जटायोः शौर्यम् 

पाठपरिचय – प्रस्तुत पाठ्यांश आदिकवि वाल्मीकि-प्रणीत रामायणम् के अरण्यकाण्ड से उद्धृत किया गया है जिसमें जटायु और रावण के युद्ध का वर्णन है। पंचवटी कानन में सीता का करुण विलाप सुनकर पक्षिश्रेष्ठ जटायु उनकी रक्षा के लिए दौड़े। वे रावण को परदाराभिमर्शनरूप निन्द्य एवं दुष्कर्म से विरत होने के लिए कहते हैं। रावण की अपरिवर्तित मनोवृत्ति को देख वे उस पर भयावह आक्रमण करते हैं। महाबली जटायु अपने तीखे नखों तथा पञ्जों से रावण के शरीर में अनेक घाव कर देते हैं तथा पञ्जों के प्रहार से उसके विशाल धनुष को खंडित कर देते हैं।

टे धनुष, मारे गये अश्वों और सारथी वाला रावण विस्थ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है। कुछ ही क्षणों बाद क्रोधांध रावण जटायु पर प्राणघातक प्रहार करता है परन्तु पक्षिश्रेष्ठ जटायु उससे अपना बचाव कर उस पर चञ्चु-प्रहार करते हैं, उसके बायें भाग की दसों भुजाओं को क्षत-विक्षत कर देते हैं।

पाठ का सप्रसंग हिन्दी-अनुवाद –

  1. सा तदा करुणा वाचो विलपन्ती सुदुःखिता।
    वनस्पतिगतं गधं ददर्शायतलोचना॥

अन्वय-तदा सा आयतलोचना करुणा वाचः विलपन्ती सुदु:खिता वनस्पतिगतं गृधं ददर्श।

कठिन-शब्दार्थ :

आयतलोचना = बड़े-बड़े नेत्रों वाली (विशालनेत्रा)।
वाचः = वाणी।
विलपन्ती = विलाप करती हुई (विलापं कुर्वन्ती)।
वनस्पतिगतम् = वन-पक्तियों में स्थित।
ददर्श = देखा।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमोभागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ के अरण्यकाण्ड से संकलित है। इस श्लोक में रावण द्वारा अपहरण करके लंका की ओर ले जाती हुई सीता की करुण दशा का तथा उसके द्वारा पञ्चवटी में स्थित जटायु नामक गिद्ध को देखे जाने का वर्णन हुआ है –

हिन्दी-अनुवाद : तब उस बड़े-बड़े नेत्रों वाली, करुणामय वाणी से विलाप करती हुई अत्यन्त दु:खी सीताजी ने पंचवटी के वनों में स्थित जटायु नामक गिद्ध को देखा।

  1. जटायो पश्य मामार्य हियमाणामनाथवत्।
    अनेन राक्षसेन्द्रेण करुणं पापकर्मणा।।

अन्वय – आर्य जटायो! अनेन राक्षसेन्द्रेण पापकर्मणा अनाथवत् हियमाणां करुणं माम् पश्य।

कठिन-शब्दार्थ :

राक्षसेन्द्रेण = राक्षसराज (रावण) के द्वारा (दानवपतिना)।
पापकर्मणा = पाप कर्म से।
अनाथवत् = अनाथ के समान।
हियमाणाम् = अपहरण की जाती हुई (नीयमानाम्)।
पश्य – देखो।
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प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत. है, जो मूलतः महर्षि वाल्मीकि विरचित ‘रामायण’ से संकलित है। इस श्लोक में रावण द्वारा अपहृत सीता करुण विलाप करती हुई वन में स्थित जटायु नामक गिद्ध को देखकर अपनी रक्षा हेतु उसे आवाज लगाती है, इसका वर्णन किया गया है –

हिन्दी-अनुवाद :
हे पूजनीय जटायु! इस राक्षसराज़ (रावण) के द्वारा पापकर्म से अनाथ के समान अपहरण करके ले जाई जाती हुई, शोकग्रस्त मुझे (सीता को) देखो।

  1. तं शब्दमवसुतस्तु जटायुरथ शुभ्रवे।
    निरीक्ष्य रावणं क्षिप्रं वैदेहीं च ददर्श सः॥

