(I) कवितावली
(II) रामचरितमानस
गोस्वामी तुलसीदास
।. कवितावली (उत्तरकांड से)
अभ्यास
पाठ के साथ
- कवितावली में उद्धत छंदों के आधार पर स्पष्ट करें कि तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ है।
उत्तर तुलसीदास मानवीय-संवेदना के कवि हैं। उन्होंने युगीन चेतना का सुंदर समावेश काव्य में किया है। कवितावली में उद्धृत पदों के अंतर्गत यह स्पष्ट हो जाता है कि तुलसी को अपने युग की समस्याओं का पता था। वे संत होते हुए भी जनता की पीड़ा से वाकिफ थे। उन्हें गरीबी, बेकारी तथा भुखमरी का ज्ञान था। किसान, मजदूर, बनिक इत्यादि वर्गों की जीविका के ह्रास को कवि ने देखा था। भयंकर बेकारी तथा भूख का चित्र सामने आया है। 'पेट की आग' का असर सब प्रकार के लोगों पर था। काम न मिलने की विवशता में लोग ऊँच-नीच कर्म कर रहे थे तथा धर्म-अधर्म पर विशेष ध्यान नहीं दे रहे थे। इस प्रकार, तुलसीदास ने अपने युग की आर्थिक विषमता को समझा था।
- पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है-तुलसी का यह काव्य-सत्य क्या इस समय का भी युग-सत्य है? तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
उत्तर तुलसीदास ने 'कवितावली' के एक पद में माना है कि 'पेट की आग' रामभक्ति रूपी मेघ ही बुझा सकते हैं। कवि का मानना है कि कर्म-फल ईश्वर के अधीन है। ईश्वर को 'पेट की आग' का शमन करने वाला मानना सिर्फ आस्था का विषय है। बिना कर्म के किसी फल की प्राप्ति संभव नहीं है। ईश्वर को पेट की आग बुझाने वाला मानना न तो तुलसी का युग-सत्य था और न ही आज का युग सत्य है। जो मनुष्य परिश्रम करता है, वह आगे निकलता है। वर्तमान आर्थिक युग में ईश्वर कृपा की जगह श्रम की महत्ता को स्थान दिया जा रहा है। ईश्वर के भरोसे रह जाने वाला जीवन एवं जगत में पीछे छूट जाता है।
- तुलसी ने यह कहने की जरूरत क्यों समझी?
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ/काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
इस सवैया में 'काहू के बेटासों बेटी न ब्याहब' कहते तो सामाजिक अर्थ में क्या परिवर्तन आता?
उत्तर तुलसी सामाजिक यथार्थ तथा इसके जातिगत ताने-बाने से परिचित थे। इसी कारण उन्होंने लिखा है-'काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब'। बेटे की शादी श्रेष्ठ परिवार में करने की मंशा रही है। पुत्र ही पारिवारिक परंपरा तथा जातिगत प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाला होता है। बेटी की शादी जिस लड़के से होती है, लड़की उसी जाति की हो जाती है। जाति प्रथा का सबसे मजबूत रूप लड़के के विवाह के रूप में सामने आता है। लड़के वाले लड़की की जाति-बिरादरी पर अधिक ध्यान देते हैं।
'काहू के बेटा सों बेटी न ब्याहब' कहने से सामाजिक अर्थ में थोड़ा परिवर्तन आता। इस वाक्य से यह परिलक्षित होता कि बेटी अधिक महत्त्वपूर्ण है जिसके लिए लड़के की जाति-बिरादरी को ध्यान से जानने की जरूरत है। यह कथन स्त्री-प्रधान समाज को प्रतिबिंबित करता, जबकि वास्तव में तत्कालीन समय ऐसा नहीं था। वास्तव में, इससे जाति-प्रथा पर वैसा व्यंग्य संभव नहीं होता, जैसा तुलसीदास चाहते थे।
