Chapter – 1 भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ : लता मंगेशकर

लेखक परिचय
कुमार गंधर्व

कुमार गंधर्व भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम है। इनका जन्म 1924 ई. में कर्नाटक राज्य में बेलगाँव जिले के सुलेभावि में हुआ। इनका मूल नाम शिवपुत्र साढ़िदारमैया कामकली है। ये बचपन में ही संगीत के प्रति समर्पित हो गए। मात्र दस वर्ष की उम्र में इन्होंने गायकी की पहली मंचीय प्रस्तुति की। इनके संगीत की मुख्य विशेषता मालवा लोकधुनों और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का सुंदर सामंजस्य है जिसका अद्भुत नमूना कबीर के पदों का उनके द्वारा गायन है। इन्होंने लोगों में रचे-बसे लुप्तप्राय पदों का संग्रह कर और उन्हें स्वरों में बाँधकर इन्हें अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी। इनकी संगीत-साधना को देखते हुए इन्हें कालिदास सम्मान और पद्मविभूषण सहित बहुत-से सम्मानों से अलंकृत किया गया। इनका देहावसान 1992 ई. में हुआ।

पाठ का साराशी

इस पाठ में लेखक ने स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर की गायकी पर बेबाक टिप्पणी की है। यह पाठ मूल रूप से हिंदी में लिखा गया है। यह रचना भाषा की सांगीतिक धरोहर है। यह शास्त्रीय संगीत और फिल्मी संगीत को एक धरातल पर ला रखने का साहस है। यह ऐसी परख है जो न शास्त्रीय है और न सुगम। यह बस संगीत है। लता मंगेशकर के ‘गानपन’ के बहाने लेखक ने शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत के संबंधों पर भी अपना मत प्रकट किया है।

लेखक बताता है कि बरसों पहले वह बीमार था, उस समय एक दिन उसे रेडियो पर अद्भवितीय स्वर सुनाई दिया। यह स्वर उसके अंतर्मन को छू गया। गा समाप्त होने पर गायिका का नाम घोषित किया गया-लता मंगेशकर नाम सुनकर वह हैरान रह गया। उसे लगा कि प्रसिद्ध गायक दीनानाथ मंगेशकर की अजब गायकी ही उनकी बेटी की आवाज में प्रकट हुई है। यह शायद ‘बरसात’ फिल्म से पहले का गाना था। लता के पहले प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का चित्रपट संगीत में अपना जमाना था, परंतु लता उससे आगे निकल गई।

लेखक का मानना है कि लता के बराबर की गायिका कोई नहीं हुई। लता ने चित्रपट संगीत को लोकप्रिय बनाया। आज बच्चों के गाने का स्वर बदल गया है। यह सब लता के कारण हुआ है। चित्रपट संगीत के विविध प्रकारों को आम आदमी समझने लगा है तथा गुनगुनाने लगा है। लता ने नयी पीढ़ी के संगीत को संस्कारित किया तथा आम आदमी में संगीत विषयक अभिरुचि पैदा करने में योगदान दिया। आम श्रोता शास्त्रीय गायन व लता के गायन में से लता की ध्वनि मुद्रिका को पसंद करेगा।

आम आदमी को राग के प्रकार, ताल आदि से कोई मतलब नहीं होता। उसे केवल मस्त कर देने वाली मिठास चाहिए। लता के गायन में वह गानपनू सौ फीसदी मौजूद है। लता के गायन की एक और विशेषता है-स्वरों की निर्मलता। नूरजहाँ के गानों में मादकता थी, परंतु लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। यह अलग बात है कि संगीत दिग्दर्शकों ने उसकी इस कला का भरपूर उपयोग नहीं किया है। लता के गाने में एक नादमय उच्चार है। उनके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के आलाप द्वारा सुंदर रीति से भरा रहता है। दोनों शब्द एक-दूसरे में विलीन होते प्रतीत होते हैं। लेखक का मानना है कि लता के करुण रस के गाने ज्यादा अच्छे नहीं हैं, उसने मुग्ध श्रृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय के गाने अच्छे तरीके से गाए हैं। अधिकतर संगीत दिग्दर्शकों ने उनसे ऊँचे स्वर में गवाया है।

लेखक का मानना है कि शास्त्रीय संगीत व चित्रपट संगीत में तुलना करना निरर्थक है। शास्त्रीय संगीत में गंभीरता स्थायी भाव है, जबकि चित्रपट संगीत में तेज लय व चपलता प्रमुख होती है। चित्रपट संगीत व ताल प्राथमिक अवस्था का होता है और शास्त्रीय संगीत में परिष्कृत रूप। चित्रपट संगीत में आधे तालों, आसान लय, सुलभता व लोच की प्रमुखता आदि विशेषताएँ होती हैं। चित्रपट संगीत गायकों को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी अवश्य होनी चाहिए। लता के पास यह ज्ञान भरपूर है।

