बाजार दर्शन

लेखक परिचय

जीवन परिचय-प्रसिद्ध उपन्यासकार जैनेंद्र कुमार का जन्म 1905 ई० में अलीगढ़ में हुआ था। बचपन में ही इनके पिता जी का देहांत हो गया तथा इनके मामा ने ही इनका पालन-पोषण किया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हस्तिनापुर के गुरुकुल में हुई। इन्होंने उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस में ग्रहण की। 1921 ई० में गांधी जी के प्रभाव के कारण इन्होंने पढ़ाई छोड़कर असहयोग अांदोलन में भाग लिया। अंत में ये स्वतंत्र रूप से लिखने लगे। इनकी साहित्य-सेवा के कारण 1984 ई० में इन्हें ‘भारत-भारती’ सम्मान मिला। भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इनका देहांत सन 1990 में दिल्ली में हुआ।
रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं।
उपन्यास – परख, अनाम स्वामी, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, जयवदर्धन, मुक्तिबोध ।
कहानी – संग्रह-वातायन, एक रात, दो चिड़ियाँ फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाजेब।
निबंध-संग्रह – प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, सोच-विचार, समय और हम।
साहित्यिक विशेषताएँ – हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद के बाद सबसे महत्वपूर्ण कथाकार के रूप में जैनेंद्र कुमार प्रतिष्ठित हुए।इन्होंने अपने उपन्यासों व कहानियों के माध्यम से हिंदी में एक सशक्त मनोवैज्ञानिक कथा-धारा का प्रवर्तन किया।
जैनेंद्र की पहचान अत्यंत गंभीर चिंतक के रूप में रही। इन्होंने सरल व अनौपचारिक शैली में समाज, राजनीति, अर्थनीति एवं दर्शन से संबंधित गहन प्रश्नों को सुलझाने की कोशिश की है। ये गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित थे। इन्होंने गांधीवादी चिंतन दृष्टि का सरल व सहज उपयोग जीवन-जगत से जुड़े प्रश्नों के संदर्भ में किया है। ऐसा उपयोग अन्यत्र दुर्लभ है। इन्होंने गांधीवादी सिद्धांतोंजैसे सत्य, अहिंसा, आत्मसमर्पण आदि-को अपनी रचनाओं में मुखर रूप से अभिव्यक्त किया है। भाषा-शैली-जैनेंद्र जी की भाषा-शैली अत्यंत सरल, सहज व भावानुकूल है जिसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुलता से हुआ है परंतु तद्भव और उर्दू-फ़ारसी भाषा के शब्दों का प्रयोग अत्यंत सहजता से हुआ है।

पाठ का प्रतिपादय एवं सारांश

प्रतिपादय – ‘बाजार दर्शन’ निबंध में गहरी वैचारिकता व साहित्य के सुलभ लालित्य का संयोग है। कई दशक पहले लिखा गया यह लेख आज भी उपभोक्तावाद व बाजारवाद को समझाने में बेजोड़ है। जैनेंद्र जी अपने परिचितों, मित्रों से जुड़े अनुभव बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि बाजार की जादुई ताकत मनुष्य को अपना गुलाम बना लेती है। यदि हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाजार का उपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं। इसके विपरीत, बाजार की चमक-दमक में फेंसने के बाद हम असंतोष, तृष्णा और ईष्या से घायल होकर सदा के लिए बेकार हो सकते हैं। लेखक ने कहीं दार्शनिक अंदाज में तो कहीं किस्सागो की तरह अपनी बात समझाने की कोशिश की है। इस क्रम में इन्होंने केवल बाजार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को अनीतिशास्त्र बताया है।

सारांश – लेखक अपने मित्र की कहानी बताता है कि एक बार वे बाजार में मामूली चीज लेने गए, परंतु वापस बंडलों के साथ लौटे। लेखक के पूछने पर उन्होंने पत्नी को दोषी बताया। लेखक के अनुसार, पुराने समय से पति इस विषय पर पत्नी की ओट लेते हैं। इसमें मनीबैग अर्थात पैसे की गरमी भी विशेष भूमिका अदा करता है। 0. पैसा पावर है, परंतु उसे प्रदर्शित करने के लिए बैंक-बैलेंस, मकान-कोठी आदि इकट्ठा किया जाता है। पैसे की पर्चेजिंग पावर के प्रयोग से पावर का रस मिलता है। लोग संयमी भी होते हैं। वे पैसे को जोड़ते रहते हैं तथा पैसे के जुड़ा होने पर स्वयं को गर्वीला महसूस करते हैं। मित्र ने बताया कि सारा पैसा खर्च हो गया। मित्र की अधिकतर खरीद पर्चेजिंग पावर के अनुपात से आई थी, न कि जरूरत की।

लेखक कहता है कि फालतू चीज की खरीद का प्रमुख कारण बाजार का आकर्षण है। मित्र ने इसे शैतान का जाल बताया है। यह ऐसा सजा होता है कि बेहया ही इसमें नहीं फँसता। बाजार अपने रूपजाल में सबको उलझाता है। इसके आमंत्रण में आग्रह नहीं है। ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है। यह इच्छा जगाता है। हर आदमी को चीज की कमी महसूस होती है। चाह और अभाव मनुष्य को पागल कर देता है। असंतोष, तृष्णा व ईष्र्या से मनुष्य सदा के लिए बेकार हो जाता है।

लेखक का दूसरा मित्र दोपहर से पहले बाजार गया तथा शाम को खाली हाथ वापस आ गया। पूछने पर बताया कि बाजार में सब कुछ लेने योग्य था, परंतु कुछ भी न ले पाया। एक वस्तु लेने का मतलब था, दूसरी छोड़ देना। अगर अपनी चाह का पता नहीं तो सब ओर की चाह हमें घेर लेती है। ऐसे में कोई परिणाम नहीं होता। बाजार में रूप का जादू है। यह तभी असर करता है जब जेब भरी हो तथा मन खाली हो। यह मन व जेब के खाली होने पर भी असर करता है। खाली मन को बाजार की चीजें निमंत्रण देती हैं। सब चीजें खरीदने का मन करता है।

जादू उतरते ही फैंसी चीजें आराम नहीं, खलल ही डालती प्रतीत होती हैं। इससे स्वाभिमान व अभिमान बढ़ता है। जादू से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि बाजार जाते समय मन खाली न रखो। मन में लक्ष्य हो तो बाजार आनंद देगा। वह आपसे कृतार्थ होगा। बाजार की असली कृतार्थता है-आवश्यकता के समय काम आना। मन खाली रखने का मतलब मन बंद नहीं करना है। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। मनुष्य अपूर्ण है। मनुष्य इच्छाओं का निरोध नहीं कर सकता। यह लोभ को जीतना नहीं है, बल्कि लोभ की जीत है।

मन को बलात बंद करना हठयोग है। वास्तव में मनुष्य को अपनी अपूर्णता स्वीकार कर लेनी चाहिए। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अत: मन की भी सुननी चाहिए क्योंकि वह भी उद्देश्यपूर्ण है। मनमानेपन को छूट नहीं देनी चाहिए। लेखक के पड़ोस में भगत जी रहते थे। वे लंबे समय से चूरन बेच रहे थे। चूरन उनका सरनाम था। वे प्रतिदिन छह आने पैसे से अधिक नहीं कमाते थे। वे अपना चूरन थोक व्यापारी को नहीं देते थे और न ही पेशगी ऑर्डर लेते थे। छह आने पूरे होने पर वे बचा चूरन बच्चों को मुफ़्त बाँट देते थे। वे सदा स्वस्थ रहते थे।

उन पर बाजार का जादू नहीं चल सकता था। वे निरक्षर थे। बड़ी-बड़ी बातें जानते नहीं थे। उनका मन अडिग रहता था। पैसा भीख माँगता है कि मुझे लो। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में बिलखता ही छोड़ देता है। पैसे में व्यंग्य शक्ति होती है। पैदल व्यक्ति के पास से धूल उड़ाती मोटर चली जाए तो व्यक्ति परेशान हो उठता है। वह अपने जन्म तक को कोसता है, परंतु यह व्यंग्य चूरन वाले व्यक्ति पर कोई असर नहीं करता। लेखक ऐसे बल के विषय में कहता है कि यह कुछ अपर जाति का तत्व है। कुछ लोग इसे आत्मिक, धार्मिक व नैतिक कहते हैं।

