1 (क) देवसेना का गीत (ख) कार्नेलिया का गीत

जयशंकर प्रसाद

(क) देवसेना का गीत (ख) कार्नेलिया का गीत व्याख्या

कवि का

सप्रसंग व्याख्या

(क) देवसेना का गीत

1.

आह! वेदना मिली विदाई!

मैंने भ्रम-वश जीवन संचित

मधुकरियों की भीख लुटाई।

छलछल थे संध्या के श्रमकण

आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।

मेरी यात्रा पर लेती थी

नीरवता अनंत अँगड़ाई।

संदर्भ प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद की नाट्य रचना 'स्कंदगुप्त' के पाँचवें अंक के छठे दृश्य से लिया गया है। नाट्य-रचना का भाग होते हुए भी इस कविता का स्वतंत्र महत्त्व है। पाठ्य पुस्तक 'अंतरा' (भाग-2) में यह कविता 'देवसेना का गीत' शीर्षक के रूप में प्रस्तुत की गई है। उपर्युक्त काव्यांश इस कविता का हिस्सा है।

प्रसंग भारत पर गुप्त साम्राज्य के शासन के दौरान हूणों का आक्रमण हुआ। उस समय कुमारगुप्त शासक था। कुमारगुप्त प्रभावशाली शासक नहीं था। अपनी विलासिता के कारण वह षड्यंत्रों से घिरा था। सत्ता का संघर्ष चल रहा था। युवराज स्कंदगुप्त इससे क्षुब्ध सत्ता से विमुख हूणों के आक्रमण को रोकने जाता है। उसे मालवा के राजा बंधुवर्मा का साथ मिलता है किंतु बंधुवर्मा अपने बांधवों के साथ युद्ध में मारा जाता है। उसकी बहन देवसेना बच जाती है। वह स्कंदगुप्त के प्रणय-निवेदन को ठुकराकर राष्ट्र-सेवा का व्रत लेती है किंतु उसे अपने अतीत की अनुभूतियाँ कचोटती हैं। देवसेना की वेदना इस गीत के माध्यम से प्रकट हुई है।

व्याख्या स्कंदगुप्त के प्रणय-निवेदन को अस्वीकृत कर देवसेना पर्णदत्त के आश्रम में राष्ट्र सेवा के लिए स्वयं को अर्पित कर चुकी है। किसी समय उसकी भावनाएँ तरंगित होकर मुखर हो जाती हैं। वह गा उठती है। उसके गीत में हृदय की वेदना के साथ-साथ अतीत की नादानियों का पश्चाताप भी आँसू के रूप में बाहर आता है।

देवसेना को अनुभव होता है कि जीवन के अंतिम क्षणों तक वेदना उसके साथ रहेगी और वेदना ही उसकी विदाई तक की साथी होगी। देवसेना अपने अतीत पर विचार करती है तो उसे महसूस होता है कि उसने जीवन में मिले (दान या भिक्षा के

रूप में ही सही) मीठे क्षणों को अज्ञानता में त्याग दिया। यही उसकी वेदना को आकार देते हैं। स्कंदगुप्त से प्रेम, स्कंदगुप्त का विचलन, पुनः स्कंदगुप्त का प्रणय-निवेदन तथा अंततः उसका उस प्रणय निवेदन को अस्वीकार करना ही उस आंतरिक पीड़ा का कारण है।

देवसेना मानती है कि जीवन-संध्या में छलकते ये आँसू केवल वेदना से उपजे हुए नहीं हैं बल्कि एक लंबे संघर्ष से भरी जीवन-यात्रा की थकान के श्रम-जल भी हैं। देवसेना की जीवन-यात्रा के अंतिम क्षणों में आई यह खामोशी उसके जीवन संघर्षों की कथा बयान करती है।

शब्दार्थ संचित = एकत्रित; मधुकरियों = भिक्षा; नीरवता खामोशी

काव्य-सौंदर्य

2.