लता के तीन-साढे तीन मिनट के गान और तीन-साढे तीन घटे की शास्त्रीय महफिल का कलात्मक व आनंदात्मक मूल्य एक जैसे हैं। उसके गानों में स्वर, लय व शब्दार्थ का संगम होता है। गाने की सारी मिठास, सारी ताकत उसकी रंजकता पर आधारित होती है और रंजकता का संबंध रसिक को आनंदित करने की सामथ्र्य से है। लता का स्थान अव्वल दरजे के खानदानी गायक के समान है। किसी ने पूछा कि क्या लता शास्त्रीय गायकों की तीन घंटे की महफिल जमा सकती है? लेखक उसी से प्रश्न करता है कि क्या कोई प्रथम श्रेणी का गायक तीन मिनट में चित्रपट का गाना इतनी कुशलता और रसोत्कटता से गा सकेगा? शायद नहीं।

खानदानी गवैयों ने चित्रपट संगीत पर लोगों के कान बिगाड़ देने का आरोप लगाया है। लेखक का मानना है कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान सुधारे हैं। लेखक कहता है कि हमारे शास्त्रीय गायक आत्मसंतुष्ट वृत्ति के हैं। वे कर्मकांड को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देते हैं, जबकि चित्रपट संगीत लोगों को अभिजात्य संगीत से परिचित करवा रहा है।

लोगों को सुरीला व भावपूर्ण गाना चाहिए। यह काम चित्रपट संगीत ने किया है। उसमें लचकदारी है। उस सगीत की मान्यताएँ, मर्यादाएँ, झंझटें आदि निराली हैं। यहाँ नवनिर्माण की गुजाइश है। इसमें शास्त्रीय रागदारी के अलावा लोकगीतों का भरपूर प्रयोग किया गया है। संगीत का क्षेत्र विस्तृत है। ऐसे चित्रपट संगीत की बेताज सम्राज्ञी लता है। उसकी लोकप्रियता अन्य पाश्र्व गायकों से अधिक है। उसके गानों से लोग पागल हो उठते हैं। आधी शताब्दी तक लोगों के मन पर उसका प्रभुत्व रहा है। यह एक चमत्कार है जो आँखों के सामने है।

शब्दार्थ

पृष्ठ संख्या 1
सहज-स्वाभाविक! तन्मयता-तल्लीनता। कलेजा-हृदय। संगति-साथ। अजब गायकी-अनोखी गायन शैली। चित्रपट-सिनेमा। निरंतर-लगातार। सितारिये-सितारवादक।

पृष्ठ संख्या 2
जोड़
-बराबर। विलक्षण-अनोखा। दृष्टिकोण-विचार। कोकिला-कोयल! अनुकरण-नकल करना। स्वर मालिकाएँ-स्वरों के क्रमबद्ध समूह। इसमें शब्द नहीं होते। लय-धुन। आकारयुक्त-विशेष साँचे में ढली हुई। सूक्ष्मता-बारीकी। श्रेय-महत्व। संस्कारित-सुधरा हुआ। विषयक-संबंधी। अभिरुचि-रुचि। हाथ बँटाना-सहयोग देना।

पृष्ठ संख्या 3
श्रोता-सुनने वाला। ध्वनि मुद्रिका-स्वरलिपि। शास्त्रीय गायकी-निर्धारित नियमों के अंदर गाया जाने वाला गायन। मालकोस-भैरवी घाट का राग जिसमें ‘रे’ व ‘प’ वर्जित हैं। इसमें सारे स्वर कोमल लगते हैं। यह गंभीर प्रकृति का राग है। ताल त्रिताल-यह सोलह मात्राओं का ताल है जिसमें चार-चार मात्राओं के चार विभाग होते हैं। गानपन-आम आदमी को भावविभोर करने वाला गाने का अंदाज। लोकप्रियता-प्रसिद्ध। मर्म-रहस्य। निर्मलता-पवित्रता। उत्तान-ऊँची तान। पाश्र्व गायिका-परदे के पीछे गाने वाली स्त्री। मुग्धता-रीझने का गुण। दिग्दर्शक-निर्देशक। नादमय उच्चार-गूंज भरा उच्चारण। रीति-तरीका।

पृष्ठ संख्या 4
करुण रस-करुण से भरा काव्यानंद। पटती-जैंचती। न्याय करना-सही व्यवहार करना। मुग्ध श्रृंगार-मन को रिझाने वाला श्रृंगार। दुतलय-तेज धुन। उत्कटता-तेजी, व्यग्रता। ऊँची पट्टी-ऊँचे स्वरों का प्रयोग। अधिकाधिक-अधिक से अधिक। अकारण-बिना कारण। चिलवाना-चिल्लाने को मजबूर करना। प्रयोजनहीन-बिना किसी उद्देश्य के। जलदलय-तेज लय। चपलता-चुलबुलापन। गुणधर्म-स्वभाव। स्थायी भाव-मन में स्थायी रूप से रहने वाला भाव। प्राथमिक अवस्था-आरंभिक दशा। परिष्कृत-सँवारा हुआ। आघात-चोट। लोच-स्वरों का बारीक मनोरंजक प्रयोग। नि:संशय-निस्संदेह।

पृष्ठ संख्या 5
खानदानी-पुश्तैनी। महफिल-नाच-रंग का स्थान। विशुदध-खरा, सच्चा। सुभाषित-सूक्ति। परिपूर्णता-संपूर्णता। दृष्टिगोचर-दिखाई देना। रंगदार-आकर्षक। आस्वादित-चखा हुआ। त्रिवेणी संगम-तीन धाराओं का मेल। समाई रहना-निवास करना। रसिक-रस लेने वाला। रंजक-दिल को लुभाने वाला। नीरस-रसहीन। अनाकर्षक-आकर्षण रहित। रंजकता-रिझाने की शक्ति।

