‘अनुमानित मूल्य’ में अंतर होता है। यह अशुद्धि से भिन्न है।
विभ्रम एवं अशुद्धि में अंतर
प्रश्न 9.
अभिनत एवं अनभिनत विभ्रम से क्या आशय है?
उत्तर :
सांख्यिकी विभ्रम दो प्रकार के होते हैं–
1. अभिनत विभ्रम तथा
2. अनभिनत विभ्रम।
1. अभिनत विभ्रम – अभिनत विभ्रम (biased error) प्रमाणकों अथवा सूचकों के पक्षपात अथवा दोषपूर्ण मापक यंत्रों के कारण उत्पन्न होते हैं। इन विभ्रमों का प्रभाव एक ही दिशा में होता है; अतः इनकी प्रकृति संचयी होती है।
2. अनभिनत विभ्रम – अनभिनत विभ्रम (unbiased error) बिना किसी पक्षपात की भावना के कारण उत्पन्न होते हैं और एक-दूसरे को काटने की प्रवृत्ति रखते हैं, इसीलिए इन्हें क्षतिपूरक विभ्रम’ भी कहते हैं।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्राथमिक तथा द्वितीयक समंकों से क्या आशय है? इनमें अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
अनुसंधान के आयोजन के उपरांत अगला कदम समंकों का संकलन करना होता है। समंक अनुसंधान के संपूर्ण ढाँचे का आधार-स्तम्भ माने जाते हैं। अत: समंकों का संकलन अत्यंत सावधानी, सतर्कता, दृढ़ता, विश्वास और धैर्य के साथ किया जाना चाहिए। संकलन के विचार से समंक दो प्रकार के होते हैं–
(अ) प्राथमिक समंक तथा
(ब) द्वितीय समंक।
(अ) प्राथमिक समंक (Primary data) – प्राथमिक समंक, वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसंधानकर्ता प्रयोग में लाने के लिए पहली बार स्वयं एकत्रित करता है। दूसरे शब्दों में, यह अनुसंधान मौलिक होता है। होरेस सेक्राइस्ट के शब्दों में-“प्राथमिक समंकों से यह आशय है कि वे मौलिक हैं अर्थात् उनका समूहीकरण बहुत ही कम या नहीं हुआ है, घटनाओं का अंकन या गणन उसी प्रकार किया गया है, जैसा पाया गया है। मुख्य रूप से वे कच्चे पदार्थ होते हैं।”
(ब) द्वितीयक समंक (Secondary data) – द्वितीयक समंक, वे समंक हैं, जो पहले से किसी अन्य अनुसंधानकर्ता द्वारा अपने किसी निजी उद्देश्य के लिए एकत्रित किए हुए होते हैं। इन्हें अनुसंधानकर्ता स्वयं संकलित नहीं करता अपितु वह किसी अन्य उद्देश्य के लिए संकलित सामग्री का प्रयोग करता है। ब्लेयर के शब्दों में—“द्वितीयक समंक वे हैं, जो पहले से अस्तित्व में हैं और जो वर्तमान प्रश्नों के उत्तर में नहीं बल्कि किसी दूसरे उद्देश्य के लिए एकत्रित किए गए हैं।”
प्राथमिक एवं द्वितीय समंकों में अंतर
प्राथमिक व द्वितीयक समंकों में अंतर मात्रा का न होकर प्रकृति का है। प्रो० सेक्राइस्ट के शब्दों में-“व्यापक रूप से प्राथमिक तथा द्वितीयक समंकों में भेद केवल अंशों का है। जो समंक एक पक्ष के लिए द्वितीयक हैं, वे ही अन्य पक्ष के लिए प्राथमिक होंगे।”
प्रश्न 2.
प्राथमिक समंकों को संकलित करने की मुख्य रीतियाँ बनाइए। प्रत्येक के गुण व दोषों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
प्राथमिक समंकों को संकलित करने की रीतियाँ प्राथमिक समंकों को संकलित करने की प्रमुख रीतियाँ निम्नलिखित हैं
1. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान,
2. अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान,
3. स्थानीय स्रोतों या संवाददाताओं द्वारा सूचना प्राप्ति,
4. सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ/प्रश्नावली भरना,
5. प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरना।
1. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान
इस रीति के अंतर्गत अनुसंधानकर्ता स्वयं अपनी योजना के अनुसार पूरे क्षेत्र (समग्र) में जाकर विभिन्न सांख्यिकीय इकाइयों से संपर्क स्थापित करके समंक एकत्रित करता है। इस रीति का प्रयोग सर्वप्रथम यूरोप में ली प्ले (Le Play) और भारत में आर्थर यंग (Arthur Young) ने किया।
उपयुक्ता – इस रीति का प्रयोग वहाँ किया जाना चाहिए|
- जहाँ अनुसंधान का क्षेत्र अत्यधिक सीमित तथा स्थानीय प्रकृति का हो।
- जहाँ मौलिक समंकों की आवश्यकता हो।
- जहाँ शुद्धता पर अधिक जोर देना हो।
- जहाँ समस्या इतनी अधिक जटिल हो कि अनुसंधानकर्ता की उपस्थिति अनिवार्य हो।
- जहाँ समंकों को गोपनीय रखना हो।
रीति के गुण
- इस विधि द्वारा एकत्रित समंक शुद्ध होते हैं।
- एकत्रित समंक अधिक विश्वसनीय होते हैं।
- समंकों में मौलिकता रहती है।
- यह प्रणाली लोचदार है।
- संकलित समंकों में एकरूपता व सजातीयता पाई जाती है।
- अन्य सहायक सूचनाएँ भी प्राप्त हो जाती हैं।
- अनुसंधानकर्ता को समंकों की जाँच का अवसर मिल जाता है।
रीति के दोष
- इसका प्रयोग क्षेत्र सीमित होता है। विस्तृत क्षेत्र के लिए यह रीति अनुपयुक्त है।
- इसमे पक्षपात (bias) की संभावना अधिक होती है।
- यह रीति अपव्ययी है। इसमें धन, समय तथा श्रम का अधिक व्यये होता है।
- सीमित क्षेत्र में लागू करने पर निष्कर्ष भ्रामक हो सकते हैं।
2. अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान
इस रीति के अनुसार सूचकों से प्रत्यक्ष रूप में समंक प्राप्त न करके उन व्यक्तियों से प्राप्त किए जाते हैं, जिनका उन समंकों से कोई अप्रत्यक्ष संबंध होता है। इन व्यक्तियों को साक्षी कहते हैं। इस विधि को सर्वाधिक उपयोग जाँच समितियों तथा आयोगों द्वारा किया जाता है। उपयुक्तता-इस रीति का प्रयोग वहाँ किया जाना चाहिए
- जहाँ अनुसंधान का क्षेत्र विस्तृत हो।
- जहाँ सूचकों से व्यक्तिगत संपर्क स्थापित न हो सके।
- जहाँ सूचकं संबंधित सूचना न देना चाहें।
- जहाँ अनुसंधान को गोपनीय रखा जाए।
रीति के गुण
- यह रीति मितव्ययी है। इसमें धन, समय व परिश्रम कम खर्च होता है।
- विस्तृत क्षेत्र में यही रीति उपयोगी होती है।
- इसमें विशेषज्ञों को सहमति व सुझाव मिल जाते हैं।
- यह रीति सरल व सुविधाजनक है।
- इसमें व्यक्तिगत पक्षपात की संभावना नहीं रहती।
- इस रीति के द्वारा अपेक्षाकृत अधिक जल्दी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
रीति के दोष
- इसमें शुद्धता की उच्च मात्रा की आशा नहीं रहती।
- सूचना एकत्रित करने वाले व्यक्तियों के पक्षपात की संभावना रहती है।
- प्राप्त होने वाली सूचनाओं में त्रुटियाँ तथा अविश्वास की संभावना बनी रहती है।
- प्रायः सूचनाएँ लापरवाही तथा अनिच्छा से दी जाती हैं।
- समंकों में एकरूपता नहीं रहती।
3. स्थानीय स्रोतों या संवाददाताओं द्वारा सूचना प्राप्ति
