पञ्चमः पाठः सूक्तिमौक्तिकम्
(सूक्तिरूपी मोती)
(1)
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
कि अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥ -मनुस्मतिः
अन्वयः-वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तं च एति च याति। वित्ततः (क्षीणः) तु अक्षीणः (किंतु), वृत्ततः क्षीणः हतः हतः।
कठिन-शब्दार्थ-
वृत्तम् = आचरण, चरित्र (चरित्रम्)। यत्नेन = प्रयत्नपूर्वक। संरक्षेद् = रक्षा करनी चाहिए। वित्तम् = धन, ऐश्वर्य (धनम्) । एति = आता है। याति = जाता है (गच्छति)। अक्षीणः = नष्ट न हुआ। हतः = नष्ट हुआ।
प्रसङ्ग-
प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ से उद्धृत किया गया है। इस श्लोक का मूलग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ नामक स्मृति-ग्रन्थ है जिसमें मनुष्य को सदाचार की शिक्षा देते हुए मनु कहते हैं कि
हिन्दी-अनुवाद-
मनुष्य को सदाचार (सच्चरित्र) की दृढ़तापूर्वक रक्षा करनी चाहिए अर्थात् सदैव सदाचार की रक्षा में प्रयत्नशील रहना चाहिए। धन तो अस्थिर होता है अर्थात् आता-जाता रहता है। धन के क्षीण (कम) होने से मनुष्य क्षीण नहीं होता अर्थात् निर्धन नहीं होता अपितु सदाचार से क्षीण (हीन) होने पर निश्चय ही उसका विनाश हो जाता है।
आशय-मनुष्य को सदाचारी होना चाहिए। सच्चा धन भौतिक धन नहीं, किन्तु सदाचार/सच्चरित्रता रूपी धन ही होता है। जैसा कि अन्यत्र भी कहा गया है-“आचारः प्रथमो धर्मः।”
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥
-विदुरनीतिः अन्वयः-धर्मसर्वस्वं श्रूयताम् च श्रुत्वा एव अवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।
कठिन-शब्दार्थ-
धर्मसर्वस्वम् = धर्म (कर्त्तव्यबोध) का सब कुछ। श्रूयताम् = सुनिए (आकर्ण्यताम्) । अवधार्यताम् = धारण कीजिए। आत्मनः = स्वयं से। प्रतिकूलानि = विपरीत, अनुकूल नहीं। परेषाम् = दूसरों के (अन्येषाम्)। न समाचरेत् = नहीं करना चाहिए।
प्रसङ्ग-
हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ से संकलित यह श्लोक महात्मा विदुर रचित ‘विदुरनीतिः’ नामक नीति-ग्रन्थ से लिया गया है जिसमें विदुर ने मानव धर्म तथा व्यवहार की शिक्षा देते हुए कहा है
हिन्दी-अनुवाद-
मानव को धर्म का सार सुनना चाहिए और उसे सुनकर मन में धारण (ग्रहण) करना चाहिए तथा स्वयं के प्रतिकूल (अप्रिय) आचरण दूसरों के प्रति नहीं करना चाहिए। अर्थात् जो व्यवहार तथा कार्य हमें स्वयं को प्रिय नहीं लगता, वह व्यवहार हमें दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए।
आशय-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में अपने परिवार, बन्धु, मित्रों, पड़ोसियों के साथ सामञ्जस्य बैठाकर जीना होता है। इसके लिए आवश्यक है—वह धर्म पर तत्वपरक शिक्षाओं को सुनकर ग्रहण करे, उन्हें अपने आचरण में शामिल करे तथा दूसरों के साथ अनुकूल आचरण करे।
(3)
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्माद् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥ -चाणक्यनीतिः
अन्वयः-सर्वे जन्तवः प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति । तस्मात् (सर्वैः) तदेव वक्तव्यम् वचने का दरिद्रता।