लेखक कहता है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है। एक दिन बाजार के चौक में भगत जी व लेखक की राम-राम हुई। उनकी आँखें खुली थीं। वे सबसे मिलकर बात करते हुए जा रहे थे। लेकिन वे भौचक्के नहीं थे और ना ही वे किसी प्रकार से लाचार थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा था किंतु उनको मात्र अपनी जरूरत की चीज से मतलब था। वे रास्ते के फैंसी स्टोरों को छोड़कर पंसारी की दुकान से अपने काम की चीजें लेकर चल पड़ते हैं। अब उन्हें बाजार शून्य लगता है। फिर चाँदनी बिछी रहती हो या बाजार के आकर्षण बुलाते रहें, वे उसका कल्याण ही चाहते हैं।

लेखक का मानना है कि बाजार को सार्थकता वह मनुष्य देता है जो अपनी जरूरत को पहचानता है। जो केवल पर्चेजिंग पॉवर के बल पर बाजार को व्यंग्य दे जाते हैं, वे न तो बाजार से लाभ उठा सकते हैं और न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। ये कपट को बढ़ाते हैं जिससे सद्भाव घटता है। सद्भाव नष्ट होने से ग्राहक और बेचक रह जाते हैं। वे एक-दूसरे को ठगने की घात में रहते हैं। ऐसे बाजारों में व्यापार नहीं, शोषण होता है। कपट सफल हो जाता है तथा बाजार मानवता के लिए विडंबना है और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है जो उसका शास्त्र बना हुआ है, वह अर्थशास्त्र सरासर औधा है, वह मायावी शास्त्र है, वह अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र है।

शब्दार्थ

आशय – अर्थ, मतलब। महिमा – महत्ता। प्रमाणित – सिद्ध। माया – आकर्षण। अोट – सहारा। मनीबैंग – पैसे रखने का थैला। पावर – शक्ति, ताकत। माल-टाल – सामान। यचज़िंग यावर – खरीदने की शक्ति। फिजूल – व्यर्थ। दरकार – इच्छा, परवाह। दत्तक – कला । ब्रेहया – बेशर्म। हरज्र – नुकसान। आग्रह – खुशामद। तिरस्कार – अपमान। मूक – मौन। परिमित – सीमित। अतुलित – अपार। कामना – इच्छा। विकल – व्याकुल। तृष्या – लालसा, इच्छा द्वष्य – जलन।
त्रास – दुख। सेक – तपन। खुराक – भोजन। कृतार्थ – अहसानमंद। शून्य – खाली।
सनातन – शाश्वत। निरोध – रोकना। राह – मार्ग। अकारथ – व्यर्थ। व्यापक – विस्तृत। संकीण – सँकरा। विराट – विशाल। क्षुद्र – तुच्छ। बलात – जबरदस्ती। अप्रयोजनीय –अर्थरहित। अखिल – संपूर्ण। सरनाम – प्रसिद्ध। खुद – स्वयं। खुशहाल – संपन्न। येशगी अॉडर – सामान के लिए अग्रिम पैसा देना। काँधे वक्त – निश्चित समय।
नाचीज – तुच्छ। अपदार्थ – महत्वहीन। अॉडिग – स्थिर। निमम – ममतारहित। कुंठित – व्यर्थ। दारुण – भयंकर। लोक – रेखा। वंचित – रहित। कृतध्न – अहसान न मानने वाला। अपर – दूसरी। स्पिरिचुअल – धार्मिक। प्रतिपादन – वर्णन। सरोकार – मतलब। स्मृहा – इच्छा। अबलता – कमजोरी। कोसना – गाली देना। येशोयेश – असमंजस। अप्रीति – वैर । ज्ञात – मालूम। विनाशक – विनाशकारी। बेचक – व्यापारी। ठगना – धोखा देकर लूटना। पोषणा – पालन।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –

प्रश्न 1:
उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़ें? फिर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्व की महिमा सविशेष है। वह तत्व है मनीबैग, अर्थात पैसे की गरमी या एनर्जी। पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी देखते हैं। पैसे की उस ‘पचेंजिग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है। लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फ़िजूल सामान को फ़िजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धमान होते हैं। बुद्ध और संयमपूर्वक वे पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वे पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है।
प्रश्न:

  1. लेखक के अनुसार पत्नी की महिमा का क्या कारण हैं?
  2. सामान्य लोग अपनी पावर का प्रदर्शन किस तरह करते हैं?
  3. आपके अनुसार स्त्री की आड़ में किस सच को छिपाया जा रहा है ?
  4. सामान्यतः संयमी व्यक्ति क्या करते है ?

उत्तर –

  1. आदिकाल से ही स्त्री को महत्वपूर्ण माना गया है। स्त्री (पत्नी) ही महिमा है और इस महिमा का प्रशंसक उसका पति है। वही इसकी प्रमुखता को प्रमाणित कर रहा है।
  2. सामान्य लोग पैसे को अपनी पावर समझते हैं। वे इस पावर का प्रदर्शन करना ही अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। वे अपने आस-पास माल-टाल, कोठी, मकान खड़ा करके इसका प्रदर्शन करते हैं।
  3. स्त्री की आड़ में यह सच छिपाया जा रहा है कि इन महाशय के पास भरा हुआ मनीबैग है, पैसे की गर्मी है, ये इस गर्मी से अपनी एनर्जी साबित करने के लिए स्त्री को फ़िजूल खर्च करने देते हैं।
  4. संयमी लोग ‘पर्चेजिंग पावर’ के नाम पर अपनी शान नहीं दिखाते। वे धन को जोड़कर बुद्धि और संयम से अपनी पावर बनाते हैं, प्रसन्न रहते हैं, और फ़िजूल खर्च नहीं करते।

प्रश्न 2:
मैंने मन में कहा, ठीक। बाजार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो । सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाजार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफ़ी नहीं है और चाहिए, और  चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है, ओह! कोई अपने को न जाने तो बाजार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और ईष्या से घायल करके मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है।
प्रश्न:

  1. लेखक की कल्पना के अनुसार गद्यांश के आरंभ में कौन, किससे और क्या कह रहा है?
  2. ‘चाह’ का मतलब ‘अभाव’ क्यों कहा गया है ?
  3. बाजार, आदमी की सोच को बदल देता हैं-यद्यश के आधार पर स्पष्ट कीजिए?
  4. बाज़ार के चौक के बारे में क्या बताया गया हैं?

उत्तर –

  1. गद्यांश के आरंभ में बाजार ग्राहक से कह रहा है कि ‘आओ मुझे लूटो । सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ।”
  2. ‘चाह’ का अर्थ है-इच्छा, जो बाजार के मूक आमंत्रण से हमें अपनी ओर आकर्षित करती है और हम भीतर महसूस करके सोचते हैं कि आह! यहाँ कितना अधिक है और मेरे यहाँ कितना कम है। इसलिए ‘चाह’ का मतलब है ‘ अभाव’ ।
  3. आदमी जब बाजार में आता है तो वहाँ की चकाचौंध से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। बाजार में अपरिमित फैक्एँदेवक वाहसचता हैकिउसके पास कनाकपा है। इसप्रकर बाजरउसी सचमें बादतावल देता है।
  4. बाजार का चौक हमें विकल व पागल कर सकता है। असंतोष, तृष्णा और ईष्र्या से घायल मनुष्य को सदा के लिए बेकार कर देता है।

प्रश्न 3:
बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है जैसे चुंबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीज़ों का निमन्त्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं उस वक्त जेब भरी हो तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है। मालूम होता है यह भी लें. वह भी लें। सभी सामान जरूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है।
प्रश्न:

  1. बाजार का जादू ‘आँख की राह’ किस प्रकार काम करता है?
  2. क्या आप भी बाज़ार के जादू ‘ में फँसे हैं ?अपना अनुभव लिखिए जब आप न चाहने पर भी सामान खरीद लेते हैं ?
  3. बाजार का जादू अपना असर किन स्थितियों में अधिक प्रभावित करता है और क्यों?
  4. क्या आप इस बात से सहमत है कि कमजोर इच्छा-शक्ति वाले लोग बाजार के जादू से मुक्त नहीं हो सकते? तक्र सहित लिखिए।