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,

गहन-विपिन की तरु-छाया में,

पथिक उनींदी श्रुति में किसने-

यह विहाग की तान उठाई।

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी

रहे बचाए फिरती कब की

मेरी आशा आह ! बावली,

तूने खो दी सकल कमाई।

संदर्भ प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' (भाग-2) में संकलित कविता 'देवसेना का गीत' से उद्धृत की गई हैं। यह गीत नाटककार जयशंकर प्रसाद की

रचना 'स्कंदगुप्त' के पाँचवें अंक में है। नाटक के अंदर गीतों का समायोजन प्रसाद जी की विशिष्टता है। इनके माध्यम से पात्र के मनोभाव तथा संवेदना को विस्तार मिलता है।

प्रसंग देवसेना स्कंदगुप्त के प्रणय-निवेदन को अस्वीकृत करने के कारण अपने जीवन के अंतिम क्षणों में वेदना का अनुभव करती है। इस वेदना का कारण 'प्रणय' नहीं बल्कि मानवीय अंतर्द्वंद्व है जिसके कारण देवसेना को लगता है कि उसने स्कंदगुप्त को ठुकराकर मानवीय संबंधों के आधार को चोट पहुँचाई है। स्कंदगुप्त ने विजया के विश्वासघात के बाद प्रत्यावर्तन की जो कोशिश की वह असफल रही। इस असफलता के कारण वह आजीवन अविवाहित रहने का प्रण लेता है। देवसेना इससे दुखी है और कहीं न कहीं स्वयं को दोषी मानती है।

व्याख्या देवसेना अपने अतीत के मधुर क्षणों को स्मृति में लाती है। दिनों की मधुर स्मृतियाँ स्वज्नों की तरह सामने आ रही हैं। जिस तरह एक छायादार वृक्ष के निकट हरे-भरे जंगल में शीतल हवा के झोंकों में परिश्रम करने के बाद थका-हारा पथिक विश्राम करते हुए उनींदी अवस्था में होता है, ठीक वही स्थिति देवसेना की है। अपने जीवन की मधुरता से सने पल, थकावट के कारण विश्राम की अवस्था में आई हल्की नींद में सपने की तरह उसके सामने आकार ले रहे हैं। उसे लगता है कि कोई विहाग-राग गा कर उसके हृदय को उस दुनिया में ले जाना चाहता है, जहाँ से वह बहुत पहले लौट आई है।

देवसेना अपने अतीत को याद करती है, जब उसके रूप-यौवन पर कितने लोगों की दृष्टि घूमती रहती थी और वह स्वयं को बचाती रही। लेकिन उसे दुख है कि उसकी चंचलता ने उसकी सकल जमा पूँजी को, उसके रूप-यौवन की प्रवृत्तियों को दिशाहीन कर दिया। अंततः उसे अपनी आशा तथा आकांक्षा की प्रेरणा से दूर होना पड़ा।

शब्दार्थ विपिन = जंगल; श्रमित = परिश्रम से थका हुआ; उनींदी नींद से भरी; सतृष्ण = अभिलाषायुक्त, प्यासी; दीठ = दृष्टि; बावली = चंचल

काव्य-सौंदर्य

3.

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर

प्रलय चल रहा अपने पथ पर।

मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,

उससे हारी-होड़ लगाई।

लौटा लो यह अपनी थाती

मेरी करुणा हा-हा खाती

विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे

इससे मन की लाज गँवाई।

संदर्भ प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' (भाग-2) में संकलित कविता 'देवसेना का गीत' से ली गई हैं। यह गीत नाटककार जयशंकर प्रसाद की रचना 'स्कंदगुप्त' से लिया गया है।

प्रसंग देवसेना अपने अतीत को उनींदी आँखों में श्रमित-स्वप्न की भाँति लाती है। उसे अपनी जीवन-यात्रा की घटनाएँ मानव तथा प्रकृति के संबंधों से उपजे संघर्ष की प्रक्रिया में दिखाई पड़ती हैं, जिसे वह 'वेदना' के साथ व्यक्त करती है।

व्याख्या देवसेना इन पंक्तियों में अपनी व्यथा को अभिव्यक्त करती हुई, आत्मा-चेतना तथा नारी संघर्षों को सामने लाती है। उसकी पीड़ा मानवता की पीड़ा को परिभाषित करती हुई काव्यांश में स्पष्ट होती है।