यहाँ पुत्र-मोह तथा पितृप्रधान समाज पर भी व्यंग्य है, जो समाज में पुरुष को अधिक महत्त्व देता है तथा बेटी को एक समस्या मान लेता है। तुलसी का समाज ऐसी कई विसंगतियों से ग्रस्त था, जहाँ नारी के अस्तित्व को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता था। तुलसीदास का व्यंग्य समाज की पूरी व्यवस्था पर है।
- 'धूत कहौ..........' वाले छंद में ऊपर से सरल व निरीह दिखलाई पड़ने वाले तुलसी की भीतरी असलियत एक स्वाभिमानी भक्त हृदय की है। इससे आप कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर तुलसीदास विषादग्रस्त समाज से संघर्ष करते दृष्टिगत होते हैं। वे हर प्रकार की विभाजनकारी शक्तियों से टकराते हैं। तुलसी सही अर्थ में समन्वयकारी तथा मानवतावादी रचनाकार हैं। वे धूत-अवधूत, राजपूत-जुलाहा जैसे सामाजिक विभाजन को अनर्थकारी मानते हैं। उन्होंने समाज में अपनी स्थिति देखी थी। एक ब्राह्मण होते हुए भी उन्हें सामाजिक अपवादों से दो-चार होना पड़ा था। सामाजिक यथार्थ यही था कि समाज का विभाजन प्रायः आर्थिक आधार पर निर्धारित हो गया है। धन तथा प्रभुत्व रखने वाले लोग ही सामाजिक मान्यताओं के निर्माता तथा नियंत्रक होते हैं। ऐसे में तुलसी 'माँग कर खाने और मस्जिद में सोने' जैसी बात कर उक्त सामाजिक व्यवस्था को दो टूक जवाब देते हैं, किंतु अंततः तुलसी भक्त शिरोमणि हैं। वे राम का दास्य भाव स्वीकार करते हैं। तुलसी की भक्ति ही उनकी अंतःचेतना को 'सर्वजन हिताय' बनाती है।
- व्याख्या करें
(क) मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता। जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पितु बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।
(ख) जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना। अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही।।
(ग) माँग के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।।
(घ) ऊँचे नीचे करम, धरम-अधरम करि, पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।। उत्तर
(क) तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान राम लक्ष्मण को मूच्छित देखकर मनुष्य स्वभाव के अनुसार कहने लगे हे लक्ष्मण! संपूर्ण संसार में तुम्हारे समान कोई भाई नहीं हो सकता क्योंकि तुम मुझे दुखी नहीं देख सके और हमेशा मुझसे आदर एवं सम्मानपूर्वक बात की। यहाँ तक कि मेरी भलाई के लिए तुमने माता-पिता को भी त्याग दिया और यहाँ आकर जंगल की प्रचंड धूप और शीत को सहन किया। यदि मुझे पहले से इस बात का अनुमान होता कि इस वनगमन में मुझे भाई के वियोग की वेदना को सहन करना पड़ेगा तो मैं पिता के वचनों को न मानता।
(ख) हे लक्ष्मण! तुम्हारे बिना मेरी स्थिति उस असहाय पक्षी के समान ही है जिसके पंख कट गए हों और जो उड़ने में असमर्थ हो। जिस प्रकार से सर्प मणि के बिना शोभाहीन और हाथी सूँड के बिना विवश हो जाता है, उसी प्रकार यदि जड़ भाग्य ने मुझे जीवित रखा तो तुम्हारे वियेग में मेरी स्थिति भी शोचनीय हो जाएगी।
