अनुच्छेद 2
31. सच्चा मित्र
मनुष्य की प्रवृत्ति ऐसी है कि वह अकेला नहीं रह सकता। वह समूह में रहने का इच्छुक रहता है तथा सामूहिक प्रयासों से आत्मविकास करता है। इस दौरान वह समान प्रवृत्ति और समान कर्म के व्यक्तियों के साथ मित्रता स्थापित कर लेता है। हम सहज रूप से मित्र बना लेते हैं, किंतु इस प्रक्रिया में हम यह विचार नहीं करते कि वह मित्र की परिभाषा में उपयुक्त है भी या नहीं? वस्तुत: पंचतंत्र के अनुसार जो व्यक्ति न्यायालय, श्मशान और विपत्ति के समय साथ देता है, उसी को सच्चा मित्र या बाँधव माना जाता है।
मित्रता की पहली कसौटी यह है कि उसमें संदेह का स्थान नहीं होना चाहिए। यदि कोई अपने मित्र को संदेह की दृष्टि से देखता है तो निश्चित रूप से उसमें मित्रता के गुणों का अभाव है। दूसरे, स्वार्थ पर आधारित मित्रता कभी लंबे समय तक नहीं रहती। ऐसी मित्रता कार्य सिद्ध हो जाने पर टूट जाती है। मित्रता में विश्वास, आस्था आदि गुणों का होना अनिवार्य है। सच्चा मित्र वही है जो मित्रता के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर हो। मित्रों का न कोई धर्म होता है और न कोई संप्रदाय। वे देश-काल की सीमा से भी परे होते हैं। मित्रता का संबंध आंतरिक गुणों से होता है।
कहा भी गया है- ‘समानशील व्यसनेषु सख्यसू-समान शील व व्यसन वाले जहाँ भी मिलते हैं, उनमें मित्रता स्वत: विकसित होने लगती है। हालाँकि सामान्यत: देखने में आता है कि व्यक्ति धन-दौलत व रूप को देखकर मित्र बनने या बनाने की कोशिश करता है। वह उसकी प्रशंसा करता है, परंतु समय आने पर उसे नुकसान पहुँचाता है। इसके विपरीत, ऐसे भी मित्र होते हैं जो मित्र की कमियों पर नजर रखते हैं तथा समय-समय पर उसको आगाह करते रहते हैं। ऐसे मित्रों की बातें कड़वी अवश्य लगती हैं, परंतु वे ही सच्ची मित्रता के हकदार होते हैं।
दुर्जन व मित्र के मध्य अंतर स्थापित करना कठिन कार्य रहा है। अत: मित्रता काफी सोच-समझकर ही स्थापित करनी चाहिए। आजकल स्कूल या कॉलेज में साथ पढ़ने वाले अकसर एक-दूसरे को ‘फ्रेंड’ यानी मित्र कहते हैं किंतु ये सच्चे मित्र नहीं होते। इने-गिने छात्र ही होंगे जिनमें मित्रता की भावना मिलेगी। विद्वानों का मानना है कि पुस्तकों से अच्छा मित्र या साथी कोई नहीं होता। पुस्तकों से जीवन-दर्शन के सच्चे दर्शन होते हैं। इनसे नयी व पुरानी सामाजिक दशाओं का पता चलता है। संसार के लगभग सभी महान विचारक पुस्तक-प्रेमी रहे हैं।
गांधी, विवेकानंद, चाणक्य, नेहरू, शास्त्री आदि सभी ने पुस्तकों को ही अपना मित्र बनाया। निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि मित्रता की कसौटी आपत्तिकाल है। उसी समय सच्चे मित्र की परख होती है। मित्र के सामने मित्र की सहायता के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं होता, वह अपने लाभ की चिंता न करके मित्र को लाभ पहुँचाता है। सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं तथा जो होते हैं, उन्हें बनाए रखना हमारा दायित्व होना चाहिए।
32. कमरतोड़ महँगाई : समस्या और समाधान
आज सारा विश्व महँगाई के दैत्य से पीड़ित है परंतु भारत में इसकी वजह से विशेष रूप से चिंताजनक स्थिति है। आज दैनिक जीवनोपयोगी वस्तुएँ आम आदमी की पहुँच से बाहर हो रही हैं। पेट्रोल, डीजल आदि की मूल्य-वृद्धि से महँगाई और भड़कती जा रही है। सब्जी, दाल, फल आदि की आसमान छूती महँगाई पुकार-पुकार कर कहती है-
रुखी सुखी खाय के ठंडा पानी पी।
मकानों के किराये बेतहाशा बढ़ रहे हैं। कम आय के व्यक्ति के लिए महानगर में रहना बेहद कठिन होता जा रहा है। महँगाई से उत्पादक वर्ग अधिक पीड़ित नहीं होता। इसका कारण यह है कि वह अपने उत्पाद की कीमत बढ़ा देता है। सरकारी कर्मचारी भी महँगाई की मार से बच जाता है, क्योंकि उसका महँगाई भत्ता बढ़ जाता है। इससे सर्वाधिक प्रभावित गैर-सरकारी कर्मचारी तथा श्रमिक वर्ग होता है, क्योंकि उत्पादन या सेवा प्रक्रिया में इनकी प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती। इनकी आय के स्रोत लगभग सीमित होते हैं। इनका वेतन महँगाई के अनुरूप नहीं बढ़ता।
महँगाई बढ़ने के विभिन्न कारण हैं। उनमें से प्रमुख कारण हैं-देश की तेजी से बढ़ रही आबादी और इसके मुकाबले संशाधनों का विकास धीमी गति से होना प्राकृतिक कारण एवं सरकारी अफ़सर और जमाखोरों की मिलीभगत आदि। किंतु मुख्य रूप से महँगाई का कारण जमाखारी है। जमाखोरी की वजह से वस्तुएँ इस कदर दुर्लभ हो जाती हैं कि मुँहमाँगी रकम देने के बावजूद भी प्राप्त नहीं हो पाती हैं। बिडंबना तो यह है कि मैंहगाई के विरोध में सरकार की इच्छा-शक्ति भी कमजोर है। इस देश में सार्वजनिक क्षेत्र स्थापित करने का उद्देश्य जनता के लिए उचित दरों पर वस्तुएँ उपलब्ध कराना तथा संरचनात्मक विकास करना था, परंतु अयोग्य कर्मचारियों, राजनीतिक हस्तक्षेप व भ्रष्टाचार के कारण ये लाभ की बजाय हानि उत्पन्न कर रहे हैं।
अत: निजी क्षेत्र के उत्पादक अपने उत्पादों पर अपनी मजी का विक्रय मूल्य लिखते हैं, परंतु वे उत्पादन लागत नहीं लिखते। अत्यधिक मुनाफ़े की प्रवृत्ति महँगाई को बढ़ा रही है। सरकारी नीति, टैक्स दर, विकास के नाम पर लूट आदि कारक भी महँगाई बढ़ाते हैं। ‘सेज’ बनाने के नाम पर जमीन की कीमतें आसमान छू रही हैं। ऊपर से सरकारी खर्च में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। अत: विकास योजनाएँ पर्याप्त धन के अभाव में समय पर पूरी नहीं हो पातीं।
विकसित देशों की श्रेणी में खड़े होने के लिए हम चाँद पर बस्ती बनाने की बात कर रहे हैं, परंतु आम जनता को जनता को महँगाई की वजह से जीना दूभर हो गया है। इस महँगाई की इस बाढ़ को रोकने के लिए अनेक उपाय किए जा सकते हैं। सबसे पहले आवश्यक वस्तुओं की वर्तमान दरों और उनके मूल्यों को यदि कम करना संभव न हो सके तो उन्हें स्थिर रखना आवश्यक है। देश की आवश्यकताओं का सही और तथ्यात्मक अनुमान लगाकर दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाना होगा।
विकास योजनाएँ बनाते समय उनकी आम जनता के लिए उपयोगिता को ध्यान में रखना होगा। शासन-प्रशासन, योजना-गैर-योजना के स्तरों पर जो भ्रष्टाचार पनप रहा है, उसे समाप्त करने की ओर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। कर्मचारियों की कार्यनिष्पादन-क्षमता में वृद्ध करना जरूरी है। जनसंख्या की निर्बाध वृद्ध को नियंत्रित करना आवश्यक ही नहीं, बल्कि प्राथमिक आवश्यकता है। इन सब कार्यों के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा। शासक व विरोधी-सभी को एकजुट होकर महँगाई के जिन्न के खिलाफ़ संघर्ष करना होगा।
33. पर उपदेश कुशल बहुतेरे
समाज में उपदेश देने में किसी को कोई परहेज नहीं होता। हर व्यक्ति स्वयं को निर्दोष, चरित्रवान, सत्यवादी मानता है, परंतु दूसरे उसे कपटी, धूर्त, मक्कार, धोखेबाज नजर आते हैं। हालाँकि यह अवगुण दुर्जनों में अधिक पाया जाता है। संस्कृत में कहा गया है कि दुर्जन दूसरों के राई के समान मामूली दोषों को पहाड़ के समान बड़ा बनाकर देखता है और अपने पहाड़ के समान बड़े पापों को देखते हुए भी नहीं देखता। सज्जन अपने दोषों को पहले देखता है।
महात्मा बुद्ध, दयानंद, महात्मा गाँधी आदि अनेक महापुरुषों की यही भावना रही है। अपनी कमियों को स्वीकार करना आत्मबल का चिहन है। जो लोग अपनी भूल या दोष को दूसरों के सामने नहीं स्वीकारते, वे सबसे बड़े कायर हैं। जिसके अंत:करण शीशे के समान होते हैं, वे अपनी भूल को तुरंत मान लेते हैं। दूसरों की बुराइयों को देखने की बजाय अपने मन की बुराइयों को टटोलना अधिक अच्छा है।
मनुष्य को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। यह आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। इससे वह अपनी त्रुटियाँ दूर कर सकता है। उसे व्यापारी वाली प्रवृत्ति को अपनाना चाहिए ताकि शाम के समय दिन भर का हिसाब-किताब मालूम रहे। इस कार्य में सबसे बड़ी बाधा सच्चाई का सामना करने में है। महात्मा गांधी ने सदा अपनी भूलों को स्वीकार किया तथा सदा यही पाठ पढ़ाया कि दूसरों की बुराई खोजने से पहले अपने अंतर्मन में झाँक लेना चाहिए।
पवित्र आत्मा वाले व्यक्ति को संसार में कोई बुरा नहीं दिखाई देता। इसका कारण उनके मन की पवित्रता है। वह स्वयं पवित्र है तो उसे दूसरा पापी कैसे दिखाई देगा। उन्हें तो स्वयं में कमी दिखाई देती है। यही उनकी विनम्रता है। हालाँकि अच्छाई और बुराई में अंतर करते समय यह परेशानी होती है कि कोई कार्य किसी के लिए अच्छा हो सकता है तो दूसरे के लिए बुरा। यह व्यक्तिगत समझ-बूझ या स्वार्थ पर आधारित हो सकता है, अत: हमें दूसरों की कमियाँ देखने की अपेक्षा अपनी कमियाँ देखनी चाहिए।
अधिकांश व्यक्तियों में कोई-न-कोई कमी अवश्य होती है। यदि मनुष्य में कोई कमी न हो तो वह देवता बन जाता है। अत: मनुष्य को अपनी कमियाँ दूर करनी चाहिए, न कि दूसरों की कमियों को लेकर टीका-टिप्पणी करनी चाहिए। समाज में यदि हर व्यक्ति अपने-अपने दोषों का परिहार कर ले तो समाज एक हँसता हुआ गुलाब बन जाए।
34. भ्रष्टाचार : एक सामाजिक कोढ़
अथवा
भ्रष्टाचार का दानव
अथवा
भ्रष्टाचार : समस्या और समाधान
‘भ्रष्टाचार’ शब्द ‘भ्रष्ट + आचार’ दो शब्दों के योग से बना है। ‘भ्रष्ट’ का अर्थ है-मर्यादा से हटना या गिरना और ‘आचार’ का अर्थ है-आचरण। अर्थात जब व्यक्ति अपनी वैयक्तिक, पारिवारिक तथा सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करके, स्वेच्छाचारी हो जाता है तो उस दशा में उसे ‘भ्रष्टाचारी’ कहते हैं। भारत में अनेक समस्याएँ हैं। इन समस्याओं से मानवता दिन-प्रति-दिन दम तोड़ रही है। विकास हो रहा है, बड़े-बड़े कारखाने बन रहे हैं, भीड़ बढ़ रही है, परंतु आदमी छोटा होता जा रहा है, क्यों? क्योंकि भ्रष्टाचार का दानव हर क्षेत्र में उसे दबोच रहा है।