कठिन-शब्दार्थ-
जन्तवः = प्राणी। प्रियवाक्यप्रदानेन = मधुर वचन बोलने से (स्नेहयुक्तभाषणेन)। तुष्यन्ति = सन्तुष्ट होते हैं (सन्तुष्टाः भवन्ति)। तदेव = उसी प्रकार से। वक्तव्यम् = कहना चाहिए। वचने = बोलने में।
प्रसङ्ग-
हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ में संग्रहित प्रस्तुत श्लोक
मूल पुस्तक से चयनित किया गया है । इसमें मधुरभाषिता वाणी के महत्त्व को प्रकट करते हुए कोटिल्य चाणक्य कहते हैं
हिन्दी-अनुवाद-
इस संसार में मधुर वचन बोलने से सभी प्राणी प्रसन्न होते हैं अर्थात् प्राणिमात्र को प्रिय वचनों से अनुकूल रखा जाता है। तब तो प्रत्येक को प्रिय वचन ही बोलने चाहिए, क्योंकि प्रिय वाक्य बोलने में कोई दरिद्रता (निर्धनता) नहीं आती।
आशय-प्रिय वचनों में असीम शक्ति होती है। ये सभी को अनुकूल बना लेते हैं। मधुरोक्तियाँ सभी को खुश रखती हैं। जबकि कटु वचनों से विरोधी जन्मते हैं, अतः सर्वदा सरस, मधुर वाणी बोली जानी चाहिए। कोयल मधुरवाणी (कूक) के कारण सबकी प्रिय है।
(4)
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः
परोपकाराय सतां विभूतयः॥ -सुभाषितरत्नभाण्डागारम्
अन्वय-नद्यः स्वयमेव अम्भः न पिबन्ति, वृक्षाः फलानि स्वयं न खादन्ति। वारिवाहाः सस्यं खलु न अदन्ति (एवं) सतां विभूतयः परोपकाराय (भवन्ति, न तु आडम्बराय)।
कठिन-शब्दार्थ-
नद्यः = नदियाँ । अम्भः = जल । न पिबन्ति = नहीं पीती हैं। न खादन्ति = नहीं खाते हैं। वारिवाहाः = जल वहन करने वाले बादल (मेघाः)। सस्यम् = फसलों (धान्य) को। न अदन्ति = नहीं खाते हैं । सताम् = सज्जनों की। विभूतयः = सम्पत्तियाँ (सम्पदः)। परोपकाराय = परोपकार के लिए।
प्रसङ्ग-
प्रस्तुत पद्य हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ से उद्धृत है । मूलतः प्रकृत श्लोक ‘सुभाषितरत्नभाण्डागारम्’ नामक ग्रन्थ से अवतरित है। इसमें ‘परोपकार’ रूपी महान् गुण, पुण्यकार्य की महिमा का वर्णन किया जा रहा है।
हिन्दी-अनुवाद-
नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीती हैं। वृक्ष (वनस्पतियाँ) अपने फल स्वयं नहीं खाते। बादल सस्यों (कृष कर्म द्वारा उगाई फसलों) को कभी नहीं खाते अर्थात् यह सब इनके परोपकारात्मक स्वभाव के कारण है। इसी प्रकार सज्जनों (श्रेष्ठ लोगों) की सम्पत्तियाँ (साधन) भी परोपकार के लिए ही होती हैं, स्वार्थ के लिए नहीं।
आशय-यह समस्त संसार परोपकार पर ही टिका हुआ है। सम्पूर्ण प्रकृति प्राणिमात्र के हितसाधन, कल्याण हेतु उद्यत है, जैसे—नदियाँ, वनस्पति, बादल, सूर्य, चन्द्रमा तथा भूमि इत्यादि। इसी प्रकार महान् लोगों की सम्पत्ति, साधन तथा सर्वस्व ही जनहित के लिए होता है। जैसे—महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियाँ परहित हेतु दान कर दी। ‘रामचरितमानस’ में भी तुलसीदासजी ने कहा है
”परहितसरिस धर्म नहीं भाई”। इसी प्रकार व्यासजी ने भी पुराणों के सारस्वरूप निम्नलिखित वचन कहे हैं “परोपकारः पुण्याय”।
(5)
गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा।