उत्तर –

  1. बाजार का जादू हमेशा ‘आँख की राह’ से इस तरह काम करता है कि बाजार में सजी सुंदर वस्तुओं को हम आँखों से देखते है और उनकी सुंरताप आकृष्ट होकर आवश्यकता न होने पर भी उन्हे खरीदने के लिए ललानित हो उठते है।
  2. हाँ, मैं भी ‘बाजार के जादू’ में फँसा हूँ। एक बार एक बड़े मॉल में प्रदर्शित मोबाइल फोनों को देखकर मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। यद्यपि मेरे पास ठीक-ठाक फोन था, फिर भी मैंने 2400 रुपये का फोन किश्तों पर खरीद लिया।
  3. बाजार के जादू की मर्यादा यह है कि वह तब ज्यादा असर करता है जब जेब भरी और मन खाली हो। जेब के खाली रहने और मन भरा रहने पर यह असर नहीं कर पाता।
  4. जिन लोगों की इच्छा-शक्ति कमजोर होती है, वे बाजार के जादू से मुक्त नहीं हो सकते। ऐसे लोग अपने मन पर नियंत्रण न रख पाने और कमजोर इच्छा-शक्ति के कारण बाजार के जादू का सरलता से शिकार बन जाते हैं।

प्रश्न 4:
पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाजार जाओ तो मन खाली न हो। मन खाली हो, तब बाजार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लूका लूपन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाजार भी फैला-का-फैला ही रह जाएगा। तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनंद ही देगा। तब बाजार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाजार की असली कृतार्थता है आवश्यकता के समय काम आना।
प्रश्न:

  1. बाजार के जादू की पकड़ से बचने का सीधा-सा उपाय क्या हैं?
  2. मनुष्य को बाजार कब नहीं जाना चाहिए और क्यों?
  3. बाजार की सार्थकता किसमें है ?
  4. बाजार से कब आनद मिलता हैं?

उत्तर –

  1. बाजार के जादू की पकड़ से बचने का सीधा-सा उपाय यह है कि जब ग्राहक बाजार में जाए तो उसके मन में भटकाव नहीं होना चाहिए। उसे अपनी जरूरत के बारे में स्पष्ट पता होना चाहिए।
  2. पूयक बार ताब हाँजना बाहरजबाउसाकम खल हो ऐसा स्तमें बाजरके सापक जदू उसे जकड़ लेता है।
  3. बाजार की सार्थकता लोगों की आवश्यकता पूरी करने में है। ग्राहक को अपनी आवश्यकता का सामान मिल जाता है तो बाजार सार्थक हो जाता है।
  4. बाजार से उस समय आनंद मिलता है जब ग्राहक के मन में अपनी खरीद का लक्ष्य निश्चित होता है। वह भटकता नहीं।

प्रश्न 5:
यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत जरूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। शेष सब अपूर्ण है। इससे मन बंद नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर ‘इच्छानिरोधस्तप: ‘ का ऐसा ही नकारात्मक अर्थ हो तो वह तप झूठ है। वैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है। ठाठ देकर मन को बंद कर रखना जड़ता है।
प्रश्न:

  1. ‘मन खाली होने’ तथा ‘मन बंद होने’ में क्या अंतर हैं?
  2. मन बद होने से क्या होगा?
  3. परमात्मा व मनुष्य की प्रकृति में क्या अंतर है?
  4. लेखक किसे झूठ बताता हैं?

उत्तर –

  1. ‘मन खाली होने’ का अर्थ है-निश्चित लक्ष्य न होना। ‘मन बंद होने’ का अर्थ है-इच्छाओं का समाप्त हो जाना।
  2. मन बंद होने से मनुष्य की इच्छाएँ समाप्त हो जाएँगी। वह शून्य हो जाएगा और शून्य होने का अधिकार परमात्मा का है। वह सनातन भाव से संपूर्ण है, शेष सब अपूर्ण है।
  3. परमात्मा संपूर्ण है। वह शून्य होने का अधिकार रखता है, परंतु मनुष्य अपूर्ण है। उसमें इच्छा बनी रहती है।
  4. मनुष्य द्वारा अपनी सभी इच्छाओं का निरोध कर लेने की बात को लेखक झूठ बताता है। कुछ लोग इच्छा-निरोध को तप मानते हैं किंतु इस तप को लेखक झूठ मानता है।

प्रश्न 6:
लोभ का यह जीतना नहीं कि जहाँ लोभ होता है, यानी मन में, वहाँ नकार हो! यह तो लोभ की ही जीत है और आदमी की हार। आँख अपनी फोड़ डाली, तब लोभनीय के दर्शन से बचे तो क्या हुआ? ऐसे क्या लोभ मिट जाएगा? और कौन कहता है कि आँख फूटने पर रूप दिखना बंद हो जाएगा? क्या आँख बंद करके ही हम सपने नहीं लेते हैं? और वे सपने क्या चैन-भंग नहीं करते हैं? इससे मन को बंद कर डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ है यह तो हठ वाला योग है। शायद हठ-ही-हठ है, योग नहीं है। इससे मन कृश भले ही हो जाए और पीला और अशक्त; जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह क्षुद्र होता है। इसलिए उसका रोम-रोम मूँदकर बंद तो मन को करना नहीं चाहिए।
 प्रश्न:

  1. लेखक के अनुसार लोभ की जीत क्या हैं तथा आदमी की हार क्या हैं?
  2. आँख  फोड़ डालने का क्या अर्थ है ? उससे मनुष्य पर क्या असर पड़ेगा ?
  3. हठयोग के बारे में लेखक क्या कहता है ?
  4. हठयोग का क्या प्रभाव होता है ?

उत्तर –

  1.  लोभ को नकारना लोभ की ही जीत है क्योंकि लोभ को नकारने के लिए लोग मन को मारते हैं। उनका यह नकारना स्वैच्छिक नहीं होता। इसके लिए वे योग का नहीं, हठयोग का सहारा लेते हैं। इस तरह यह लोभ की ही जीत होती है।
  2. आँखें फोड़ने का दृष्टांत इसलिए दिया गया है क्योंकि लोग अपने लोभ के प्रति संयम नहीं रख पाते। वे अपनी अंश पर बाह्य रूपा दिखताब होजने की बात सच हैंप आँखें बंदक के भी इसरू की अनुप्त की जाती हैं।
  3. ‘शायद हठ ही है, योग नहीं’ का आशय यह है कि लोभ को रोकने के लिए लोग शारीरिक कष्टों का सहारा लेते हैं। वे हठपूर्वक इसे रोकना चाहते हैं पर यह योग जैसा सरल, स्वाभाविक और शरीर के लिए उपयुक्त तरीका नहीं है।
  4. मुक्त होने के लिए लेखक ने आवश्यक शर्त यह बताई है कि हठयोग से मन कमजोर, पीला और अशक्त हो जाता है। इससे मन संकीर्ण हो जाता है। इसलिए मन का रोम-रोम बंद करके मन को रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 7:
हम में पूर्णता होती तो परमात्मा से अभिन्न हम महाशून्य ही न होते? अपूर्ण हैं, इसी से हम हैं। सच्चा ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हम में गहरा करता है। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अत: उपाय कोई वही हो सकता है जो बलात मन को रोकने को न कहे, जो मन को भी इसलिए सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में हमें नहीं प्राप्त हुआ है। हाँ, मनमानेपन की छूट मन को न हो, क्योंकि वह अखिल का अंग है, खुद कुल नहीं है।
प्रश्न:

  1. सच्चे ज्ञान का स्वरूप बताइए?
  2. मनुष्य में पूर्णत होती तो क्या होता?
  3. मनमनेपर की छिट मन को क्यों नहीं होनी चाहिए ?
  4. लेखक किस उपाय के बारे में बताता है?

उत्तर –

  1. सच्चा ज्ञान वह है जो मनुष्य में अपूर्णता का बोध गहरा करता है। वह उसे पूर्ण होने की प्रेरणा देता है।
  2. यदि मनुष्य में पूर्णता होती तो वह परमात्मा से अभिन्न महाशून्य होता।
  3. मनमानेपन की छूट मन को नहीं होनी चाहिए क्योंकि वह अखिल का अंग है। वह स्वयं पूर्ण नहीं है, अपूर्ण है।
  4. लेखक उपाय के बारे में कहता है कि कोई वही हो सकता है जो बलात मन को रोकने को न कहे तथा मन की भी सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में अभी प्राप्त नहीं हुआ है।

प्रश्न 8:
तो वह क्या बल है जो इस तीखे व्यंग्य के आगे ही अजेय नहीं रहता, बल्कि मानो उस व्यंग्य की क्रूरता को ही पिघला देता है? उस बल को नाम जो दो; पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं; आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखें और प्रतिपादन करूं। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकैं। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है।
प्रश्न:

  1. ‘उस बल ‘ से क्या तात्पर्य हैं? उसे किस जाति का तत्व बताया हैं तथा क्यों?
  2. लेखक किन शब्दों के सूक्ष्म अतर में नहीं पड़ना चाहता ?
  3. व्यक्ति की निर्बलता किससे  प्रमाणित होती है और क्यों ?
  4. मनुष्य पर धन की विजय चेतन पर जड़ की विजय कैसे है ?