भ्रष्टाचार अनेक रूपों में विद्यमान है; जैसे-रिश्वत, तस्करी, कालाबाजारी तथा भाई-भतीजावाद आदि। आज यह जीवन की हर परत में विद्यमान है। पुराने समय में मर्यादा तोड़ने वाले व्यक्ति का हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था, परंतु आज हुक्का-पानी बंद करने वाले भ्रष्टाचार से कुछ ज्यादा ही ओत-प्रोत हैं। भ्रष्टाचार के मूल कारणों की खोज करें तो पता चलता है कि भौतिकवाद के कारण जीवन-मूल्यों में परिवर्तन आ गया है। आज हम विज्ञान की दुहाई देकर भौतिकवादी दर्शन के भक्त बन गए हैं।
शिक्षा व विकास के नाम पर हमें अनेक सुविधाएँ चाहिए। फलत: धन के सहित अयोग्यता भी योग्यता बन जाती है। ऐसे में भ्रष्टाचार का बढ़ना स्वाभाविक है। तत्कालीन व्यवस्था आपाद-मस्तक भ्रष्टाचार से ओत-प्रोत है। बहती गंगा में सभी हाथ धो रहे हैं। प्रश्न यह है कि इस भ्रष्टाचार रूपी दानव का खात्मा कैसे हो? इस प्रश्न के समाधान के लिए हमें स्वयं से शुरुआत करनी होगी। हमें वैयक्तिक जीवन में होड़ से बचना होगा।
सामाजिक स्तर पर उपेक्षा भी सहनी पड़ सकती है क्योंकि जब तक सामाजिक दर्शन तथा स्तर पर सुधार नहीं होगा, भ्रष्टाचारी गलत तरीकों से धन उपार्जित करके समाज में प्रतिष्ठा पाता रहेगा और भौतिक सफलताओं की सीढ़ी पर चढ़ता जाएगा। सामाजिक स्तर पर ऐसे व्यक्तियों का बहिष्कार या उपेक्षा करनी होगी। सच्चे व ईमानदार व्यक्ति को वर्ग, जाति, आर्थिक दशा के स्तर पर भेदभाव किए बिना सम्मानित करना होगा। राजनीतिक स्तर पर पहल करनी होगी। चुनाव जीतने के लिए अपनाए जाने वाले भ्रष्ट तरीकों पर लगाम लगानी होगी।
संस्थाओं को चंदा काला धन छिपाने के लिए दिया जाता है। ऐसे दान को भी रोकना पड़ेगा। कानून को इतना सक्षम बनाना होगा कि वह भ्रष्टाचारी की पद-प्रतिष्ठा को एक ओर रखते हुए तुरंत कठोर दंड देने में सक्षम हो। व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वयं को परिवार के स्तर से उठाकर समाज व राष्ट्र से जोड़े तथा अपने कार्य की सीमा को विस्तृत करे।
35. छोटे परिवार के सुख-दुख
मानव सभ्यता के विकास के साथ जीवनयापन में कठिनाई आती जा रही है। आज जीवन-यापन के साधन अत्यंत महँगे होते जा रहे हैं। इस कारण परिवारों का निर्वाह मुश्किल से हो रहा है। इस समस्या का मूल खोजने पर पता चलता है कि जनसंख्या-वृद्धि के अनुपात में जीवनोपयोगी वस्तुओं एवं साधनों में वृद्धि नहीं हुई है। अत: हर देश में परिवारों को छोटा रखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। किंतु छोटे परिवार के साथ सुख-दुख दोनों जुड़े हैं। हालाँकि छोटे परिवार के सुखी होने के पीछे अनेक तर्क दिए जाते हैं।
सर्वप्रथम, छोटे परिवार में सुखदायक संसाधन आसानी से उपलब्ध कराए जा सकते हैं। यदि कोई कठिनाई आती है तो उसका निराकरण अधिक कठिन भी नहीं होता। बड़े परिवार के लिए स्थितियाँ अत्यंत विकट हो जाती है। आधुनिक समय में रोजगार, मकान आदि की व्यवस्था बेहद महँगी होती जा रही है। इन्हीं सब कारणों से छोटा परिवार सुखी माना जाता है। परिवार छोटा होने पर हर सदस्य को आयु के अनुसार सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। सभी को पौष्टिक भोजन, तन ढकने को अच्छा वस्त्र और रहने के लिए साफ़-सुथरा आवास दिया जा सकता है।
शिक्षा व स्वास्थ्य का भी पूरा ध्यान रखा जा सकता है। यह उचित व्यवस्था ही उस परिवार के सुख का कारण बनती है। इसके विपरीत, बड़े परिवार में चाहे वह कितना ही संपन्न क्यों न हो, हरेक के लिए सुविधाएँ नहीं जुटा सकता। सभी के लिए उचित व पौष्टिक आहार, वस्त्र, आवास की व्यवस्था कर पाना संभव नहीं। पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठा पाना भी दूर की कौड़ी जैसा ही है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि छोटे परिवार के सिर्फ़ सुख ही हैं, दुख नहीं।
छोटे परिवार में सुविधाएँ होती हैं, परंतु अपनापन नहीं होता। छोटे परिवार का व्यक्ति सामाजिक नहीं हो पाता। वह अहं भाव से पीड़ित होता है। इसके अलावा, बीमारी या संकट के समय जहाँ बड़े परिवार की जरूरत होती है, छोटा परिवार कभी खरा नहीं उतरता। इसमें वैयक्तिकता का भाव मुखर होता है, जबकि बड़े परिवारों में प्रेम-भावना, जिम्मेदारी, स्नेह, दुलार मिलता है। बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति, मादक द्रव्यों का सेवन आदि प्रवृत्तियाँ छोटे परिवारों की देन हैं। इन सबके बावजूद, आज के वातावरण में आम व्यक्ति को अपनी सामथ्र्य के अनुसार ही परिवार का विस्तार करना चाहिए। छोटे परिवार के साथ ही जीवन को सहज ढंग से जिया जा सकता है, अन्यथा निरंतर दुख झेलते हुए, जीते जी मर जाने के समान है।
36. महानगरों में आवास-समस्या
मानव की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ हैं-रोटी, कपड़ा और आवास। जिस देश में इन तीनों आवश्यकताओं की पूर्ति सहज तरीके से हो जाती है, वे देश संपन्न हैं। अत: आवास मानव की प्रमुख जरूरतों में से एक है। यह मनुष्य को स्थायित्व प्रदान करता है। आज के जीवन में चाहे वह नगर हो, ग्राम हो या कस्बा हो, आवास की समस्या गंभीर होती जा रही है।
महानगरों में रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, सत्ता आदि का केंद्रीयकरण हो गया है, अत: वहाँ चारों दिशाओं से लोग बसने के लिए आ रहे हैं। इस कारण वहाँ आवास की समस्या विकट होती जा रही है। इस समस्या का मुख्य कारण सरकार की अदूरदर्शिता है। सरकार ने देश के समग्र विकास की नीति नहीं बनाई। सरकार ने देश के चंद क्षेत्रों में बड़े उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन दिया। इन उद्योग-धंधों के साथ बड़ी संख्या में सहायक इकाइयाँ लगीं। सरकार ने इन सहायक इकाइयों को अन्य क्षेत्रों में स्थापित करने में कोई सहयोग नहीं दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में लोगों का केंद्रण एक जगह ही हो गया। इस कारण बने महानगरों में आवास की समस्या उत्पन्न हो गई। दूसरे, सरकार ने ऐसे क्षेत्रों में आवास संबंधी कोई स्पष्ट नीति भी नहीं बनाई।
महानगरों में आवास-समस्या के अन्य कारण भी हैं। इन क्षेत्रों में जिन लोगों के पास अतिरिक्त मकान था, आवास सुविधा थी, उन्होंने लोगों को किराये पर जगह दी। जैसे-जैसे महँगाई बढ़ी, इनके परिवार भी बढ़े तो इन्होंने अपने मकानों को खाली कराना प्रारंभ किया। इससे मुकदमेबाजी बढ़ी। किराया-कानून बने, परंतु झगड़े बढ़ते गए। इसका परिणाम यह हुआ कि अब आम व्यक्ति को मकान मिलता ही नहीं। दूसरे, इन मकान-मालिकों को यह महसूस हुआ कि वे रिहायशी क्षेत्रों को दुकानों या व्यापारिक प्रतिष्ठानों में बदलकर अधिक लाभ कमा सकते हैं।
फलस्वरूप गली-गली में दुकानें खुल गई। फलस्वरूप लोग झुग्गी-झोंपड़ी में या एक-एक कमरे में पाँच से दस लोग रहने को मजबूर हैं। नेताओं ने वोट बैंक के लिए झुग्गियाँ बसानी शुरू कर दीं। फलत: गंदगी का साम्राज्य फैलता गया। ऐसे में बिल्डर कहाँ चूकने वाले थे। उन्होंने भी इस आपाधापी का फ़ायदा उठाया और अवैध रूप से मकान बनाए। इस प्रकार वैध व सुविधाजनक आवास की समस्या दिन-पर-दिन विकराल रूप धारण करती जा रही है। इसका सबसे अच्छा उपाय है महानगरों से रोजगार का आकर्षण कम करना। इसके लिए सरकार को उद्योगों, व्यापार व सरकारी कार्यालयों को महानगरों से दूर करना होगा। सत्ता का विकेंद्रीकरण करना होगा। दूसरे नगरों, कस्बों, ग्रामों आदि में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे। इन उपायों से महानगरों की आवास-समस्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
37. कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ
20वीं सदी के प्रारंभ में विश्व में महिलाओं का स्थान घर-परिवार की जिम्मेदारियाँ तक ही सीमित था। किंतु आधुनिकीकरण के साथ-साथ समाज के संरचनात्मक स्तर में भी परिवर्तन आया। महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खुले और महिलाओं ने आजादी के संघर्ष में बढ़-चढ़कर भाग लिया। यही नहीं आजादी के बाद बदलते सामाजिक परिदृष्य की उपज अभाव और महँगाई से दो-चार होने के लिए महिलाओं को घर की जिम्मेदारियाँ निभाने के अलावा नौकरी व अन्य व्यवसाय भी करने पड़े। इन सबके बावजूद, उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता है। दूसरे, यदि महिलाकर्मी कुंवारी है तब सहकर्मी पुरुषों की ही नहीं, राह चलतों की गिद्ध दृष्टि भी उसे निगलने को तत्पर रहती है। उसे अनुचित संवाद सुनने पड़ते हैं तथा अनचाहे स्पर्श व संकेत झेलने पड़ते हैं।
अधिकारी भी उन्हें अधिक समय तक रुकने के लिए मजबूर करते हैं। इसका कारण भारतीय पुरुष की गुलाम मानसिकता है। विवाहित कामकाजी महिलाओं की समस्या भी कम नहीं होती। उन्हें नौकरी करने के साथ-साथ घर के पूर्वनिर्धारित सभी कार्य करने पड़ते हैं। पुरुष-प्रधान समाज में उसके कार्यों को दूसरा कोई नहीं करता। उसका व्यक्तित्व घर-बाहर में बँटा रहता है। अधिक कमाने वाला पति स्वयं को महत्वपूर्ण समझता है तथा कम कमाने वाला हीनग्रंथि का शिकार हो जाता है। ऐसी स्थिति में पति-पत्नी के संबंध तनावपूर्ण हो जाते हैं।
अगर घर में सास-ननद हैं तो वे अपने व्यंग्यवचनों से उसे छलनी करती रहती हैं। इस प्रकार की विषम एवं अटपटी स्थितियों के दुष्परिणाम अकसर सामने आते रहते हैं। कई बार घर-परिवार का बँटवारा हो जाता है तो इसका दोषी भी कामकाजी महिला को माना जाता है। कामकाजी महिला के बच्चों के लिए बड़ी समस्या आती है। ऐसी महिलाओं के बच्चों को सास या ननद भी नहीं रखतीं क्योंकि उनका अहं आड़े आता है।
इसके अलावा, बच्चों को ‘क्रच’ या ‘डे केयर सेंटर’ जैसी दुकानों पर छोड़कर काम पर जाना पड़ता है जहाँ मोटी फीस देने पर भी बच्चों को वह सब नहीं मिल पाता जो आवश्यक रूप से मिलना चाहिए। इस प्रकार बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। निष्कर्षत: आवश्यकता इस बात की है कि समाज की मानसिकता, घर-परिवार और समूचे जीवन की परिस्थितियाँ ऐसी बनाई जाएँ कि कामकाजी महिला को काम बोझ न लगे तथा वह पुरुष के समान व्यवहार व व्यवस्था में सहभागी बने।
38. आधुनिक फैशन