इस रीति के अनुसार, अनुसंधान से संबंधित सामग्री एकत्रित करने के लिए स्थानीय व्यक्ति नियुक्त किए। जाते हैं, जो अपने ढंग से सूचनाएँ एकत्रित करते हैं और बाद में अनुसंधानकर्ता के पास भेज देते हैं। समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं तथा बाजार भावों के संबंध में इस रीति को अपनाया जाता है। उपयुक्तता—यह रीति वहाँ अधिक उपयुक्त है, जहाँ उच्च स्तर की शुद्धता की आवश्यकता न हो और केवल अनुमान और प्रवृत्तियाँ ज्ञात करनी हों।
रीति के गुण
- अधिक विस्तृत क्षेत्र के लिए यह प्रणाली अधिक उपयोगी है।
- अधिक फैले हुए (विकेन्द्रित) क्षेत्र के लिए यह प्रणाली अत्यधिक उपयोगी है।
- यह प्रणाली मितव्ययी है क्योंकि इसमें धन, समय व श्रम की बचत होती है।
- यह विधि सरल व सस्ती है।।
रीति के दोष
- इस रीति के द्वारा निष्कर्ष संवाददाताओं के पक्षपात से प्रभावित हो सकते हैं।
- अनुमान पर आधारित होने के कारण निष्कर्ष शुद्धता से दूर होते हैं।
- एकत्रित समंकों में एकरूपता व सजातीयता का अभाव बना रहता है।
- समंक संकलन में विलम्ब अधिक हो सकता है।
- संकलित समंकों में मौलिकता का अभाव रहता है।
4. सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ/प्रश्नावली भरना
इसके अनुसार, अनुसंधानकर्ता द्वारा एक प्रश्नावली या अनुसूची तैयार की जाती है और संबंधित व्यक्तियों के पास डाक द्वारा भिजवा दी जाती है। इस प्रश्नावली के साथ एक अनुरोध-पत्र भी होता है, जिसका उद्देश्य सूचना देने वाले व्यक्ति का सहयोग प्राप्त करना होता है। तत्पश्चात् सूचना देने वाले व्यक्ति उस प्रश्नावली को उत्तर सहित अनुसंधानकर्ता के पास भेज देते हैं। उपयुक्तता—यह रीति वहाँ अधिक उपयुक्त है, जहाँ अनुसंधान का क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत हो, उस क्षेत्र की जनसंख्या शिक्षित हो और प्रश्नावलियों को भरना जानती हो।
रीति के गुण
- यह प्रणाली विस्तृत क्षेत्र के लिए अधिक उपयुक्त है। |
- यह रीति मितव्ययी है और इसमें धन, समय व परिश्रम कम लगता है।
- इसमें अशुद्धि की कम संभावना रहती है।
- सूचनाएँ मौलिक व निष्पक्ष होती हैं।
रीति के दोष
- सूचना देने वालों की इसमें प्राय: रुचि नहीं होती; अत: अधिकतर सूचनाएँ नहीं मिलतीं या मिलती हैं तो अपूर्ण होती हैं।
- यदि प्रश्नावली जटिल है तो उत्तर अशुद्ध होंगे, फलस्वरूप परिणाम भी अशुद्ध होंगे।
- यदि सूचक पक्षपातपूर्ण व्यवहार करते हैं तो परिणाम अशुद्ध होंगे।
- कभी-कभी सूचना देने वाले इस बात से डरते हैं कि कहीं उनकी सूचनाओं का दुरुपयोग न हो।
- यह प्रणाली लोचदार नहीं है।
5. प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरना
इस रीति में प्रश्नावलियों अथवा अनुसूचियों को भरने का कार्य प्रशिक्षित प्रगणकों को सौंपा जाता है। प्रगणकों को छपी हुई अनुसूचियाँ दे दी जाती हैं और वे सूचकों से और पूछताछ करके उन प्रश्नावलियों को स्वयं भरते हैं। इस प्रणाली की सफलता पूर्णतः प्रगणकों पर निर्भर करती है। अत: प्रगणकों को योग्य, चतुर, परिश्रमी, व्यवहारकुशल, विनम्र और संबंधित क्षेत्र से परिचित होना चाहिए। उपयुक्तता–यह रीति वहाँ अधिक उपयुक्त है, जहाँ अनुसंधानकर्ता अधिक व्यय वहन कर सके। यह रीति सरकारी कार्यों में ही अधिक प्रयोग में आती है। भारत में जनगणना इसी रीति, द्वारा की जाती है। रीति के गुण
- इस रीति द्वारा व्यापक क्षेत्र से सूचना प्राप्त की जा सकती है।
- सूचकों से व्यक्तिगत संपर्क स्थापित किए जा सकने के कारण जटिल प्रश्नों के भी शुद्ध व विश्वसनीय उत्तर प्राप्त हो जाते हैं।
- संकलित समंकों में पर्याप्त शुद्धता रहती है।
- व्यक्तिगत पक्षपात का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।
रीति के दोष
- यह रीति व्ययसाध्य है क्योंकि इसमें प्रगणकों के प्रशिक्षण पर काफी व्यय होता है।
- अनुसंधान कार्य में अधिक समय लगता है।
- प्रगणकों को प्रशिक्षण देना व उनके कार्य का निरीक्षण करना पड़ता है।
- प्रगणकों में पक्षपात की भावना होने पर उसका प्रभाव निष्कर्ष को अविश्वसनीय बना देता है।
प्रश्न 3.
समंक संकलन की उचित रीति का चयन किन बातों पर निर्भर करता है? उत्तर–
समंक संकलन की उपयुक्त रीति का चयन प्राथमिक समंकों के संकलन की विभिन्न रीतियों में से किसी भी एक रीति को सर्वश्रेष्ठ नहीं कहाँ जा सकता। समंक संकलन के लिए किस रीति को अपनाया जाए, यह निम्नलिखित बातों पर निर्भर करता है–
1. अनुसंधान की प्रकृति – यदि अनुसंधान में सूचकों से व्यक्तिगत संपर्क रखने की आवश्यकता है। तो ‘प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान रीति’; यदि शिक्षित व्यक्तियों से जानकारी प्राप्त करनी है तो ‘डाक द्वारा अनुसूचियाँ प्राप्त करने की रीति’; यदि अनुसंधान का क्षेत्र व्यापक है तो प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाने की रीति तथा यदि नियमित रूप से किसी एक विषय में जानकारी प्राप्त करनी है तो संवाददाताओं द्वारा सूचना प्राप्ति की रीति’ अधिक उपयुक्त रहेगी।
2. अनुसंधान का उद्देश्य एवं क्षेत्र – यदि अनुसंधान का क्षेत्र सीमित है तो प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान की रीति’ तथा व्यापक क्षेत्र में प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाने की रीति’ अधिक उपयुक्त रहेगी।
3. आर्थिक साधन – आर्थिक साधन अधिक होने पर प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान रीति’ अथवा ‘प्रगणकों द्वारा अनुसूची भरवाने की रीति’ को अपनाया जा सकता है। इसके विपरीत, आर्थिक साधनों के सीमित होने पर डाक द्वारा अनुसूचियाँ भरवाने की रीति अपनाई जा सकती है।
4. अपेक्षित शुद्धता की मात्रा – प्रत्यक्ष अनुसंधान रीति में अत्यधिक शुद्धता रहती है। अप्रत्यक्ष अनुसंधान रीति में अधिक शुद्ध परिणाम प्राप्त नहीं होते। संवाददाताओं द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करने पर शुद्धता का परिणाम और भी कम हो जाता है। प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाने पर शुद्धता का स्तर अधिक होता है, परन्तु सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाने में शुद्धता का स्तर अपेक्षाकृत कम ही रहता है।
5. उपलब्य समय – समय कम होने पर ‘संवाददाताओं से जानकारी प्राप्त करने की रीति’ अथवा ‘सूचकों से प्रश्नावलियाँ भरने की रीति’ अधिक उपयुक्त है। उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर ही उपयुक्त समंक संकलन विधि का चुनाव करना चाहिए।
प्रश्न 4.