(ग) तुलसीदास स्वयं के स्वाभिमानी और भयरहित होने का परिचय देते हैं और कहते हैं मुझे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। मैं तो लोगों से माँगकर ही खाने में संतुष्ट हूँ और मस्जिद में सोकर ही शांति की अनुभूति करता हूँ। मुझे संसार के कार्य-व्यवहार में आसक्ति नहीं है।
(घ) तुलसीदास जी कलिकाल की स्थितियों पर प्रकाश डालते हैं कि इस युग में लोगों को अच्छे-बुरे कर्मों का भान न होगा। धर्म-अधर्म का अंतर समाप्त हो जाएगा और इतनी दारूण स्थिति आ जाएगी कि पेट के लिए लोग अपनी संतानों का भी मोलभाव करेंगे।
- भ्रातृशोक में हुई राम की दशा को कवि ने प्रभु की नर लीला की अपेक्षा सच्ची मानवीय अनुभूति के रूप में रचा है। क्या आप इससे सहमत हैं? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
उत्तर तुलसीदास 'रामचरितमानस' के 'लंका कांड' में भाई लक्ष्मण के मूर्चित होने पर राम को विलाप करते दिखाते हैं। यह विलाप केवल एक नर लीला नहीं रह जाती जैसा कवि कथावाचक भगवान शंकर के मुख से कहलवाते हैं। शिवजी उमा को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे, उमा! भगवान सृष्टि के निर्माता हैं, उन्हें विधि का ज्ञान है किंतु उनका मानव की तरह दुखी होना सिर्फ नरलीला का अंग है। भक्त कवि तुलसी की यह प्रपत्ति भक्ति के लिहाज से सही है किंतु कवि ने जिस मानवीय संवेदना को कविता में उकेरा है, वह मनुष्य की स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है।
राम अपने भाई के प्रेम में विह्बल होकर सभी प्रकार की सामाजिक मर्यादाओं के बंधन को तोड़ते प्रतीत होते हैं। वे पिता की बात नहीं मानने तथा नारी की हानि को कमतर बताने वाली बातें भी करते हैं। यह किसी नरलीला के लिए संभव नहीं है। राम द्वारा शोक की स्थिति में कही गई बातें सच्ची मानवीय अनुभूति की अभिव्यक्ति हैं। यह एक सामान्य मनुष्य की वेदना का प्रस्फुटन है, जिसे नरलीला कहना उचित नहीं है।
- शोकग्रस्त माहौल में हनुमान के अवतरण को करुण रस के बीच वीर रस का आविर्भाव क्यों कहा गया है?
उत्तर मेघनाद के शक्तिशाली शक्तिबाण से मूर्चित लक्ष्मण का इलाज कठिन था। इसके लिए लंका के वैद्य सुषेण ने हिमालय में अवस्थित द्रोण पर्वत से संजीवनी-बूटी लाने की बात कही। राम के निर्देश पर हनुमान संजीवनी-बूटी लाने आकाश मार्ग से हिमालय की ओर चल पड़े।
अर्द्ध-रात्रि तक हनुमान के नहीं लौटने से राम अत्यंत दुखी हुए। उन्हें भाई का विछोह संतप्त कर रहा था। शोकग्रस्त राम जीवन की घटनाओं पर विचार करते हुए, विलाप कर रहे थे। उनका विलाप उनकी सेना को दुखी कर रहा था। सभी लोग अत्यंत दुखी तथा शोकमग्न थे। चारों ओर करुण-रस का प्रवाह हो रहा था। उसी समय हनुमान द्रोण पर्वत के साथ लंका पहुँच गए। उनके पहुँचते ही वानर-भालुओं में हर्ष का संचार हो गया। करुण-रस की जगह वीर-रस का प्रवाह हुआ। हनुमान के इस कार्य से सेना में उत्साह तथा शक्ति का संचार हुआ। राम ने हनुमान को गले से लगा लिया।
- जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई।। बरु अपजस सहतेँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं।।
भाई के शोक में डूबे राम के इस प्रलाप-वचन में स्त्री के प्रति कैसा सामाजिक दृष्टिकोण संभावित है?