पृष्ठ संख्या 6
अवलंबित-टिकी हुई। समक्ष-सामने। बैठक बिटाना-तालमल बिठाना। सुसंवाद साधना-आपस में तालमेल बिठाना। समाविष्ट-व्याप्त, ग्रस्त। तैलचित्र-तैलीय रंगों से बनाया हुआ चित्र। सुसंगत अभिव्यक्ति-तालमेल से युक्त अभिव्यक्ति। अव्वल-प्रथम, उच्च कोटि। दर्जा-श्रेणी। संशय-संदेह। रसोत्कटता-रस से सराबोर होना। कान बिगाड़ना-सुनने की रुचि को गिराना। आरोप-दोष। पुनरुक्ति-दोबारा कहना। वृत्ति-भावना। हुकुमशाही-अधिकार शासन। कर्मकांड-रूढ़ियाँ अभिजात्य-कुलीन वर्ग से संबंधित। चौकस-सावधान। क्रांति-पूर्ण परिवर्तन। लचकदारी-ऊपर-नीचे।

पृष्ठ संख्या 7
नवनिर्मित-नया निर्माण। गुंजाइश-स्थान। रागदारी-रागों की रचना। कौतुक-आश्चर्यजनक खेल। रूक्ष-रूखा। निर्जल-जल से रहित। पर्जन्य-बरसने वाला बादल। खोर-गली। प्रतिध्वनित-गूँजने वाला। कृषिगीत-खेती से संबंधित गीत। अतिशय-अत्यधिक। मार्मिक-मर्म को छने वाला। विस्तीर्ण-व्यापक। अलक्षित-जिसकी तरफ ध्यान न गया हो। अदृष्टि पूर्व-अनोखा। अनभिषिक्त-विधि से रहित। सम्राज़ी-रानी। अबाधित-बेरोकटोक। जन-मन-लोगों का हृदय। सतत-लगातार। प्रभुत्व-अधिकार। पागल हो उठना-दीवाना हो जाना। प्रत्यक्ष-ऑखों के सामने।

पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न

प्रश्न 1:
लेखक ने पाठ में गानयन का उल्लेख किया है। पाठ के संदर्भ में स्पष्ट करते हुए बताएँ कि आपके विचार में इसे प्राप्त करने के लिए किस प्रकार के अभ्यास की आवश्यकता है?
उत्तर –
‘गानपन’ का अर्थ है-गाने से मिलने वाली मिठास और मस्ती। जिस प्रकार ‘मनुष्यता’ नामक गुणधर्म होने के कारण हम उसे मनुष्य कहते हैं उसी प्रकार गीत में ‘गानपन’ होने पर ही उसे संगीत कहा जाता है। लता के गानों में शत-प्रतिशत गानपन मौजूद है तथा यही उनकी लोकप्रियता का आधार है। गानों में गानपन प्राप्त करने के लिए नादमय उच्चार करके गाने के अभ्यास की आवश्यकता है। गायक को स्वरों के उचित ज्ञान के साथ उसकी आवाज में स्पष्टता व निर्मलता होनी चाहिए। रसों के अनुसार उसमें लय, आघात तथा सुलभता होनी चाहिए।
श्रोताओं को आनंदित करने के लिए स्वर, लय व अर्थ का संगम होना जरूरी है। रागों की शुद्धता पर जोर न देकर गाने को मिठास व स्वाभाविकता के साथ गाया जाना चाहिए।

प्रश्न 2:
लेखक ने लता की गायकी की किन विशेषताओं को उजागर किया है? आपको लता की गायकी में कौन-सी विशेषताएँ नजर आती हैं? उदाहरण सहित बताइए।
उत्तर –
लेखक ने लता की गायकी की निम्नलिखित विशेषताओं को उजागर किया है

  1. सुरीलापन-लता के गायन में सुरीलापन है। उनके स्वर में अद्भुत मिठास, तन्मयता, मस्ती तथा लोच आदि हैं, उनका उच्चारण मधुर गूंज से परिपूर्ण रहता है।
  2. स्वरों की निर्मलता-लता के स्वरों में निर्मलता है। लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है, वही उसके गायन की निर्मलता में झलकता है।
  3. कोमलता और मुग्धता-लता के स्वरों में कोमलता व मुग्धता है। इसके विपरीत नूरजहाँ के गायन में मादक उत्तान दिखता था।
  4. नादमय उच्चार-यह लता के गायन की अन्य विशेषता है। उनके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के आलाप द्वारा सुंदर रीति से भरा रहता है। ऐसा लगता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक-दूसरे में मिल जाते हैं। लता के गानों में यह बात सहज व स्वाभाविक है।
  5. शास्त्र-शुदधता-लता के गीतों में शास्त्रीय शुद्धता है। उन्हें शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी है। उनके गीतों में स्वर, लय व शब्दार्थ का संगम होने के साथ-साथ रंजकता भी पाई जाती है। हमें लता की गायकी में उपर्युक्त सभी विशेषताएँ नजर आती हैं। उन्होंने भक्ति, देश-प्रेम, श्रृंगार तथा विरह आदि हर भाव के गीत गाए हैं। उनका हर गीत लोगों के मन को छू लेता है। वे गंभीर या अनहद गीतों को सहजता से गा लेती हैं। एक तरफ ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गीत से सारा देश भावुक हो उठता है तो दूसरी तरफ ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे।’ फिल्म के अलहड़ गीत युवाओं को मस्त करते हैं। वास्तव में, गायकी के क्षेत्र में लता सर्वश्रेष्ठ हैं।

