Chapter 2 राजस्थानी चित्र शैली

Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आपके विचार से किस तरह से पश्चिमी भारतीय पाण्डुलिपि चित्र परम्परा ने राजस्थान में लघु चित्र परम्परा को निर्देशित किया था?
उत्तर:
पश्चिमी भारतीय पाण्डुलिपि चित्र परम्परा-भारत के पश्चिमी हिस्सों में बड़े पैमाने पर पनपने वाली चित्रकला पश्चिमी भारतीय पाण्डुलिपि चित्र परम्परा है, जिसमें गुजरात सबसे प्रमुख केन्द्र है, और राजस्थान के दक्षिणी हिस्से और मध्य भारत के पश्चिमी हिस्से अन्य केन्द्र हैं।

गुजरात में कुछ महत्त्वपूर्ण बंदरगाहों की उपस्थिति के साथ, इन क्षेत्रों से गुजरने वाले व्यावसायिक मार्गों का एक जाल था। विशेष रूप से व्यापारियों और स्थानीय सरदारों को व्यापार में लाए गए धन और समृद्धि के कारण कला के शक्तिशाली संरक्षक बनाते थे। व्यापारी वर्गों में मुख्यतः जैन समुदाय के प्रतिनिधि होते थे जो कि जैन समुदाय से सम्बन्धित विषयवस्तु शामिल कर कला के महत्त्वपूर्ण संरक्षक बने थे। इस तरह पश्चिमी भारतीय समूह के भाग जो जैन विषयवस्तु और हस्तलिपि का चित्रण करते थे, उसे चित्रकला की जैन शैली के नाम से जानते हैं।

राजस्थान में लघु चित्र परम्परा-15वीं शताब्दी में प्रचलित जैन शैली की परम्परा में नया कलेवर लेकर इस प्रदेश में जो कला विकसित हुई, उसे राजस्थानी चित्रकला के नाम से जाना जाता है। कर्नल टाड ने सर्वप्रथम इस प्रदेश के लिए राजस्थान शब्द का प्रयोग किया। अतः इस प्रदेश की सभी प्रमुख रियासतों में प्रचलित शैली को राजस्थानी शैली के नाम से जाना गया।

पश्चिमी भारतीय पाण्डुलिपि चित्र परम्परा ने राजस्थान में लघु चित्र परम्परा को निर्देशित किया था-

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पश्चिमी भारतीय पाण्डुलिपि चित्र परम्परा ने राजस्थान में लघु चित्र परम्परा को निर्देशित किया था।

प्रश्न 2.
राजस्थानी चित्र शैली की विभिन्न शैलियों का वर्णन कीजिए और उनकी विशेषताओं का समर्थन करने के लिए उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
राजस्थान चित्र शैली-राजस्थान प्रदेश में चित्रकला की समृद्धशाली परम्परा रही है। यह राजाओं के राज्य और ठिकानों से सम्बद्ध है। यह राजपूत चित्रकला थी जो मुख्य रूप से 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान राजपूताना के शाही दरबार में विकसित हुई। 

राजस्थान की विभिन्न शैलियाँ
राजस्थान की प्रमुख शैलियाँ अनलिखित हैं-
1. मेवाड़ शैली-मेवाड़ शैली में चित्रकला पाठ्य प्रस्तुतियों से धीरे-धीरे दूर होकर दरबारी गतिविधियों और राजघरानों में बदल गई। मेवाड़ के कलाकार, आमतौर पर प्रमुख रूप से लाल और पीले रंग के साथ चमकीले रंग पसंद करते हैं। मेवाड़ शैली में पुरुषाकृतियाँ लम्बी, चेहरा गोल व अण्डाकार है । चिबुक और गर्दन भारी तथा पुष्ट हैं। स्त्रियों की मीनाकृति आँखें, ठिगना कद, भरी हुई चिबुक, खुले हुए होंठ, नासिका नथयुक्त, कपोलों पर झूलते बाल इत्यादि अन्य विशेषताएँ हैं। यहाँ रंगों की विविधता रही है। पशुओं में हाथी, घोड़े, शेर, हिरण और पक्षियों में चकोर, हंस, मयूर, बगुला, सारस आदि का चित्रण बहुलता से हुआ है।