उत्तर –

  1. ‘उस बल’ से तात्पर्य है-बाजार में वस्तु खरीदने के निश्चय का निर्णय। लेखक ने इस बल को अपर जाति का बताया है क्योंकि आम व्यक्ति आकर्षण के कारण ही निरर्थक वस्तुएँ खरीदता है।
  2. लेखक स्पिरिचुअल, आत्मिक, धार्मिक व नैतिक शब्दों के बारे में बताता है। वह इन शब्दों के सूक्ष्म अंतर के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता। ये सभी गुण आंतरिक हैं।
  3. तिकबिलता संक्यक तृण औ वैभावकचहसे प्रमाण होता है क्योंकि नलव्यिक्ताह धमाके आकण में बँधता है।
  4. मनुष्य चेतन है तथा धन जड़। मनुष्य धन की चाह में उसके वश में हो जाता है। इसी कारण जड़ की चेतन पर विजय हो जाती है।

प्रश्न 9:
हाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाजार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति-ही बाजार को देते हैं। न तो वे बाजार से लाभ उठा सकते हैं न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी।
प्रश्न:

  1. बाज़ार को सार्थकता कौन देते है और कैसे ?
  2. ‘पर्चेजिंग पावर’ का क्या ताप्तर्य है ? बाज़ार को पर्चेजिंग पावर वाले लोगों की क्या देन है?
  3. आशय स्पष्ट कीजिए-वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं?
  4. बाजारवाद परस्पर सद्भाव में ह्वास कैसे लाता हैं?

उत्तर –

  1. बाजार को सार्थकता वे व्यक्ति देते हैं जो अपनी आवश्यकता को जानते हैं। वे बाजार से जरूरत की चीजें खरीदते हैं जो बाजार का दायित्व है।
  2. ‘पर्चेजिंग पावर’ का अर्थ है-खरीदने की शक्ति। पर्चेजिंग पावर वाले लोग बाजार को विनाशक शक्ति प्रदान करते हैं। वे निरर्थक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देते हैं।
  3. लेखक कहना चाहता है कि क्रयशक्ति से संपन्न लोग चमक-दमक व दिखावे के लिए व्यर्थ की चीजें खरीदते हैं। इससे उनकी अमीरी का पता चलता है।
  4. बाजारवाद परस्पर सद्भाव में उस समय कमी लाता है जब व्यापार में कपट आ जाता है। कपट तब आता है जब दिखावे के लिए निरर्थक वस्तुएँ खरीदी जाती हैं।

प्रश्न 10:
इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे को अपना लाभ दिखता है और यह बाजार का, बल्कि इतिहास का, सत्य माना जाता है। ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता, बल्कि शोषण होने लगता है; तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाजार मानवता के लिए विडंबना हैं और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है, वह अर्थशास्त्र सरासर औोंधा है वह मायावी शास्त्र है वह अर्थशास्त्र अनीति शास्त्र है।
प्रश्न:

  1. किस सद्भाव के हास की बात की जा रहा है ?उसका क्या परिणाम दिखाई पड़ता है ?
  2. ऐसे बाज़ार प्रयोग का सांकेतिक अर्थ स्पष्ट कीजिए ?
  3. लेखक ने संकेत किया हैं कि कभी-कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती हैं। इस विचार के पक्ष या विपक्ष में दो तर्क दीजिए ?
  4. अर्थशास्र के लिए प्रयुक्त दो विशेषणों का ऑचित्य बताइए ?

उत्तर –

  1. लेखक ग्राहक व दुकानदार के सद्भाव के हास की बात कर रहा है। ग्राहक पैसे की ताकत दिखाने हेतु खरीददारी करता है तथा दुकानदार कपट से निरर्थक वस्तुएँ ग्राहक को बेचता है।
  2. ‘ऐसे बाजार’ से तात्पर्य है-कपट का बाजार। ऐसे बाजारों में लोभ, ईष्या, अहंकार व तृष्णा का व्यापार होता है।
  3. लेखक ने ठीक कहा है कि बाजार आवश्यकता को शोषण का रूप बना लेता है। व्यापारी सिर्फ़ लाभ पर ध्यान केंद्रित रखते हैं तथा लूटने की फ़िराक में रहते हैं। वे छल-कपट के जरिये ग्राहक को बेवकूफ़ बनाते हैं।
  4. अर्थशास्त्र के निम्नलिखित दो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं –
    1. मायावी – यह विशेषण बाजार के छल-कपट, आकर्षक रूप के लिए प्रयुक्त हुआ है।
    2. सरासर औधा – इसका अर्थ है-विपरीत होना। बाजार का उद्देश्य मनुष्य की जरूरतों को पूरा करना है, परंतु वह जरूरतों को ही शोषण का रूप बना लेता है।

पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न

पाठ के साथ

प्रश्न 1:
बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता हैं?
उत्तर –
जब बाज़ार का जादू चढ़ता है तो व्यक्ति फिजूल की खरीददारी करता है। वह उस सामान को खरीद लेता है जिसकी उसे ज़रूरत नहीं होती। वास्तव में जादू का प्रभाव गलत या सही की पहचान खत्म कर देता है। लेकिन जब यह जादू उतरता है तो उसे पता चलता है कि बाज़ार की चकाचौंध ने उन्हें मूर्ख बनाया है। जादू के उतरने पर वह केवल आवश्यकता का ही सामान खरीदता है ताकि उसका पालन-पोषण हो सके।

प्रश्न 2:
बाजार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता हैं? क्या आपकी नजर में उनका आचरण समाज में शांति-स्थापित करने में मददगार हो सकता हैं?
उत्तर –
बाजार में भगत जी के व्यक्तित्व का यह सशक्त पहलू उभरकर आता है कि उनका अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण है। वे चौक-बाजार में आँखें खोलकर चलते हैं। बाजार की चकाचौंध उन्हें भौचक्का नहीं करती। उनका मन भरा हुआ होता है, अत: बाजार का जादू उन्हें बाँध नहीं पाता। उनका मन अनावश्यक वस्तुओं के लिए विद्रोह नहीं करता। उनकी जरूरत निश्चित है। उन्हें जीरा व काला नमक खरीदना होता है। वे केवल पंसारी की दुकान पर रुककर अपना सामान खरीदते हैं। ऐसे व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकते हैं क्योंकि इनकी जीवनचर्या संतुलित होती है।

प्रश्न 3:
‘बाजारूपन’ से तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते है अथवा बाज़ार की सार्थकता किसमे है ?
उत्तर –
बाज़ारूपन से तात्पर्य है कि बाजार की चकाचौंध में खो जाना। केवल बाजार पर ही निर्भर रहना। वे व्यक्ति ऐसे बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं जो हर वह सामान खरीद लेते हैं जिनकी उन्हें ज़रूरत भी नहीं होती। वे फिजूल में सामान खरीदते रहते हैं अर्थात् वे अपना धन और समय नष्ट करते हैं। लेखक कहता है कि बाजार की सार्थकता तो केवल ज़रूरत का सामान खरीदने में ही है तभी हमें लाभ होगा।

प्रश्न 4:
बाज़ार किसी का लिंग ,जाति ,धर्म या क्षेत्र नहीं दिखाया ? वह देखता है सिर्फ़ उसकी क्रय -शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत है ?
उत्तर –
यह बात बिलकुल सही है कि बाजार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता। वह सिर्फ ग्राहक की क्रय-शक्ति को देखता है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि खरीददार औरत है या मर्द, वह हिंदू है या मुसलमान; उसकी जाति क्या है या वह किस क्षेत्र-विशेष से है। बाजार में उसी को महत्व मिलता है जो अधिक खरीद सकता है। यहाँ हर व्यक्ति ग्राहक होता है। इस लिहाज से यह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आज जीवन के हर क्षेत्र-नौकरी, राजनीति, धर्म, आवास आदि-में भेदभाव है, ऐसे में बाजार हरेक को समान मानता है। यहाँ किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाता क्योंकि बाजार का उद्देश्य सामान बेचना है।