गुणयुक्तो दरिदोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः॥ -मृच्छकटिकम्
अन्वय-पुरुषैः सदा हि गुणेषु एव प्रयत्नः कर्त्तव्यः। (यतः) गुणयुक्तः, दरिद्रः अपि, अगुणै (युक्तैः) ईश्वरैः समः न। (अपितु श्रेष्ठः भवति)।
कठिन-शब्दार्थ-
गुणेषु = गुणों को ग्रहण करने में। कर्त्तव्यः = करना चाहिए (करणीयः)। दरिद्रः = निर्धन । अगुणः = गुणहीनों से। समः = समान। ईश्वरैः = धनवानों के (श्रीयुक्तैः)।
प्रसङ्ग-
महाकवि शूद्रक द्वारा रचित ‘मृच्छकटिकम्’ नामक नाट्यग्रन्थ से संग्रहित तथा ‘शेमुषी’ के प्रथम भाग के ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ में चयनित प्रस्तुत श्लोक में ‘गुणग्राह्यता’ में प्रयासरत रहने की आवश्यकता बताई जा रही
हिन्दी-अनुवाद-
मनुष्य को सदा गुणों को ग्रहण (धारण) करने में ही प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि संसार में गुणों से युक्त निर्धन व्यक्ति भी गुणों से हीन-धनी व्यक्तियों से बढ़कर (श्रेष्ठ) होता है अर्थात् गुणहीन निर्धन व्यक्ति ही उससे श्रेष्ठ होता है।
आशय-धन नश्वर है, जबकि गुण जीवन-पर्यन्त मनुष्य की निधि बनकर उसके साथ रहते हैं। धन, शरीर द्वारा अर्जित शरीर के लिए ही केवल कुछ सुविधाएँ, साधन उपस्थित करता है, जबकि ‘गुण’ आत्मा के धर्मस्वरूप हैं । गुणों के उत्कर्ष से ही मनुष्य सच्चा मनुष्य बनता है। ‘आत्मोदय’ के साधन गुण ही हैं, धन नहीं। अतः मनुष्य को गुणग्राह्यता के लिए सचेष्ट रहना चाहिए। धन के पीछे नहीं भटकना चाहिए।
(6)
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना.
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥ -नीतिशतकम्
अन्वयः-दिनस्य पूर्वार्द्ध परार्द्ध-भिन्न छाया इव खलसज्जनानां मैत्री—आरम्भगुर्वी (पश्चात् च) क्रमेणक्षयिणी, (तथा च) पुरा लघ्वी पश्चात् च वृद्धिमती (भवति)।
कठिन-शब्दार्थ-
खलसज्जनानाम् = दुर्जन और सज्जनों की। मैत्री = मित्रता। पूर्वार्द्ध = दोपहर के पहले। परार्द्ध = दोपहर के बाद । आरम्भगुर्वी = आरम्भ में लम्बी (आदौ दीर्घा)। क्रमेण = क्रमशः। क्षयिणी = क्षीण होने वाली.. घटती स्वभाव वाली। पुरा = पहले। लघ्वी = छोटी। वृद्धिमती = लम्बी होती हुई।
प्रसङ्ग-
मूलतः महाकवि भर्तृहरिरचित ‘नीतिशतकम्’ नामक पुस्तक से संग्रहित तथा ‘शेमुषी’ के ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ में सम्मिलित प्रस्तुत श्लोक में दुर्जन तथा सज्जन की मैत्री के विषय में प्रकृतिपरक उदाहरण के द्वारा भेद दिखाया गया है।
हिन्दी-अनुवाद-
दुर्जन और सज्जनों की मित्रता दिन के पूर्वार्ध तथा परार्ध (दोपहर पूर्व तथा दोपहर पश्चात्) की छाया की भाँति अलग-अलग स्थिति वाली होती है। दुर्जन की मित्रता तो मध्याह्न से पूर्व तथा मध्याह्न तक व्याप्त छाया के समान होती है जो आरम्भ में बड़ी (धनी) तथा उत्तरोत्तर क्रम से क्षीण (कम) होती हुई समाप्त हो जाती है। जबकि सज्जन की मित्रता मध्याह्न के पश्चात् की छाया के समान होती है जो आरम्भ में कम (लघ्वी) तथा (क्रमश:) उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। यही दोनों की मित्रता में भेद है।
