Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन

Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
वृद्धि, विभेदन, परिवर्धन, निविभेदन, पुनर्विभेदन, सीमित वृद्धि, मेरिस्टेम तथा वृद्धि दर की परिभाषा दें।
उत्तर:
वृद्धि: वृद्धि किसी जीव अथवा उसके किसी भाग में होने वाले आकार, भार, क्षेत्रफल, लम्बाई, ऊँचाई, आयतन, कोशिका संख्या आदि में होने वाली अपरिवर्तनीय बढ़ोतरी है।

विभेदन: मूल शिखाग्न तथा प्ररोह शिखान विभज्योतक से और कैंबियम कोशिका से बनने वाली कोशिकाएँ विभिन्न कार्यों के लिये रूपान्तरित तथा विशिष्ट क्रियाकलाप को सम्पन्न करने के लिये परिपक्व होती हैं। यह परिपक्वता की ओर अग्रसर होने वाली कार्यवाही विभेदन कहलाती है।

परिवर्धन: परिवर्धन में एक जीव के जीवन – चक्र में आने वाले वे सारे बदलाव शामिल हैं, जो बीजांकुरण एवं जरावस्था के बीच होते हैं। इससे पादप के जटिल शरीर का गठन होता है, जिसमें जड़, दाना, पत्तियाँ, पुष्प और फल बनते हैं। ये सभी परिवर्धन के अन्तर्गत आते है।

निर्विभेदन: जीवित विभेदित कोशिकाएँ कुछ विशेष परिस्थितियों में विभाजन की क्षमता पुनः प्राप्त कर सकती हैं। इस क्षमता को निर्विभेदन कहते हैं।

पुनर्विभेदन: निविभेदित कोशिकाओं / ऊतकों के द्वारा उत्पादित कोशिका बाद में फिर से विभाजन की क्षमता खो देती है ताकि विशिष्ट कार्यों को सम्पादित किया जा सके अर्थात् पुनर्विभेदित हो जाती है।

सीमित वृद्धि: सभी पेड़ – पौधे समय के अंतराल से ऊँचाई एवं गोलाई (चौड़ाई) में लगातार वृद्धि करते रहते हैं। यद्यपि उसी वृक्ष की पत्तियाँ, पुष्प व फल आदि न केवल एक सीमित लम्बाई – चौड़ाई के होते हैं, बल्कि समयानुकूल वृक्ष से निकलते एवं गिर जाते हैं। यही प्रक्रिया लगातार दोहराई जाती है। यही सीमित वृद्धि है।

मेरिस्टेम: मेरिस्टेम पौधों की प्राथमिक वृद्धि हेतु जिम्मेदार होते हैं और मुख्यतया पौधे के अक्ष के समानांतर दीर्थीकरण में भागीदारी करते हैं। ये विभज्योतक उन अंगों की चौड़ाई को बढ़ाते हैं, जहाँ ये क्रियाशील होते हैं।

वृद्धि दर: समय की प्रति इकाई के दौरान बढ़ी हुई वृद्धि को वृद्धि दर कहा जाता है। गणितीय भाषा में एक जीव या उसके अंग अनेक तरीकों से अधिक कोशिकाएँ पैदा कर सकते हैं।