प्रश्न 5:
आप अपने तथा समाज से कुछ ऐसे प्रकार का उल्लेख करें –

  1. जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।
  2. जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई।

उत्तर –

  1. जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ – समाज में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिसमें पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।’निठारी कांड’ में पैसे की ताकत साफ़ दिखाई देती है। गरीब बच्चों को मारकर दूकसताने वालेकेखिताफ़मुक्दमा भीइंगसेनाह चताया गया तथा उसकेगबनकरक दषकर दिया गया।
  2. जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई – समाज में अनेक उदाहरण ऐसे भी हैं जहाँ पैसे की शक्ति काम नहीं आती। ‘जेसिका लाल हत्याकांड’ में अपराधी को अपार धन खर्च करने के बाद भी सजा मिली। इस प्रकार के अन्य प्रसंग विद्यार्थी स्वयं लिखें।

पाठ के आस-पास

प्रश्न 1:
‘बाजार दर्शन‘ पात में बाजार जाने या न जाने के संर्दभ में मन की कहूँ स्थितियों का जिक आया हैं। जाप इन स्थितियों से जुड़े अपने अनुमबी‘ का वणनै र्काजिए।

  1. मन खाती हां
  2. मन खालाँ न हो
  3. मन बंद हरे
  4. मन में नकार हो

उत्तर –

  1. कई बार तो मन करता है कि बाज़ार जाकर इस उपभोक्तावादी संस्कृति के अंग बन जाएँ। सारा सामान खरीद लें ताकि बाजारवाद का प्रभाव हम पर भी पड़ सके।
  2. लेकिन कभी-कभी मन बिलकुल खाली नहीं होता तब उस पर एक प्रकार का प्रभाव पड़ा रहता है। वह नहीं चाहता है कि कुछ खरीदा जाए।
  3. कई बार ऐसी भी स्थिति आई है कि मन हर तरह से बंद रहा अर्थात् जो कुछ हो रही उसे चुपचाप देखते रहना चाहता है। जरूरत हो तो ले लिया वर्ना नहीं।
  4. मन में नकारने की स्थिति भी रही। बाजार से यह सामान तो लेना ही नहीं क्योंकि शॉपिंग मॉल में सामान बहुत महँगा मिलता है। वस्तुतः इस स्थिति में मन बाजारवादी संस्कृति का विरोध करता है।

प्रश्न 2:
‘बाजार दर्शन‘  पाठ में किस प्रकार के ग्राहकों की बताइए है?आप स्वयं की किस श्रेर्णा का प्राहक मानते/मानती हैं?
उत्तर –
“बाजार दर्शन है पाठ में कई प्रकार के ग्राहकों की बाते हुई हैं उगे निम्नलिखित है–

  1. पकेंजिग पावर का प्रदर्शन करने वाले ग्राहक ।
  2. खाली मन व भरी जेब वाले गाहक ।
  3. खाली मन व खाली जेब वाले ग्राहक ।
  4. भरे मन वाले ग्राहक ।
  5. मितव्ययी व संयमी प्राहक ।
  6. अपव्ययी व असंयमी गाहक ।
  7. बाजार का बाजारूपन बहाने वाले गाहक ।

मैं स्वयं को भी मन वाला गाहक समझता है क्योंकि मैं वे ही वस्तुएँ बाजार से खरीदकर लाता है जिनकी मुझे जरूरत होती है।

प्रश्न 3:
आप बाजार की भिन्न -भिन्न प्रकार की संस्कृति से अवश्य परिचित होगे । मॉल की संस्कृति और सामान्य बाजार और हाट की संस्कृति में आप क्या अंतर पाते हैं? पर्चेजिंग पावर आपको किस तरह के बाजार में नजर आती हैं?
उत्तर –
आज बाजार मुख्यतः तीन संस्कृतियों में बँटा नज़र आता है। वास्तव में इन्हीं तीन संस्कृति के बाजार आज पूरे देश में फैले हुए हैं। मॉल की संस्कृति और सामान्य बाजार की संस्कृति में बहुत. अंतर है। इसी प्रकार सामान्य बाज़ार में तथा हाट में काफ़ी अंतर है। सबसे महँगा मॉल है क्योंकि इसमें ब्रांडेड वस्तुएँ बेची जाती हैं। जबकि सामान्य बाजार में स्थानीय मार्का का सामान मिल जाता है। हाट की संस्कृति निम्न मध्यवर्गीय में बहुत प्रचलित है। हाट मुख्यतः ग्रामीण बाज़ार संस्कृति में है। पर्चेजिंग पावर तो मात्र मॉल में ही नजर आती है।

प्रश्न 4:
लेखक ने पाठ में संकेत किया है कि कर्भा–कर्भा बाजार में आवश्यकता हा` शांषण का रूप धारण कर लेती हैं ।क्या आप इस विचार से सहमत हँ‘? तर्क सहित उतार दीजिए?
उतार –
हम इस विचार से पूर्णतया सहमत है कि कभी…कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है । आमतौर पर देखा जाता है कि जब गाहक अपनी आवश्यकता को बताता है तो दुकानदार उस वस्तु के दाम बढा देता है । हाल ही में चीनी के दामों में भारी उछाल आया क्योंकि इसकी कमी का अंदेशा था तथा यह आम आदमी के लिए जरूरी वस्तु थी ।

प्रश्न 5:
‘स्त्री माया न जोड़े
‘ यहाँ ‘माया‘ शब्द किम और संकेत कर रहा हैं? स्कियो‘ दवारा माया जांड़ना प्रकृतिश्लेप्रदत्न नहीं बल्कि परिस्थितिवश हें । वे कौन–यो गांव/झा/दागों जी स्वी की माया जांड़न के लिए विवश कर देती हैं?
उतार –
कबीर जैसे कालजयी कवियों ने ‘माया’ को स्त्री माना है। यहाँ जैनेंद्र ने माया शब्द का अर्थ पैसा-रुपया बताया है। लेखक कहता है कि परिस्थितियों के कारण ही स्त्रियाँ पैसा जोड़ती हैं वरना पैसा जोड़ना तो वे सीखी ही नहीं है। स्त्रियाँ कई परिस्थितियों में पैसा जोड़ने पर विवश हो जाती हैं; यथा

आपसदारी

प्रश्न 1:
” ज़रूरत‘- मर बीरा वहाँ से ले लिया वि, फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहाँ‘ के बराबर हो जाता हैं“- भगत जी की इस संतुष्ट निस्मृहता की कबीर की इस सू/वेल से तुलना कीजिए-

चाह गई चिता महँ, मनुआँ बेपरवाहा
जाको कछु नहि चाहिए, सोइ साहन के सतह।।

उतार –
भगत जी जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हैं। उन्हें संचय करने में बिलकुल रुचि नहीं है। जितना सामान चाहिए खरीद लिया। जितना सामान (चूरन) बेचने से गुज़ारा हो जाता है उतना बेच लिया इसके अलावा कुछ नहीं। वास्तव में जो व्यक्ति संतोषी होता है वही शहंशाह है क्योंकि उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं होती। उसका मन लापरवाह होता है।

प्रश्न 2:
विजयदान देथा की कहानी “दुविधा  (जिस पर ‘पहेली’ फिल्म बनी हैं) के अंश को पढकर आप देखेंगे /देखेंगी कि भात जी की संतुष्ट जीवन-दृष्टि की तरह हाँ गड़रिए की जीवन–दृष्टि हैं। इससे जाले भीतर क्या भाव जगते हैं?