द्वितीयक समंक क्या होते हैं। द्वितीयक सामग्री के मुख्य स्रोत बताइए। इनका प्रयोग करने से पूर्व क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए?
उत्तर :
द्वितीयक समंक से आशय
किसी अन्य अनुसंधानकर्ता द्वारा संकलित, विश्लेषित तथा प्रकाशित सामग्री ‘द्वितीयक समंक’ कहलाती है। किंतु इस सामग्री का प्रयोग दूसरे अनुसंधानकर्ताओं द्वारा भी किया जा सकता है। ये आँकड़े व्यापारिक संस्थानों, सरकारी विभागों तथा वैज्ञानिकों के यहाँ अथवा समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, सरकारी गजटों, व्यापारिक-पत्रों आदि में मिलते रहते हैं। आँकड़ों को प्राप्त करने की यह पद्धति मितव्ययी एवं सरल है।
द्वितीयक सामग्री के मुख्य स्रोत
द्वितीयक सामग्री को प्रकाशित अथवा अप्रकाशित स्रोतों से उपलब्ध किया जा सकता है
(अ) सांख्यिकीय तथ्यों को प्रकाशित करने वाले स्रोत
विभिन्न विषयों पर सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएँ महत्त्वपूर्ण समंकों को एकत्रित करके उन्हें समय-समय पर प्रकाशित करती रहती हैं। यह सामग्री अत्यधिक उपयोगी होती हैं और विभिन्न अनुसंधानकर्ता इसका प्रयोग करते हैं। प्रकाशित समंकों के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं
1. सरकारी प्रकाशन – केन्द्रीय व राज्य सरकारों के विभिन्न मंत्रालयों तथा विभागों द्वारा समय-समय पर विभिन्न विषयों से संबंधित समंक प्रकाशित होते रहते हैं। ये समंक अत्यधिक विश्वसनीय एवं महत्त्वपूर्ण होते हैं। प्रमुख सरकारी प्रकाशन हैं-Statistical Abstract of India, Monthly Abstract of Statistics, Annual Survey of Industries, Agricultural Statistics of India.
2. अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रकाशन – विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ जैसे U.N.O., I.L.O., ECAFE तथा I.M.F. आदि महत्त्वपूर्ण समंकों का संकलन प्रकाशित करती हैं।
3. समितियों व आयोगों के प्रतिवेदन – विभिन्न समस्याओं के संबंध में उपयुक्त सुझाव देने हेतु सरकार द्वारा समय-समय पर समितियाँ व आयोग गठित किए जाते हैं। इनके द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन सांख्यिकीय तथ्यों के भण्डार होते हैं।
4. अर्द्ध-सरकारी संस्थाओं के प्रकाशन – नगर निगम, नगरपालिका, जिला परिषद् आदि विभिन्न प्रकार के आँकड़े एकत्रित कराकर प्रकाशित कराते हैं; जैसे–स्वास्थ्य तथा जन्म व मृत्यु से संबंधित आँकड़े।
5. व्यापारिक संस्थाओं व परिषदों के प्रकाशन – अनेक बड़ी-बड़ी व्यापारिक संस्थाएँ, व्यापार परिषदें, स्कन्ध विपणियाँ तथा उपज विपणियाँ भी अनेक प्रकार के समंक संकलित कराकर प्रकाशित कराती रहती हैं।
6. विश्वविद्यालयों तथा शोध संस्थानों के शोध कार्य – विश्वविद्यालयों, रिसर्च ब्यूरो व अनुसंधान संस्थाओं द्वारा शोध परियोजनाओं के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के समंक संकलित कराए जाते हैं, जिन्हें बाद में प्रकाशित करा दिया जाता है। ये समंक निष्पक्ष होते हैं। ये संस्थान हैं-N.C.A.E.R., I.S.I. आदि।
7. पत्र-पत्रिकाओं द्वारा विभिन्न समाचार – पत्र व पत्रिकाएँ भी अपने विशिष्ट क्षेत्रों में समंकों का संकलन व प्रकाशन करते हैं; जैसे-Economic Times, Industrial Times, Commerce आदि। अनेक समाचार-पत्र दैनिक बाजार भाव भी प्रकाशित करते हैं।
8. बाजार समाचार – बाजार समाचार व समीक्षा व्यापार के संबंध में महत्त्वपूर्ण तथ्यों को प्रकाश में * लाती है।
9. व्यक्तिगत अनुसंधानकर्ता द्वारा – अनेक व्यक्ति अपने-अपने विषयों पर अनुसंधान कार्य करके संकलित समंकों को प्रकाशित करवाते हैं।
(ब) अप्रकाशित स्रोत
सरकार, संस्थाएँ एवं अनेक अनुभवी व योग्य व्यक्ति विभिन्न उद्देश्यों से सांख्यिकीय सामग्री संकलित करते हैं, जो अत्यधिक उपयोगी होती है लेकिन किन्हीं कारणों से प्रकाशित नहीं हो पाती। अनुसंधानकर्ता इस सामग्री का द्वितीय सामग्री के रूप में प्रयोग कर सकता है।
द्वितीयक सामग्री के प्रयोग में सावधानियाँ
द्वितीयक समंक अनेक त्रुटियों से पूर्ण हो सकते हैं। ये त्रुटियाँ अनेक कारणों से हो सकती हैं; . जैसे—साख्यिकीय इकाई की परिभाषा में परिवर्तन, सूचना की अपर्याप्तता व अपूर्णता,. पक्षपात, उद्देश्य व क्षेत्र की भिन्नता आदि। अत: द्वितीयक समंकों का उपयोग करने से पूर्व उनकी भली-भाँति जाँच कर लेनी चाहिए।
द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने से पूर्व निम्नलिखित बातों की जाँच कर लेनी चाहिए|
- समंकों की उद्देश्य के प्रति अनुकूलता,
- समंकों की विश्वसनीयता,
- समंकों की पर्याप्तता।
अनुसंधानकर्ता को द्वितीयक समंकों का प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए
1. पिछले अनुसंधानकर्ता की योग्यता, अनुभव व ईमानदारी – समंकों का संकलन करने वाले अनुसंधानकर्ता की योग्यता, कार्यक्षमता, ईमानदारी व अनुभव पर विचार करना चाहिए। यदि अनुसंधानकर्ता योग्य, निष्पक्ष, अनुभवी व ईमानदार है तो समंकों पर विश्वास किया जा सकता है। अन्यथा नहीं।
2. अनुसंधान का उद्देश्य एवं क्षेत्र – प्राथमिक अनुसंधान के उद्देश्य एवं क्षेत्र का पता लगा लेना चाहिए। समान उद्देश्य एवं क्षेत्र के लिए समंकों का उपयोग लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
3. अनुसंधान का प्रकार : संगणना अथवा प्रतिदर्श – आँकड़ों का संकलन संगणना अथवा प्रतिदर्श रीति द्वारा किया जा सकता है। संगणना रीति अधिक विश्वसनीय होती है। यदि समंक एकत्रित करने में प्रतिदर्श रीति का उपयोग किया गया है तो यह जानना आवश्यक है कि प्रतिदर्श का आकार उचित था या नहीं और प्रतिदर्श लेने की रीति उपयुक्त थी या नहीं।
4. समंक संकलन की रीति – द्वितीयक सामग्री का प्रयोग करने से पूर्व यह देखना चाहिए कि समंक संकलन में जिस रीति को अपनाया गया था, वह उपयुक्त व विश्वसनीय थी या नहीं।
5. इकाई की परिभाषा – यह भी देखा जाना चाहिए कि पिछले अनुसंधान में इकाई को किस प्रकार परिभाषित किया गया था तथा प्रस्तुत अनुसंधान के लिए इकाइयाँ उपयुक्त हैं या नहीं। यदि इकाई की परिभाषा में अंतर है तो आवश्यक समायोजन कर लेने चाहिए।
6. शुद्धता का स्तर – समंकों में शुद्धता का स्तर भी देखा जाना चाहिए। यदि शुद्धता का स्तर ऊँचा रखा गया था, तो उन समंकों का प्रयोग किया जा सकता है।
7. उपसादन का स्तर – यह जानना चाहिए कि समंकों को सारणीबद्ध करते समय कितने अंशों तक उपसादन (approximation) किया गया था। जितने कम अंशों तक उपसादन किया गया होगा, शुद्धता का स्तर उतना ही उच्च होगा।
8. प्राथमिक अनुसंधाम का समय व परिस्थितियाँ – इनका प्रयोग करने से पूर्व इस बात की जाँच कर लेनी चाहिए कि समंक किस समय में तथा किन परिस्थितियों में प्रयुक्त किए गए थे। सामान्य समय में एकत्रित किए गए समंक अधिक विश्वसनीय होते हैं। सामान्य परिस्थितियों में एकत्रित किए गए.समंक उसी प्रकार की परिस्थितियों के लिए उपयुक्त होते हैं।
9. तुलना – यदि एक समस्या से संबंधित अनेक स्रोतों से द्वितीय समंक उपलब्ध हैं तो उनकी परस्पर तुलना कर लेनी चाहिए। यदि उनमें अंतर है तो नए सिरे से स्वयं अनुसंधान करना चाहिए।
10. परीक्षात्मक जाँच – समंकों के विश्वसनीय होने पर भी उनकी परीक्षात्मक जाँच करनी चाहिए। प्रतिशत, दर, गुणांक आदि की गणना करके उनकी सत्यता की जॉच अवश्य कर लेनी चाहिए।
उपर्युक्त बातों के आधार पर यदि द्वितीयक समंक विश्वसनीय, पर्याप्त एवं उपयुक्त प्रतीत हों तो उनका प्रयोग कर लेना चाहिए अन्यथा नहीं। जे०एम० बेवन के अनुसार-“अन्य व्यक्तियों के परिणामों को अपनाना ही हमारे शोध को उचित दिशा देने के लिए पर्याप्त न होगा। हमें सामान्य ज्ञान, दूरदर्शिता तथा विद्यमान ज्ञान का उपयोग करते हुए उनकी गहराई में जाकर अज्ञानता के क्षेत्र, जिसमें हम अनुसंधान कर रहे हैं, की खोज करनी चाहिए।”
प्रश्न 5.