प्रश्न 2. 
पुष्पित पौधों के जीवन में किसी एक प्राचालिक (parameter) से वृद्धि को वर्णित नहीं किया जा सकता है, क्यों?
उत्तर:
क्योंकि कोशिकीय स्तर पर वृद्धि मुख्यतः जीवद्रव्य मात्रा में वृद्धि का परिणाम है। चूंकि जीवद्रव्य की वृद्धि को सीधे मापना कठिन है, अत: कुछ दूसरी माशाओं को मापा जाता है जो कम या ज्यादा इसी के अनुपात में होता है। इसलिये वृद्धि को विभिन्न मापदंडों द्वारा मापा जाता है। कुछेक मापदंड ये हैं – ताजी भार वृद्धि, शुष्क भार, लम्बाई, क्षेत्रफल, आयतन तथा कोशिकाओं की संख्या आदि। मके की मूल शिखान विभज्योतक में प्रति घन्टे 17,500 या अधिक नई कोशिकाएँ पैदा हो जाती हैं, जबकि एक तरबूज में कोशिकाओं की आकार में वृद्धि 3,50,000 गुना तक हो सकती है। पहले वाले उदाहरण में वृद्धि को कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि के रूप में व्यक्त किया गया है, जबकि बाद वाले में वृद्धि को कोशिका के आकार में बढ़ोतरी के रूप में किया गया है। एक पराग नलिका में वृद्धि, लम्बाई में बढ़त का एक अच्छा मापदण्ड है, जबकि पृष्ठाधार पत्ती की वृद्धि को उसके पृष्ठीय क्षेत्रफल की बढ़त के रूप में मापा जा सकता है।

प्रश्न 3. 
संक्षिप्त वर्णन करें
(अ) अंकगणितीय वृद्धि 
(ब) ज्यामितीय वृद्धि 
(स) सिग्मोइड वृद्धि वक्र 
(द) सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर।
उत्तर:
(अ) अंकगणितीय वृद्धि: अंकगणितीय वृद्धि में, समसूत्री विभाजन के पश्चात् केवल एक पुत्री कोशिका लगातार विभाजित होती रहती है जबकि दूसरी विभेदित एवं परिपक्व होती रहती है। अंकगणितीय वृद्धि एक सरलतम अभिव्यक्ति है जिसे हम निश्चित दर पर दीर्घाकृत होते जड़ में देख सकते हैं। पाठ्य सामग्री में दिये गये चित्र सं. 155 में अंग की लम्बाई समन के विरुद्ध बनायी गयी है जिसके फलस्वरूप रेखीय वक्र पाया गया है। इसे हम गणितीय रूप में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं:
Lt = L0 + rt 
Lt =  टाइम टी के समय लम्बाई 
L0 = टाइम शून्य के समय लम्बाई
r = वृद्धि दर दीर्धीकरण प्रति इकाई समय 

(ब) ज्यामितीय बृद्धि: ज्यामितीय वृद्धि में दोनों संतति कोशिकाएँ एक समसूत्री कोशिका के विभाजन का अनुसरण करती हैं तथा विभाजित होने पर लगातार ऐसा करते रहने की काबिलियत बनाए रखती हैं (देखें पाठ्य सामग्री का चित्र 15.6)। यद्यपि सीमित पोषण आपूर्ति के साथ वृद्धि धीमी पड़ती हुई स्थिर चरण की ओर बढ़ जाती है। यदि हम समय के प्रति वृद्धि के मापदण्ड को नियोजित करते हैं तो हम एक विशिष्ट सिग्मोइड या एस – वक्र पाते हैं।



(स) सिग्मोइड वृद्धि वक्र (Sigmoid growth curve): वृद्धि दर को प्रभावित करने वाले कारकों को समान रखते हुए यदि हम कोशिका (पौधों के अंग) अथवा सम्पूर्ण पौधों की वृद्धि का मापन करें तो हम देखते हैं कि इनकी दर समान नहीं होती। यदि वृद्धि दर का समय के साथ एक ग्राफ बनाया जाए तब एक S – आकृति (S – shaped or sigmoid) वाला ग्राफ बनता है। इसे वृद्धि चाप (growth curve) कहते हैं। इस सम्पूर्ण वृद्धि चाप को चार भागों में बांट सकते हैं:

  1. मन्द वृद्धि काल (Lag period) यह वृद्धि की प्रारम्भिक अवस्था होती है जिसमें वृद्धि मन्द गति से होती है।
  2. अधिकतम वृद्धि काल (Log or exponential period)इस समय तीव्र गति से अधिकतम वृद्धि होती है।
  3. न्यून वृद्धि काल (Deacoclerating period) इस काल में पादपों में वृद्धि की दर पुनः मन्द हो जाती है।
  4. स्थिर वृद्धि काल (Stationary period) इस काल में पादपों में कोई वृद्धि नहीं होती।