एक फ्रांसीसी विचारक का कहना है-आदमी स्वतंत्र पैदा होता है, लेकिन पैदा होते ही तरह-तरह की जंज़ीरों में जकड़ जाता है। वह परंपराओं, रीति-रिवाजों, शिष्टाचारों, औपचारिकताओं का गुलाम हो जाता है। इसी क्रम में वह फ़ैशन से भी प्रभावित होता है। समय के साथ समाज की व्यवस्था में बदलाव आते रहते हैं। इन्हीं बदलावों के तहत रहन-सहन में भी परिवर्तन होता है। किसी भी समाज में फ़ैशन वहाँ की जलवायु परिवेश तथा विकास की अवस्था पर निर्भर करता है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ वहाँ के निवासियों के जीवन-स्तर में परिवर्तन आता जाता है।
20वीं सदी के अंतिम दौर से फ़ैशन ने उन्माद का रूप ले लिया। फ़ैशन को ही आधुनिकता का पर्याय मान लिया गया है। इस फ़ैशन की अधिकांश बातें आम जीवन से दूर होती हैं। फ़ैशन से संबंधित अनेक कार्यक्रमों का रसास्वादन अधिकांश लोग नहीं ले सकते, परंतु आधुनिकता और फ़ैशन की परंपरा का निर्वाह करते हैं। फ़ैशन का सर्वाधिक असर कपड़ों पर होता है। समाज का हर वर्ग इससे प्रभावित होता है।
आमतौर पर यह धारणा है कि महिलाएँ व लड़कियाँ ही इससे अधिक प्रभावित रहती हैं, परंतु आज पुरुष भी इसमें पीछे नहीं हैं। कभी चुस्त कपड़ों का फ़ैशन आता है तो कभी ढीले-ढाले कपड़ों का और कभी कतरनों को फ़ैशन का नाम दिया जाता है। टी०वी० चैनलों व फ़िल्मों ने इस प्रक्रिया को अधिक गति दी है। हिट फ़िल्म के हीरो-हीरोइनों की वेश-भूषा, साज-सज्जा का अनुकरण करने की कोशिश की जाती है। आमिर खान की तरह हेयर स्टाइल को फ़ैशन के नाम पर लड़के अपनाने लगे हैं। शाहरुख खान के तुतलाने की स्टाइल को अपनाना अपनी शान समझते हैं।
लड़कियाँ भी आधुनिक अभिनेत्रियों की नकल उतारती हैं। कई ‘बेबी’ की तरह जीरो फ़िगर पाना चाहती हैं तो कई ऐश्वर्या राय की ड्रेसों की नकल करती हैं। अच्छे कपड़ों के द्वारा अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाना अच्छी बात है, लेकिन जिस प्रकार से अंधानुकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वह उचित नहीं है। फ़ैशन के नाम पर सामाजिक मर्यादा को तोड़ देना गलत है। कोई भी वस्त्र इसलिए पहनना कि उसका फ़ैशन है, भले ही वह शरीर के लिए उपयुक्त है या नहीं, हास्यास्पद लगता है। वस्त्र का कार्य शरीर को ढँकना है, उसका प्रदर्शन करना नहीं है। आधुनिक फ़ैशन शरीर को नुमाइश की वस्तु बनाता है। वह शरीर को स्वाभाविक रूप से सुंदर नहीं बनाता।
आधुनिकता और फैशन वर्तमान समाज में अब स्वीकार्य तथ्य हैं। फैशन के अनुसार अपने में परिवर्तन करना भी स्वाभाविक प्रवृन्ति है, लेकिन इसके अनुकरण से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि इससे व्यक्तित्व में वृद्ध होती है या नहीं। सिर्फ फ़ैशन के प्रति दीवाना होना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं।
39. उपभोक्ता—शोषण
विषमता शोषण की जननी है। समाज में जितनी अधिक विषमता होगी, सामान्यतया शोषण भी उतना ही अधिक होगा। चूँकि यहाँ बात उपभोक्ता-शोषण की हो रही है तो सर्वप्रथम उपभोक्ता शोषण को समझना आवश्यक है। उपभोक्ता-शोषण का तात्पर्य केवल उत्पादक व व्यापारियों द्वारा किए जाने वाले शोषण से ही लिया जाता है, परंतु ‘उपभोक्ता’ शब्द के दायरे में वस्तुएँ व सेवाएँ-दोनों का उपभोग शामिल है। सेवा क्षेत्र के अंतर्गत डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, वकील आदि आते हैं। इन्होंने उपभोक्ता-शोषण के जो कीर्तिमान बनाए हैं, वे ‘गिनीज बुक ऑफ़ वल्र्ड रिकॉर्ड्स’ में दर्ज कराने लायक हैं।
एक अफ़सर अपनी सात पीढ़ियों को चैन से रखने के लिए सरकारी पैसे को निगल जाता है, तो शिक्षकों को ट्यूशन से फुर्सत नहीं मिलती। डॉक्टर प्राइवेट सर्विस को ही जनसेवा मानते हैं तो वकीलों को झूठे मुकदमों में आनंद मिलता है। इसी तरह व्यापारी भी कम मात्रा, मिलावट, जमाखोरी, कृत्रिम मूल्य-वृद्धि आदि द्वारा उपभोक्ताओं की खाल उतारने में लगा रहता है। मिलावट करने से न जाने कितनी जानें चली जाती हैं, इस बात का लक्ष्मी के पुजारियों को कोई गम नहीं।
आज व्यापारी वर्ग ग्राहक को भगवान न समझकर लाभ को ही अपना इष्ट देवता मानता है। मिलावट, कम तौल, अधिक दाम आदि उस इष्ट देवता की पूजा विधियाँ हैं। हालाँकि अब उपभोक्ता-संरक्षण की बात उठने लगी है। असंगठित तथा दिशाहीन उपभोक्ताओं का शोषण जमकर हो रहा है। उनके हितों की सुरक्षा के लिए अनेक कानून पास किए गए हैं-माप व बाट मानक अधिनियम, खाद्य अपमिश्रण निवास अधिनियम आदि, लेकिन क्या वे उपभोक्ता को शीघ्र ही न्याय दिलाने में सहायक सिद्ध हुए? वास्तव में ये दंडात्मक नियम हैं और न्याय प्रक्रिया इतनी लंबी तथा थका देने वाली है कि उपभोक्ता यह सब सहन नहीं कर सकता।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 पास हुआ, परंतु उसके क्रियान्वयन में देरी की जाती है। सफ़ेदपोश कानून से बचने का रास्ता तालाश लेते हैं। अत: उपभोक्ता को अपने बचाव के लिए स्वयं जागरूक होना पड़ेगा। देश में सैकड़ों उपभोक्ता संगठन हैं, परंतु इनका कार्यक्षेत्र अभी तक महानगरों व नगरों तक ही सीमित है, आज जरूरत है कि ऐसे संगठनों को गाँव स्तर तक अपना कार्य करना चाहिए। इनके अलावा, रेडियो, दूरदर्शन, समाचार-पत्र आदि के माध्यम से उपभोक्ताओं को जाग्रत किया जा सकता है। यह कार्य सरकारी संगठन नहीं कर सकते। युवा इस क्षेत्र में प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं।
40. साक्षरता और संचार-माध्यम
भारत में प्राचीनकाल से ही मानव-मूल्यों के प्रचार-प्रसार की महान परंपरा रही है। मानव-विकास के सबसे महत्वपूर्ण घटक ‘शिक्षा’ के प्रसार में संत-महात्माओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने मौखिक तरीकों से सामाजिक परिवर्तन का प्रयास किया। इसी परंपरा में जनसंचार के लोकमाध्यम; जैसे-कठपुतली नृत्य, कथावाचन, लोकसंगीत, नौटंकी आदि, विकसित हुए जिन्होंने लोकशिक्षा का प्रसार किया। आज समाचार-पत्र, रेडियो, टी०वी०, सिनेमा, वीडियो आदि प्रचार के अत्याधुनिक माध्यम विकसित हो चुके हैं।
समाचार-पत्रों ने अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद साक्षरता के प्रसार में बहुमूल्य योगदान दिया है। मनोरंजन से लेकर अनेक शिक्षाप्रद कथाओं, परिचर्चाओं, भेंटवार्ताओं एवं शिक्षा संबंधी योजनाओं की जानकारी जन-साधारण को देकर निरक्षरता के विरुद्ध लोगों में जागृति पैदा करते हैं। हालाँकि आकाशवाणी सहज, सुलभ व विस्तृत पहुँच के कारण सर्वाधिक लोकप्रिय रही है। साक्षरता को जन-अभियान बनाने तथा शिक्षा के महत्व का संदेश गाँव-गाँव, गली-गली पहुँचाने में रेडियो का योगदान सर्वविदित है।
रेडियो के बाद दूरदर्शन व्यापक व प्रभावशाली माध्यम के रूप में उभरा है। अपनी पचास वर्षों की यात्रा में शिक्षा, मनोरंजन व सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में दूरदर्शन ने सूचना के नए द्वार खोल दिए हैं। दूरदर्शन गाँवों में साक्षरता तथा सामान्य शिक्षा के प्रसार हेतु अपने राष्ट्रीय प्रसारण के अलावा क्षेत्रीय केंद्रों से अनेक ऐसे कार्यक्रम दिखाता है जिनमें रोचक ढंग से अक्षर-ज्ञान कराया जाता है। चलचित्र भी शिक्षा के साधन के रूप में प्रभावी रहे हैं।
चलचित्रों से बच्चों को इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि की जानकारी मिलती है। अच्छी व सामाजिक फ़िल्मों से उदारता, सहिष्णुता, सहयोग, न्याय की शिक्षा अनायास ही बच्चों को मिल जाती है। शिक्षा के प्रसार में चलचित्रों की उपयोगिता इस बात पर आश्रित है कि ये चलचित्र शैक्षिक हों। वीडियो भी प्रचार के एक सशक्त माध्यम के रूप में सामने आ रहा है। अप्रवासी भारतीयों के एक समूह ने संपूर्ण देश में हजारों शैक्षिक वीडियो केंद्र चलाने का निर्णय किया है जो सुदूर गाँव में साक्षरता बढ़ाने तथा लोगों में शिक्षा के प्रति रुचि जगाने का कार्य करेगा।
संचार-माध्यमों की अपनी कुछ सीमाएँ हैं। आज ये अपने दर्शकों, श्रोताओं और पाठकों के मन में कुछ खास अपेक्षाएँ विकसित कर देते हैं। अत: इनको एकदम नहीं बदला जा सकता। शिक्षा और साक्षरता के प्रचार के लिए इनके दर्शकों, श्रोताओं और पाठकों की रुचि को ध्यान में रखकर ऐसे कार्यक्रम बनाने होंगे जो प्रतिरोध से बचते हुए अपनी गहरी छाप छोड़ने में सफल हो सकें। शत-प्रतिशत साक्षरता हेतु एक सुनियोजित कार्यक्रम बनाकर इन संचार माध्यमों का उपयोग करना अति-आवश्यक है; क्योंकि निरक्षरता का कलंक सारे भारत में व्याप्त है।
गाँवों में आज भी स्थिति बेहद खराब है। वहाँ पर पारंपरिक संचार-माध्यमों के साथ आधुनिक संचार-माध्यमों का प्रभावशाली प्रयोग किया जा सकता है। इससे संचार-माध्यमों व आम लोगों के बीच संचार-रिक्तता की स्थिति समाप्त हो जाएगी और साक्षरता का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
41. युवा असंतोष
आज चारों तरफ असंतोष का माहौल है। बच्चे-बूढ़े, युवक-प्रौढ़, स्त्री-पुरुष, नेता-जनता सभी असंतुष्ट हैं। युवा वर्ग विशेष रूप से असंतुष्ट दिखता है। घर-बाहर सभी जगह उसे किसी-न-किसी को कोसते हुए देखा-सुना जा सकता है। अब यह प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इसका एक ही कारण नजर आता है नेताओं के खोखले आश्वासन। युवा वर्ग को शिक्षा ग्रहण करते समय बड़े-बड़े सब्ज़बाग दिखाए जाते हैं।
वह मेहनत से डिग्रियाँ हासिल करता है, परंतु जब वह व्यावहारिक जीवन में प्रवेश करता है तो खुद को पराजित पाता है। उसे अपनी डिग्रियों की निरर्थकता का अहसास हो जाता है। इनके बल पर रोजगार नहीं मिलता। इसके अलावा, हर क्षेत्र में शिक्षितों की भीड़ दिखाई देती है। वह यह भी देखता है कि जो सिफ़ारिशी है, वह योग्यता न होने पर भी मौज कर रहा है वह सब कुछ प्राप्त कर रहा है जिसका वह वास्तविक अधिकारी नहीं है।