अन्वय-अथ अवसुप्तः तु जटायुः तं शब्दं शुश्रुवे। सः च रावणं निरीक्ष्य क्षिप्रं वैदेहीं ददर्श।

कठिन-शब्दार्थ :

अवसुप्तः = अल्पनिद्रा में सोए हुए।
शुश्रुवे = सुना।
निरीक्ष्य = देखकर (अवलोक्य)।
क्षिप्रम् = शीघ्र ही।
वैदेहीम् = सीता को (सीताम्)।
ददर्श = देखा।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ के ‘अरण्य-काण्ड’ से संकलित है। इस श्लोक में वन में अल्प निद्रा में स्थित जटायु द्वारा रावण द्वारा अपहृत एवं करुण विलाप करती हुई सीताजी को एवं रावण को देखे जाने का वर्णन किया गया है –

हिन्दी-अनुवाद : इसके बाद (सीता द्वारा आवाज दिये जाने पर) अल्प निद्रा में सोए हुए जटायु ने सीताजी के उन करुण शब्दों को सुना और उसने रावण को देखकर शीघ्र ही सीताजी को भी देखा।

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  1. ततः पर्वतशृगाभस्तीक्ष्णतुण्डः खगोत्तमः।
    वनस्पतिगतः श्रीमान्व्याजहार शुभां गिरम्॥

अन्वय-ततः पर्वतशृङ्गाभः, तीक्ष्णतुण्डः खगोत्तमः वनस्पतिगतः श्रीमान् शुभां गिरं व्याजहार।

कठिन-शब्दार्थ :

पर्वतशृङ्गाभः = पर्वत के शिखर के समान कान्ति वाले (गिरिशिखरकान्तः)।
तीक्ष्णतुण्डः = कठोर चोंच वाले।
खगोत्तमः = पक्षियों में श्रेष्ठ (पक्षिश्रेष्ठः)।
गिरम् = वचन।
व्याजहार = कहे (अकथयत्)।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटयोः शौर्यम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ महर्षि वाल्मीकि विरचित ‘रामायण’ के ‘अरण्यकाण्ड’ से संकलित है। इस श्लोक में जटायु नामक गिद्ध की विशेषताओं का तथा सीता की करुण ध्वनि सुनकर उसके बोलने का वर्णन किया गया है।

हिन्दी-अनुवाद : उसके बाद पर्वत के शिखर के समान कान्ति वाले, तीक्ष्ण (कठोर) चोंच वाले, पक्षियों में श्रेष्ठ, वनसमूह में रहने वाले, शोभासम्पन्न (जटायु) ने ये शुभवचन कहे।

  1. निवर्तय मतिं नीचां परदाराभिमर्शनात्।
    न तत्समाचरेद्धीरो यत्परोऽस्य विगर्हयेत्॥

अन्वय – परदाराभिमर्शनात् नीचां मति निवर्तय। धीरः तत् न समाचरेत् यत् परः अस्य विगर्हयेत्।
कठिन-शब्दार्थ :

परदाराभिमर्शनात् = पराई स्त्री के स्पर्श से (परस्त्रीस्पर्शात्)।
धीरः = बुद्धिमान्।
न समाचरेत् = आचरण नहीं करते हैं।
परः = दूसरा।
विगर्हयेत् = निन्दा करनी चाहिए (निन्द्यात्)।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में जटायु द्वारा रावण को निन्दनीय (सीता-हरण रूपी) कार्य न करने की प्रेरणा दी गई है। वह रावण से कहता है कि

हिन्दी-अनुवाद : (हे रावण !) पराई स्त्री के स्पर्श से नीच बनी हुई अपनी दुष्ट बुद्धि (दुष्कर्म) को रोको। क्योंकि विवेकी मनुष्य को उस प्रकार का आचरण (दुराचार) नहीं करना चाहिए जिसकी दूसरे लोग निन्दा करते हैं।

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  1. वृद्धोऽहं त्वं युवा धन्वी सरथः कवची शरी।
    न चाप्यादाय कुशली वैदेहीं मे गमिष्यसि॥