(द) सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर: दो अंगों की पूर्ण वृद्धि में बढ़ोतरी प्रति इकाई समय को सम्पूर्ण वृद्धि दर कहते हैं। दिये गये तन्त्र में वृद्धि प्रति इकाई समय को सापेक्ष वृद्धि दर कहते हैं।

प्रश्न 4. 
प्राकृतिक पादप वृद्धि नियामकों के पाँच मुख्य समूहों के बारे में लिखें। इनके आविष्कार, कार्यिकी प्रभाव तथा कृषि/ बागवानी में इनके प्रयोग के बारे में लिखें।
उत्तर:
पी.जी.आर. (Plant growth regulator – PGR) के पांच प्रमुख समूहों में प्रत्येक की खोज मात्र एक संयोग है। इसका प्रारम्भ चार्ल्स डारविन व उनके पुत्र फ्रांसिस डारविन के अवलोकन से हुआ जब उन्होंने देखा कि कनारी घास का प्रांकुर चोल (coleoptile) एक पाश्वी प्रदीपन के प्रति अनुक्रिया करता है और प्रकाश के उद्गम की ओर वृद्धि (प्रकाशानुवर्तन) करता है। ऑक्सिन की खोज एफ.डब्ल्यू. वेंट (E.W. Went) के द्वारा जई के अंकुर के प्रांकुर चोल शिखर से की गई है। ‘वैकेन’ (Foolish seedling) धान के पौधे (नवोद्भिद्) की बीमारी है जो रोगजनक कवक जिबरेला फूजीकोराई के द्वारा होती है। ई. करोसोवा (जापानी वैज्ञानिक) ने रोगरहित धान के पौधों पर इस कवक से निष्कर्षित रस को छिड़का जिससे उनमें रोग उत्पन्न हो गया। इस रात्व की पहचान बाद में जिब्रेलिक अम्ल के रूप में हुई।

एफ. स्कूग (F. Skoog) तथा उनके सहकर्मियों ने देखा कि तम्बाकू के तने के अंतरपर्व (intranodal) खंड से अविभेदित कोशिकाओं का समूह तभी प्रचुरित हुआ जब ऑक्सिन के अतिरिक्त माध्यमा (medium) में, वाहिका ऊतकों के सत्व या यीस्ट सत्व या नारियल दूध या DNA पूरक रूप में दिया गया। स्कृग और मिलर ने साइटोकाइनेसिस (cytokinesis) को बढ़ावा देने वाले इस तत्व को पहचाना और इसका क्रिस्टलीकरण किया तथा काइनेटिन नाम दिया।


1960 के मध्य में तीनों अलग – अलग वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से तीन प्रकार के निरोधक का शुद्धिकरण एवं उनका रासायनिक स्वरूप प्रस्तुत किया। ये निरोधक बी, विलगन II एवं डोरमिन हैं। बाद में ये तीनों रासायनिक रूप से समान पाए गए। इसका नामकरण एसिसिक अम्ल के रूप में किया गया। कौसइंस ने यह बताया कि पके हुये संतरों से निकला हुआ एक वाष्पशील तत्व पास में रखे बिना पके हुए केलों को शीघ्रता से पकाता है। बाद में यह वाष्पशील तत्व एथीलिन नाम से जाना गया जो एक गैसीय पीजीआर है।