गडरिया बर्गर कहँ‘ हाँ उम के दिल र्का बात समझ गया,
पर अँगूंती कबूल नहीं र्का । काली दाहीं के बीच पीले दाँतों‘
की हँसी” हँसते हुए बोला ” मैं कोइ राजा नहीं हुँ जो न्याय
की कीमत वसूल करू। मैंने तो अटका काम निकाल
दिया । आँर यह अँगूठी मेरे किस काम ! न यह
अँगुलियों  में आती  हैं, न तड़े यें। मरी भेड़े‘ भी मेरी तरह
गाँवार हँ‘। घास तो खाती हैं, पर सोना सूँघती तक नहाँ।
बेकार र्का वस्तुएँ तुम अमरों को ही शोभा देती हैं।” –विजयदान देथा

उतार –
विद्यार्थी यह कहानी पढ़े।

प्रश्न 3:
बाजार पर आधारित लेख ‘नकली सामान यर नकीब ज़रूरी‘ का  अंश पढिए और निचे  दिए गए बिंदुओं पर कक्षा में चर्चा कीलिए।

  1. नकली सामान के खिलाफ जागरूकता के लिए आप क्या कर सकते हैं?
  2. उपभोक्ताओं के हित को मद्देनजर रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का क्या नैतिक दायित्व हैं?
  3. ब्रांडेड वस्तु को खरीदने के पीछे छिपी मानसिकता को उजागर कीजिए।

उतार –

  1. नकली सामान के खिलाफ जागरूकता के लिए हम छोटी-छोटी सभाएँ आयोजित करके नकली सामान की पहचान लोगों को बता सकते हैं। जनता को शिक्षित कर सकते हैं कि ऐसे दुकानदारों के खिलाफ़ सामाजिक बहिष्कार तथा कानूनी कार्यवाही करें।
  2. उपभोक्ताओं के हित को मद्देनजर रखते हुए सामान बनाने वाली कंपनियों का नैतिक दायित्व है कि वे बाजार में असली माल बेचे। वे उत्पाद पर निर्माण समय व उपयोग की अवधि अवश्य अंकित करें। वे उनके इस्तेमाल के तरीके पर भी प्रकाश डालें।
  3. ब्रांडेड वस्तु को खरीदने के पीछे वस्तु की गुणवत्ता व प्रदर्शन का भाव दोनों शामिल होता है। ‘ब्रांड’ से व्यक्ति उस वस्तु की गुणवत्ता के बारे में निश्चित होता है।

नकली सामान पर नकेल जरूरी

अपना क्रेता वर्ग बढ़ाने की होड़ में एफ़एमसीजी यानी तेजी से बिकने वाले उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कंपनियाँ गाँव के बाजारों में नकली सामान भी उतार रही हैं। कई उत्पाद ऐसे होते हैं जिन पर न तो निर्माण तिथि होती है और न ही उस तारीख का जिक्र होता है जिससे पता चले कि अमुक सामान के इस्तेमाल की अवधि समाप्त हो चुकी है। आउटडेटेड या पुराना पड़ चुका सामान भी गाँव-देहात के बाजारों में खप रहा है। ऐसा उपभोक्ता मामलों के जानकारों का मानना है। नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल कमीशन के सदस्य की मानें तो जागरूकता अभियान में तेजी लाए बगैर इस गोरखधंधे पर लगाम कसना नामुमकिन है। उपभोक्ता मामलों की जानकार पुष्पा गिरि माँ जी का कहना है, “इसमें दो राय नहीं कि गाँव-देहात के बाजारों में नकली सामान बिक रहा है। महानगरीय उपभोक्ताओं को अपने शिकंजे में कसकर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, खासकर ज्यादा उत्पाद बेचने वाली कंपनियाँ गाँव का रुख कर चुकी हैं। वे गाँव वालों के अज्ञान और उनके बीच जागरूकता के अभाव का पूरा फ़ायदा उठा रही हैं। उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए कानून जरूर हैं लेकिन कितने लोग इनका सहारा लेते हैं यह बताने की जरूरत नहीं। गुणवत्ता के मामले में जब शहरी उपभोक्ता ही उतने सचेत नहीं हो पाए हैं तो गाँव वालों से कितनी उम्मीद की जा सकती है।
” इस बारे में नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल कमीशन के सदस्य जस्टिस एस०एन० कपूर का कहना है, “टीवी ने दूर-दराज के गाँवों तक में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पहुँचा दिया है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ विज्ञापन पर तो बेतहाशा पैसा खर्च करती हैं लेकिन उपभोक्ताओं में जागरूकता को लेकर वे चवन्नी खर्च करने को तैयार नहीं हैं। नकली सामान के खिलाफ जागरूकता पैदा करने में स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थी मिलकर ठोस काम कर सकते हैं। ऐसा कि कोई प्रशासक भी न कर पाए।” बेशक, इस कड़वे सच को स्वीकार कर लेना चाहिए कि गुणवत्ता के प्रति जागरूकता के लिहाज से शहरी समाज भी कोई ज्यादा सचेत नहीं है। यह खुली हुई बात है कि किसी बड़े ब्रांड का लोकल संस्करण शहर या महानगर का मध्य या निम्नमध्य वर्गीय उपभोक्ता भी खुशी-खुशी खरीदता है। यहाँ जागरूकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि वह ऐसा सोच-समझकर और अपनी जेब की हैसियत को जानकर ही कर रहा है। फिर गाँव वाला उपभोक्ता ऐसा क्योंकर न करे। पर फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यदि समाज में कोई गलत काम हो रहा है तो उसे रोकने के जतन न किए जाएँ। यानी नकली सामान के इस गोरखधंधे पर विराम लगाने के लिए जो कदम या अभियान शुरू करने की जरूरत है वह तत्काल हो।
-हिंदुस्तान, 6 अगस्त 2006, साभार

प्रश्न 4:
प्रेमचद की कहानी ‘ईदगाह’ के हामिद और उसके दोस्तों का बाजार से क्या सबध बनता है? विचार करें।
उत्तर –
‘ईदगाह’ कहानी में हामिद के मन में इच्छित वस्तु निश्चित थी। उसे सिर्फ़ चिमटा खरीदना था। वह मिठाइयों, खिलौनों आदि की तरफ आकर्षित नहीं हुआ। उसके दोस्त खिलौने खरीदते हैं तथा मिठाई खाते हैं, परंतु फिर भी उनका मन उस तरफ आकर्षित नहीं होता है। हालाँकि उसके दोस्त ‘पर्चेजिंग पावर’ को दर्शाते हैं।

विज्ञापन की दुनिया

प्रश्न 1:
आपने समाचार-पत्रों टी०वी० आदि पर अनेक प्रकार के विज्ञापन देखे होंगे, जिनमें ग्राहकों को हर तरीके से लुभाने का प्रयास किया जाता हैं। नीच लिखे बिदुऑ के संदर्भ में किरनी एक विज्ञापन की समीक्षा कीजिए और यह भी लिखिए कि आपकी विज्ञापन की किस बात ने सामान खरीदने के लिए प्रेरित किया ।

  1. विज्ञापन में सम्मिलित चित्र और विषय–वस्तु
  2. विज्ञापन में आए पत्र और उनका औचित्य
  3. विज्ञापन की भाया

उत्तर –

  1. मैंने दैनिक समाचार-पत्र’हिंदुस्तान’ में’केश किंग’तेल का विज्ञापन देखा, जिसमें गंजे सिर को ढँकने का प्रयास किया गया है। इसी के दूसरे चित्र में इसी तेल का प्रयोग करने वाली सुकेशिनी युवती का चित्र है। इसकी विषय-वस्तु है-केश किंग तेल को बेचना।
  2. इस विज्ञापन के पात्र दो व्यक्ति-एक गंजे सिर वाला और एक सुकेशिनी नवयुवती हैं। नवयुवती के काले, लंबे बालों के माध्यम से और तेल-निर्माण में प्रयुक्त 16 आयुर्वेदिक तत्वों के माध्यम से विज्ञापन को जीवंत बना दिया गया है।
  3. विज्ञापन में प्रयुक्त भाषा सीधे-सीधे पाठकों से प्रश्न पूछकर उन्हें कुछ सोचने और नया तेल (केश किंग) अपनाने के लिए प्रेरित कर रही है। इसकी लुभावनी भाषा इसकी गुणवत्ता और सर्वत्र उपलब्धता पर प्रकाश डाल रही है।

प्रश्न 2:
अपने सामान की विर्का बढाने के लिए आज किन- किन तरीको’ का प्रयोग किया जा रहा हैं? उदाहरण सहित उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए । आप स्वय किस तकनीक या तीर-तरीके का प्रयोग करना चाहेंगे जिससे विक्रां भी अच्छी हरे और उपभोक्ता गुमराह भी न हो।
उत्तर –

अपने सामान की बिक्री बढ़ाने के लिए कंपनियाँ तरह-तरह के तथा नित नए तरीके अपना रही हैं –

  1. सेल लगाकर अर्थात दाम में कुछ प्रतिशत की कटौती करके।
  2. एक सामान के साथ कोई अन्य सामान मुफ़्त देकर।
  3. स्क्रैच कूपन के माध्यम से नकद या अन्य महँगी वस्तुएँ मिलने का प्रलोभन देकर।
  4. अधिक मात्रा में खरीदने पर दाम में कमी करके।