संगणना (सर्वेक्षण) अनुसंधानें क्या है? इसके गुण व दोष बताइए।
उत्तर :
अनुसंधान क्षेत्र की संपूर्ण इकाइयाँ सामूहिक रूप से ‘समग्र’ कहलाती हैं। समग्र दो प्रकार का होता है
(अ) निश्चित अथवा अनन्त समग्र – निश्चित समग्र में इकाइयों की संख्या निश्चित होती है; जैसे—किसी कॉलेज के छात्र या मिल के श्रमिक। इसके विपरीत, अनंत समग्र में इकाइयों की संख्या भी अनंत होती है; जैसे-नवजात शिशुओं का भार अथवा स्वास्थ्य के विषय में अनुसंधान।
(ब) वास्तविक अथवा काल्पनिक समग्र – ठोस विषय वाले समग्र को वास्तविक समग्र कहते हैं; जैसे – विश्वविद्यालय के छात्र। काल्पनिक विषय वाले समग्र को काल्पनिक समग्र कहते हैं; जैसे – सिक्कों की उछाल के आधार पर चित्र-पट के गिरने की संख्या में बना समग्र।
अनुसंधान के प्रकार अनुसंधान की प्रकृति दो प्रकार की हो सकती है
(अ) संगणना अनुसंधान,
(ब) प्रतिदर्श अनुसंधान।
संगणना अनुसंधान
जब अनुसंधान के विषय में संबंधित समग्र या समूह की प्रत्येक इकाई का अध्ययन किया जाता है तो वह ‘संगणना अनुसंधान’ कहलाता है। इस रीति के अनुसार, अनुसंधान करते समय अनुसंधानकर्ता समस्त समूह की जाँच करता है और अनुसंधान से संबंधित प्रत्येक इकाई के संबंध में आवश्यक सूचनाएँ एकत्र करता है; जैसे-जनगणना, उत्पादन संगणना।
उपयुक्तता – संगणना अनुसंधान का प्रयोग वहाँ उचित है|
- जहाँ समग्र या क्षेत्र का आकार सीमित हो।
- जहाँ सांख्यिकीय इकाई में विजातीयता अथवा विविध गुण पाए जाते हैं।
- जहाँ परिशुद्धता का ऊँची स्तर आवश्यक हो।
- जहाँ विषय का गहन अध्ययन करना हो अथवा व्यापक सूचनाएँ एकत्र करनी हों।
संगणना अनुसंधान के गुण
- गहन अध्ययन–इस रीति द्वारा विषय का गहन अध्ययन संभव है। इससे अनुसंधानकर्ता को उस विषय को पूर्ण ज्ञान हो जाता है।
- अधिक शुद्ध एवं विश्वसनीय परिणाम-इस रीति द्वारा संकलित समंक अधिक शुद्ध एवं विश्वसनीय होते हैं। अत: उनसे निकाले गए परिणाम भी अधिक सत्य एवं विश्वसनीय होते हैं।
- विस्तृत जानकारी—इस रीति द्वारा समग्र की प्रत्येक इकाई के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त की जाती है। अत: अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आ जाते हैं।
- उपयुक्तता-जब समग्र का आकार सीमित हो और सांख्यिकीय इकाइयों में विजातीयता अथवा विविधता का गुण पाया जाता हो तो यह रीति सर्वथा उपयुक्त होती है।
- कुछ दशाओं में आवश्यक-यदि जाँच की प्रकृति ऐसी हो कि सभी पदों का समावेश आवश्यक हो तो इस रीति का प्रयोग आवश्यक होता है।
संगणना अनुसंधान के दोष
- अधिक व्ययसाध्य-यह विधि अत्यधिक खर्चीली है, क्योंकि इसमें अनुसंधानकर्ता को समग्र की प्रत्येक इकाई से संबंध स्थापित करना पड़ता है।
- अधिक समय व परिश्रम-इस रीति में समय भी अधिक लगता है और अनुसंधानकर्ता को परिश्रम भी अधिक करना पड़ता है।
- सांख्यिकीय विभ्रम—इस रीति में सांख्यिकीय विभ्रम (Statistical errors) का पता नहीं लगाया जा सकता।
- व्यापक संगठन की आवश्यकताइस रीति द्वारा अनुसंधानकर्ता को कार्य में व्यापक संगठ की आवश्यकता पड़ती है।
- अनेक परिस्थितियों में असंभव-यदि समग्र अनंत है, अनुसंधान क्षेत्र विशाल व जटिल है, समग्र की प्रत्येक इकाई से संपर्क स्थापित करना संभव नहीं है अथवा अनुसंधान विधि में समग्र की संपूर्ण इकाइयाँ नष्ट हो जाती हैं तो संगणना अनुसंधान असंभव हो जाता है।
प्रश्न 6.