पादप वृद्धि नियामकों का कायकीय शरीर क्रियात्मक प्रभाव ऑक्सिस (Auxins): सर्वप्रथम मनुष्य के मूत्र से निकाला गया। वर्तमान में ऑक्सिन्स IAA एवं Indol butyric acid पौधों से निकाला गया है। NAA (Naphthaline acetic acid) तथा 2, 4 – D (2, 4 – डाईक्लोरो फिनोक्सी ऐसेटिक अम्ल) कृत्रिम ऑक्सिन्स हैं। ऑक्सिन्स के उपयोग का एक विस्तृत दायरा है और ये बागवानी एवं खेती में प्रयोग किये गये हैं। ये तनों की कटिंग (कलमों) में जड़ फूटने (rooting) में सहायता करती हैं जो पादप प्रवर्धन में व्यापकता से प्रयोग होती हैं। ऑक्सिन्स पुष्पन को बढ़ा देती है, जैसे अनन्नास में। ये पौधों के पत्तों एवं फलों को शुरुआती अवस्था में गिरने से बचाते हैं तथा पुरानी एवं परिपक्व पत्तियों एवं फलों के विलगन को बढ़ावा देते हैं। ऑक्सिन्स अनिषेकफलन को प्रेरित करता है जैसे कि टमाटर में। 2, 4 – D व्यापक रूप से द्विबीजपत्री खरपतवारों का नाश कर देता है। ऑक्सिन्स जाइलम विभेदन को नियंत्रित करने तथा कोशिका के विभाजन में सहायता करता है। उण पादपों में वृद्धि करती अग्रस्थ कलिका पाव (कक्षस्थ) कलियों की वृद्धि को अवरोधित करती है जिसे शिखाग्र प्राधान्यता (apical dominance) कहते हैं। प्ररोह सिरों को हटाने से पार्श्व कलियों की वृद्धि होती है।


जिब्बेरेलिंस (Giblberellins): यह अन्य प्रकार का प्रोत्साहक पीजीआर है। सौ से अधिक गिबेरेलिंस की सूचना विभिन्न जीवों (कवकों व उच्च पादपों) से प्राप्त हो चुकी है। इन्हें GA1, GA2, GA3, से नामित किया गया है। GA3 की सबसे पहले खोज हुई थी। सभी जिव्वरेलिंस अम्लीय होते हैं। ये पौधों में एक व्यापक दायरे की कायिकीय अनुक्रिया देते हैं। ये अक्ष की लम्बाई बढ़ाने की क्षमता रखते हैं, अतः अंगूर के डंठल की लम्बाई बढ़ाने में प्रयोग किये जाते हैं। जिव्यरेलिंस सेव जैसे फलों को लम्बा बनाते हैं ताकि वे उचित रूप ले सकें। ये जरावस्था को भी रोकते हैं, ताकि फल पेड़ पर अधिक समय तक लगे रह सकें और बाजार में मिल सकें। GA3 को आसव (शराब) उद्योग में माल्टिंग की गति बढ़ाने के लिये उपयोग किया जाता है। गन्ने के तने में कार्बोहाइड्रेट्स चीनी या शर्करा के रूप में एका रहता है। गन्ने की खेती में जिव्बेरेलिंस छिड़कने पर तनों की लम्बाई बढ़ती है। इससे 20 टन प्रति एकड़ ज्यादा उपज बढ़ जाती है। GA छिड़कने पर किशोर शंकुवृक्षों में परिपक्वता तीव्र गति से होती है अतः बीज जल्दी ही तैयार हो जाता है। जिबरेलिंस चुकंदर, पत्तागोभी एवं अन्य रोजेटी स्वभाव वाले पादपों में वोल्टिा (पुष्पन से पूर्व अंत:पर्व का दी(करण) को बढ़ा देता है।

साइटोकाइनिन्स (Cytokinins): साइटोकाइनिन्स अपना विशेष प्रभाव कोशिकाद्रव्य विभाजन (Cytokinesis) में डालता है और इसे काइनेटिन (एडेनिन का रूपान्तरित रूप एक प्यूरीन) के रूप में आटोक्लेबड़ हेरिंग (एक प्रकार की मछली) के शुक्राणु से खोजा गया था। काइनेटिन पौधों में प्राकृतिक रूप से नहीं पाया जाता है। साइटोकाइनिन्स जैसे पदार्थों की खोज के क्रम में मक्का की अष्ठि तथा नारियल दूध से जियाटीन पृथक् किया जा सका। प्राकृतिक साइटोकाइनिन्स उन क्षेत्रों में संश्लेषित होता है, जहाँ तीव्र कोशिका विभाजन सम्पन्न होता है, उदाहरण के लिये मूल शिखाग, विकासशील प्ररोह कलिकाएँ तथा तरुणफल आदि। यह नई पत्तियों में हरितलवक, पार्श्व प्ररोह वृद्धि तथा अपस्थानिक प्ररोह संरचना में मदद करता है। साइटोकाइनिन्स शिखाग्र प्राधान्यता से छुटकारा दिलाता है। पोषकों के संचारण को बढ़ावा देते हैं जिससे पत्तियों की जरावस्था को देरी करने में मदद मिलती है।