उत्तर भाई के शोक में डूबे राम के प्रलाप में स्त्री के प्रति कोई कटु वचन नहीं कहा गया है। भाई तथा पत्नी में से भाई को अवश्य अधिक महत्त्व दिया गया है, किंतु यह महत्त्वपूर्ण है कि उस भाई के मूर्चित होने पर राम ने 'नारी' से अधिक महत्त्व दिया, जिस भाई ने राम के लिए बड़े-से-बड़ा त्याग किया था। लक्ष्मण ने बड़े भाई राम के साथ वन जाने के लिए माता-पिता, पत्नी तथा राजमहल का त्याग कर दिया। ऐसे भाई के प्रति राम की ऐसी संवेदना उचित ही है। यहाँ राम ने किसी सामाजिक दृष्टिकोण से स्त्री के लिए कोई वचन नहीं कहा बल्कि उनके कथन को भ्रातृशोक में डूबे व्यक्ति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया मानना अधिक उचित है।
पाठ के आस-पास
- 'पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी' तुलसी के युग का ही नहीं आज के युग का भी सत्य है। भुखमरी में किसानों की आत्महत्या और संतानों (खासकर बेटियों) को भी बेच डालने की हृदय-विदारक घटनाएँ हमारे देश में घटती रही हैं। वर्तमान परिस्थितियों और तुलसी के युग की तुलना करें।
उत्तर 'पेट की आग को शान्त करने के लिए लोग अपनी संतानों को बेचने में भी संकोच नहीं करते हैं, यह तुलसीदास के युग का नहीं आज के युग का भी सत्य है। आज जब हम उन्नति के चरमोत्कर्ष पर हैं तब भी आज भुखमरी के कारण किसानों की आत्महत्या और संतानों (खासकर बेटियों) को भी बेच डालने की हृदय विदारक घटनाएँ हमारे देश में घटती रही हैं। कृषि, व्यवसाय संकट अनेक तरह के सामाजिक एवं नैतिक संकटों को जन्म देता है। तुलसी का युग भी भुखमरी की स्थिति में इस प्रकार के अनेक संकटों से गुजर रहा था और आज भी इसी तरह अनेक संकट हमारे सामने खड़े हैं। आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और विदर्भ में किसानों द्वारा आत्महत्या और महानगरों में आर्थिक संकटों के कारण संतानों को बेचने की घटनाएँ आम हैं। बहुराष्ट्रीय बैंकों के प्रलोभनों द्वारा किसानों के सामने संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है, तो पूँजी के केंद्रीकरण के कारण भी लोग बेरोजगार हो गए हैं।
- राम कौशल्या के पुत्र थे और लक्ष्मण सुमित्रा के। इस प्रकार वे परस्पर सहोदर (एक ही माँ के पेट से जन्मे) नहीं थे। फिर राम ने उन्हें लक्ष्य कर ऐसा क्यों कहा-"मिलइ न जगत सहोदर भ्राता"? इस पर विचार कीजिए।
उत्तर राम मर्यादा पुरुष थे। उनके मानवीय संबंध किसी खास सूत्र से बंधे नहीं थे। वे कौशल्या के पुत्र अवश्य थे किंतु उनके लिए सुमित्रा और कैकयी कौशल्या से कम नहीं थीं। राम तथा लक्ष्मण का प्रेम सहोदर भाइयों से भी बढ़कर था। राम के बिना लक्ष्मण तथा लक्ष्मण के बिना राम की कल्पना कठिन है। इनका परस्पर प्रेम उन मानवीय सिद्धांतों तथा जैव-प्रक्रियाओं से पूरी तरह भिन्न है। सहोदर भाई कहना लाक्षणिकता है, इसका संदर्भ परस्पर भ्रातृ-प्रेम से है। वैसे एक दंत कथा (पौराणिक) के अनुसार दशरथ की तीन रानियों को पुत्र की कामना में लंबा समय लगा था। किन्हीं ऋषि द्वारा प्रदत्त फल के खाने से पुत्र-प्राप्ति की कामना पूर्ण हुई थी। माना जाता है कि कौशल्या ने अपने फल का कुछ हिस्सा सुमित्रा को अलग से दिया। सुमित्रा के दो पुत्र हुए-लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न। हो सकता है कि तुलसीदास के मस्तिष्क में इस कथा की चेतना भी रही हो।