निदर्शन या प्रतिदर्श अनुसंधान क्या है? प्रतिदर्श प्रणाली के गुण व दोष बताइए।
उत्तर :
निदर्शन याप्रतिदर्श अनुसंधान
संगणना के विपरीत, इस प्रणाली के अंतर्गत समग्र में से कुछ इकाइयों को छाँटकर (दूसरे शब्दों में समस्त समूह के एक अंग का) उनका विधिवत् अध्ययन किया जाता है; उदाहरण के लिए यदि किसी एक कॉलेज के विद्यार्थियों के स्वास्थ्य से संबंधित सर्वेक्षण करना है तो कॉलेज के प्रत्येक विद्यार्थी का अध्ययन न करके, हम कुछ विद्यार्थियों को लेकर ही उनका अध्ययन कर सकते हैं। इससे जो निष्कर्ष निकलेंगे, वे समस्त समग्र पर लागू होंगे। प्रतिदर्श प्रणाली का आधार यह है कि छाँटे हुए प्रतिदर्श (Sample) समग्र का सदैव प्रतिनिधित्व करते हैं अर्थात् उनमें वही विशेषताएँ होती हैं, जो सम्मिलित रूप से सम्पूर्ण समग्र में देखने को मिलती हैं।
वास्तव में, प्रतिदर्श प्रणाली को संगणना प्रणाली से अधिक अच्छा समझा जाता है; क्योंकि संगणना प्रणाली की समस्त सीमाओं को प्रतिदर्श प्रणाली द्वारा दूर किया जाता है। प्रतिदर्श प्रणाली का प्रयोग कहीं-कहीं तो आवश्यक हो जाता है; क्योंकि कुछ ऐसी समस्याएँ व समग्र होते हैं, जहाँ संगणना प्रणाली का प्रयोग किया ही नहीं जा सकता।
प्रतिदर्श अनुसंधान के लिए उपयुक्त दशाएँ – निम्नलिखित दशाओं में प्रतिदर्श प्रणाली का प्रयोग अत्यंत आवश्यक है।
1. जब समग्र अनंत हो – जब समग्र अनंत अथवा कभी न समाप्त होने वाला हो तो संगणना अनुसंधान संभव नहीं हो पाता जैसे नवजात शिशुओं की किसी निश्चित समय पर गणना करना संभव नहीं है। इस प्रकार की समस्याओं में प्रतिदर्श प्रणाली ही उपयुक्त होती है; क्योंकि इसमें समय, धन व परिश्रम की बचत होती है।
2. जब समग्र नाशवान् प्रकृति का हो – कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं, जिनका सर्वेक्षण संगणना प्रणाली द्वारा करने पर समस्या या समग्र के ही नष्ट हो जाने की संभावना हो जाती है; उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति के शरीर में पाए जाने वाले रक्त का परीक्षण संगणना प्रणाली के आधार पर नहीं किया जा सकता। ऐसी समस्याओं में प्रतिदर्श प्रणाली का प्रयोग करना ही उचित होता है।
3. जब समग्र विस्तृत हो – विस्तृत समग्र के लिए प्रतिदर्श प्रणाली ही उपयुक्त होती है; क्योंकि इससे अनुसंधान कार्य कम समय, कम धन वे कम श्रम से ही संपन्न किया जा सकता है।
4. जब संगणना प्रणाली अव्यावहारिक हो – कुछ समस्याओं में प्रतिदर्श प्रणाली को ही प्रयोग किया जाता है; क्योंकि संगणना द्वारा उन समस्याओं का अध्ययन अव्यावहारिक होता है; उदाहरण के लिए भूगर्भ में छिपे हुए खनिज पदार्थों का अनुमान सदैव प्रतिदर्श प्रणाली के आधार पर ही किया जाता है।
5. जब धन, समय या परिश्रम की बचत करनी हो – प्रतिदर्श प्रणाली एक मितव्ययी प्रणाली है। अतः जब धन, समय या परिश्रम की बचत करनी हो तो इसी प्रणाली का उपयोग किया जाता है।
6. जब नियमों का प्रतिपादन करना हो – जब व्यापक दृष्टि से नियमों का प्रतिपादन करना हो तो इस प्रणाली का प्रयोग ही श्रेयस्कर होता है।
7. जब समग्र की प्रकृति परिवर्तनशील हो – यदि अनुसंधान से संबंधित वस्तुएँ शीघ्र परिवर्तनशील हैं तो प्रतिदर्श प्रणाली ही अपनाई जाती है।
प्रतिदर्श प्रणाली के गुण
- यह रीति मितव्ययी है। इसमें समय, धन तथा श्रम सभी की बचत होती है।
- शीघ्रता से बदलती हुई आर्थिक व सामाजिक समस्याओं के अध्ययन में यह प्रणाली अधिक उपयोगी है।
- ऐसे सामाजिक अनुसंधानों में, जहाँ विस्तृत तथा निरन्तर अन्वेषण की आवश्यकता होती है, प्रतिदर्श अनुसंधान ही सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है।
- इस प्रणाली द्वारा गहन अनुसंधान संभव है।
- इस प्रणाली के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष पूर्णत: विश्वसनीय तथा शुद्ध होते हैं।
- प्रतिदर्श अनुसंधान कार्य का संगठन व प्रशासन करना अधिक सुविधाजनक होता है।
- कुछ विशेष दशाओं में प्रतिदर्श अनुसंधान ही एकमात्र उपयुक्त प्रणाली होती है।
प्रतिदर्श प्रणाली के दोष
- यदि प्रतिदर्श की इकाइयों का चुनाव निष्पक्ष रूप से नहीं किया गया तो निष्कर्ष भ्रामक हो सकते हैं।
- प्रतिनिधि प्रतिदर्श बनाना कठिन होता है।
- प्रतिदर्श अनुसंधान प्रणाली के प्रयोग के लिए विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता होती है, जिसके अभाव में अनुसंधानकर्ता भयंकर त्रुटियाँ कर सकता है।
- कभी-कभी समग्र इतना छोटा होता है कि उनमें से प्रतिदर्श बनाना संभव ही नहीं होता।
- विजातीय और अस्थिर समग्र में प्रतिदर्श प्रणाली अधिक उपयुक्त नहीं होती है।
प्रश्न 7.
प्रतिदर्शअथवा निदर्शन की विभिन्न रीतियों को समझाइए। प्रमुख रीतियों के गुण व दोष भी बताइए।
उत्तर :
प्रतिदर्श अथवा निदर्शन की रीतियाँ
एक समग्र में से प्रतिदर्श अथवा निदर्शन का चुनाव करने की निम्नलिखित रीतियाँ हैं
- सविचार प्रतिदर्श (Purposive sampling),
- दैव प्रतिदर्श (Random sampling),
- मिश्रित या स्तरित प्रतिदर्श (Mixed or Stratified sampling),
- अन्य रीतियाँ (Other methods)
- सुविधानुसार प्रतिदर्श (Convenience sampling),
- कोटा प्रतिदर्श (Quota sampling),
- बहुस्तरीय क्षेत्रीय दैव प्रतिदर्श (Multiphase area random sampling),
- बहुचरण प्रतिदर्श (Multiphase sampling), ,
- विस्तृत प्रतिदर्श (Extensive sampling)।
1. सविचार प्रतिदर्श
इसमें चयनकर्ता प्रतिदर्श की इकाइयों का चुनाव समझ-बूझकर करता है। चुनाव करते समय वह यह प्रयत्न करता है कि समग्र की सब विशेषताएँ प्रतिदर्श में आ जाएँ। वह इसके लिए कोई प्रमाप निश्चित कर लेता है और उसी के आधार पर ऐसे पदों को चुनता है, जो समस्त समग्र का प्रतिनिधित्व करें।
रीति के गुण
- यह पद्धति बहुत सरल है।
- प्रमाप निश्चित करके प्रतिदर्श का चुनाव करने से चुनाव के ठीक होने की संभावना होती है।
- यह उस अनुसंधान के लिए अधिक उपयुक्त है, जहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण इकाइयों को शामिल करना अनिवार्य हो।
रीति के दोष
- चयनकर्ता की पूर्व धारणाओं का प्रतिदर्श के चुनाव पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इससे निष्कर्ष अशुद्ध हो जाते हैं।
- प्रतिदर्श विभ्रम (Sampling error) ज्ञात नहीं किया जा सकता।
- प्रतिदर्श अनुमानों की सत्यता की कोई गारण्टी नहीं होती।