प्रश्न 3:
लता ने करुण रस के गानों के साथ न्याय नहीं किया है, जबकि श्रृंगारपरक गाने वे बड़ी उत्कटता से गाती हैं-इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर –
एक संगीतज्ञ की दृष्टि से कुमार गंधर्व की टिप्पणी सही हो सकती है, परंतु मैं इस कथन से सहमत नहीं हूँ। लता ने करुण रस के गाने भी बड़ी उत्कटता के साथ गाए हैं। उनके गीतों में मार्मिकता है तथा करुणा छलकती-सी लगती है। करुण रस के गाने आम मनुष्य से सीधे नहीं जुड़ते। लता के करुण रस के गीतों से मन भावुक हो उठता है। ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गीत से पं जवाहरलाल नेहरू की आँखें भी सजल हो उठी थीं। फिल्म ‘रुदाली’ का गीत ‘दिल हुँ-हुँ करे’ विरही जनों के हृदय को बींध-सा देता है। इसी तरह ‘ओ बाबुल प्यारे’ . गीत में नारी-मन की पीड़ा को व्यक्त किया है। अत: यह सही नहीं है कि लता ने करुण रस के गीतों के साथ न्याय नहीं किया है।

प्रश्न 4:
सगीत का क्षेत्र ही विस्तीर्ण हैं। वहाँ अब तक अलक्षित, असशोधित और अदूष्टिपूर्व ऐसा खूब बड़ा प्राप्त है तथापि बड़े जोश से इसकी खोज और उपयोग चित्रपट के लोग करते चले आ रहे हैं-इस कथन को वर्तमान फ़िल्मी संगीत के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
यह सही है कि संगीत का क्षेत्र बहुत विशाल है, इसमें अनेक संभावनाएँ छिपी हुई हैं। यह ऐसा क्षेत्र है जहाँ हर रोज नए स्वर, नए यंत्रों व नई तालों का प्रयोग किया जाता है। चित्रपट संगीत आम व्यक्ति का संगीत है। इसने लोगों को सुर, ताल, लय व भावों को समझने की समझ दी है। आज यह शास्त्रीय संगीत का सहारा भी ले रहा है। दूसरी तरफ लोकगीतों को बड़े स्तर पर अपना रहा है। संगीतकारों ने पंजाबी लोकगीत, राजस्थानी, पहाड़ी, कृषि गीतों का प्रयोग करना शुरू कर दिया है। पाश्चात्य संगीत का लोकगीतों के साथ मेल किया जा रहा है कभी तेज संगीत तो कभी मंद संगीत लोगों को मदहोश कर रहा है। इसी तरह फ़िल्मी संगीत नित नए-नए रूपों का प्रयोग कर रहा है।

प्रश्न 5:
चित्रपट संगीत ने लोगों के कान बिगाड़ दिए-अकसर यह आरोप लगाया जाता रहा है। इस संदर्भ में कुमार गंधर्व की राय और अपनी राय लिखें।
उत्तर –
शास्त्रीय संगीत के समर्थक अकसर यह आरोप लगाते हैं कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान बिगाड़ दिए। कुमार गंधर्व उनके इस आरोप को सिरे से नकारते हैं। वे मानते हैं कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान सुधारे हैं। इसके कारण लोगों को सुरीलेपन की समझ हो रही है। उन्हें तरह-तरह की लय सुनाई दे रही है। आम आदमी को लय की सूक्ष्मता की समझ आ रही है। इसने आम आदमी में संगीत विषयक अभिरुचि को पैदा किया है। लेखक ने लोगों का शास्त्रीय संगीत को देखने और समझने में परिवर्तित दृष्टिकोण का श्रेय लता के चित्रपट संगीत की दिया है। चित्रपट संगीत पर हमारी राय कुछ अलग है। पुरानी जमाने के चित्रपट संगीत ने सुरीलापन दिया, परंतु आज का संगीत तनाव पैदा करने लगा है। अब गानों में अश्लीलता बढ़ गई है कानफोड़ें संगीत का फैलाव हो रहा है। धुनों में ताजगी नहीं आ रही है। आज चित्रपट संगीत तेज भागती जिंदगी की तरह हो गया है।