आशय- दुर्जन की मित्रता स्वार्थाधारित जबकि सज्जन की मित्रता स्वार्थरहित होती है। जब तक स्वार्थ सिद्धि नहीं हो. जाती, दुर्जन की मैत्री प्रगाढ़ रूप में दिखाई देती है। स्वार्थ सिद्धि के उपरान्त वह समाप्त हो जाती है। अतः वह मित्रता नहीं केवल मित्रता का स्वार्थवश प्रदर्शन होता है। जबकि सज्जन की मैत्री चिरस्थायी होती है, क्योंकि उसमें स्वार्थता (स्वाहितसाधनेच्छा) नहीं होती। जैसे कि कहा भी गया है—
नारिकेल समाकाराः दृश्यन्ते सुहृज्जनाः।
अन्ये तु बदरिकाकाराः बहिरेव मनोहराः॥
अर्थात् सच्चे मित्र नारियल के समान बाहर से कठोर जबकि अन्दर से मृदु होते हैं तथा स्वार्थी मित्र ‘बेर’ के समान केवल बाहर-बाहर से ही मनोहरी होते हैं।
(7)
यत्रापि कत्रापि गता भवेय
हँसा महीमण्डलमण्डनाय।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां
येषां मरालैः सह विप्रयोगः॥ -भामिनीविलासः
अन्वय-हंसाः महीमण्डलमण्डनाय यत्र अपि कुत्र अपि गताः भवेयुः (तथा भूते) हानिः तु तेषां सरोवराणां हि (भवति) येषां मरालैः सह (तेषां) विप्रयोगः (भवति)।
कठिन-शब्दार्थ-
महीमण्डलमण्डनाय = पृथ्वी को सुशोभित करने के लिए ( भूमि सज्जीकर्तम)। गताः = गए हुए। सरोवराणाम् = सरोवरों (तालाबों) की। मरालैः = हंसों से (हंसैः)। विप्रयोगः = वियोग, अलग होना।
प्रसङ्ग-
पण्डितराज जगन्नाथ रचित ‘भामिनीविलासः’ नामक ग्रन्थ से संकलित प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) में ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसमें गुणी (उत्तम) पुरुषों के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है।
हिन्दी-अनुवाद-
हंस, पृथ्वी की शोभा बढ़ाने को जहाँ कहीं भी चले गए हों, इसमें हानि तो उन सरोवरों (तालाबों) की ही होती है जिन्हें छोड़कर हंस चले गए अर्थात् शोभाकारक हंसों से जिनका बिछुराव हो गया।
आशय- जैसे हंस के वहाँ रहने से सरोवर की शोभा द्विगुणित हो जाती है और चले जाने से शून्यता आ जाती है, वैसे ही श्रेष्ठ (उत्तम) लोगों के निवास स्थान, नगरी को छोड़ने में उनकी नहीं अपितु उस स्थान या नगरी की ही हानि होती है, क्योंकि उनके वहाँ रहने से ही उस स्थान की शोभा थी। वहाँ शान्ति, धर्म, परोपकार, दयालुता, स्नेह आदि गुणकर्मों का व्यवहार होता था जो उनके वहाँ से चले जाने पर नहीं रहेगा।
(8)
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः
समुदमासाद्य भवन्त्यपेयाः॥ -हितोपदेशः
अन्वय- गुणाः गुणज्ञेषु (एव) गुणाः भवन्ति, ते (गुणाः) निर्गुणं प्राप्य दोषाः भवन्ति। (यथा) नद्यः आस्वाद्यतोयाः (सति) प्रवहन्ति (किंतु) (ताः एव) समुद्रं आसाद्य अपेयाः भवन्ति ।
कठिन-शब्दार्थ-
गुणज्ञेषु = गुणों को जानने वालों में। निर्गुणम् = गुणहीन को। प्राप्य = प्राप्त करके। आस्वाद्यतोयाः = स्वादयुक्त जलवाला (स्वादुजलसम्पन्नाः)। प्रवहन्ति = बहती हैं। आसाद्य = पाकर (प्राप्य)। अपेयाः = न पीने योग्य।
प्रसङ्ग-
नारायण पण्डित द्वारा रचित लोकप्रिय ग्रन्थ ‘हितोपदेश’ से संकलित प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ (प्रथमो भागः) के ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ में संग्रहित है। यहाँ ‘गुण व गुणज्ञ’ के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला जा रहा है।