अन्वय – अहं वृद्धः त्वं च युवा धन्वी सरथः कवची शरी (असि), अपि च मे कुशली (त्वं) वैदेहीं आदाय न गमिष्यसि।

कठिन-शब्दार्थ :

धन्वी = धनुर्धर (धनुर्धरः)।
सरथः = रथ से युक्त।
कवची = कवच धारण किया हुआ (कवचधारी)।
शरी = बाण को लिए हुए (बाणधरः)।
वैदेहीम् = सीता को।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में जटायु द्वारा रावण की शक्तिसम्पन्नता को दर्शाते हुए तथा अपने शौर्य को प्रकट करते हुए –
चेतावनी दिये जाने का वर्णन हुआ है कि रावण जटायु के रहते सीता का अपहरण करके नहीं ले जा सकता है। जटायु रावण से कहता है कि –

हिन्दी-अनुवाद : (हे रावण) मैं वृद्ध हूँ और तुम युवा, धनुर्धर, रथसहित, कवच धारण किये हुए तथा बाणों से युक्त हो। तो भी मेरे रहते हुए तुम सकुशल सीताजी को लेकर नहीं जा सकते हो।

  1. तस्य तीक्ष्णनखाभ्यां तु चरणाभ्यां महाबलः।
    चकार बहुधा गात्रे व्रणान्पतगसत्तमः॥

अन्वय – महाबलः पतगसत्तमः तु तीक्ष्णनखाभ्यां चरणाभ्यां तस्य गात्रे बहुधा व्रणान् चकार।

कठिन-शब्दार्थ :

महाबलः = महान् बलशाली।
पतगसत्तमः = पक्षिराज जटायु (पक्षिशिरोमणिः)।
गात्रे = शरीर पर (शरीरे)।
व्रणान् = प्रहार से होने वाले घावों को (प्रहारजनितस्फोटान्)।
चकार = किया।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ आदिकवि महर्षि वाल्मीकि विरचित ‘रामायण’ के ‘अरण्यकाण्ड’ से संकलित है। इस श्लोक में जटायु के शौर्य को दर्शाते हुए उसके द्वारा रावण को घायल किये जाने का वर्णन हुआ है।

हिन्दी-अनुवाद : महान् बलशाली पक्षिराज जटायु ने अपने तीक्ष्ण नाखूनों वाले पंजों से उस रावण के शरीर पर अनेक प्रकार से प्रहारजनित घाव कर दिए।

ततोऽस्य सशरं चापं मुक्तामणिविभूषितम्।
चरणाभ्यां महातेजा बभञ्जास्य महद्धनुः॥

अन्वय – ततः महातेजा चरणाभ्यां अस्य मुक्तामणिविभूषितं सशरं चापं (च) अस्य महद् धनुः बभञ्ज।

कठिन-शब्दार्थ :

महातेजा = महान् तेजस्वी।
मुक्तामणिविभूषितं = हीरे-मोतियों से सुसज्जित।
सशरम् = बाण सहित।
चापम् = धनुष को (धनुषम्)।
बभज = तोड़ दिया (भग्नं कृतवान्)।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत किया गया है। मूलतः यह पाठ आदिकवि महर्षि वाल्मीकि विरचित ‘रामायण’ के ‘अरण्यकाण्ड’ से संकलित है। इस श्लोक में पक्षिराज जटायु के पराक्रम का तथा उसके द्वारा रावण के धनुष को तोड़ दिये जाने का वर्णन किया गया

हिन्दी-अनुवाद : उसके बाद उस महान् तेजस्वी जटायु ने अपने पंजों से उस रावण के मुक्तामणियों से सुसज्जित बाणों से युक्त धनुष को तथा अन्य बड़े धनुष को भी तोड़ दिया।

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  1. स भग्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः।
    अड्केनादाय वैदेही पपात भुवि रावणः॥

अन्वय – स भग्नधन्वा, विरथः हताश्वः हतसारथिः रावणः वैदेहीं अकेन आदाय भुवि पपात।

कठिन-शब्दार्थ :