वस्तुत: उच्च शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियों की इच्छाएँ भड़का दी जाती हैं। राजनीति से संबंधित लोग तरह-तरह के प्रलोभन देकर उन्हें भड़का देते हैं। राजनीतिज्ञ युवाओं का इस्तेमाल करते हैं। वे उन्हें चुनाव लड़वाते हैं। कुछ वास्तविक और नकली माँगों, सुविधाओं के नाम पर हड़तालें करवाई जाती हैं। इन सबका परिणाम शून्य निकलता है। युवा लक्ष्य से भटक जाते हैं। बेकारों की अथाह भीड़ को निराशा और असंतोष के सिवाय क्या मिल सकता है! जबकि समाज युवाओं को ‘कल का भविष्य’ कहता है। इन्हें उन्नति का मूल कारण मानता है, परंतु सरकारी व गैर-सरकारी क्षेत्र में उन्हें मात्र बरगलाया जाता है।
उनकी वास्तविक जरूरतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। उन्हें महज सपने दिखाए जाते हैं। पढ़ाई-लिखाई, शिक्षा, सभ्यता-संस्कृति, राजनीति और सामाजिकता हर क्षेत्र में उन्हें बड़े-बड़े सपने दिखाए जाते हैं, परंतु ये सपने हकीकत से बेहद दूर होते हैं। जब सपने पूरे न हों तो असंतोष का जन्म होना स्वाभाविक है। भ्रष्टाचार के द्वारा जिन युवाओं के सपने पूरे किए जाते हैं, ऐसे लोग आगे भी अनैतिक कार्यों में लिप्त पाए जाते हैं।
इनकी शान-शौकत भरी बनावटी जिंदगी आम युवा में हीनता का भाव जगाकर उन्हें असंतुष्ट बना देती है। ऐसे में जब असंतोष, अतृप्ति, लूट-खसोट, आपाधापी आज के व्यावहारिक जीवन का स्थायी अंग बन चुके हैं तो युवा से संतुष्टि की उम्मीद कैसे की जा सकती है? समाज के मूल्य भरभराकर गिर रहे हैं, अनैतिकता सम्मान पा रही है, तो युवा मूल्यों पर आधारित जीवन जीकर आगे नहीं बढ़ सकते।
42. प्रात:काल की सैर
प्रात: काल की सैर से मन प्रफुल्लित तथा तन स्वस्थ्य रहता है। स्वस्थ व्यक्ति ही समर्थ होता है और यह सर्वमान्य सत्य है कि वही इच्छित कार्य कर सकता है। वही व्यापार, सेवा, धर्म आदि हर क्षेत्र में सफल हो सकता है। व्यक्ति तभी स्वस्थ रह सकता है जब वह व्यायाम करे। व्यायाम में खेल-कूद, नाचना, तैराकी, दौड़ना आदि होते हैं, परंतु ये तरीके हर व्यक्ति के लिए सहज नहीं होते। हर व्यक्ति की परिस्थिति व शारीरिक दशा अलग होती है। ऐसे लोगों के लिए प्रात:काल की सैर से बढ़िया विकल्प नहीं हो सकता।
सुबह-सुबह वृक्ष व वनस्पतियाँ ऑक्सीजन छोड़ते हैं, तापमान भी कम रहता है तथा वातावरण का प्रदूषण भी नहीं होता। शुद्ध ऑक्सीजन से फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है। इससे व्यक्ति का तन-मन तरोताजा होता है। आलस्य दूर भाग जाता है। इसी ताजगी के बल पर मनुष्य दिन-भर अपने कार्य सहजता से कर पाता है। वह निराशा का शिकार नहीं होता तथा परिश्रम से जी नहीं चुराता। इस प्रकार स्वस्थ रहकर परिश्रम करने वाला व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में सफल रहता है।
प्रात:कालीन सैर करने के लिए कुछ नियमों का पाबंद होना जरूरी है। इसके लिए व्यक्ति को सूर्योदय से पहले घूमना होगा। सूर्योदय के बाद उसका विशेष लाभ नहीं रह जाता। दूसरे, सैर करने के लिए खुला व हरा-भरा वातावरण होना चाहिए। तीसरे, पैरों के साथ-साथ बाजुओं का हिलना-डुलना भी जरूरी है। गहरी साँस लेकर धीरे-धीरे छोड़नी चाहिए। यदि व्यक्ति का शरीर ठीक हो तो उसे हल्का-फुल्का व्यायाम कर लेना चाहिए। प्रात:कालीन सैर के समय अधिक बोलना ठीक नहीं माना जाता। व्यक्ति जोर से हँस सकता है। इससे आदमी के फेफड़ों व कंठ का व्यायाम हो जाता है।
यदि व्यक्ति नियमित रूप से प्रात:काल की सैर करे तो उसे अधिक फायदा ले सकता है। सैर के समय निरर्थक चिंताओं से दूर रहना चाहिए। प्रात:कालीन सैर के लिए उपयुक्त स्थान का होना भी जरूरी है। घूमने का स्थान खुला व साफ़-सुथरा होना चाहिए। हरी घास पर नंगे पैर चलने से आँखों की रोशनी बढ़ती है, तथा शरीर में ताजगी आती है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यह नियम सर्दी में लागू नहीं होता।
अत्यधिक ठंड से नंगे पैर चलने से व्यक्ति बीमार हो सकता है। हरित क्षेत्र में सैर करनी चाहिए। इसके लिए नदियों-नहरों व खेतों के किनारे, पार्क, बाग-बगीचे आदि भी उपयोगी स्थान माने गए हैं। खुली सड़कों पर वृक्षों के नीचे घूमा जा सकता है। यदि ये सब कुछ उपलब्ध न हों तो खुली छत पर घूमकर लाभ उठाया जा सकता है। प्रात:कालीन सैर से तन-मन प्रसन्न हो सकता है। यह सस्ता व सर्वसुलभ उपाय है।
43. वन–संरक्षण की आवश्यकता
भारत के संदर्भ में वनों की महिमा अपरंपार है। यहाँ अनेक ग्रंथों में तो सिर्फ़ वनों में पाई जाने वाली वनस्पतियों का वर्णन विस्तार से किया गया है। इन साहित्यिक रचनाओं में अनेक तरह के संरक्षित वनों की चर्चा भी मिलती है। अब प्रश्न यह उठता है कि वनों के संरक्षण की जरूरत क्यों पड़ी? इस प्रश्न का सीधा उत्तर है कि वन न केवल मानव-सभ्यता के रक्षक हैं, अपितु ये वन्य प्रणियों व पर्यावरण के भी संरक्षक हैं। वनों में तरह-तरह के जीव आश्रय पाते हैं जो जैविक चक्र को पूरा करते हैं। यदि वन न हों तो धरती का पारिस्थितिकी तंत्र अस्त-व्यस्त हो जाएगा।
वनों से तरह-तरह के उत्पाद मिलते हैं। औषधि क्षेत्र तो पूर्णतया वनों पर ही निर्भर है। इसके अलावा, वनों में अनेक आदिवासी भी रहते हैं। इनकी रक्षा व जीविका भी आवश्यक है जो वनों को संरक्षित करके ही संभव व सुलभ हो सकती है। आज स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि वनों के निरंतर कटाव से ऑक्सीजन की कमी हो रही है। वनों के न होने से नदियों के द्वारा पर्वत-पठारों से मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है। इसके कारण बाढ़ की विनाशलीला हर वर्ष बढ़ती जा रही है। इससे दूरदराज के लोगों को तो हानि होती ही है, आस-पास की आबादियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिहन लग गया है। इस विनाशलीला को रोकने का एकमात्र उपाय वन-संपदा की रक्षा है। वन ही प्राकृतिक संतुलन को बनाए रख सकते हैं।
वनों के रहने से ही उचित समय पर उचित वर्षा हो सकती है। हमारी सिंचाई व पेयजल की समस्या का समाधान भी वन-संरक्षण से ही संभव है। धरती पर बदलते पर्यावरण को देखकर सभी देश व प्रबुद्ध लोग वनसंरक्षण की बात जोर-शोर से उठा रहे हैं। कोपेनहेगन में विश्व-सम्मेलन का आयोजन भी किया गया है। सरकार वन्य जातियों की रक्षा के लिए कुछ अभयारण्य बना रही है तथा कुछ जीव-जंतुओं के शिकार पर पूर्णतया प्रतिबंध लगाया गया है। ग्लोबल वार्मिग को देखते हुए पूरा संसार उद्योग-धंधों में कम प्रदूषण वाली तकनीक अपनाने को तैयार है।
वन-संरक्षण से ही ग्लोबल वार्मिग की समस्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है। वन-संरक्षण का कार्य केवल भाषणों से या वृक्षारोपण सप्ताह मनाने से नहीं हो सकता। इसके लिए योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाने की जरूरत है। यह सब हमें किसी और के लिए नहीं, अपनी, अपने परिजनों तथा भावी पीढ़ियों की रक्षा के लिए करना है। अपनी रक्षा में सबकी और सबकी रक्षा में ही अपनी रक्षा का साधन और कारण छिपा होता है।
44. ऐतिहासिक स्थल की सैर
पूरी दुनिया में भारत एक ऐसा देश है जहाँ प्राकृतिक विविधताएँ मिलती हैं, जहाँ विभिन्न संस्कृतियों के लोग रहते हैं। इसके कारण यहाँ अनेक प्राकृतिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक दर्शनीय स्थान हैं। जो बरबस लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं। गत सप्ताह हमने योजना बनाई कि भारत का कोई दर्शनीय स्थल देखा जाए। मित्रों की राय अलग-अलग थी। कोई जयपुर जाना चाहता था तो कोई लखनऊ। किसी ने अजंता-एलोरा की गुफाएँ देखने की इच्छा जताई तो किसी ने दिल्ली में घूमने का इरादा जताया।
अंत में यही निर्णय हुआ कि आगरा के ताजमहल का भ्रमण किया जाए। हम छह मित्र थे। हमने दिल्ली से आगरा के लिए गाड़ी पकड़ी। गाड़ी में बेहद भीड़ थी। किसी तरह आगरा पहुँचे तो वहाँ टैक्सी वालों ने घेर लिया। सभी ने ‘फैंसा मुर्गा’ जानकर ताजमहल तक जाने के लिए अनाप-शनाप किराये माँगे। हमने पुलिस वाले की सहायता ली और सरकारी बस से ताजमहल पहुँचे। वहाँ जाकर अंदर प्रवेश के लिए टिकट ली और अपनी मंजिल की तरफ बढ़े।
ताजमहल का प्रवेश द्वार लाल पत्थरों से बना हुआ है। उन पत्थरों पर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं। वहाँ से आगे बढ़ते हुए हम बगीचे में पहुँचे। एक पंक्ति में उछलते हुए फव्वारे, मखमली घास, पेड़ों की श्रृंखला-सब में एक नया आकर्षण था। तभी दुनिया के सातवें आश्चर्य ताजमहल पर निगाह पड़ी। यह सफ़ेद संगमरमर के चबूतरे पर बना हुआ था। चबूतरे के चारों कोनों में श्वेत संगमरमर की ऊँची-ऊँची मीनारें थीं। मुख्य भवन के मध्य बड़ा हॉल और उसके बीच में मुमताज महल और शाहजहाँ की संगमरमरी कबें थीं। पीछे यमुना नदी बह रही थी।
ताजमहल भी अपने-आप में इतिहास है। आज से तीन सौ वर्ष पूर्व शाहजहाँ ने अपनी प्रेयसी महारानी मुमताज महल की स्मृति में इसे बनवाया था। शाहजहाँ मुमताज से बहुत प्रेम करता था। एक बार मुमताज बीमार पड़ गई और मृत्यु को प्राप्त हो गई। सम्राट ने अपनी प्रेयसी की स्मृति में ताजमहल बनवाने का फैसला किया। श्वेत संगमरमर के इस भवन को बनवाने में बाईस वर्ष का समय लगा।
यह शाहजहाँ व उसकी बेगम मुमताज के अनोखे प्रेम का प्रतीक ताज महल सारे संसार का ताज है। ताज का सौंदर्य चाँदनी रात में तो ऐसा लगता है मानो मुमताज व शाहजहाँ की रूहें जिंदी हो गई हों। इसे देखकर शाहजहाँ की भवन निर्माण कला के प्रति दीवानगी का पता चलता है। हालाँकि प्रगतिवादी कवि इसे शोषण का रूप बताते हैं। साहिर लुधियानवी भी यही कहते हैं
“इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों की मुहब्बत का उडाया हैं मजाका ।”
45. स्वदेश-प्रेम
“जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं हैं, पत्थर हैं, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।”
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का यह कथन स्वदेश-प्रेम की गहराई को बताता है। रामचंद्र शुक्ल का कहना है कि हम जिससे परिचय पाते हैं, उससे स्नेह हो जाता है। मनुष्य जहाँ भी रहता है, वहाँ से उसका लगाव हो जाता है। तो फिर जिस देश की मिट्टी में जन्म लिया, जहाँ बचपन, जवानी गुजारी, जहाँ के संस्कारों व साधनों से हम बड़े हुए, उस देश से प्रेम क्यों न होगा?