प्रश्न 6:
शास्त्रीय एवं चित्रपट दोनों तरह के संगीतों के महत्व का आधार क्या होना चाहिए? कुमार गंधर्व की इस संबंध में क्या राय है? स्वयं आप क्या सोचते हैं?
उत्तर –
कुमार गंधर्व का स्पष्ट मत है कि चाहे शास्त्रीय संगीत हो या चित्रपट संगीत, वही संगीत महत्वपूर्ण माना जाएगा जो रसिकों और श्रोताओं को अधिक आनंदित कर सकेगा। दोनों प्रकार के संगीत का मूल आधार होना चाहिए रंजकता। इस बात का महत्त्व होना चाहिए कि रसिक को आनंद देने का सामथ्र्य किस गाने में कितना है? यदि शास्त्रीय संगीत में रंजकता नहीं है तो वह बिल्कुल नीरस हो जाएगा। अनाकर्षक लगेगा और उसमें कुछ कमी-सी लगेगी। गाने में गानपन का होना आवश्यक है। गाने की सारी मिठास, सारी ताकत उसकी रंजकता पर अवलंबित रहती है और रंजकता का मर्म रसिक वर्ग के समक्ष कैसे प्रस्तुत किया जाए, किस रीति से उसकी बैठक बिठाई जाए और श्रोताओं से कैसे सुसंवाद साधा जाए, इसमें समाविष्ट है। अत: लेखक का मत बिल्कुल सत्य है। हमारी राय भी उनके समान ही है।

अन्य हल प्रश्न

1. मूल्यपरक प्रश्न
निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए मूल्यपरक प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(क) मुझे लगता है ‘बरसात’ के भी पहले के किसी चित्रपट का वह कोई गाना था। तब से लता निरंतर गाती चली आ रही है और मैं भी उसका गाना सुनता आ रहा हूँ। लता से पहले प्रसिदध गायिका नूरजहाँ की चित्रपट संगीत में अपना जमाना था। परंतु उसी क्षेत्र में बाद में आई हुई लता उससे कहीं आगे निकल गई। कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दीख पड़ते हैं। जैसे प्रसिद्ध सितारिये विलायत खाँ अपने सितारवादक पिता की तुलना में बहुत ही आगे चले गए। मेरा स्पष्ट मत है कि भारतीय गायिकाओं में लता के जोड़ की गायिका हुई ही नहीं। लता के कारखा चित्रपट संगीत को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हुई है, यही नहीं लोगों को शास्त्रीय संगीत की ओर देखने का दृष्टिकोण भी एकदम बला है।
प्रश्न 

  1. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करते हुए आगे बढ़ने के लिए आप किन-किन गुणों को आवश्यक मानते हैं और क्यों? 2
  2. कुछ लोग दूसरों से आगे बढ़ने के लिए अनुचित तरीकों का प्रयोग करते हैं। उनके इस कदम को आप कितना अनुचित मानते हैं और क्यों? 2
  3. उन दो मूल्यों का उल्लेख कीजिए जिन्हें लोकप्रियता मिलने पर भी व्यक्ति को बनाए रखना चाहिए। 2

उत्तर –

  1. स्वस्थ स्पर्धा करते हुए व्यक्ति को आगे बढ़ने के लिए लगन, धैर्य, निरंतर अभ्यास, कठिन परिश्रम आदि को आवश्यकता होती है, क्योंकि इन गुणों के अभाव में व्यक्ति सफलता से कोसों दूर रह जाएगा। ऐसे में किसी से आगे निकलना तो दूर उसके पास पहुँच पाना भी असंभव हो जाएगा।
  2. कुछ लोग दूसरों से आगे बढ़ने के लिए अनुचित तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। उनका यह कदम स्वयं उनके अपने लिए तथा समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होता है। उनके आगे बढ़ने का रहस्य जब लोगों को पता चलता है तब वे उपहास के पात्र बन जाते हैं। अत: मैं इसे पूरी तरह अनुचित मानता हूँ।
  3. विनम्रता, सहनशीलता ऐसे मूल्य हैं, जिन्हें व्यक्ति को सफल होने पर भी बनाए रखना चाहिए।

(ख) लता की लोकप्रियता का मुख्य मर्म यह ‘गानपन’ ही है। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसके स्वरों की निर्मलता। उसके पहले की पाश्र्व गायिका नूरजहाँ भी एक अच्छी गायिका थी, इसमें संदेह नहीं तथापि उसके गाने में एक मादक उत्तान दीखता था। लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। ऐसा दीखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है। हाँ, संगीत दिग्दर्शकों ने उसके स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिए था, उतना नहीं किया। मैं स्वयं संगीत दिग्दर्शक होता तो लता को बहुत जटिल काम देता, ऐसा कहे बिना रहा नहीं जाता। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चार। उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के अलाप दवारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक-दूसरे में मिल जाते हैं।
प्रश्न 

  1. यदि आप कुमार गंधर्व की जगह होते और पाठ की अन्य परिस्थितियाँ वही होतीं तो आप लता जी को कैसा काम देते और क्यों? 2
  2. लता जी की गायिकी की कौन-कौन सी विशेषताएँ आपको प्रभावित करती हैं? अपने विचार लिखिए। 2
  3. संगीत हमारे-आपके जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है? लिखिए। 1

उत्तर –

  1. यदि मैं कुमार गंधर्व की जगह होता और अन्य परिस्थितियाँ यथावत होतीं, तो मैं भी कुमार गंधर्व की तरह उन्हें कठिन काम देता अर्थात् उनसे उस तरह का गायन करने को कहता, जिससे उनकी गायन कला और भी निखरकर लोगों के सामने आती।
  2. लता जी की गायिकी की अनेक विशेषताएँ हैं, जो मुझे प्रभावित करती हैं। इनमें प्रमुख हैं- उनके गीतों में मौजूद गानपन, उनके स्वरों की निर्मलता, कोमलता, मुग्धता और उनका नादमय उच्चार। इन विशेषताओं के बारण ही वे संगीत की बेताज सम्राज्ञी हैं।
  3. हमारे जीवन को संगीत अत्यंत गहराई से प्रभावित करता है। संगीत में मानव मन को शांति और सुकून पहुँचाने की क्षमता है तो इससे खुशी की अद्भुत अनुभूति होती है। यह हमें स्वर्गिक दुनिया में ले जाती है।