भग्नधन्वा = टूटे हुए धनुष वाला (भग्नः धनुः यस्य सः)।
विरथः = रथहीन (रथहीनः)।
हताश्वः = मारे गए घोड़ों वाला (हताः अश्वाः यस्य सः)।
हतसारथिः = मारे गए सारथि वाला।
वैदेहीं = सीता को।
अङ्केन = गोद में।
आदाय = लेकर (गृहीत्वा)।
भुवि = पृथ्वी पर।
पपात = गिर पड़ा (अपतत्)।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ आदिकवि महर्षि वाल्मीकि विरचित ‘रामायण’ के ‘अरण्यकाण्ड’ से संकलित है। इस श्लोक में जटायु के प्रहार से घायल हुए रावण को सीता के साथ पृथ्वी पर गिरने का वर्णन किया गया है।

हिन्दी-अनुवाद : (जटायु के प्रहारों से) वह टूटे हुए धनुष वाला, टूटे हुए रथ वाला, मारे गए घोड़ों तथा मारे गए सारथि वाला रावण सीता को गोद में लेकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

  1. संपरिष्वज्य वैदेहीं वामेनाकेन रावणः।
    तलेनाभिजघानाशु जटायु क्रोधमूर्च्छितः॥

अन्वय-क्रोधमूर्च्छितः रावणः वैदेहीं वामेन अकेन संपरिष्वज्य आशु जटायुं तलेन अभिजघान।

कठिन-शब्दार्थ :

क्रोधमूर्छितः – क्रोध से मूर्छित हुआ।
वैदेहीम् – सीता को।
वामेनाङ्केन = बाईं भुजा से।
संपरिष्वज्य = पकड़कर।
आशु = शीघ्र ही (शीघ्रम्)।
तलेन = थप्पड़ से।
अभिजघान = प्रहार किया, मार डाला (हतवान्)।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में जटायु के प्रहारों से घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े रावण द्वारा क्रोध में आकर जटायु को थप्पड़ मार दिये जाने का वर्णन किया गया है।

हिन्दी-अनुवाद :
(जटायु के प्रहारों से घायल होने के कारण) क्रोध से मूर्च्छित हुए रावण ने सीता को बाईं भुजा से पकड़कर शीघ्र ही जटायु को थप्पड़ (प्राणघातक प्रहार करके) मार डाला।

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  1. जटायुस्तमतिक्रम्य तुण्डेनास्य खगाधिपः।
    वामबाहून्दश तदा व्यपाहरदरिन्दमः॥

अन्वय-अरिन्दमः खगाधिपः जटायु तदा तुण्डेन तं अतिक्रम्य अस्य दश वाम बाहून् व्यपाहरत्।

कठिन-शब्दार्थ :

अरिन्दमः = शत्रुओं को नष्ट करने वाला (शत्रुदमनः, शत्रुनाशकः)।
खगाधिपः = पक्षिराज (पक्षिराजः)।
तुण्डेन = चोंच से (मुखेन, चञ्च्या)।
अतिक्रम्य = आक्रमण करके। वाम बाहून् बाईं भुजाओं को।
व्यपाहरत् = उखाड़ दिया (उत्खातवान्)।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘जटायोः शौर्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत किया गया है। मूलतः यह पाठ महर्षि वाल्मीकि विरचित ‘रामायण’ के ‘अरण्यकाण्ड’ से संकलित है। इस श्लोक में पक्षिराज जटायु की स्वामिभक्ति एवं शौर्य को दर्शाया गया है। वह सीताजी को रावण के चंगुल से मुक्त कराने के लिए मृत्युपर्यन्त उससे संघर्ष करता है तथा रावण को क्षत-विक्षत कर देता है किन्तु उस राक्षसराज रावण के हाथों उसकी मृत्यु हो जाती है।

हिन्दी-अनुवाद : शत्रुओं का विनाश करने वाले, पक्षिराज जटायु ने तब (रावण द्वारा प्राणघातक आक्रमण करने पर) अपनी चोंच से उस रावण पर आक्रमण करके उसकी बाईं ओर की दसों भुजाओं को उखाड़ दिया। अर्थात् मरने से पूर्व जटायु ने अन्तिम साँस तक स्वामिभक्ति प्रदर्शित करते हुए रावण को भारी क्षति पहुँचाई।

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