2. बूंदी शैली-स्त्रियों के रूप चित्रण में छोटे गोलाकार चेहरे, उन्नत ललाट, उन्नत नासिका और भरे हुए कपोल हैं। उनकी वेशभूषा में प्रायः पायजामा और उस पर पारदर्शी जामा है। बूंदी शैली की अन्य विशेषताएँ हैं प्रवाही रंगों में भू-परिदृश्यों, वृक्षों, लताओं, पदम सरोवरों का सुन्दर चित्रण।

3. कोटा शैली-इस शैली में नर-नारियों के अंग-प्रत्यंगों का अंकन पुष्ट एवं प्रभावशाली बना है। भारी और गठीला शरीर, दीप्तियुक्त चेहरा, मोटे नेत्र, तीखी नाक, पगड़ियाँ और अंगरखों से युक्त चित्रण उल्लेखनीय हैं। इस शैली के आखेट दृश्य प्रसिद्ध हैं।

4. जोधपुर शैली-जोधपुर शैली में पुरुष लम्बे, चौड़े, गठीले बदन के तथा उनके गल-मुच्छ, ऊँची शिखराकार पगड़ी, राजसी वैभव के वस्त्राभूषण प्रभावशाली हैं। स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों का अंकन भी गठीला है। बादाम-सी आँख और ऊँची पाग जोधपुर शैली की अपनी निजी देन है। चित्रों में चमकीले रंगों का प्रयोग किया गया है।

5. बीकानेर शैली-बीकानेर शैली अपनी उदात्त कल्पना, लयबद्ध सूक्ष्म रेखांकन, मंद व सुकुमार रंग-योजना की विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध है। पुरुष मुखाकृतियों का चौड़ा माथा, लम्बे केश, दाढ़ी-मूंछों से युक्त वीरभाव लिए बनाया गया है। स्त्री आकतियाँ इकहरी शरीर वाली. खंजन पक्षी से तीखे नेत्र, पतली कलाइयाँ, वक्ष कर वक्ष कम उभरा हुआ है।

6. किशनगढ़ शैली-इस शैली की सबसे प्रमुख विशेषता नारी का सौन्दर्य है। पतला, किंचित् लम्बा चेहरा, ऊँचा तथा पीछे की ओर ढलवा ललाट, लम्बी तथा नुकीली नाक, पतले होंठ, उन्नत चिबुक, लम्बे छरहरे बदन वाली, खंजनाकृति या कमल नयन आदि नारी आकृतियों का चित्रण इस शैली की विशिष्टता है। पुरुष आकृतियों का छरहरा बदन, उन्नत ललाट, लम्बी नाक, पतले अधर आदि किशनगढ़ शैली की अपनी विशेषताएँ हैं।

7. जयपुर शैली-इस शैली में पुरुषाकृतियाँ मध्यम कद-काठी, गोल चेहरा, ऊँचा ललाट, छोटी नाक, मोटे अधर, मांसल चिबुक, मीनाकृति नयन आदि से युक्त चित्रित की गयी हैं। स्त्री आकृतियों के मीनाकृति नयन, लालिमायुक्त गोल चेहरे, उभरे हिंगुली अधर, मांसल यौवनी काया तथा अलंकृत राजस्थानी मुगल मिश्रित वस्त्राभूषण से युक्त चित्रित किए गए हैं।

प्रश्न 3.
रागमाला क्या है ? राजस्थानी चित्र शैली से रागमाला चित्रों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
रागमाला-रागमाला की चित्रकलायें राग और रागिनी की सचित्र व्याख्या हैं।
दैवीय एवं मानवीय स्वरूप में रागों को देखा गया है जो कि कवियों एवं संगीतकारों द्वारा आध्यात्मिक एवं रोमांचक स्वरूप के सन्दर्भ में देखी गयी हैं। प्रत्येक राग मन के भाव, दिन के समय एवं मौसम से जुड़े हुए हैं। रागमाला के चित्र 36 से 42 जिल्दों में व्यवस्थित किए गए हैं जो कि परिवारों के स्वरूप में संगठित हैं। एक पुरुष राग एक परिवार का मुखिया है जिसमें छ: महिलाएँ होती हैं, जो रागिनी कहलाती हैं। भैरव, मालकोस, हिन्डोल, दीपक, मेघ और श्री छः मुख्य राग हैं। 