हिन्दी-अनवाद-
गण, तभी तक गणरूप में रहते हैं जब तक वे गणज्ञ (गणग्राही) जनों में होते हैं। वही गण निर्गुण पात्र में पहुँचकर दोषों का रूप ग्रहण कर लेते हैं। अर्थात् मूों में आकर वे ही गुण दोष बन जाते हैं। जैसे नदियों का स्वादिष्ट (पेय) जल समुद्र में पहुँचकर अपेय अर्थात् न पीने योग्य (खारी) बन जाता है। सारा भेद संसर्ग का है।
आशय- तुच्छ जन भी महान् लोगों की संगति में आकर जीवन को धन्य कर लेते हैं। संसार में आदिकाल से लेकर आज तक अनेकों ऐसे उद्धरण भरे हैं जिनमें प्रारम्भ में दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों को महान् पुरुषों की संगति में आने के बाद श्रेष्ठ जीवन धारण करते हुए तत्सम्बन्धित क्षेत्रों में अत्यधिक उत्कर्ष को प्राप्त किया तथा चारों दिशाओं में यश प्राप्त किया। अत: संगति का प्रभाव अनिवार्य तथा अक्षुण्ण रूप से मनुष्य पर होता है। जैसे प्रस्तुत उदाहरण में ‘जल’ तो एक ही है, परन्तु नदियों के अन्दर मधुर तथा समुद्र में पहुँच वही जल खारा हो जाता है। अतः सज्जन भी कुसंगति में पड़कर दुर्जन तथा दुर्जन सत्संगति में आकर सज्जन बन जाता है। महात्मा गाँधी ने कहा भी है
सत्सङ्गतिरतो भविष्यसि, भविष्यसि। दुर्जनसंसर्गे पतिष्यसि, पतिष्यसि॥
पाठ्यपुस्तक के प्रश्न
प्रश्न 1. एकपदेन उत्तरं लिखत-(एक पद में उत्तर लिखिए)
- वित्ततः क्षीणः कीदृशः भवति?
(धन से क्षीण कैसा होता है?) उत्तरम्-अक्षीणः।
- कस्य प्रतिकूलानि कार्याणि परेषां न समाचरेत्?
(किसके प्रतिकूल कार्य दूसरों के साथ आचरण नहीं करने चाहिए?)
उत्तरम्-आत्मनः।
- कुत्र दरिद्रता न भवेत्?
(कहाँ दरिद्रता नहीं होनी चाहिए?)
उत्तरम्-वचने।
- वक्षाः स्वयं कानि न खादन्ति?
(वृक्ष स्वयं क्या नहीं खाते हैं?)
उत्तरम्-फलानि।
- का पुरा लघ्वी भवति?
(क्या पहले छोटी (कम) होती है?)
उत्तरम्-परार्द्धस्य छाया/सज्जनानां मैत्री।
प्रश्न 2. अधोलिखितप्रश्नानाम उत्तराणि संस्कतभाषया लिखत
(अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए-)
- यत्नेन किं रक्षेत् वित्तं वृत्तं वा?
(प्रयत्नपूर्वक किसकी रक्षा करनी चाहिए, धन की अथवा चरित्र की?)
उत्तरम्-यत्नेन वृत्तं रक्षेत्।। [प्रयत्नपूर्वक आचरण (चरित्र) की रक्षा करनी चाहिए।]
- अस्माभिः कीदृशं आचरणं न कर्त्तव्यम्?
(अस्माभिः किं न समाचरेत?) (हमारे द्वारा किस प्रकार का आचरण नहीं किया जाना चाहिए?)
उत्तरम्-अस्माभिः आत्मनः प्रतिकूलं न समाचरेत् ।
(हमारे द्वारा स्वयं के विपरीत आचरण नहीं करना चाहिए।)
- जन्तवः केन तुष्यन्ति? .
(प्राणी किससे सन्तुष्ट होते हैं?)
उत्तरम्-जन्तवः प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति।
(प्राणी मधुर वचन बोलने से सन्तुष्ट होते हैं।)
- सज्जनानां मैत्री कीदृशी भवति?
(सज्जनों की मित्रता कैसी होती है?)
उत्तरम्-सज्जनानां मैत्री दिनस्य परार्ध छाया इव आरम्भे लघ्वी पश्चात् च गुर्वी भवति।
[सज्जनों की मित्रता दिन के परार्ध (मध्याहन पश्चात्) की छाया के समान आरम्भ में छोटी और बाद में वृद्धि को प्राप्त करने वाली होती है।]
(ङ)सरोवराणां हानिः कदा भवति?