- प्रतिदर्श के परिणामों की तुलना अन्य प्रतिदर्शों के परिणामों से नहीं की जा सकती।
2. दैव प्रतिदर्श
एक प्रतिदर्श दैव विधि से उस समय चुना जाता है, जब प्रत्येक संभव प्रतिदर्श को चुने जाने का समान अवसर हो। पार्टन (Parten) के शब्दों में-“दैव प्रतिदर्श एक ऐसा रूप है, जिसको चुनने की विधि के रूप में प्रयोग करने से यह निश्चित हो जाता है कि समग्रे की प्रत्येक इकाई अथवा तत्त्व को चुने जाने का समान अवसर हो।’
हार्पर (W.M. Harper) के शब्दों में-‘‘एक दैव प्रतिदर्श वह प्रतिदर्श है, जिसका चयन इस प्रकार हुआ हो कि समग्र की प्रत्येक इकाई को सम्मिलित होने का समान अवसर रहा हो।’ इस रीति के अंतर्गत प्रतिदर्श में कौन-सी इकाई शामिल की जाए और कौन-सी नहीं, यह अनुसंधानकर्ता की अपनी इच्छा पर निर्भर न करके दैव अथवा अवसर पर निर्भर करता है। इसमें विभेद (discrimination) की कोई गुंजाइश नहीं होती। वास्तव में, इसका चुनाव मानवीय निर्णयों से पूर्णतया स्वतन्त्र होता है, तभी इसमें सत्यता व सूक्ष्मता लाई जा सकती है। दैव प्रतिदर्श रीति से प्रतिदर्श लेने के निम्नलिखित तरीके हैं
(i) लॉटरी रीतिं – यह रीति सबसे सरल तथा प्रचलित है। इसके अनुसार समग्र की सभी इकाइयों की पर्चियाँ अथवा गोलियाँ बनाकर किसी निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा या स्वयं आँखें बंद करके उतनी पर्चियाँ या गोलियाँ उठा ली जाती हैं, जितनी इकाइयाँ प्रतिदर्श में शामिल करनी होती हैं। प्रतिदर्श की इकाइयों के निष्पक्ष चुनाव के लिए यह आवश्यक है कि सभी पर्चियाँ या गोलियाँ एक-सी बनाई जाएँ, उनका आकार, रूप व रंग एकसमान हो तथा उन्हें छाँटने से पूर्व खूब हिला-मिला लिया जाए।
(ii) ढोल घुमाकर – इस रीति के अनुसार एक ढोल में समान आकार के लोहे या लकड़ी अथवा गत्ते के गोल टुकड़े जिन पर 0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9 अंक लिखे रहते हैं, डाल दिए जाते हैं तथा ढोल को हाथ या बिजली से खूब घुमाया जाता है जिससे सभी अंक मिल जाएँ। तत्पश्चात् कोई निष्पक्ष व्यक्ति उसमें से उतने टुकड़े निकाल लेता है, जितने पर प्रतिदर्श लेने होते हैं। ये टुकड़े जिन पदों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें प्रतिदर्श में शामिल कर लिया जाता है।
(iii) सुनियोजित या निश्चित क्रम के आधार पर – इस रीति के अनुसार सर्वप्रथम पदों को किसी भी क्रम में (भौगोलिक, संख्यात्मक अथवा वर्णात्मक) व्यवस्थित किया जाता है और फिर आकस्मिक रूप से कुछ पदों को चुन लिया जाता है; उदाहरण के लिए कुल 150 इकाइयों में से 15 इकाइयों को चुनना है तो 15 समूह बना लिए जाएँगे। प्रत्येक समूह में 10-10 इकाइयाँ होंगी। अब प्रत्येक समूह में दैव प्रतिदर्श द्वारा एक-एक पद चुन लिया जाएगा।
(iv) टिप्पेट की संख्याओं अथवा दैव प्रतिदर्श सारणियों द्वारा – इस रीति का प्रतिपादन टिप्पेट महोदय ने किया था। उन्होंने विभिन्न देशों की जनसंख्या रिपोर्टों के आधार पर 41,600 अंकों के प्रयोग से चार-चार अंक वाली 10,600 संख्याओं की एक तालिका बनाई है, जिनमें से प्रथम पैंतीस संख्याएँ निम्नवत् हैं-
इस सारणी के आधार पर यदि 6000 में से 20 संख्याएँ छाँटनी हों तो पहले 6000 विद्यार्थियों को 1 से 6000 तक क्रम संख्याओं में क्रमबद्ध किया जाएगा और फिर उपर्युक्त सारणी में से आरम्भ में 20 अंक छाँट लिए जाएँगे, जो 6000 से अधिक न हों। ये 20 अंक निम्नवत् होंगे –
उपर्युक्त 20 विद्यार्थियों को प्रतिदर्श में शामिल किया जाएगा।
रीति के गुण
- इस रीति द्वारा चयन में पक्षपात की कोई गुंजाइश नहीं रहती क्योंकि समग्र की प्रत्येक इकाई को प्रतिदर्श के रूप में चुने जाने का अवसर प्राप्त होता है।
- यह प्रणाली मितव्ययी है क्योंकि इसमें श्रम, समय व धन की बचत होती है।
- दैव प्रतिदर्श द्वारा चुने गए प्रतिदर्श समग्र के वास्तविक प्रतिनिधि होते हैं।
- इस रीति में प्रतिदर्श विभ्रमों की माप की जा सकती है।
- दैव प्रतिदर्श में संभावना सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
- चुनाव के लिए कोई विस्तृत योजना नहीं बनानी पड़ती।
रीति के दोष
- यदि केवल कुछ समंक ही उपलब्ध हों तो दैव प्रतिदर्श संभव नहीं हैं।
- यदि समग्र का आकार छोटा है या उसमें विषमता अधिक है तो इस रीति द्वारा लिए गए प्रतिदर्श समग्र का ठीक प्रकार प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते।
- यदि अनुसंधान का क्षेत्र बहुत छोटा है तो प्रतिदर्श की इकाइयों का चुनाव करना कठिन हो जाता है। इन दोषों के कारण ही दैव प्रतिदर्श को पूर्ण प्रतिदर्श नहीं माना जाता है।
3. मिश्रित या स्तरित प्रतिदर्श
स्तरित प्रतिदर्श विधि का प्रयोग उस समय उचित होता है, जब समग्र की इकाइयों में सजातीयता की अभाव हो तथा उनको विभिन्न विशेषताओं के आधार पर अनेक खण्डों अथवा स्तरों में विभक्त करना संभव हो। प्रत्येक खण्ड अथवा स्तर में से प्रतिदर्श में उसी अनुपात में इकाइयाँ ली जाती हैं, जो अनुपात उस खण्ड अथवा स्तर का पूर्ण समग्र के साथ होता है; उदाहरण के लिए किसी समग्र में 5000 इकाइयाँ हैं, ज़िनमें से प्रतिदर्श के लिए 10% अथवा 500 इकाइयों का चुनाव करना हो तो समग्र को चार खण्डों अथवा स्तरों में बाँटा जा सकता है तथा इन खण्डों व स्तरों में क्रमशः समग्र की 10, 20, 30 तथा 40 प्रतिदर्श इकाइयाँ हैं तो प्रतिदर्श के लिए इकाइयों का चुनाव इस प्रकार किया जाएगा –
स्तरित प्रतिदर्श के लिए आवश्यक है
- समग्र की विभिन्न विशेषताओं को ज्ञात करके उनके आधार पर विभिन्न खण्डों अथवा स्तरों में बाँटा जाए।
- प्रत्येक खण्ड अथवा स्तर इतना बड़ा अवश्य होना चाहिए, जिसमें से प्रतिदर्श के लिए इकाइयों का चुनाव संभव हो।
- विभिन्न खण्डों अथवा स्तरों में पूर्ण रूप से सजातीयता हो।
- प्रतिदर्श के लिए विभिन्न खण्डों अथवा स्तरों में से इकाइयों का चुनाव अनुपात में किया जाए, जो अनुपात संबंधित स्तर अथवा समग्र में है।
रीति के गुण
- इसमें कोई भी महत्त्वपूर्ण समूह ऐसा नहीं रहता, जिसका प्रतिनिधित्व प्रतिदर्श में न हो।।
- प्रतिदर्श में से कोई इकाई खो जाने पर उसी खण्ड में अन्य इकाइयों में से पुनस्र्थापन किया जा सकता है।
- यह प्रणाली मितव्ययी है क्योंकि इसमें धन, श्रम के समय की बचत होती है।
- यह अधिक विश्वसनीय है।
- जहाँ मौलिक समग्र में विषमता पाई जाती है, यह उचित रहता है।
रीति के दोष