(ग) एक प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि शास्त्रीय संगीत में लता का स्थान कौन-सा है। मेरे मत से यह प्रश्न खुद ही प्रयोजनहीन है। उसका कारण यह है कि शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत में तुलना हो ही नहीं सकती। जहाँ गंभीरता शास्त्रीय संगीत का स्थायीभाव है वहीं जलदलय और चपलता चित्रपट संगीत का मुख्य गुणधर्म है। चित्रपट संगीत का ताल प्राथमिक अवस्था का ताल होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में ताल अपने परिष्कृत रूप में पाया जाता है। चित्रपट संगीत में आधे तालों का उपयोग किया जाता है। उसकी लयकारी बिलकुल अलग होती है, आसान होती है। यहाँ गीत और आघात को ज्यादा महत्व दिया जाता है। सुलभता और लोच को अग्र स्थान दिया जाता है; तथापि चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है और वह लता के पास नि:संशय है। तीन-साढ़े तीन मिनट के गाए हुए चित्रपट के किसी गाने का और एकाध खानदानी शास्त्रीय गायक की तीन-साढे तीन घटे की महफिल, इन दोनों का कलात्मक और आनंदात्मक मूल्य एक ही है, इससे आप कहाँ तक सहमत हैं? ऐसा मैं मानता हूँ।
प्रश्न

  1. शास्त्रीय और चित्रपट संगीत की तुलना को आप कितना उचित मानते हैं? अपने विचार लिखिए। 2
  2. चित्रपट संगीत गायक/गायिकाओं को शास्त्रीय संगीत की जानकारी आवश्यक होती है। इससे आप कितना सहमत हैं?
  3. चित्रपट संगीत और शास्त्रीय संगीत में कोई एक समानता लिखिए। 1

उत्तर –

  1. शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत की तुलना को मैं उचित नहीं मानता हूँ। इसका कारण है-दोनों में आधारभूत अंतरा एक ओर जहाँ शास्त्रीय संगीत में गंभीरता तथा ताल का परिष्कृत रूप पाया जाता है, वहीं चित्रपट संगीत में जलदलता, चपलता तथा ताल प्राथमिक अवस्था में होता है।
  2. चित्रपट संगीत गायक/गायिकाओं को शास्त्रीय संगीत का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है। शास्त्रीय संगीत के ज्ञान से गायन में लोच, गंभीरता तथा उसका परिष्कृत रूप निखरकर श्रोताओं के सामने आता है। इससे चित्रपट संगीत अधिक कर्णप्रिय बनता है।
  3. चित्रपट संगीत और शास्त्रीय संगीत की समानता है-उनका कलात्मक एवं आनंदात्मक मूल्य समान होना, जिसके कारण श्रोता संगीत के आनंद सागर में डूब जाते हैं।

(घ) सच बात तो यह है कि हमारे शास्त्रीय गायक बड़ी आत्मसंतुष्ट वृति के हैं। संगीत के क्षेत्र में उन्होंने अपनी हुकुमशाही स्थापित कर रखी है। शास्त्र-शुदधता के कर्मकांड को उन्होंने आवश्यकता से अधिक महत्व दे रखा है। मगर चित्रपट संगीत दवारा लोगों की अभिजात्य संगीत से जान-पहचान होने लगी है। उनकी चिकित्सक और चौकस वृत्ति अब बढ़ती जा रही है। केवल शास्त्र-शुद्ध और नीरस गाना उन्हें नहीं चाहिए, उन्हें तो सुरीला और भावपूर्ण गाना चाहिए। और यह क्रांति चित्रपट संगीत ही लाया है। चित्रपट संगीत समाज की संगीत विषयक अभिरुचि में प्रभावशाली मोड़ लाया है। चित्रपट संगीत की लचकदारी उसका एक और सामथ्र्य है, ऐसा मुझे लगता है। उस संगीत की मान्यताएँ, मर्यादाएँ, झंझटें सब कुछ निराली हैं। चित्रपट संगीत का तंत्र ही अलग है। यहाँ नव-निर्मिति की बहुत गुंजाइश है। जैसा शास्त्रीय रागदारी का चित्रपट संगीत दिग्दर्शकों ने उपयोग किया, उसी प्रकार राजस्थानी, पंजाबी, बंगाली, उत्तर प्रदेश के लोकगीतों के भंडार को भी उन्होंने खूब लूटा है, यह हमारे ध्यान में रहना चाहिए।
प्रश्न

  1. आप शास्त्रीय संगीत पसंद करते हैं या चित्रपट संगीत अपने विचार लिखिए। 2
  2. ‘चित्रपट संगीत का तंत्र ही अलग है’ इससे आप कितनुा सहमत हैं? 2
  3. चित्रपट संगीत में नवनिर्मित की बहुत गुंजाइश है, इसे आप कितना सही मानते हैं? 1