मैं अपने सामान की गुणवत्ता बढ़ाकर तथा यथासंभव उसका मूल्य कम रखकर प्रचार करूंगा। साथ ही बाजार में उपलब्ध उसी प्रकार के अन्य सामान से उसकी गुणवत्ता एवं मूल्य का तुलनात्मक विवरण, सही वजन, उत्पादन तिथि आदि ग्राहकों को बताऊँगा ताकि सामान की बिक्री अच्छी हो और उपभोक्ता गुमराह होने से बच सकें।

भाषा की बात

प्रश्न 1:
विभिन्न परिस्थितियों में भागा का प्रयोग भी अपना रूप बदलता रहता हें- कमा औपचारिक रूप में आती हैं तो कभी अनौपचारिक रूप मं‘। पात में से दोनों प्रकार के तीमा–तीन उदाहरण छाँटकर लिखिए।
उत्तर –
औपचारिक वाक्य–

  1. पैसा पावर है ।
  2. लोग संयमी भी होते हैं ।
  3. बाजार में एक जादूहै ।
  4. मन खाली नहीं रहना चाहिए।
  5. बाजार आमंत्रित करता है ।

अनौपचारिक वाक्य–

  1. महिमा का मैं कायल हूँ ।
  2. बाजार हैं कि शैतान का जाल है ।
  3. वह चूर–चूर क्यों, कहो पनी–पनी ।
  4. पैसा उससे आगे होकर भीख तक माँगता है ।

प्रश्न 2:
पाठ में अनेक वाक्य ऐसे हैं,जहाँ लेखक अपनी बात कहता हैं। कुछ वाक्य ऐसे हैं जहाँ वह पाठक-वर्ग को संबोधित करता है। सीधे तौर पर पाठक को संबोधित करने वाले पाँच वख्यों को छाँटिए और सोचिए कि ऐसे संबोधन पाठक से रचना पढ़वा लेने में मददगार होते है।
उत्तर –

  1. बाजार आमंत्रित करता है कि आओ, मुझे लूटो और लूटो।
  2. लू में जाना हो, पानी पीकर जाना चाहिए।
  3. परंतु पैसे की व्यंग्य शक्ति को सुनिए।
  4. कहीं आप भूल न कर बैठिएगा।
  5. पानी भीतर हो; लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है।

प्रश्न 3:
नीचे दिए गए वाक्यों को पढ़िए –

  1. पैसा पावर हैं।
  2. पैसे की उस पचजग पावर के प्रयोग में ही पावर का रस है।
  3. मित्र ने सामने मनीबैग केला दिया।
  4. पेशगी आर्डर कोई नहा’ लेता।

ऊपर दिए गए इन वाक्यों की संरचना तो हिंदी भाषा की हैं लेकिन वाक्यों में एकाध शब्द अंग्रेजी भाषा के आए हैं। इस तरह के प्रयोग को ‘कोड मिक्सिया’ कहते हैं। एक भाषा के शब्दों के साथ दूसरी भाषा के शब्दों का मेलजोल! अब तक आपने जो पाठ पढ़े उसमें से ऐसे कोई पाँच उदाहरण चुनकर लिखिए/ यह भी बताइए कि आगत शब्दों की जगह उनके हिंदी पर्यायों  का हाँ प्रयोग किया जाए तो संप्रपणांयता पर क्या प्रभाव पड़ता हैं?
उत्तर –

  1. लोग स्पिरिचुअल कहते हैं।
  2. ‘पर्चेजिंग पावर’ के अनुपात में आया है।
  3. राह में बड़े-बड़े फैसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं।
  4. पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब, मकान-कोठी तो अनदेखे भी दिखते हैं।
  5. बहुत से बंडल पास थे।

किसी भी भाषा को समृद्ध बनाने में आगत शब्दों की अहं भूमिका होती हैं। यदि इनके प्रयोग पर रोक लगा दी जाए तो कोई भी भाषा सप्रेषणीयता में कमजोर व दुरूहता का शिकार बन जाएगी। जैसे हिदी में प्रयोग होने वाला अग्रेजी का जागल शब्द ‘रलर्व स्टेशन ’ के स्थान पर हि’दाँ पयोय है लीह- पथ- गामिनी विम-मल है का प्रयोग किया जाए तो भाषा की संप्रेषणीयता में दुरूहता आना स्वाभाविक हैं । अत: कांड मिक्सिग का प्रयोग होना माया का सकारात्मक गुण हैं। इससे माया में सहजता के साथ-साथ विचारों का आदान-प्रदान करना भी आसान हो जता है।

प्रश्न 4:
नीचे दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश पर ध्यान देते हुए उन्हें पढ़िए –

  1. निबल ही धन र्का आर झुकता ही ।
  2. लोग संयमी भी होते हैं।
  3. सभी कुछ तो लेने को जी होता था।

ऊपर दिए गए हन वाक्यो‘ के रेखाकित अंश ‘ही ‘, ‘भी’,’तो’ ने निपात हँ जाँ अर्थ पर बल देने के लिए इस्तेमाल लिए जाते हैं‘ । वाक्य में इनके हरेन–न–हप्रैन आँर स्थान क्रम बदल देने से वाक्य के अर्थ पर प्रभाव पड़ता हँ; जैसे‘-
मुझे भी किताब चाहिए। (मुझे महत्त्वपूर्ण हँ।)
मुझे किताब यो चाहिए। (किताब महत्त्वपूर्ण हैं।)
अम निपात (‘ही ‘, ‘भी’,’तो’) का प्रयोग करतै हुए तीन-तीन वाक्य बनाइए ।साथ हाँ ऐसे दा वाक्यो” का भी निर्णन कीजिए जिसमें ये तीनों निपात एक साथ आए हों।
उत्तर –
ही‘ निपात का प्रयोग–

  1. वह रात को ही आया।
  2. मैं जल्दी ही मकान बना लूगा।
  3. तुम ही शरारती हो।

‘भी’ निपात का प्रयोग-

  1. अभिनव भी गाएगा।
  2. मैं भी कल चलेंगा।
  3. मोहन स्कूल भी जाएगा।

‘तो’ निपात का प्रयोग- 

  1. मुझे भी तो भागना चाहिए।
  2. परिणाम तो आने दो।
  3. उसकी तो सुनते नहीं।

तीनों निपातों का एक साथ प्रयोग

  1. आप दुकान पर ही रुकें क्योंकि विनय भी तो जा चुका है।
  2. मैं तो दफ़्तर से निकला ही था कि पवन भी आ गया।
  3. सीमा भी खाना तो खाएगी ही

अन्य हल प्रश्न

बोधात्मक प्रशन

प्रश्न 1:
‘ बाजार दर्शन’ पाठ के आभार पर बताइए कि पैसे की पावर का रस जिन दो रूपेँमें प्राप्त किया जाता हैं?
उत्तर –
पैसे की पावर का रस निम्नलिखित रूपों में प्राप्त किया जा सकता है-

  1. मकान, संपत्ति, कोठी, कार, सामान आदि देखकर।
  2. संयमी बनकर पैसे की बचत करके। इससे मनुष्य पैसे के गर्व से फूला रहता है तथा उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं होती।

प्रश्न 2:
कैसे लांग बाजार से न सच्चा लाम उठा पाते हैं, न उसे सच्चा लाभ दे सकते हैं? वे “बाजारूपन” को कैसे बढ़ाते है ?
उत्तर –
लेखक कहता है कि समाज में कुछ लोग क्रय-शक्ति के बल पर बाजार से वस्तुएँ खरीदते हैं, परंतु उन्हें अपनी जरूरत का पता ही नहीं होता। ऐसे लोग बाजार से न सच्चा लाभ उठा पाते हैं, न उसे सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे धन के बल पर बाजार में कपट को बढ़ावा देते हैं। वे समाज में असंतोष बढ़ाते हैं। वे सामान्य लोगों के सामने अपनी क्रय-शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वे शान के लिए उत्पाद खरीदते हैं। इस प्रकार से वे बाजारूपन को बढ़ाते हैं।