- समग्र का खण्डों में विभाजन उचित न होने पर परिणामों में अभिनति (bias) का प्रभाव आ जाएगा।
- इकाइयों के चयन में अनुपात लाने के लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।
- गैर-आनुपातिक स्तरीकरण में विभिन्न वर्गों की इकाइयों को भार देने में अभिनति की गुंजाइश रहती है।
- स्तर बनाने में कठिनाई होती है।
4. अन्य रीतियाँ
(अ) सुविधानुसार प्रतिदर्श – इस प्रणाली में अनुसंधानकर्ता अपनी सुविधा के अनुसार प्रतिदर्श को चुनकर जाँच करता है।
रीति के गुण
- यह रीति अत्यंत आरामदायक है।
- यह रीति मितव्ययी है क्योंकि इसमें समय, श्रम व धन की बहुत बचत होती है।
रीति के दोष
- यह प्रणाली अवैज्ञानिक है।
- इस रीति के द्वारा निकाले गए निष्कर्ष अविश्वसनीय होते हैं।
(ब) कोटा प्रतिदर्श – इस प्रणाली में प्रतिदर्श की इकाइयाँ छाँटने का कार्य प्रगणकों पर छोड़ दिया जाता है। अनुसंधानकर्ता इस संबंध में प्रगणकों को पर्याप्त निर्देश दे देता है कि उन्हें किस भाग से कितनी इकाइयों का चुनाव करना है।
रीति के गुण
इस प्रणाली के गुण मिश्रित या स्तरित प्रतिदर्श की ही भाँति हैं; उदाहरण के लिए इस रीति में सभी समूहों
का प्रतिनिधित्व हो जाता है, यह प्रणाली मितव्ययी एवं अधिक विश्वसनीय है तथा जहाँ समग्र में मौलिक विषमता पाई जाती है, वहाँ यह रीति अधिक उपयुक्त रहती है किंतु इस रीति द्वारा संतोषजनक फल केवल उस दशा में मिल सकते हैं, जबकि प्रगणक ईमानदारी व परिश्रम से कार्य करें।
रीति के दोष
इस प्रणाली के दोष मिश्रित स्तरित प्रतिदर्श की भाँति ही है; उदाहरण के लिए इसके चयन एवं निष्कर्षों में अभिनति का प्रभाव पड़ता है, स्तर बनाने में कठिनाई होती है और भार (weight) देने में पक्षपात की गुंजाइश रहती है। इसके अतिरिक्त प्रगणकों में उतनी ईमानदारी, निष्पक्षता व सावधानी की आशा करना, जितना अनुसंधानकर्ता स्वयं दिखाता है, गलत होगा।
(स) बहुस्तरीय क्षेत्रीय दैव प्रतिदर्श – इस प्रणाली में प्रतिदर्शों के चुनाव का कार्य विभिन्न स्तरों पर किया जाता है। समस्या से संबंधित पहले स्तर तय किए जाते हैं। तत्पश्चात् दैव प्रतिदर्श के आधार पर प्रतिदर्श लिए जाते हैं। इस प्रकार इस विधि की निम्नलिखित दो प्रमुख विशेषताएँ हैं
- चुनाव कई स्तरों पर होता है।
- प्रत्येक स्तर पर दैव प्रतिदर्श के आधार पर प्रतिदर्श लिए जाते हैं।
रीति के गुण
- बड़े शहरों की क्षेत्रीय स्तर पर जनसंख्या ज्ञात करने के लिए यह प्रणाली अत्यधिक उपयुक्त है।
- इसमें प्रत्येक इकाई को चुने जाने के समान अवसर प्राप्त होते हैं।
- इस रीति में दैव प्रतिदर्श रीति के सभी लाभ प्राप्त होते हैं।
रीति के दोष
- विभिन्न क्षेत्रों में एकरूपता नहीं पाई जाती।
- इसमें दैव प्रतिदर्श के सभी दोष आ जाते हैं।
(द) बहुचरण प्रतिदर्श – जब एक ही प्रकार के समंकों की सहायता से विभिन्न समस्याओं से संबंधित सूचनाएँ प्राप्त करनी होती हैं तो एक ही बार में समग्र के उचित प्रतिनिधि के रूप में पर्याप्त मात्रा में प्रतिदर्श चुन लिया जाता है और फिर उसमें से प्रत्येक समस्या के अध्ययन के लिए उप-प्रतिदर्श लिए जाते हैं।
इन उप-प्रतिदर्शो को क्रमश: प्रथम, द्वितीय, तृतीय ……… चरण प्रतिदर्श कहते हैं।
रीति के गुण
- एक ही प्रतिदर्श से अनेक प्रकार की समस्याओं का अध्ययन हो जाता है।
- यह रीति मितव्ययी है। इसमें धन, परिश्रम व श्रम की बचत होती है।
- यह रीति सुविधाजनक है।
रीति के दोष
- प्रतिदर्श के दोषपूर्ण होने पर सभी उप-प्रतिदर्श भी दोषपूर्ण होंगे।
- प्रतिदर्श की जाँच की सुविधा नहीं होती।
(य) विस्तृत प्रतिदर्श – इस विधि में बहुत बड़ा प्रतिदर्श लिया जाता है। लगभग 80 या 90% इकाइयाँ प्रतिदर्श में शामिल की जाती हैं। यह विधि संगणना अनुसंधान विधि से मिलती-जुलती हैं।
रीति के गुण
- परिणाम अधिक शुद्ध होते हैं।
- परिणाम पर पक्षपात का कम प्रभाव पड़ता है।
- जाँच विस्तृत होती है।
रीति के दोष
- यह प्रणाली व्ययसाध्य है। इसमें धन, श्रम व समय का अपव्यय होता है।
- समग्र के बड़े अंश के उपलब्ध न होने पर यह रीति संभव नहीं होती।
प्रतिदर्श प्रणाली की उपर्युक्त सभी रीतियों के अपने-अपने गुण-दोष हैं; अतः कोई भी रीति सभी क्षेत्रों व परिस्थितियों में सर्वोत्तम नहीं हो सकती। उपयुक्त रीति का चयन करने से पहले अनुसंधान के उद्देश्य, प्रकृति, आकार, शुद्धता की मात्रा व समग्र की इकाइयों को ध्यान में रखना चाहिए। वैसे सामान्यत: दैये प्रतिदर्श व स्तरित रीति का प्रयोग किया जाता है।
प्रश्न 8.
प्रश्नावली क्या है? प्रश्नावली व अनुसूची में क्या अन्तर है? प्रश्नावली बनाते समय किन सावधानियों को ध्यान में रखना चाहिए?
उत्तर :
सूचना दो प्रकार से प्राप्त हो सकती है
1. प्रश्नावलियों के प्रयोग से तथा
2. अनुसूचियों के द्वारा।
1. प्रश्नावली – प्रश्नावली में प्रश्न दिए रहते हैं। इनमें प्रश्नों के उत्तर के लिए रिक्त स्थान नहीं होता। उत्तर सूचकों द्वारा अलग प्रपत्रों पर लिखे जाते हैं। आजकल प्रश्नावली में प्रत्येक प्रश्न के साथ वैकल्पिक उत्तर छाप देने की पद्धति अपनाई जाती है जिससे सूचक सही उत्तर पर निशान लगा देता है।
2. अनुसूची – ‘अनुसूची’ प्रश्नों की वह सूची है जिसे प्रगणकों द्वारा सूचकों से पूछताछ करके भरा जाता हैं यह एक रिक्त सारणी के रूप में होती है जिसमें प्रत्येक मद के सामने या नीचे प्रश्नों के उत्तर लिखने के लिए रिक्त स्थान होता है।
प्रश्नावली तथा अनुसूची में अंतर – सामान्यतः प्रश्नावली एवं अनुसूची को एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है क्योंकि दोनों का ही उद्देश्य सूचना देने वालों से सूचना प्राप्त करना है किंतु प्रयोग विधि के आधार पर इन दोनों में सूक्ष्म अंतर है। प्रश्नावली में प्रश्नों के उत्तर सूचकों द्वारा स्वयं दिए जाते हैं। इसके विपरीत, अनुसूची में प्रश्नों की सूची के प्रगणकों द्वारा सूचकों से सूचना प्राप्त करके भरा जाता है। प्रश्नों के उत्तर के लिए रिक्त स्थान छोड़ दिया जाता है। व्यवहार में दोनों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जाता है।
प्रश्नावली का उदाहरण
आप अपने नगर में महाविद्यालय के छात्रों के व्ययों का अध्ययन करना चाहते हैं। इसके लिए प्रश्नावली का नमूना तैयार कीजिए।
मेरठ नगर के महाविद्यालयों में छात्रों की व्यय प्रवृत्ति का सर्वेक्षण
1. छात्र/छात्रा …………………………………………………………..