एधीलिन (Ethylene): यह एक साधारण गैसीय पीजीआर है। यह जरावस्था को प्राप्त होते ऊतकों तथा पकते हुए फलों के द्वारा भारी मात्रा में संश्लेषित की जाती है। एथीलिन पौधों की अनुप्रस्थ वृद्धि, अक्षों में फुलाव एवं द्विबीजी नवोद्भिदों में अंकुश संरचना को प्रभावित करती है। एथीलिन जरावस्था एवं विलगन को मुख्यतः पत्तियों व पुष्यों में बढ़ाती है। यह फलों को पकाने में बहुत प्रभावी है। फलों के पकने के दौरान यह श्वसन की गति की वृद्धि करती है। श्वसन वृद्धि में गति की इस बढ़त को क्लाइमैक्टिक श्वसन कहते हैं।

एथीलिन बीज तथा कलिका प्रसुप्ति को तोड़ती है, मूंगफली के बीज में अंकुरण को शुरू करती है तथा आलू के कंदों को अंकुरित करती है। एथोलिन गहरे जल के धान के पौधों में पर्णवन्त को तीव्र.दीर्थीकरण के लिये प्रोत्साहित करता है। यह पत्तियों तथा प्ररोह के ऊपरी भाग को जल से ऊपर रखने में मदद करती है। एथीलिन मूल वृद्धि तथा मूल रोमों को प्रोत्साहित करती है, अत: पौधे को अधिक अवशोषण क्षेत्र प्रदान करने में मदद करती है। अनन्नास को फूलने तथा फल समकालिकता में सहायता करती है। टमाटर एवं सेब के फलों के पकाने की गति को बढ़ाती है तथा फूलों एवं फलों में विलगन को तीव्रता प्रदान करती है। खीरों में मादा पुष्पों को बढ़ाती है।

एब्सिसिक अम्ल (ABA) यह एक सामान्य पादप वृद्धि तथा पादप उपापचय के निरोधक का कार्य करता है। ABA बीज के अंकुरण का निरोध करता है। रंधों के बंद होने को प्रोत्साहित करता है तथा पौधों को विभिन्न प्रकार के तनावों को सहने हेतु क्षमता प्रदान करता है। ABA बीज के विकास, परिपक्वता, प्रसुप्ति आदि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बीज को जल शुष्कन तथा वृद्धि के लिये अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों से बचाता है।

प्रश्न 5. 
दीप्तिकालिता तथा वसंतीकरण क्या है? इनके महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
दीप्तिकालिता: कुछ पादपों में पुष्पन केवल प्रकाश व अंधकार की अवधि पर ही निर्भर नहीं करता, बल्कि उसकी सापेक्षित अवधि पर निर्भर करता है। इस घटना को दीप्तिकालिता कहते हैं। यह भी रोचक बात है कि तने के शीर्षस्थ कलिका पुष्यन से पूर्व पुष्पन शीर्षस्थ कलिका में परिवर्तित होती हैं, परन्तु वे खुद से प्रकाशकाल को नहीं महसूस कर पाती हैं। प्रकाश/अंधकार काल का अनुभव पत्तियाँ करती हैं। परिकल्पना यह है कि हार्मोनल तत्व (फ्लोरिजन) पुण्यन हेतु जिम्मेदार हैं। फ्लोरिजन पत्ती से तना कलिका में पुष्पन प्रेरित करने हेतु तभी जाती है जब पौधे आवश्यक प्रेरित दीप्तिकाल में अनावृत होते हैं।