देवसेना कहती है कि प्रलय उसके जीवन-रथ पर चल कर आगे बढ़ रही है और उसने प्रलय से होड़ प्रारंभ कर दी है। मानवता का संघर्ष अनंत है। दुख, पीड़ा और वेदना अंतहीन है, उससे जीतना आसान नहीं है। देवसेना को लगता है कि उसने जो संघर्ष प्रारंभ किया है, उसमें उसकी हार निश्चित है। किंतु फिर भी उसका संघर्ष मानवता को सुदृढ़ करने के लिए है। देवसेना अपनी पीड़ा तथा वेदना पर जीत तो हासिल नहीं कर सकती, पर उसका जीवन संघर्ष मानवता के लिए मार्गदर्शक बनेगा।

देवसेना नारी सुलभ प्रवृत्तियों के कारण पीड़ा भोगती है। उसका कहना है कि वह परंपरा, जिसमें वेदना नारी के ही हिस्से में आती है, उसे मानव जगत लौटा ले क्योंकि इतनी करुणा और पीड़ा को सँभालना उसके वश की नहीं है।

5.

बरसाती आँखों के बादल-बनते जहाँ भरे करुणा जल।

लहरें टकराती अनंत की-पाकर जहाँ किनारा।

हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे।

मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' (भाग-2) में संकलित कविता 'कार्नेलिया का गीत' से लिया गया है। यह कविता जयशंकर प्रसाद की नाट्यकृति 'चंद्रगुप्त' के दूसरे अंक से है।

प्रसंग ग्रीक सेनापति सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति की जननी मानती है। वह भारत की विविधता और सांस्कृतिक उच्चता से प्रभावित होकर गा उठती है।

व्याख्या यह वह भूमि है जहाँ के लोगों में व्याप्त करुणा का भाव बादल के रूप में बरस जाते हैं। यहाँ सागर की लहरें भी किनारा पाकर अपनी अनंत यात्रा को विराम देती हैं। उषा-रूपी पनिहारिन प्रातःकाल उठकर सूर्यरूपी स्वर्ण कलश में अमृत का रस ले सुख की बूँदें इस पवित्र धरती पर टपकाती हैं, जो भारतीयों को अमरता के भाव से भरती है। जब दुनिया रात में विश्राम कर रही होती है, उस समय उषारूपी सुंदरी सूर्यरूपी घड़ा से उसकी किरणों रूपी जल को इस पृथ्वी पर लुढ़का देती है।

कार्नेलिया को भारत से आध्यात्मिक तौर पर लगाव है। वह इस धरती में मानव को ऊर्जा प्रदान करने वाली आध्यात्मिक शक्ति को देखती है। मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों को भी इस भूमि से प्यार है।

कवि जयशंकर प्रसाद 'कार्नेलिया' जैसे पात्र के माध्यम से भारत की प्रकृति तथा संस्कृति को सामने रखते हैं। इसके पीछे उनका उद्देश्य औपनिवेशिक रचनाकारों को जवाब देना भी है, जो पाश्चात्य संस्कृति के पक्षधर हैं।

शब्दार्थ हेम = स्वर्ण, अमृत; मदिर मस्ती के साथ; रजनी रात

काव्य-सौंदर्य

की भूमि तथा ज्ञान का पालना लगती है। उसे भारत-भूमि से भावनात्मक लगाव हो जाता है और वह गा उठती है-अरुण यह मधुमय देश हमारा!