देश-प्रेम की भावना स्वाभाविक है। मनुष्य अपने देश की हर वस्तु, व्यक्ति, साहित्य, संस्कृति यहाँ तक कि उसके कण-कण से प्यार करता है। यह हृदय की सच्ची भावना है जो केवल सच्चाई व महानता को स्पष्ट करती है। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी का कहना है-
“Not ask what your country has done for you,
Ask what you have done for your country.”
देश-प्रेम का स्वरूप क्या है? इस पर विचार करने पर हम यही पाते हैं कि देश-प्रेम मन की एक पवित्र धारा है जिसमें गोता लगाकर हम अपने जीवन और कर्म को शुद्ध तथा सफल बनाते हैं। हमारा तन-मन, कार्य-व्यापार आदि सभी कुछ जब देश के प्रत्येक स्वरूप से प्रभावित होने लगता है तभी हम सच्चे देश-प्रेमी कहलाते हैं, अन्यथा हम जो कुछ देश-प्रेम के नाम पर अपना परिचय देते हैं, वह सब कुछ नकली और दिखावटी ही होता है।
देश-प्रेम की भावना से प्रभावित होकर श्री राम ने सोने की लंका को धूल के समान समझा और विभीषण को लंका का राजा बना दिया। इसी तरह अन्य महान पुरुषों ने अपनी जन्मभूमि भारत के प्रति अपने प्राण न्योछावर करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई। रानी लक्ष्मीबाई, कुंअर सिंह, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर, वीर सावरकर, रानी गौडिल्यू आदि न जाने कितने देश-प्रेमी थे जो आज हमारे लिए प्रेरणा बने हुए हैं। देश-प्रेम की इसी भावना को कवि जयशंकर प्रसाद ने व्यक्त किया है
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज की मिलता एक सहारा।
× × ×
उड़ते खग जिस ओर मूँह किए समझ नीड निज प्यारा।
कुछ लोग स्वदेश-प्रेम को स्थूल रूप में लेते हैं। वे भारत माता की मूर्ति की पूजा करते हैं या ‘भारत माता की जय’ बोलने से अपने प्रेम की अभिव्यक्ति मान लेते हैं। यह ढोंग है। देश-प्रेम सूक्ष्म भाव है जो हम अपने कार्यों से व्यक्त करते हैं। जो देशवासी अपने कर्तव्य देश के प्रति पूर्ण करता है, वही देश-प्रेमी है। स्वदेश-प्रेमी कभी देश के विघटन की बात नहीं करता। वह मानसिक व भौतिक शक्ति में वृद्ध का प्रयास करता है। साथ ही, देश के अन्यायपूर्ण शासनतंत्र को उखाड़ फेंकना भी देश-प्रेमी का कर्तव्य है, देश पर कोई संकट आए तो प्राण न्योछावर करने वाला ही देश-प्रेमी हो सकता है। गुप्त जी का कहना है
जिनको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान हें।
वह नर नहीं नर-पशु निरा है और मृतक समान है।
46. शिक्षा और व्यवसाय
शिक्षा का अर्थ केवल अक्षर-ज्ञान या पूर्व जानकारी की पुनरावृत्ति नहीं है। इसका अर्थ कार्य या व्यवसाय दिलाना भी नहीं है। शिक्षा का अर्थ है-व्यक्ति को अक्षर-ज्ञान कराकर उसमें अच्छे-बुरे में अंतर करने का विवेक उत्पन्न करना। मनुष्य के सहज मानवीय गुणों व शक्तियों को उजागर करना शिक्षा का कार्य है ताकि मनुष्य जीवन जीने की कला सीख सके। ऐसा कर पाने में समर्थ शिक्षा को ही सही अर्थों में शिक्षा कहा जा सकता है। शिक्षा प्राप्त करने के साथ मनुष्य को जीवन-निर्वाह के लिए कोई-न-कोई व्यवसाय या रोजगार करना पड़ता है।
शिक्षा व रोजगार का प्रत्यक्ष तौर पर भले ही कोई संबंध न हो, परंतु शिक्षा से व्यवसाय में बढ़ोतरी हो सकती है-इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है। आज के समय में शिक्षा का अर्थ व उद्देश्य यह लिया जाता है कि डिग्रियाँ हासिल करने से कोई नौकरी या रोजगार अवश्य मिलेगा। इसी कारण से शिक्षा अपने वास्तविक उद्देश्य से भटक चुकी है। आधुनिक शिक्षा व्यक्ति को साक्षर तो बनाती है, परंतु शिक्षित नहीं। इस कारण आज का शिक्षा तंत्र निरर्थक प्रतीत हो रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि इस तंत्र की विफलता के क्या कारण हैं? इसका उत्तर भी आसानी से मिल सकता है।
आजादी मिलने से पहले जो शिक्षा-व्यवस्था चल रही थी, उसमें आज तक कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया। फलत: बदलते परिवेश में शिक्षा का रोजगार से कोई संबंध स्थापित नहीं रहा। केंद्र व राज्य सरकारें बड़े स्तर पर स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालयों को खोल रही हैं, परंतु आधारभूत संरचना पर ध्यान नहीं दे रही है। आज इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान शिक्षा-पद्धति व्यवसाय के मानकों पर खरी उतरती नही है?
शिक्षा व्यवसाय के दृष्टिकोण से अप्रासंगिक हो चुकी है। चारों तरफ शिक्षा को व्यवसायोन्मुख बनाने की माँग उठ रही है। इससे अनेक लाभ हो सकते हैं। सबसे पहला तो यह है कि शिक्षा के व्यवसायोन्मुख हो जाने से अनेक परंपरागत कौशल समाप्त नहीं होंगे। दूसरे, शिक्षित होकर ऐसे व्यक्ति परंपरागत व्यवसायों को नई तकनीक से जोड़ेंगे। इससे लोगों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी तथा देश की बहुत-सारी आवश्यकताएँ भी पूरी होंगी। तीसरे, नौकरियों के प्रति दीवानगी भी कम हो जाएगी।
शहरों में भीड़ अधिक नहीं बढ़ेगी तथा प्रदूषण भी कम होगा। कुछ हद तक बेकारी की समस्या भी हल हो जाएगी। अत: इस दिशा में तेजी से व समस्त उपलब्ध साधनों से एकजुट होकर काम करना पड़ेगा ताकि आम शिक्षित वर्ग और शिक्षा-जगत में छाई निराशा दूर हो सके। यह सही है कि आज जीवन में शिक्षा को व्यवसाय का साधन समझा जाने लगा है, पर अब जो स्वरूप बन गया है, उसे सही ढंग से सजाने-सँवारने और उपयोगी बनाने में ही देश का वास्तविक हित है।
47. साहित्य और समाज
अथवा
साहित्य समाज का दर्पण
साहित्य और समाज में गहरा संबंध है। साहित्य का निर्माण साहित्यकार समाज में रहकर ही करता है। अत: वह समाज की उपेक्षा नहीं कर सकता। जिस साहित्य में समाज की उपेक्षा की जाती है, वह साहित्य समाज में आदर नहीं पाता। साहित्य और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व अविचारणीय है। साहित्य का क्षेत्र अत्यंत विशाल है। यह मनुष्य के विचारों का परिमार्जन करने के साथ-साथ उनका उदात्तीकरण भी प्रस्तुत करता है।
जीवन प्रगतिशीलता का दूसरा नाम है। यह प्रगति उच्च आदशों, महती कल्पनाओं और दृढ़ भावनाओं के द्वारा ही संभव हो सकती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें साहित्य द्वारा उच्चादशों और दृढ़ भावनाओं की उपलब्धि संभव हुई है। मार्टिन लूथर ने पादरी की अनियंत्रित सत्ता का विरोध किया। उसके लेखों से इंग्लैंड में क्रांति हुई और धीरे-धीरे हर जगह पोप का विरोध होता गया। इसी तरह रूसो और वाल्तेयर के लेखों ने परतंत्र फ्रांस और मैजिनी ने परतंत्र इटली के लोगों में क्रांति का स्वर फ्रैंका।
भारत में आजादी से पूर्व राष्ट्र-प्रेम की भावना से युक्त जितना साहित्य लिखा गया, उसने हमारे देश के लोगों में समय-समय पर उत्साह और आशा का संचार किया। माखनलाल चतुर्वेदी की रचना देखिए-
चाह नहीं हैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ।
× × ×
मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ में तुम देना फेंक
मात्रु-भूमि पर शशि चढाने
जिस पथ जावे वीर अनेक।
भारत में उस समय जैसे साहित्य की माँग थी, साहित्यकारों ने वैसा ही साहित्य दिया। हिंदी साहित्य की सृजना युगानुकूल परिस्थितियों का परिणाम है। प्रेमचंद के सभी उपन्यास इस बात के प्रमाण हैं। वास्तव में साहित्य एक ओर समाज का दर्पण होता है। समाज में व्याप्त वैविध्य तथा अनेकताओं की अभिव्यक्ति साहित्य में होती है। और साहित्य द्वारा ही विविधताओं में समन्वय की चेष्टा की जाती है।
तुलसी ने निगमागम पुराणों का सार लेकर अपने युग की ज्वलंत समस्याओं पर विचार किया और राम-नाम को सर्वोपरि माना। अर्थात कवि तत्कालीन जनमानस की क्षुब्धता का वर्णन करने के साथ-साथ उसे कर्तव्य के प्रति सचेत भी करता है। इस प्रकार साहित्य मानव-जीवन का व्यापक प्रतिबिंब है और उसका मार्गदर्शक भी।
48. पुस्तकें और पुस्तकालय
ज्ञान ही मनुष्य का धन है। आज इसी ज्ञान को गुरु के अभाव में पुस्तक से प्राप्त किया जा सकता है। संसार में बड़े-बड़े ज्ञानी और दार्शनिक, कवि पुस्तक पढ़कर ही बने, चाहे रवींद्रनाथ टैगोर, निराला, प्रेमचंद्र हों या संसार को एक नई व्यवस्था से रूबरू करानेवाला कार्ल माक्र्स सभी पुस्तकप्रेमी थे। पुस्तकों का साम्राज्य अनंत है। पुस्तकें अनेक प्रकार की होती हैं। इनके एक साथ दर्शन पुस्तकालयों में होते हैं।
वस्तुत: पुस्तकों का आगार पुस्तकालय एक ज्ञान-पिपासु पाठक के लिए सर्वाधिक उपयोगी स्थान होता है। विभाग एवं विषयों के अनुसार पुस्तकों का संग्रह और एक स्थान पर रखना, जीर्ण-शीर्ण पुस्तकों व पांडुलिपियों की सुरक्षा आदि का कार्य पुस्तकालय-विज्ञान का अभिन्न अंग है। पुस्तकालयों से सर्वाधिक लाभ उन पाठकों को होता है जो बहुमूल्य पुस्तकें बाजार से खरीदकर नहीं पढ़ सकते। कुछ ऐसी दुर्लभ पुस्तकें, जो बाज़ार में उपलब्ध नहीं होतीं, अच्छे पुस्तकालयों में अधिक सुरक्षा से रखी जाती हैं। संसार में पुस्तकालयों की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है।
भारत में तक्षशिला, नालंदा और काशी में विशाल पुस्तकालयों का जिक्र मिलता है। ब्रिटेन का लंदन हाउस, ऑक्सफ़ोर्ड, हावर्ड, मिशीगन और टोकियो विश्वविद्यालय के पुस्तकालय आधुनिक युग के बड़े पुस्तकालय हैं। इनमें करोड़ों की संख्या में पुस्तकें हैं। पुस्तकालय-विज्ञान में इतनी उन्नति हो चुकी है कि विषयमात्र की चर्चा से आवश्यक पुस्तक सामने आ जाती है। पुस्तक-सूची और विषय-सूचियों की रचना तरीके से की जाती है। अब तो विषयों के आधार पर भी अलग-अलग पुस्तकालयों का निर्माण किया जाने लगा है।
पुस्तकालयों से जीवन में जितना लाभ लिया जा सके, कम ही होगा। ये तो अपने में मानव-जीवन के हितों के लिए खजाना समाहित किए हुए हैं। मनोरंजन हेतु हम काफी पैसा खर्च करते हैं, परंतु पुस्तकालय हमें मनोरंजन हेतु विविध प्रकार की पुस्तकें प्रदान करते हैं। इन पुस्तकों से सुचरित्र का निर्माण होता है। पुस्तकालयों के अनेक लाभ हैं, परंतु हमारे देश में इनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अधिकांश पुस्तकालयों में अच्छे व्यवस्थापक नहीं हैं या पर्याप्त भवन नहीं हैं। आर्थिक सहायता का भी अभाव रहता है। इसके अतिरिक्त, आम व्यक्ति की प्रवृत्ति पुस्तक पढ़ने की नहीं है।
अधिकांश विद्यार्थी अपने पाठ्यक्रम के अलावा दूसरी पुस्तकें पढ़ना नहीं चाहते। कुछ तो पुस्तकें फाड़ देते हैं या उन पर अनावश्यक टीका-टिप्पणी करते हैं। कुछ चोरी जैसा जघन्य कार्य भी करते हैं। अत: सभी पाठकों का कर्तव्य है कि वे पुस्तकों का सम्मान करें और उनके अध्ययनकाल में पूर्ण सावधानी बरतें। निष्कर्षत: पुस्तकों की उपयोगिता के साथ-साथ पुस्तकालयों का अस्तित्व एक अनिवार्य सत्य है। किसी भी शिक्षण संस्थान का स्तर उसके पुस्तकालय के आकार-प्रकार से आँकना इसी सत्य-स्थिति का द्योतक है। ज्ञान के इन अक्षय भंडारों के प्रति प्रेम तथा उनमें समाहित ज्ञान का उपयोग और इनसे ज्ञानार्जन राष्ट्र का विकास करेगा।
49. विज्ञान : वरदान या अभिशाप?