दीप्तिकालिता के आधार पर पौधों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है-अल्प प्रदीप्तकाली पौधे, दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधे एवं तटस्थ प्रदीप्तकाली पौधे। अल्प प्रदीप्तकाली पौधों में क्रांतिक अवधि से कम प्रकाश की अवधि चाहिए जबकि दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधों में प्रकाश की अवधि संकट क्रांतिक अवधि से अधिक चाहिए। जिसमें प्रकाश की अवधि एवं पुष्यन प्रेरित करने में कोई सम्बन्ध नहीं होता है। ऐसे पादपों को तटस्थ प्रदीप्तकाली पादप कहते हैं।

वसंतीकरण (Vernalisation): कुछ पादपों में पुष्पन गुणात्मक या मात्रात्मक तौर पर कम तापक्रम में अनावृत होने पर निर्भर करता है। इसे ही वसंतीकरण कहा जाता है। यह अकालिक प्रजनन परिवर्धन को वृद्धि के मौसम में तब तक रोकता है जब तक पौधे परिपक्व न हो जाएं। वसंतीकरण कम ताप काल में पुष्पन के प्रोत्साहन को कहते हैं। उदाहरण के तौर पर भोजन वाले पौधे गेहूँ, जौ तथा राई की दो किस्में होती हैं सर्दी तथा वसंत की किस्में। वसंत की किस्में साधारणतया वसंत में बोई जाती हैं, जो बढ़ते मौसम की समाप्ति से पूर्व फूलती एवं फलती हैं। सर्दी की किस्में यदि वसंत में बोई जाती हैं तो वह मौसम से पूर्व न तो पुष्पित होती हैं और न फलती हैं। इसलिए ये शरद् काल में बोई जाती हैं। ये अंकुरित होते हैं और नवोद्भिदों के रूप में जाड़े को बिताते हैं, फिर वसंत में फूलते व फलते हैं तथा मध्य ग्रीष्म के दौरान काट लिये जाते हैं।

वसंतीकरण के कुछ उदाहरण द्विवर्षी पौधों में भी पाये जाते हैं। चुकंदर, पत्ता गोभी, गाजर कुछ द्विवर्षी पौधे हैं। एक द्विवर्षी पौधे को कम तापक्रम में अनावृत कर दिये जाने पर, पादपों में बाद में दीप्तिकालिता के कारण पुष्पन की अनुक्रिया बढ़ जाती है।

प्रश्न 6. 
एब्सिसिक एसिड को तनाव हार्मोन कहते हैं, क्यों? 
उत्तर:
यह हॉर्मोन पौधों में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। यह पादप की प्रतिकूल वातावरणीय परिस्थितियों का सामना करने में सहायता करता है अतः इसे तनाव हॉर्मोन (stress hormone) भी कहते हैं।

प्रश्न 7. 
उच्च पादपों में वृद्धि एवं विभेदन खुला होता है, टिप्पणी करें।
उत्तर:
उच्च पादपों में वृद्धि दर को तीन प्रमुख चरणों लेग, लॉग तथा जरावस्था में बांटा गया है। जब कोशिका अपनी विभाजन क्षमता खो देती है तो यह विभेदन की तरफ बढ़ जाती है। विभेदन संरचनाएँ प्रदान करता है जो उत्पाद की क्रियात्मकता के साथ जुड़ी होती हैं। कोशिकाओं, ऊतकों तथा संबंधी अंगों के लिये विभेदन के लिये सामान्य नियम एक समान होते हैं। एक विभेदित कोशिका फिर विभेदित हो सकती है या फिर पुनः विभेदित हो सकती है। पादपों में विभेदन चूंकि खुला होता है, अतः परिवर्धन लचीला हो सकता है। दूसरे शब्दों में परिवर्धन वृद्धि एवं विभेदन का योग है।