व्याख्या कार्नेलिया भारत-भूमि से अपने असीम लगाव को प्रकट कर रही है। उसे यहाँ की प्रकृति मनोरम लगती है। यहाँ उसे असीम शांति और सुख अनुभव होता है। वह भारतीय संस्कृति से प्रभावित है। उसे भारत देश सूर्योदय की पहली किरण की भाँति मधुर तथा स्नेह-युक्त स्पर्श देने वाला महसूस होता है। उसे लगता है कि भारत वह भूमि है जहाँ आकर अनजान क्षितिज को भी सहारा मिल जाता है।

कार्नेलिया मानती है कि भारत का वातावरण किसी को भी बरबस आकर्षित करने वाला है। रसयुक्त कमल की कांति तथा वृक्षों की फुनगी पर छिटकी लाली प्रकृति को मंगल भावनाओं से भरने का कार्य करती है। सूर्य की किरणों तथा कमल की शोभा के बीच ऐसा वातावरण निर्मित होता है, मानो हरीभरी धरती पर मांगलिक कार्यवश केसरिया लेप लगा दिया गया हो। प्रातः काल की सुगंधित हवा वातावरण को और मादक बना रही है। आकाश में इंद्रधनुषी पंखों को फैलाए पक्षी इस प्रकृति को अधिक मोहक बनाने में सक्षम हैं। वह यहाँ की शीतल मलय समीर के साथ उड़ते हैं और इसे ही अपना घोंसला मान लेते हैं।

कवि जयशंकर प्रसाद ने एक विदेशी पात्र के माध्यम से भारत-भूमि की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक उदात्त प्रवृत्तियों को सामने रखा है। एक अजनबी विदेशी व्यक्ति को यदि यहाँ की संस्कृति तथा प्रकृति से लगाव हो तो इस देश की महानता निर्विवाद है। प्रसाद जी इसी भावना को समझाने का प्रयास इस कविता के माध्यम से कर रहे हैं।

शब्दार्थ अरुण = लालिमायुक्त; मधुमय सरस; तामरस कमलश; विभा आलोक, प्रकाश; तरुशिखा = वृक्ष की फुनगी; सुरधनु इंद्रधनुष; खग पक्षी; नीड़ घोंसला

काव्य-सौंदर्य

स्वीकार करती है कि वह मन की लज्जा को त्याग कर दुखों तथा कष्टों को सहन करने की परंपरा का वहन करने में सक्षम नहीं हुई।

कवि ने इन पंक्तियों में मानव तथा प्रकृति के चित्र को उभारा है। नारी की वेदना, उसके जीवन संघर्षों को दिखाकर कवि कहना चाहता है कि यह भार नारियों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है पर वह चुपचाप अपनी पीड़ाओं को सहती रहती है। देवसेना इस पीड़ा और वेदना से नारी-जाति की मुक्ति चाहती है।

शब्दार्थ प्रलय = पीड़ा, संघर्ष (कयामत); थाती = परंपरा, धरोहर; लाज = लज्जा

काव्य-सौंदर्य

(ख) कार्नेलिया का गीत

4.

अरुण यह मधुमय देश हमारा!

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।

सरस तामरस गर्भ विभा पर-नाच रही तरुशिखा मनोहर।

छिटका जीवन हरियाली पर-मंगल कुंकुम सारा!

लघु सुरधनु से पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे।

उड़ते खग जिस ओर मुँह किए-समझ नीड़ निज प्यारा।

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' (भाग-2) में संकलित 'कार्नेलिया का गीत' से लिया गया है। यह कविता प्रसिद्ध नाटककार एवं कवि जयशंकर प्रसाद की रचना 'चंद्रगुप्त' के दूसरे अंक से ली गई है। 'छायावाद' की सभी प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस कविता में दिखाई देती हैं।

प्रसंग सिकंदर के ग्रीक सेनापति सेल्यूकस की पुत्री अपने पिता के साथ विजय-अभियान के दौरान भारत आई है। एक आक्रमणकारी सेना के साथ आई कार्नेलिया को भारत की भूमि शत्रुओं की धरती नहीं दिखती। यह धरती उसे शांति

से कवि का तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष वह महान् देश है जहाँ पर अनजान (अपरिचित) व्यक्तियों को भी आश्रय प्राप्त हो जाता है। भारतवासियों के मन में संपूर्ण मानवता के प्रति करुणा का भाव है।

उसे कवि ने इन शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है : 'बरसाती आँखों के बादल', उसी प्रकार से प्रभातकालीन सौंदर्य की लालिमा इन शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त हुई है, 'हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे।'

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