आज विज्ञान का युग है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में घर या बाहर, राजनीति या धर्म, सब जगह विज्ञान का प्रभुत्व दिखाई देता है। विज्ञान धरती का कल्पवृक्ष है जिसके सरस फलों का रसपान कभी केवल सुरलोक के निवासियों को ही प्राप्त था परंतु वर्तमान में यह रसपान भूलोकवासियों के लिए भी सुलभ हो गया है। हलाँकि विज्ञान के दो रूप हैं-वरदान और अभिशाप। इसमें विज्ञान का क्या दोष है? इसका प्रयोग तो मानव इच्छा पर है।
विज्ञान वास्तव में मानव का सहचर है। जब मानव में दैवी भावनाएँ उत्पन्न होती हैं तो विज्ञान वरदान बन जाता है परंतु जब दानवी शक्तियाँ जन्म लेती हैं तो वही विज्ञान अभिशाप बन जाता है। विज्ञान तो मात्र हमारी कल्पनाओं को वास्तविकता में बदलने का काम करता है। चंद्रविजय जैसा अभूतपूर्व कार्य विज्ञान द्वारा ही संभव हुआ है। विज्ञान ने असंभव को संभव बना दिया है। चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान ने अभूतपूर्व उन्नति की है। पहले महामारियाँ फैलती थीं तो हजारों लोग काल के गाल में समा जाते थे। वहीं आज विज्ञान ने असाध्य रोगों पर विजय पा ली है।
आज विज्ञान की सहायता से आवश्यक संदेशों को कुछ ही समय में दूर-दूर तक भेजा जा सकता है। समाचार-पत्रों से हमें नित्य नई जानकारी मिलती है। छापेखाने में छपी पुस्तकों से ज्ञान व साहित्य में अभिवृद्ध होती है। कागज के आविष्कार से हम अपने इतिहास व साहित्य को वर्षों तक सुरक्षित रख सकते हैं। ये सभी विज्ञान की अनुपम देन हैं। किसी समय मनोरंजन के प्रमुख साधन नौटंकी, नाटक, जुआ, शिकार, जानवरों की लड़ाई आदि करते थे। अब रेडियो, दूरदर्शन, सिनेमा द्वारा हम अपना मन बहला सकते हैं। पहले बाढ़ के कारण फसलें नष्ट हो जाती थीं।
सूखे के कारण लोग भूखे मर जाते थे परंतु विज्ञान ने नदियों पर बाँध बना दिए। बाढ़ से बचाव के साथ-साथ नहरों द्वारा खेती की सिंचाई की जा रही है। वैज्ञानिक कृत्रिम वर्षा कराकर सिंचाई के साधनों की कमी को दूर करते हैं। इसके अतिरिक्त, कीटनाशक दवाइयों से फसल की कीड़ों से रक्षा की जाती है। साथ-साथ यातायात के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं।
वायुयान द्वारा घंटों की यात्रा मिनटों में समाप्त हो जाती है। अब हम जल में मीन की भाँति तैर सकते हैं, वायु में पक्षियों की भाँति उड़ सकते हैं। रॉकेट की सहायता से कुछ ही घंटों में पृथ्वी का चक्कर लगाया जा सकता है। इस प्रकार विज्ञान ने मानव की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा किया है। घरेलू पानी गरम व ठंडा करने की मशीनें, कपड़े धोने, खाना पकाने की मशीनें, पंखे, कूलर, हीटर आदि सुख-सुविधाएँ विज्ञान ने ही दी हैं। बिजली का आविष्कार सबसे महत्वपूर्ण है। बटन दबाइए, फ़ौरन सारा घर जगमगाने लगता है। किसी ने ठीक कहा है-
घर-घर में फैला आज विज्ञान का प्रकाश।
करता दोनों काम यह, नवनिर्माण विनाश।
हालाँकि विज्ञान ने जहाँ मानव को सुविधाएँ दिलाई हैं वहीं उसने उसे पंगु भी बना दिया है। पहले मनुष्य सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल लेता था परंतु आज चार कदम भी नहीं चल सकता। उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी है। आज के मानव का जीवन मशीनों के जंजाल में फंसकर रह गया है। मानव बारूद के ढेर पर बैठा है, जिसमें कभी भी विस्फोट हो सकता है। नित्य नए परीक्षण हो रहे हैं जिनसे पृथ्वी का ऋतु-चक्र भी प्रभावित हो रहा है।
विरोधियों को मौत के घाट उतारने के लिए अनेक गुप्त टीकों व गैसों की खोज जारी है। वस्तुत: विज्ञान की स्थिति उस तलवार की भाँति है, जिसके प्रयोग से वह चाहे किसी की रक्षा कर ले अथवा चाहे किसी का सिर धड़ से अलग कर दे। विज्ञान का प्रयोग मानव के हाथ में है। मनुष्य को चाहिए कि वह इसे मानव-हित के लिए प्रयोग करे।
50. प्रदूषण की समस्या
प्रदूषण का अभिप्राय है-प्राकृतिक वातावरण और वायुमंडल का दोषपूर्ण होना। प्रकृति स्वभावतया शुद्ध व स्वास्थ्यप्रद है, यदि वह किन्हीं कारणों से दूषित हो जाती है तो मानव के स्वस्थ विकास के लिए खतरे उत्पन्न करती है। आधुनिक प्रदूषण के कई रूप हैं। हालाँकि आधुनिक युग की सबसे गंभीर समस्या वायु-प्रदूषण है। जैसे-जैसे मशीनों की संख्या बढ़ती गई, वैसे-वैसे वायुमंडल विषैला होता गया। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-
जो कारखाने भूमि पर हैं, चिमनियाँ धुंआँ उगल रहीं।
साँस लेना भी कठिन हैं, वायुमंडल दूषित का रहीं।
इसके अतिरिक्त परिवहन के साधनों से निकलने वाली कार्बन डाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन आदि जहरीली गैसें वायुमंडल में घुलती रहती हैं। ये सब जीवधारियों के साथ-साथ नए-पुराने भवनों के लिए भी घातक हैं। अजंता के चित्रों का बदरंग होना इसी प्रदूषण का परिणाम है। जल-प्रदूषण भी आज भयंकर रूप धारण कर रहा है। पहले खुले मैदानों या खेतों में मल-मूत्र के त्याग से भूमि को खाद के तत्व प्राप्त हो जाते थे, परंतु अब सीवरेज प्रणाली द्वारा इसे नदियों में डाला जाता है, जिससे पानी दूषित व ऑक्सीजनरहित हो जाता है। कारखानों से निकला प्रदूषण इसमें अपनी भूमिका अदा करता है। फलत: पेयजल की समस्या बढ़ती जा रही है। जैसा कवि ने कहा है-
धारा सुधा मंदाकिनी की
उफ़! आज पातक हो रहीं है।
थल-प्रदूषण भी वायु और जल प्रदूषण की तरह हानिकारक है। बड़े-बड़े कारखानों तथा घरों व बाजारों से प्रतिदिन निकलने वाला लाखों टन कूड़ा थल-प्रदूषण का मुख्य कारण है। कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से भी भूमि के लाभदायी जीवाणु मर जाते हैं। आजकल परमाणु कचरा भी विश्व की भयंकर समस्या बन गया है, जिनके विकिरणों का प्रभाव काफी समय तक रहता है।
साथ-साथ ध्वनि-प्रदूषण विश्व के सामने चुनौती के रूप में उभरकर आ रहा है। वाहनों, कल-कारखानों, बारूद के फटने तथा रॉकेट आदि के चलने से तीव्र ध्वनि उत्पन्न होती है। इसके प्रभाव से सिरदर्द, बहरापन, मानसिक परेशानी जैसे रोगों का उदय हो रहा है। प्रदूषण किसी भी रूप में हो, हर रूप में इसकी समस्या विकटतर से विकटतम होती जा रही है। वैज्ञानिकों ने घोषणा की है कि यदि इस प्रदूषण को रोका नहीं गया तो लगभग सवा सौ वर्ष के बाद धरती पर जीवधारियों का रह पाना असंभव हो जाएगा। अत: समय रहते प्रदूषण से निपटने के उपायों पर समुचित अमल करने की जरूरत है।
51. नक्सलवाद की समस्या
हाल ही में नक्सलवाद की घटनाएँ बढ़ी हैं। प० बंगाल में राजधानी एक्सप्रेस को घंटों रोका जाता है तो कहीं थाने, रेलवे स्टेशन आदि को बम से उड़ा दिया जाता है। इन सब घटनाओं से सारा देश उद्वेलित हो उठा है। वस्तुत: नक्सलवाद माक्सवाद के वर्ग संघर्ष सिद्धांत पर आधारित है। इसके अंतर्गत दलित व शोषित वर्ग का प्रथम शत्रु जमींदार, ठेकेदार, साहूकार आदि हैं। नक्सलवादी मानता है कि ये छोटे पूँजीपति ही पूँजीवाद के स्तंभ अधिकारियों, बड़े पूँजीपतियों तथा शासक वर्ग को आधार प्रदान करते हैं।
अत: सर्वहारा तंत्र की स्थापना के लिए इस आधार को ही तोड़ देना चाहिए। वे दलित तथा शोषित वर्ग के शासन-तंत्र में शामिल लोगों को भी गद्दार मानते हैं। अत: सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से जमींदारों, भूस्वामियों, अफ़सरों की संपत्ति छीनना इनके अनुसार सर्वहारा वर्ग का स्वयंसिद्ध अधिकार है। नक्सलवादी भारतीय शासन-तंत्र द्वारा किए गए भूमि सुधारों, वेतन वृद्धयों, मजदूरी दरों में बढ़ोतरी को छलावा मानता है। यही कारण है कि भाकपा और माकपा की नीतियों को वह माक्र्सवाद की मूलभूत सैद्धांतिक प्रक्रिया में संशोधन मानकर उनसे घृणा करता है।
नक्सलवाद का उद्देश्य कानून-व्यवस्था के दायरे में आ जाता है। उसका उद्देश्य आर्थिक तथा सामाजिक समानता की स्थापना करना है, परंतु प्रक्रिया में अकारण हिंसा तथा अपराध मूलक कार्यों के कारण नक्सलवाद समाज के लिए घातक बन जाता है। वस्तुत: नक्सलवाद के संस्थापक चारु मजूमदार थे, जिन्हें कानु सान्याल तथा जंगम संथाल का पूरा समर्थन प्राप्त था। उन्होंने नक्सलवाद का सैद्धांतिक आधार माओत्से तुंग, चेग्वारा तथा ट्राट्स्की के वर्ग-संघर्ष संबंधी सिद्धांतों से प्राप्त किया था।
प० बंगाल में यह आंदोलन पनप नहीं सका, किंतु आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा आदि राज्यों में यह अधिक सफल रहा है। इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में शासन-तंत्र की सीधी पहुँच नहीं है। नक्सलवादियों का प्रमुख उद्देश्य सत्ता केंद्रों पर हमला करना होता है। ये लोग विभिन्न तरीकों से धन वसूलते हैं। ये वन-रक्षकों से वसूली, सरकारी या पूँजीपतियों से धन छीनना, फिरौती, विदेशों से धन, हथियार आदि प्राप्त करते हैं। इनका लक्ष्य नक्सल राज्य की स्थापना करना है। ये ‘दंडकारण्य’ की माँग कर रहे हैं।
सरकार द्वारा नक्सलवादी आंदोलन को दबाने के प्रयास भी किए गए हैं। कई बार सुरक्षा-बलों ने अभियान चलाए, परंतु राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण ये अभियान असफल हो गए हैं। आज इनकी शक्ति इतनी बढ़ गई है कि ये भारत की संप्रभुता को चुनौती देने लगे हैं। इस समस्या के समाधान के लिए केंद्र व राज्य सरकारों को गंभीर प्रयास करने होंगे। सरकार को चाहिए कि वह नक्सली नेताओं से बातचीत करके उनकी समस्याएँ जाने तथा नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों का पिछड़ापन दूर करने का प्रयास करें। साथ-साथ भूमि-सुधार कानून में संशोधन भी जरूरत है। यदि ये प्रयास तत्काल नहीं किए गए तो देश की एकता खतरे में पड़ जाएगी।
52. चुनाव और लोकतंत्र