(सरोवरों की हानि कब होती है?)
उत्तरम्-यदा हंसाः तान् परित्यज्य अन्यत्र गच्छन्ति ।
(जब हंस उनको छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं।)
प्रश्न 3.’क’स्तम्भे विशेषणानि ‘ख’ स्तम्भे च विशेष्याणि दत्तानि, तानि यथोचितं योजयत
‘क’ स्तम्भः ‘ख’ स्तम्भः
(क) आस्वाद्यतोयाः (1) खलानां मैत्री
(ख) गुणयुक्तः (2) सज्जनानां मैत्री
(ग) दिनस्य पूर्वार्द्धभिन्ना (3) नद्यः
(घ) दिनस्य परार्द्धभिन्ना (4) दरिद्रः
उत्तरम्-
‘क’ स्तम्भः – ‘ख’स्तम्भः
(क) आस्वाद्यतोयाः (3) नद्यः
(ख) गुणयुक्तः (4) दरिद्रः
(ग) दिनस्य पूर्वार्द्धभिन्ना (1) खलानां मैत्री
(घ) दिनस्य परार्द्धभिन्ना (2) सज्जनानां मैत्री
प्रश्न 4. अधोलिखितयोः श्लोकद्वयोः आशयं हिन्दीभाषया आङ्ग्लभाषया वा लिखत
(क) आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ॥
(ख) प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥
उत्तर-[नोट-उपर्युक्त दोनों श्लोकों का आशय पूर्व में पाठ के हिन्दी-अनुवाद के साथ दिया जा चुका है, वहाँ से देखकर लिखिए।] के
प्रश्न 5. अधोलिखितपदेभ्यः भिन्नप्रकृतिकं पदं चित्वा लिखत
(क) वक्तव्यम्, कर्त्तव्यम्, सर्वस्वम्, हन्तव्यम्।
उत्तरम्-सर्वस्वम्।
(ख) यत्नेन, वचने, प्रियवाक्यप्रदानेन, मरालेन।
उत्तरम्-वचने।
(ग) श्रूयताम्, अवधार्यताम्, धनवताम्, क्षम्यताम्।
उत्तरम्-धनवताम्।
- जन्तवः, नद्यः, विभूतयः, परितः।
उत्तरम्-परितः।
प्रश्न 6. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्नवाक्यनिर्माणं कुरुत
- वृत्ततः क्षीणः हतः भवति।
उत्तरम्-कस्मात् क्षीणः हतः भवति?
- धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा अवधार्यताम्।
उत्तरम्-कम् श्रुत्वा अवधार्यताम्?
- वृक्षाः फलं न खादन्ति।
उत्तरम्-के फलं न खादन्ति? .
- खलानाम् मैत्री आरम्भगुर्वी भवति।
उत्तरम्-केषाम् मैत्री आरम्भगुर्वी भवति? प्रश्न
7. अधोलिखितानि वाक्यानि लोट्लकारे परिवर्तयत
यथा-
सः पाठं पठति। सः पाठं पठतु।
(क) नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्ति। …………….
(ख) सः सदैव प्रियवाक्यं वदति। ……………..
(ग) त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचरसि । ……………..
(घ) ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्ति । ………………
(ङ) अहम् परोपकाराय कार्यं करोमि । ………………
उत्तरम्-
(क) नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्ति। नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्तु।
(ख) सः सदैव प्रियवाक्यं वदति। सः सदैव प्रियवाक्यं वदतु।
(ग) त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचरसि। त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचर।
(घ) ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्ति । ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्तु।
(ङ) अहम् परोपकाराय कार्यं करोमि। अहं परोपकाराय कार्यं करवाणि।
परियोजनाकार्यम्
प्रश्न (क) परोपकारविषयकं श्लोकद्वयं अन्विष्य स्मृत्वा च कक्षायां सस्वरं पठ।
उत्तरम्-(i)अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥
(ii) परोपकाराय वहन्ति नद्यः, परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः।
परोपकाराय दुहन्ति गावः, परोपकारार्थमिदं शरीरम् ॥