प्रश्न 8. 
अल्प प्रदीप्तकाली पौधे और दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधे किसी एक स्थान पर साथ – साथ फूलते हैं। विस्तृत व्याख्या करें।
उत्तर:
कुछ पादपों में क्रांतिक अवधि से ज्यादा प्रकाश की अवधि चाहिए, जबकि दूसरे पादपों में प्रकाश की अवधि क्रांतिक अवधि से कम चाहिए, जिससे कि दोनों तरह के पौधों में पुष्पन की शुरुआत हो सके। प्रथम तरह के पौधों के समूह को दीर्थ प्रदीप्तकाली पादप कहते हैं तथा बाद वाले पौधों की अल्प प्रदीप्तकाली पादप कहते हैं। कुछ पौधों में पुष्पन केवल प्रकाश की अवधि पर ही निर्भर नहीं करता परन्तु अंधकार की अवधि भी महत्वपूर्ण है। कुछ पौधों में पुष्पन केवल प्रकाश और अंधकार की अवधि पर ही नहीं निर्भर करता बल्कि उसकी सापेक्षित अवधि पर निर्भर करता है।

अल्प दीप्तिकाली पौधे अल्प दिन के प्रकाश में पुष्पन करते हैं जब कि दीर्घ प्रदीप्तकाली पादपों को दिन के प्रकाश की अधिक आवश्यकता होती है। इस प्रकार दोनों प्रकार के पौधों को उनकी आवश्यकतानुसार ताप एवं प्रकाश मिलता रहता है जिसके कारण दोनों प्रकार के पौधे एक ही स्थान पर फलते – फूलते रहते हैं।

प्रश्न 9.
अगर आपको ऐसा करने को कहा जाए तो एक पादप वृद्धि नियामक का नाम दें
(क) किसी टहनी में जड़ पैदा करने हेतु 
(ख) फल को जल्दी पकाने हेतु 
(ग) पत्तियों की जरावस्था को रोकने हेतु 
(घ) कक्षस्थ कलिकाओं में वृद्धि कराने हेतु 
(ङ) एक रोजेट पौधे में ‘वोल्ट’ हेतु 
(च) पत्तियों के रंध्र को तुरंत बंद करने हेतु।
उत्तर:
(क) ऑक्सिन 
(ख) एथीलिन 
(ग) साइटोकाइनिन 
(घ) साइटोकाइनिन 
(ङ) जिब्रेलिंस 
(च) एसिसिक अम्ल।

प्रश्न 10. 
क्या एक पर्णरहित पादप दीप्तिकालिता के चक्र से अनुक्रिया कर सकता है? यदि हाँ या नहीं तो क्यों?
उत्तर:
नहीं, पर्णरहित पादप दीप्तिकालिता के चक्र से अनुक्रिया नहीं करता, क्योंकि दीप्तिकालिता के प्रति संवेदनशीलता, पत्तियों द्वारा ग्रहण किये गये प्रकाश पर निर्भर करती है। पत्तियों में एक पुष्प प्रेरक पदार्थ उत्पन्न होता है जिसे फ्लोरिजन (Florigen) कहते हैं। फ्लोरिजन के अभाव में पुष्यन नहीं होता।

प्रश्न 11. 
क्या हो सकता है, अगर
(क) जीए3 (GA3) को धान के नवोद्भिदों पर दिया जाए। 
(ख) विभाजित कोशिका विभेदन करना बंद कर दें। 
(ग) एक सड़ा फल कचे फलों के साथ मिला दिया जाए। 
(घ) अगर आप संवर्धन माध्यम में साइटोकोनिंस डालना भूल जाएँ।
उत्तर:
(क) धान की लम्बाई में बढ़ोतरी होगी। 
(ख) अविभेदित कोशिकाओं का समूह बन जायेगा।
(ग) सड़े फल से इथाइलीन हॉर्मोन निकलता है जिसके प्रभाव से कच्चे फल जल्दी पक जायेंगे।
(घ) संवर्धन माध्यम में निर्मित कैलस से प्ररोह का निर्माण नहीं होगा।

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