‘लोकतंत्र’ दो शब्दों ‘लोक’ और ‘तंत्र’ के मेल से बना है, जिसका अर्थ है-लोगों का तंत्र अर्थात जनता का शासन। शासन की इस प्रणाली में लोग अपनी शासन-प्रणाली खुद बनाते हैं। विश्व की सभी प्रणालियों में लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। लोकतंत्र को पारिभाषित करते हुए अब्राहम लिंकन ने कहा था, “लोकतंत्र जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता का शासन है।” मनुष्य ने घुमंतू जीवन छोड़कर जब से समाज में रहना शुरू किया, उसी समय से उसे शासन की आवश्यकता महसूस हुई ताकि समाज में शांति बनी रहे।
समाज में मुखिया का चुना जाना लोकतंत्र का प्रारंभिक रूप रहा होगा। समाज ने धीरे-धीरे प्रगति की। पर स्वार्थ, लोभ और यशलिप्सा के कारण लोग येन-केन प्रकारेण इस सम्मानित पद को पाने का लोभ संवरण न कर सके। यहीं से लोकतंत्र कमजोर पड़ता गया और राजतंत्र का उदय हुआ। राजतंत्र के कारण राजा या शासक बनने की पैतृक प्रथा शुरू हुई। इससे राजा की निकम्मी, अक्षम और अयोग्य संतान शासक बनकर लोगों पर राज करने लगी। उसके अविवेकपूर्ण और अदूरदर्शी फैसलों से जनता का हित कम, अहित अधिक हुआ।
विदेशी आक्रमणकारियों और अंग्रेजी शासन में राजतंत्र का और भी विकृत रूप लोगों के सामने आया। भारत की जनता ने विदेशी शासन और राजतंत्र से मुक्ति पाने का समय-समय पर प्रयास किया। सन 1947 में देश को आजादी मिलने के बाद देश में आम चुनाव हुए जो लोकतंत्र की स्थापना के लिए मज़बूत स्तंभ था। लोकतंत्र एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है, जिसका उददेश्य अधिकाधिक लोगों का कल्याण करना हैं। इस शासन-पदूधति में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि विधानसभा और संसद में पहुँचते हैं और लोगों के कल्याण का उद्देश्य बनाए रखते हुए शासन का संचालन करते हैं।
हमारे देश ने स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद आज तक इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहाँ लोकतंत्र को शक्तिशाली बनाए रखने के लिए हर पाँच वर्ष बाद चुनाव कराने का प्रावधान है ताकि जनता अपनी इच्छानुसार नेताओं का चयन कर सके। चुनाव ही लोकतंत्र को सबल और सार्थक बनाते हैं। विगत कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति में गिरावट आई है।
नेताओं का चरित्र इतना गिर गया है कि वे स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण एक से दिखते हैं। चुनावों में जीत हासिल करने के लिए वे धनबल, बाहुबल के अलावा सभी तरह के हथकंडे अपनाते हैं और अपने कार्यकाल में घोटाले तथा अन्य अनैतिक कार्यों में संलिप्त रहते हैं। ऐसे नेता लोकतंत्र और राजनीति दोनों के लिए काले धब्बे के समान हैं। इसके बाद भी यहाँ समय-समय पर चुनाव होना और सरकार बनना लोकतंत्र की मजबूती और उसके उज्ज्वल भविष्य का प्रमाण है। लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए मतदाताओं को लालच और स्वार्थ त्यागकर निष्पक्ष होकर मतदान करना चाहिए।
53. मंगल अभियान
अथवा
मार्स ऑर्बिटर मिशन ( ‘मॉम’)
प्राचीन समय से ही भारत खगोलशास्त्र संबंधी अनेक विचार विश्व के सम्मुख रखता रहा है। वर्तमान समय में भी भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में इतिहास रचते हुए पीएसएलवी सी-25 रॉकेट के माध्यम से मार्स ऑर्बिटर यान को मंगल के कक्ष में स्थापित करके अपने मंगल मिशन को सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है। मंगलयान को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन स्पेस सेंटर से ‘पोलर सेटेलाइट लॉन्च वेहिकल’ पीएसएलवी सी-25 की मदद से छोड़ा गया था।
यह देश के लिए बहुत बड़ी सफलता है। इसके प्रक्षेपण के पश्चात भारत की अंतरिक्ष संस्था ‘इसरो’ अमरीका, रूस और संयुक्त रूप से यूरोपीय संघ की अंतरिक्ष संस्था के बाद चौथी संस्था बन चुकी है, जिसने इतनी बड़ी सफलता हासिल की है। पहले सफल अभियान ‘मैरीनर 9’ (नासा) को मिलाकर हुए कुल 51 मंगल अभियानों में से अब तक केवल 21 में ही सफलता प्राप्त की जा सकी है।
चीन और जापान की नाकामयाब कोशिशों के बाद भारत एशिया का पहला और एकमात्र राष्ट्र है, जिसके ‘मॉम’ (मार्स आर्बिटर मिशन) अभियान ने पहली कोशिश में ही मंगल ग्रह के कदम सफलतापूर्वक चूमे हैं। इससे पहले यूरोपीय संघ की यूरोपियन स्पेस एजेंसी, अमेरिका की ‘नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन’ (नासा) और रूस की ‘रॉस्कोस्मोज’ ने ही अपने अभियान मंगल ग्रह भेजे हैं। वर्ष 1969 में स्थापित ‘इसरो’ की यह सफलता भारत के अंतरिक्ष में बढ़ते वर्चस्व की ओर इशारा करती है।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के एक हजार से ज्यादा वैज्ञानिक इस अभियान से जुड़े थे, जिसमें नौजवान वैज्ञानिकों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो संख्या में 20 से अधिक थे। सिर्फ़ 450 करोड़ रुपये यानी लगभग 72 मिलियन डॉलर की लागत का यह अभियान विश्व का सबसे सस्ता मंगल अभियान माना गया है। इसकी तुलना 18 नवंबर 2013 को भेजे गए नासा के हाल ही के लाल ग्रह अभियान – ‘मार्स एटमोस्फ़ीयर एंड वोलेटाइल इवोल्यूशन मिशन’ (मावेम) से की जा सकती है, जिसकी लागत 671 मिलियन अमेरिकन डॉलर है। इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टिप्पणी की थी, ‘हॉलीवुड की साइंस फिक्शन फ़िल्म ‘ग्रेविटी’ का बजट हमारे मगल अभियान से ज्यादा है …. यह बहुत बड़ी उपलब्धि है’……।”
यहाँ यह बताना उचित रहेगा कि ‘ग्रेविटी’ फ़िल्म का बजट ‘मॉम’ के बजट से 13 मिलियन पॉउंड अधिक था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलयान की सफलता पर बार-बार अपनी खुशी जताई है। मंगलयान मिशन के पहले चरण के अंतर्गत नवंबर 2013 में प्रक्षेपित किए जाने के करीब 45 मिनट बाद मंगलयान पृथ्वी में अपनी निर्धारित कक्षा में पहुँचा था।
प्रक्षेपण के अगले 25 दिनों तक पृथ्वी के आस-पास चक्कर लगाने के बाद मंगलयान को मंगल ग्रह की ओर बूस्टर रॉकेट के सहारे भेजा गया था। 300 दिनों की यात्रा के बाद 24 सितंबर को तीसरे अह चरण के अंतर्गत मंगलयान को सफलतापूर्वक मंगल ग्रह पर उसकी निर्धारित कक्षा में पहुँचा दिया गया। यद्यपि ‘मॉम’ का मुख्य उद्देश्य अंतरिक्ष यान को लाल ग्रह की कक्षा में पहुँचाना था, परंतु वातावरण, खनिज लवणों, मीथेन की उपस्थिति का मंगल ग्रह पर पता लगाना इसके अनुभवजन्य उद्देश्य हैं।
मॉम के सुरक्षित तरीके से मंगल ग्रह के कक्ष में पहुँचने के बाद अब ‘इसरो’ का उद्देश्य सभी उपकरणों को सक्रिय करना है, जिनका भार कुल मिलाकर 15 किलोग्राम है। ‘इसरो’ को अपने मंगलयान के 6 महीने से एक साल तक बने रहने की आशा है। इस अभियान की सफलता से भविष्य में इस क्षेत्र में होने वाले भारतीय प्रयासों के लिए सकारात्मकता का वातावरण बना है तथा इससे आगे आने वाली युवा वैज्ञानिकों के आत्मबल का विकास होगा। 城,
54. भारतीय किसान
अथवा
हमारे अन्नदाता की बदहाल स्थिति
भारत कृषि-प्रधान देश है। यहाँ की 70% से अधिक जनसंख्या की आजीविका का साधन कृषि है। किसान अन्नदाता की भूमिका निभाते हैं। देश की अर्थव्यवस्था में किसानों का महत्वपूर्ण योगदान है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री किसानों का महत्व बखूबी समझते थे, तभी उन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा देकर किसानों को गौरवान्वित कराने का प्रयास किया।
देश को आजादी दिलाने में भी हमारे देश के किसानों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। भारतीय किसान की परिश्रमशीलता और सदी, गर्मी, बरसात की परवाह किए बिना काम करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को देखकर किसानों की उपेक्षा करने वालों को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा है-
यदि तुम होते दीन कृषक तो आँख तुम्हारी खुल जाती,
जेठ माह की तप्त धूप में, अस्थि तुम्हारी घुल जाती।
दानेबिना तरसते रहते, हरदम दुखड़े गाते तुम,
मुँह से बात न आती कोई कैसे बढ़-बढ़ बात बनाते तुमा।
सचमुच खेती करना अत्यंत ही श्रमसाध्य कार्य है, जिसमें खून-पसीना एक करना पड़ता है।
फिर भी भारतीय किसान अत्यंत दीन-हीन दशा में जीवन बिताता है। भारतीय कृषि अभी भी के सहारे हैं। यदि समय पर वर्षा नहीं हुई तो फसल चौपट। इसके अलावा उसकी फसलें प्राकृतिक आपदा, असमय वर्षा और के अलावा टिड्डयों के आक्रमण का शिकार हो जाती हैं। देश का अन्नदाता दूसरों का पेट तो भरता है, पर उसे रूखा-सूखा खाकर जीवन बिताना पड़ता है। वह गरीबी में पैदा होता है, गरीबी में पलता-बढ़ता है और उसी तंगहाली में जीता-मरता है। ऊपर से यह अत्यंत सीधा और सरल होता है।
साहूकार, नेता-मंत्री उसका शोषण करते हैं तथा दिवास्वप्न दिखाते हैं। हर बार चुनाव के समय उसकी दशा सुधारने का वायदा किया जाता है, पर अगले चुनाव में ही नेताओं को उसकी याद आती है। किसानों की इस दयनीय स्थिति के एक नहीं, अनेक कारण हैं। सर्वप्रथम उसके पास जमीन की मात्रा सीमित होना है, जिसमें वह अपने खाने भर के लिए अनाज पैदा कर पाता है, जिससे वह अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ ही पूरी कर पाता है। दूसरे, भारतीय किसानों का अशिक्षित होना।
अशिक्षा के कारण वे सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते। उनकी दयनीय दशा का तीसरा कारण सरकार द्वारा की जाने वाली उपेक्षा है। सरकार उनके कल्याण के लिए घोषणाएँ तो करती है, पर ये योजनाएँ कागजों तक ही सीमित रह जाती हैं। किसानों की दुर्दशा से मुक्ति के लिए सर्वप्रथम उनको सरकारी और गैर-सरकारी ऋण से मुक्ति तथा उन्हें खाद, बीज और उन्नत यंत्रों के लिए सस्ती दरों पर ऋण दिया जाना चाहिए। उनकी उपज का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाना चाहिए तथा उनकी फसल का बीमा करवाना चाहिए ताकि वे प्राकृतिक आपदाओं की मार से बच सकें।
देश के अन्नदाता की उन्नति के बिना राष्ट्र की उन्नति की कल्पना करना बेमानी है। डॉ० रामकुमार वर्मा ने ठीक ही कहा था-
हैं ग्राम देवता, नमस्कारा!