उत्तर –

  1. मैं चित्रपट संगीत अधिक पसंद करता हूँ। इसका कारण यह है कि शास्त्रीय संगीत शास्त्र-शुद्ध और नीरस होता है। इसके विपरीत चित्रपट संगीत लोगों को संगीत की दुनिया के अधिक निकट लाया है, क्योंकि ये गाने अधिक सुरीले और भावपूर्ण होते हैं।
  2. मैं इससे पूरी तरह सहमत हूँ कि चित्रपट संगीत का तंत्र ही अलग है, क्योंकि चित्रपट संगीत के कारण संगीत जगत् में क्रांति आ गई है। इससे समाज की संगीतविषयक अभिरुचि में प्रभावशाली बदलाव आया है, इस संगीत में उपस्थित लचक इसकी ताकत बनकर उभरी है। मोबाइल फोन की लीड कानों में लगाए संगीत सुनते लोग इसका प्रमाण हैं।
  3. चित्रपट संगीत में नवर्निमित की भरपूर गुंजाइश है, इसे मैं पूर्णतया सही मानता हूँ। आज चित्रपट संगीत में विभिन्न प्रांतों-राजस्थानी, पंजाबी, बंगाली और उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का प्रयोग कर इसे अधिकाधिक लोकप्रिय बनाया जा रहा है।

II. निबंधात्मक प्रश्न प्रश्न
प्रश्न 1:
शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत में क्या अंतर है?
उत्तर –
शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत-दोनों का लक्ष्य आनंद प्रदान करना है, फिर भी दोनों में अंतर है। शास्त्रीय संगीत में गंभीरता अपेक्षित होती है। यह इसका स्थायी भाव है, जबकि चित्रपट संगीत का गुणधर्म चपलता व तेज लय है। शास्त्रीय संगीत में ताल अपने परिष्कृत रूप में पाया जाता है, जबकि चित्रपट संगीत का ताल प्राथमिक अवस्था का ताल होता है शास्त्रीय संगीत में तालों का पूरा ध्यान रखा जाता है, जबकि चित्रपट संगीत में आधे तालों का उपयोग होता है। चित्रपट संगीत में गीत और आघात को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है, सुलभता तथा लोच को अग्र स्थान दिया जाता है। शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है। तीन-साढ़े तीन मिनट के गाए हुए चित्रपट के किसी गाने का और एकाध खानदानी शास्त्रीय गायक की तीन-साढे तीन घटे की महफिल का कलात्मक व आनंदात्मक मूल्य एक ही है।

प्रश्न 2:
कुमार गंधर्व ने लता मंगेशकर को बेजोड़ गायिका माना है। क्यों?
उत्तर –
लेखक ने लता मंगेशकर को बेजोड़ गायिका माना है। उनके मुकाबले कोई भी गायिका नहीं है। नूरजहाँ अपने समय की प्रसिद्ध चित्रपट संगीत की गायिका थी, परंतु लता ने उसे बहुत पीछे छोड़ दिया। वे पिछले पचास वर्षों से एकछत्र राज कायम किए हुए हैं। इतने लंबे समय के बावजूद उनका स्वर पहले की तरह कोमल, सुरीला व मनभावन है। उनकी अन्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. उनके गायन में जो गानपन है, वह अन्य किसी गायिका में नहीं मिलता।
  2. उच्चारण में शुद्धता व नाद का संगम तथा भावों में जो निर्मलता है, वह अन्य गायिकाओं में नहीं है।
  3. उनकी सुरीली आवाज ईश्वर की देन है, परंतु लता जी ने उसे अपनी मेहनत से निखारा है।
  4. वे शास्त्रीय संगीत से परिचित हैं, परंतु फिर भी सुगम संगीत में गाती हैं। उनके गानों को सुनकर देश-विदेश में लोग दीवाने हो उठते हैं। उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने आम व्यक्ति की संगीत अभिरुचि को परिष्कृत किया है।

प्रश्न 3:
लता मंगेशकर ने किस तरह के गीत गाए हैं? पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर –
लता मंगेशकर ने चित्रपट संगीत में मुख्यतया करुण व श्रृंगार रस के गाने गाए हैं। उन्होंने अनेक प्रयोग किए हैं उन्होंने राजस्थानी, पंजाबी, बंगाली व मराठी लोकगीतों को अपनाया है। लता जी ने पंजाबी लोकगीत, रूक्ष और निर्जल राजस्थान में बादल की याद दिलाने वाले गीत, पहाड़ों की घाटियों में प्रतिध्वनित होने वाले पहाड़ी गीत गाए हैं। ऋतु चक्र समझने वाले और खेती के विविध कामों का हिसाब लेने वाले कृषि गीत और ब्रजभूमि के सहज मधुर गीतों को फिल्मों में लिया गया है। उन्होंने मुग्ध श्रृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले गाने बड़ी उत्कटता से गाए हैं।

III. लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1:
लेखक लता के संगीत से कब स्वयं को जुड़ा महसूस करने लगे?
उत्तर –
लेखक वर्षों पहले बीमार थे। उस समय उन्होंने रेडियो पर अद्वतीय स्वर सुना। यह स्वर सीधे उनके हृदय तक जा पहुँचा। उन्होंने तन्मयता से पूरा गीत सुना। उन्हें यह स्वर आम स्वरों से विशेष लगा। गीत के अंत में जब रेडियो पर गायिका के नाम की घोषणा हुई तो उन्हें मन-ही-मन संगति पाने का अनुभव हुआ। वे सोचने लगे कि सुप्रसिद्ध गायक दीनानाथ मंगेशकर की अजब गायकी एक दूसरा स्वरूप लिए उन्हीं की बेटी की कोमल आवाज में सुनने को मिली है।

प्रश्न 2:लता के नूरजहाँ से आगे निकल जाने का क्या कारण है?
उत्तर –
लता मंगेशकर प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ के बहुत बाद में आई, परंतु शीघ्र ही उनसे आगे निकल गई। नूरजहाँ के गीतों में मादक उत्तान था जो मनुष्य को जीवन से नहीं जोड़ता था। लता के स्वरों में कोमलता, निर्मलता व मुग्धता थी। जीवन के प्रति दृष्टिकोण उनके गीतों की निर्मलता में दिखता है।

प्रश्न 3:
कुमार गंधर्व ने लता मंगेशकर के गायन को चमत्कार की संज्ञा क्यों दी है?
उत्तर –
चित्रपट संगीत के क्षेत्र में लता बेताज सम्राज्ञी हैं। और भी कई पाश्र्व गायक-गायिकाएँ हैं, पर लता की लोकप्रियता इन सबसे अधिक है। उनकी लोकप्रियता का शिखर अचल है। लगभग आधी शताब्दी तक वे जन-मन पर छाई रही हैं। भारत के अलावा परदेश में भी लोग उनके गाने सुनकर पागल हो उठते हैं। यह चमत्कार ही है जो प्रत्यक्ष तौर पर देखा जा रहा है। ऐसा कलाकार शताब्दियों में एकाध ही उत्पन्न होता है।

प्रश्न 4:
शास्त्रीय गायकों पर लेखक ने क्या टिप्पणी की है?
उत्तर –
लेखक कहता है कि शास्त्रीय गायक आत्मसंतुष्ट प्रवृत्ति के हैं। उन्होंने संगीत के क्षेत्र में अपनी हुकुमशाही स्थापित कर रखी है। उन्होंने शास्त्र शुद्धता को जरूरत से ज्यादा महत्त्व दे रखा है। वे रागों की शुद्धता पर जोर देते हैं।

प्रश्न 5:
चित्रपट संगीत के विकसित होने का क्या कारण है?
उत्तर –
चित्रपट संगीत के विकसित होने का कारण उसकी प्रयोग धर्मिता है। यह संगीत आम आदमी की समझ में आ रहा है। इस संगीत को सुरीलापन, लचकदारी आदि ने लोकप्रिय बना दिया है। इन्होंने शास्त्रीय संगीत की रागदानी भी अपनाई है, वहीं राजस्थानी, पहाड़ी, पंजाबी, बंगाली, लोकगीतों को भी अपनाया है। दरअसल यह विभिन्नता में एकता का प्रचार कर रहा है। इसके माध्यम से लोग अपनी संस्कृति से परिचित हो रहे हैं।

प्रश्न 6:
लता की गायकी से संगीत के प्रति आम लोगों की सोच में क्या परिवर्तन आया है?
उत्तर –
लता की गायकी के कारण चित्रपट संगीत अत्यधिक लोकप्रिय हुआ है। अब वे संगीत की सूक्ष्मता को समझने लगे हैं। वे गायन की मधुरता, मस्ती व गानपन को महत्व देते हैं। आज के बच्चे पहले की तुलना में सधे हुए स्वर से गाते हैं। लता ने नई पीढ़ी के संगीत को संस्कारित किया है। आम लोगों का संगीत के विविध प्रकारों से परिचय हो रहा है।

प्रश्न 7:
कुमार गंधर्व ने लता जी की गायकी के किन दोषों का उल्लेख किया है?
उत्तर –
कुमार गंधर्व का मानना है कि लता जी की गायकी में करुण रस विशेष प्रभावशाली रीति से व्यक्त नहीं होता। उन्होंने करुण रस के साथ न्याय नहीं किया।
दूसरे, लता ज्यादातर ऊँची पट्टी में ही गाती हैं जो चिल्लाने जैसा होता है।

प्रश्न 8:
शास्त्रीय संगीत की तीन-साढ़े तीन घंटे की महफिल और चित्रपट संगीत के तीन मिनट के गान का आनंदात्मक मूल्य एक क्यों माना गया है?
उत्तर –
लेखक ने शास्त्रीय संगीत की तीन-साढे तीन घटे की महफिल और चित्रपट संगीत से तीन मिनट के गान का आनंदात्मक मूल्य एक माना है इन दोनों का लक्ष्य श्रोताओं को आनंदमग्न करना है। तीन मिनट के गाने में स्वर, लय व शब्दार्थ की त्रिवेणी बहती है। इसमें श्रोताओं को भरपूर आनंद मिलता है।

प्रश्न 9:
लय कितने प्रकार की होती है?
उत्तर –
लय तीन प्रकार की होती है-

  1. विलंबित लय– यह धीमी होती है।
  2. मध्य लय– यह बीच की होती है।
  3. दुत लय– यह मध्य लय से दुगुनी तथा विलबित लय से चौगुनी तेज होती है।

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