2. कक्षा-स्नातक/स्नातकोत्तर संकाय : विधि/विज्ञान/कला/वाणिज्य
3. कॉलेज का नाम …………………………………………………………..
4. स्थायी निवास (गाँव/नगर का नाम)
5. यदि आप मेरठ के निवासी नहीं हैं तो मेरठ में रहने की व्यवस्था क्या है? छात्रावास/किराये का कमरा/रिश्तेदारों या परिचित के यहाँ आवास/प्रतिदिन आना-जाना।
6. आयु ……………………. वर्ष ……………………. माह ………………………….
7. पिता का नाम …………………………………………………………..
8. माँ का नाम …………………………………………………………..
9. पिता का व्यवसाय …………………………………………………………..
10. पिता की आय …………………………………………………………..
11. परिवार के अन्य सदस्यों की आय (यदि कोई हो) …………………………………………………………..
12. छात्र की मासिक आय (यदि कोई हो) …………………………………………………………..
13. छात्र की प्रतिमाह व्यय के लिए प्राप्त होने वाली राशि ………………………………..
(अ) परिवार से …………………………………………………………..
(ब) निजी आय से …………………………………………………………..
(स) छात्रवृत्ति से …………………………………………………………..
कुल राशि …………………………………………………………..
14. छात्र के मासिक व्यय के मद और राशि मद व्यय की राशि (निकटतम रुपया)
(i) कॉलेज की फीस …………………………………………………………..
(ii) पुस्तक एवं पाठ्य-सामग्री …………………………………………………………..
(iii) छात्रावास का किराया …………………………………………………………..
(iv) भोजन …………………………………………………………..
(v) बस/रेल का किराया …………………………………………………………..
(vi) खेलकूद व मनोरंजन पर व्यय …………………………………………………………..
(vii) अन्य व्यय …………………………………………………………..
15. क्या आपको मिलने वाली राशि पर्याप्त है? यदि नहीं, तो कितनी आवश्यकता और समझते हो? ……………………………….
16. क्या आप अपने वर्तमान मासिक व्यय में से कुछ बचत कर सकते हैं? यदि हाँ, तो मद और बचत का अनुमानित विवरण ……………..
17. अन्य संबंधित सूचना …………………………………………………………..
उत्तम प्रश्नावली के लिए सावधानियाँ
सांख्यिकीय अनुसंधान की सफलता मुख्य रूप से प्रश्नावली की उत्तमता पर निर्भर करती है; अतः प्रश्नावली तैयार करते समय सावधानी व सतर्कता बरतनी आवश्यक है। एक प्रश्नावली की रचना करते समय अग्रलिखित बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए
1. निवेदन पत्र – अनुसंधानकर्ता को प्रश्नावली के साथ एक निवेदन पत्र लगाना चाहिए जिससे वह अपना परिचय दे, अनुसंधान का उद्देश्य बताए तथा सूचना को गुप्त रखने तथा इसका दुरुपयोग न करने का विश्वास दिलाए।
2. प्रश्नों की संख्या कम – प्रश्नावली में प्रश्नों की संख्या कम होनी चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रश्न इतने कम न हो जाएँ कि पर्याप्त सूचना ही प्राप्त न हो सके।
3. सरल व स्पष्ट प्रश्न – प्रश्न सरल, स्पष्ट व सूक्ष्म होने चाहिए। अधिकांश प्रश्न ऐसे होने चाहिए जिनका उत्तर ‘हाँ’ या नहीं में दिया जा सके। प्रश्नों में अप्रचलित, जटिल व असम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
4. उचित क्रम – प्रश्न प्राथमिकता अथवा महत्त्व के क्रम में रखे जाने चाहिए। परस्पर संबंधित प्रश्नों ” को एक ही स्थान पर केन्द्रित किया जाना चाहिए।
5. वर्जित प्रश्न – प्रश्नावली में ऐसे प्रश्न सम्मिलित नहीं किए जाने चाहिए जिनसे सूचक के आत्मसम्मान तथा सामाजिक व धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचे, जो उनके मन में संदेह, उत्तेजना या विरोध उत्पन्न करे अथवा जो उसके व्यक्तिगत व्यवहार से संबंधित हों। प्रो० सेक्राइस्ट के शब्दों में-“यदि कठिन तथा अपरिचित प्रश्नों अथवा अविश्वास या संदेह उत्पन्न करने वाले प्रश्नों को पूछा जाता है तो उनके उत्तर अपूर्ण, संक्षिप्त, अर्थहीन, सामान्य या जानबूझकर टालने वाले होने की संभावना रहती है।”
6. प्रश्नों की प्रकृति – प्रश्न चार प्रकार के हो सकते हैं—
(i) सामान्य विकल्पीय प्रश्न – ऐसे प्रश्नों के उत्तर ‘हाँ’ या नहीं’ अथवा ‘गलत’ या ‘सही’ दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए क्या आपके पास कार है? अथवा क्या आप किराये के मकान में रहते हैं? इस प्रकार के प्रश्नों का गठन सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
(ii) बहुविकल्पीय प्रश्न – इस प्रकार के प्रश्नों में अनेक संभव उत्तर होते हैं। ये उत्तर प्रश्नावली में छपे होते हैं और सूचक उनमें से किसी एक पर निशान लगा देता है।
(iii) विशिष्ट जानकारी देने वाले प्रश्न – ये प्रश्न विशिष्ट जानकारी प्रदान करते हैं; जैसे-आपकी आयु क्या है? आपके कितने बच्चे हैं?
(iv) खुले प्रश्न – इन प्रश्नों का उत्तर सूचक को अपने शब्दों में देना होता है। उदाहरण के लिए भारत में मुद्रा स्फीति को किस प्रकार नियन्त्रित किया जा सकता है? प्रश्नावली में जहाँ तक संभव हो सके, प्रथम प्रकार के प्रश्न पूछे जाने चाहिए।
7. प्रश्नों में उचित शब्दों का प्रयोग – प्रश्नों के गठन में सही स्थान पर सही शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए। प्रश्न ऐसे होने चाहिए जिनके अर्थ प्रमापित एवं सर्वविदित हों।
8. प्रत्यक्ष संबंध – प्रश्न अनुसंधान से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होने चाहिए ताकि व्यर्थ की सूचना एकत्र करने में धन, श्रम व समय का अपव्यय न हो।
9. सत्यता की जाँच – प्रश्नावली में ऐसे प्रश्नों को भी समावेश होना चाहिए जिससे उत्तरों की यथार्थता की परस्पर जाँच की जा सके।
10. प्रश्नावली का गठन – प्रश्नावली के गठन पर उपयुक्त ध्यान दिया जाना चाहिए। उत्तर लिखने के लिए पर्याप्त स्थान छोड़ना चाहिए।
11. सूचक की योग्यता के अनुसार प्रश्न – प्रश्नावली में ऐसे प्रश्न होने चाहिए जिनके उत्तर सूचक सरलता से दे दें।
12. आवश्यक निर्देश – प्रश्नावली भरने के संबंध में प्रश्नावली के प्रारम्भ में अथवा अंत में स्पष्ट रूप से आवश्यक निर्देश दिए जाने चाहिए ताकि सूचक को सूचना देने में आसानी हो।
13. पूर्व परीक्षण एवं संशोधन – प्रश्नावली के तैयार हो जाने पर, अनुसंधान कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व उसका कुछ लोगों पर परीक्षण कर लेना चाहिए। इससे प्रश्नावली के दोषों को दूर करने में सहायता मिलेगी।