राजस्थानी चित्र शैली से रागमाला चित्र के उदाहरण निम्नलिखित हैं-

प्रश्न 4.
एक नक्शा तैयार कर राजस्थानी लघु चित्रों के स्थानों को बताइए।
उत्तर:

प्रश्न 5.
कौनसे ग्रंथ लघु चित्र शैली के विषयवस्तु एवं तथ्यों को प्रदान करते हैं? उन्हें उदाहरण देकर वर्णन करें। 
उत्तर:
लघु चित्र शैली के विषयवस्तु एवं तथ्यों को प्रदान करने वाले ग्रन्थ निम्नलिखित हैं-
1. गीत गोविन्द-यह 12वीं शताब्दी में जयदेव द्वारा रचित है, जो कि बंगाल के लक्ष्मण सेन के दरबारी कवि थे। ‘ग्वाले के गीत’ संस्कृत का एक कवित्व गीत है जो श्रृंगार रस को उत्पन्न करता है। इसमें सांसारिक आकृतियों द्वारा राधा एवं कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम का चित्रण किया गया है। श्रीकृष्ण को रचयिता के रूप में माना गया जहाँ समस्त रचना एक आनन्ददायी मुद्दा रही और राधा उसका केन्द्र रहीं, उन्हें एक मानवीय आत्मा मानकर भगवान की पूजा हेतु प्रस्तुत किया गया। देवता के प्रति आत्मा का समर्पण राधा के द्वारा स्वयं को अपने प्रिय कृष्ण हेतु भुला दिए जाने को ‘गीत गोविन्द’ के चित्रों में देखा जा सकता है।

2. महाकाव्य और पौराणिक कथा-भारतीय साहित्य और हिन्दू देवताओं को अक्सर लघु चित्रों में संदर्भित किया जाता था। कलाकारों ने रामायण और महाभारत के दृश्यों को चित्रित किया, जिनमें से सभी ने कल्पना की पेशकश की जिसे आश्चर्यजनक चित्रण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

3. रागमाला-रागमाला की चित्रकलाएँ, राग और रागिनी की सचित्र व्याख्या हैं। दैवीय एवं मानवीय स्वरूप में रागों को देखा गया है जो कि कवियों एवं संगीतकारों द्वारा आध्यात्मिक एवं रोमानी स्वरूप के सन्दर्भ में देखी गई हैं। प्रत्येक राग मन के भाव, दिन के समय एवं मौसम से जुड़े हुए हैं। कई चित्रों पर मिले शिलालेख के प्रारम्भिक भाग, मारु रागिनी का प्रतिनिधित्व करते हैं। मारु को रागश्री की रागिनी के रूप में वर्गीकृत करते हैं और उसकी शारीरिक सुंदरता और उसके प्रिय पर उसके प्रभाव का वर्णन करते हैं।

4. रसमंजरी-भानुदत्त नामक एक मैथिली ब्राह्मण 14वीं शताब्दी में बिहार में रहता था, उसने कलाकारों का अन्य प्रिय ग्रन्थ ‘रसमंजरी’ लिखा जिसे प्रसन्नता के गुलदस्ते के रूप में व्यक्त किया गया। संस्कृत भाषा में लिखा गया यह ग्रंथ रस की व्यंजना करता है एवं नायकों व नायिकाओं के वर्गीकरण पर उनकी उम्र के अनुसार बात करता है।

इसमें बाल, तरुण एवं प्रौढ़ावस्था को बताया गया है। इसमें शारीरिक स्वरूप के गुण के अनुसार पद्मिनी, चित्रणी, शंखिनी, हस्तिनी आदि स्वरूपों को बताया गया है एवं खण्डिता, वासकसज्जा, अभिसारिका, उत्का आदि भावनात्मक दशाओं को बताया गया है।

5. बारामासा-बारामासा, बूंदी चित्रों का एक प्रसिद्ध विषय है। यह केशव दास द्वारा चित्रित 12 महीनों का वायुमण्डल सम्बन्धी विवरण है, जो कि राय परबिन (ओरछा के सुविख्यात दरबारी) हेतु लिखित कविप्रिया के दसवें अध्याय का भाग है।

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