प्रश्न 3:
बाजार का जादू क्या हैं? उसके चढ़ने-उतरने का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता हैं?’बाजार दर्शान’ पाठ के आधार पर उत्तर लिखिए।
उत्तर –
बाजार की तड़क-भड़क और वस्तुओं के रूप-सौंदर्य से जब ग्राहक खरीददारी करने को मजबूर हो जाता है तो उसे बाजार का जादू कहते हैं। बाजार का जादू तब सिर चढ़ता है जब मन खाली हो। मन में निश्चित भाव न होने के कारण ग्राहक हर वस्तु को अच्छा समझता है तथा अधिक आराम व शान के लिए गैर जरूरी चीजें खरीदता है। इस तरह वह जादू की गिरफ़्त में आ जाता है। वस्तु खरीदने के बाद उसे पता चलता है कि फ़ैसी चीजें आराम में मदद नहीं करतीं, बल्कि खलल उत्पन्न करती हैं। इससे वह झुंझलाता है, परंतु उसके स्वाभिमान को सेंक मिल जाती है।

प्रश्न 4:
‘ बाजार दर्शन’ पाठ का प्रतिपादय बताइए।
उत्तर –
‘बाजार दर्शन’ निबंध में गहरी वैचारिकता व साहित्य के सुलभ लालित्य का संयोग है। कई दशक पहले लिखा गया यह लेख आज भी उपभोक्तावाद व बाजारवाद को समझाने में बेजोड़ है। लेखक अपने परिचितों, मित्रों से जुड़े अनुभव बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि बाजार की जादुई ताकत मनुष्य को अपना गुलाम बना लेती है। यदि हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाजार का उपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं। इसके विपरीत, बाजार की चमक-दमक में फँसने के बाद हम असंतोष, तृष्णा और ईष्र्या से घायल होकर सदा के लिए बेकार हो सकते हैं। लेखक ने कहीं दार्शनिक अंदाज में तो कहीं किस्सागों की तरह अपनी बात समझाने की कोशिश की है। इस क्रम में उन्होंने बाजार का पोषण करने वाले अर्थशास्त्र को अनीतिशास्त्र बताया है ।

प्रश्न 5:
‘बाजार दर्शन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर –
‘बाजार दर्शन’ से अभिप्राय है-बाजार के बारे में बताना। लेखक ने बाजार की प्रवृत्ति, ग्राहक के प्रकार, आधुनिक ग्राहकों की सोच आदि के बारे में पाठकों को बताया है।

प्रश्न 6:
बाजार का जादू किन पर चलता हैं और क्यों?
उत्तर –
बाजार का जादू उन लोगों पर चलता है जो खाली मन के होते हैं तथा जेब भरी होती है। ऐसे लोगों को अपनी जरूरत का पता ही नहीं होता। वे ‘पर्चेजिंग पावर’ को दिखाने के लिए अनाप-शनाप वस्तुएँ खरीदते हैं ताकि लोग उन्हें बड़ा समझे। ऐसे व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान नहीं करते।

प्रश्न 7:
‘पैसा पावर हैं।-लेखक ने ऐसा क्यों कहा?
उत्तर –
लेखक ने पैसे को पावर कहा है क्योंकि यह क्रय-शक्ति को बढ़ावा देता है। इसके होने पर ही व्यक्ति नई-नई चीजें खरीदता है। दूसरे, यदि व्यक्ति सिर्फ़ धन ही जोड़ता रहे तो वह इस बैंक-बैलेंस को देखकर गर्व से फूला रहता है। पैसे से समाज में व्यक्ति का स्थान निर्धारित होता है। इसी कारण लेखक ने पैसे को पावर कहा है।

प्रश्न 8:
भगत जी बाजार की सार्थक व समाज की शांत केसे कर रहैं हैं? ‘ बाजार दर्शन’ पाठ के आभार पर बताइए?
उत्तर –
भगत जी निम्नलिखित तरीके से बाजार को सार्थक व समाज को शांत कर रहे हैं-

  1. वे निश्चित समय पर चूरन बेचने के लिए निकलते हैं।
  2. छह आने की कमाई होते ही बचे चूरन को बच्चों में मुफ़्त बाँट देते हैं।
  3. बाजार में जीरा व नमक खरीदते हैं।
  4. सभी का अभिवादन करते हैं।
  5. बाजार के आकर्षण से दूर रहते हैं।
  6. अपने चूर्ण का व्यावसायिक तौर पर उत्पादन नहीं करते।

प्रश्न 9:
खाली मन तथा भरी जब से लेखक का क्या आशय है? ये बातें बाजार को कैसे प्रभावित करती हैं?
उत्तर –
‘खाली मन तथा भरी’ जेब से लेखक का आशय है – मन में किसी निश्चित वस्तु को खरीदने की इच्छा न होना या वस्तु की आवश्यकता न होना। परंतु जब जेबें भरी हो तो व्यक्ति आकर्षण के वशीभूत होकर वस्तुएँ खरीदता है। इससे बाजारवाद को बढ़ावा मिलता है।

प्रश्न 10:
‘बाजार दर्शन ‘ पाठ के आधार पर ‘पेस की व्यग्य शक्ति’ कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
पैसे में व्यंग्य शक्ति होती है। पैदल व्यक्ति के पास से धूल उड़ाती मोटर चली जाए तो व्यक्ति परेशान हो उठता है। वह अपने जन्म तक को कोसता है। परंतु यह व्यंग्य चूरन वाले व्यक्ति पर कोई असर नहीं करता। लेखक ऐसे बल के विषय में कहता है कि यह कुछ अपर जाति का तत्व है। कुछ लोग इसे आत्मिक, धार्मिक व नैतिक कहते हैं।

प्रश्न 11:
‘बाजार दर्शन’ पाठ के आधार पर ‘बाजार का जादू चढ़ने और उतरने’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
‘बाजार दर्शन’ पाठ के आधार पर ‘बाजार का जादू चढ़ने और उतरने’ का आशय है-बाजार की तड़क-भड़क और रूप-सौंदर्य से जब ग्राहक खरीददारी करने को मजबूर हो जाता है तो उसे बाजार का जादू कहते हैं। बाजार का जादू तब सिर चढ़ता है जब मन खाली हो। मन में निश्चित भाव न होने के कारण ग्राहक हर वस्तु को अच्छा समझता है तथा अधिक आराम व शान के लिए गैर-जरूरी चीजें खरीदता है। इस तरह वह जादू की गिरफ़्त में आ जाता है। वस्तु खरीदने के बाद उसे पता चलता है कि फ़ैसी चीजें आराम में मदद नहीं करतीं, बल्कि खलल उत्पन्न करती हैं।

स्वयं करें

प्रश्न:

  1. ऊँचे बाजार के आमंत्रण को मूक क्यों कहा गया है?
  2. बाजार के जादू को क्या कहा गया है? आपके विचार से यह कितना सही है?’बाजार दर्शन’ पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
  3. ‘मन खाली होने’ तथा ‘मन बंद होने’ के क्या आशय हैं? यह भी बताइए कि इनमें क्या अंतर है?
  4. पैसे की व्यंग्य शक्ति उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  5. क्या बाजार का जादू सभी पर चल सकता है? भगत जी के उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
  6. भगत जी का व्यवहार हमारे लिए क्या सीख छोड़ जाता है?
  7. क्या ‘मनुष्य पर धन की विजय’ को ‘चेतन पर जड़ की विजय’ कहा जा सकता है? स्पष्ट कीजिए।
  8. निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए
    1. (अ) बाजार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो । सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए है? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है। आग्रह तिरस्कार जगाता है। लेकिन ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाजार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफ़ी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है, ओह!
      1. बाजार के आमत्रण के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए?
      2. बाजार के आमत्रण की क्या विशेषता होती हैं?
      3. ऊँचे बाजार के आमत्रण को मूक क्यों कहा गया हैं?
      4. इस प्रकार के आमंत्रण से किस प्रकार की चाह जगती हैं? उस चाह में आदमी क्या महसूस करने लगता हैं?
    2. (ब) व्यवहार में पसोपेश उन्हें नहीं था और खोए-से खड़े नहीं वह रह जाते थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा है। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन में नहीं है। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीर्वाद हो सकता है। विद्रोह नहीं, प्रसन्नता ही भीतर है, क्योंकि कोई रिक्त भीतर नहीं है। देखता हूँ कि खुली आँख, तुष्ट और मग्न, वह चौक-बाजार में से चलते चले जाते हैं।
      1. लेखक किसकी बात कर रहा हैं? उनका व्यवहार कैसा है?
      2. भगत जी का बाजार के प्रति रवैया कैसा है?
      3. बाजार का आकर्षण उन्हें प्रभावित क्यों नहीं कर पाता?
      4. भगत जी बाजार से कैसे गुजर जाते हैं?
0:00
0:00