सोने -चाँदी से नहीं किंतु मिट्रटी से तुमने किया प्यार,
हो ग्राम देवता, नमस्कार’
55. मेरे सपनों का भारत
स्वर्ग के समान सुखद और सुंदर जिस भू-भाग पर मैं रहता हूँ, दुनिया उसे भारत के नाम से जानती-पहचानती है। प्राचीन काल में हमारा देश इतना धनवान हुआ करता था कि इसे ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। कालांतर में परिस्थितियाँ बदलीं। विदेशी आक्रमणकारियों और अंग्रेजी कुशासन के कारण ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला भारत विपन्नता के जाल में घिर गया। फलत: यहाँ गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, अलगाववाद आदि समस्याएँ लगातार बढ़ने लगीं हैं। इससे लोगों का जीवन दुखमय हो गया है।
मेरे सपनों के भारत में इन समस्याओं के लिए कोई स्थान नहीं होगा। मैं चाहता हूँ कि भारत अपने उस खोए हुए गौरव को पुन: प्राप्त करे तथा एक बार पुन: रामराज की स्थापना हो। हमारे प्रधानमंत्री राम और कृष्ण की तरह ही जनता के शुभचिंतक एवं रक्षक हों। हमारे प्रधानमंत्री के सलाहकार आचार्य चाणक्य जैसे कुशल कूटनीतिज्ञ एवं प्रणेता हों। उनमें ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की भावना हो और जनता की भलाई हेतु उसमें कूट-कूटकर भावना भरी हो। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा था-
जासु राज निज प्रजा दुखारी।
सो नृप होय नरक अधिकारी।
मेरे सपनों के भारत में कुशल नेतृत्च करने वाला स्वार्थपरता से दूर रहते हुए आदर्शवादी होना चाहिए। उसके शासन-काल में ऐसी परिस्थितियाँ होनी चाहिए कि सभी को अपनी-अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुरूप कार्य मिले, जिससे सभी को सुखमय जीवन जीने का अवसर मिले। हर हाथ को काम मिलने से आधी समस्याएँ स्वयमेव हल हो जाएँगी। मैं अपने सपनों के भारत में दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव शिक्षा-नीति में चाहूँगा।
ऐसी शिक्षा-नीति बनानी चाहिए, जिसमें शिक्षक सीखने और सीखने की प्रक्रिया इतना आसान बना दें कि परीक्षा का भय विद्यार्थी के मन से गायब हो जाए। शिक्षा के प्रति विद्यार्थियों में आकर्षक की भावना अंकुरित हो तब वे परिश्रमपूर्वक ज्ञानार्जन से सुयोग्य अधिकारी और प्रशासक बनकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करें, तब रिश्वतखोरी, जालसाजी आदि में कमी आएगी। उस समय विद्वान सम्मान की दृष्टि से देखें जाएँगे। तब लोगों में धन-पिपासा कम होगी। लोग शिक्षा के प्रति जागरूक होंगे।
मैं चाहता हूँ कि हमारे देश में लोगों के मन में ‘नर सेवा नारायण सेवा’ की भावना फिर पैदा हो और सभी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो। मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति तभी हो सकती है, जब वे लोगों की पहुँच में हों। अर्थात उनका मूल्य देशवासियों की जेब के अनुरूप हो। इसके लिए महँगाई पर तत्काल अंकुश लगाने की ज़रूरत है।
महँगाई पर अंकुश लगाए बिना सभी को सुविधाएँ दिलाने की बात सोचना बेइमानी होगी। साथ-साथ मैं चाहता हूँ कि मेरे सपनों के भारत में न्याय-व्यवस्था सुलभ, सरल और त्वरित हो। लोगों का देश की न्याय-प्रणाली में विश्वास हो। लोगों में परस्पर सौहार्द एवं भाईचारा हो। ताकि हमारा देश दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करता हुए अपने प्राचीन गौरव को पुन: प्राप्त कर ले।
56. मनोरंजन के आधुनिक साधन
अथवा
मनोरंजन के बढ़ते साधन
प्राचीन काल में मनोरंजन के साधन प्राकृतिक वस्तुएँ और मनुष्य के निकट रहने वाले जीव-जंतु थे। इसके अलावा वह पत्थर के टुकड़ों, कपड़े की गेंद, गुल्ली-डंडा, दौड़, घुड़दौड़ आदि से भी अपना मनोरंजन करता था। किंतु मनुष्य ने ज्यों-ज्यों सभ्यता की दिशा में कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसके मनोरंजन के साधनों में भी बढ़ोत्तरी और बदलाव आता गया। आज प्रत्येक आयुवर्ग की रुचि के अनुसार मनोरंजन के साधन उपलब्ध हैं, जिनका प्रयोग करके लोग आनंदित हो रहे हैं।
मनोरंजन के आधुनिक साधनों में रेडियो सबसे लोकप्रिय सिद्ध हुआ। आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों की स्थापना और उन पर प्रसारित क्षेत्रीय भाषाओं के कार्यक्रमों ने इसकी आवाज को घर-घर तक पहुँचाया। दूरदर्शन की खोज से पहले यह हमारे देश की करोड़ों जनता का सस्ता और सुलभ साधन था। एफ़०एम० चैनलों के प्रसारण से एक बार फिर रेडियो की लोकप्रियता में चार चाँद लग गए। हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ के माध्यम से लोगों से जुड़ने की जो पहल की है, उसका साधन रेडियो ही है।
पहाड़ी, दुर्गम और दूर-दराज के क्षेत्रों में मनोरंजन का सर्वाधिक सुलभ, सस्ता और लोकप्रिय साधन रेडियो है। मनोरंजन के आधुनिक साधनों में दूरदर्शन जितनी तेजी से लोकप्रिय हुआ है, उतनी तेजी से कोई अन्य साधन नहीं। यह उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग सभी को समान रूप से आकर्षित करता है। रेडियो के माध्यम से हम प्रसारित कार्यक्रमों की आवाज ही सुन पाते थे, परंतु दूरदर्शन पर आवाज के साथ-साथ विभिन्न अदाओं और हाव-भाव वाले चित्र भी साक्षात रूप में देखे जाते हैं। ये चित्र मानव-जीवन के प्रतिबिंब होते हैं, जिनसे दर्शक स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करता है।
दूरदर्शन के माध्यम से हम घर बैठे-बैठे उन स्थानों और घटनाओं को देख सकते हैं, जिन्हें हम कभी सोच भी नहीं सकते थे। दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों में इतनी विविधता होती है कि हर आयुवर्ग इसकी ओर आकर्षित हो जाता है। टेपरिकॉर्डर और वीडियो क्रमश: रेडियो और दूरदर्शन के समांतर उनके थोड़े सुधरे रूप हैं। इनके माध्यम से मनचाहे कार्यक्रमों को मनचाहे समय पर सुना और देखा जा सकता है।
लोगों का सामूहिक मनोरंजन करने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों में भी इनका उपयोग किया जा रहा है। वीडियोगेम और कंप्यूटर पर खेले जाने वाले कुछ खेल भी बच्चों और युवाओं के मनोरंजन के साधन हैं। इसके अतिरिक्त घर से बाहर मैदानों की ओर चलकर भी लोग विभिन्न खेलों के माध्यम से भी अपना मनोरंजन करते हैं। खेल मनोरंजन के अलावा स्वास्थ्यवर्धन के भी अच्छे साधन हैं। क्रिकेट, फुटबॉल, वालीबॉल, टेनिस, दौड़, तैराकी, व्यायाम, घुड़सवारी आदि घर से बाहर खेले जाने वाले खेलों के रूप में हमारा मनोरंजन, ज्ञानवर्धन एवं स्वास्थ्यवर्धन करते हैं। ताश, लूडी, शतरंज, कैरमबोर्ड आदि खेलों द्वारा घर बैठे-बैठे मनोरंजन किया जाता है।
आजकल पर्यटन द्वारा मनोरंजन करने की प्रवृत्ति जोरों पर है। पहले यह प्रवृत्ति राजाओं और धन-संपन्न लोगों तक ही सीमित थी, परंतु वर्तमान में मध्यम और निम्न वर्ग भी अपनी आय के अनुरूप दूर या निकट के स्थानों पर कुछ दिनों के लिए भ्रमण पर जाकर मनोरंजन करने लगा है। इस काम को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है। पर्यटन के द्वारा मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवर्धन भी होता है। हालाँकि मनोरंजन के लिए खेल सर्वोत्तम साधन हैं। इसे ध्यान में रखते हुए सरकार ने जगह-जगह स्टेडियम और खेल-परिसरों का निर्माण करवाया है। इनमें समय-समय पर खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं। साथ-साथ इनसे लोगों का स्वस्थ मनोरंजन होता है तथा जीवन उमंग एवं उत्साह से भर जाता है।
शिक्षित वर्ग के मनोरंजन के अन्य साधन हैं-पुस्तकालय में विभिन्न प्रकार की पुस्तकें पढ़ना तथा उनसे आनंद प्राप्त करना या कवि-सम्मेलन, नाट्यमंचन, मुशायरे के आयोजन में भाग लेना आदि। वर्तमान काल में विज्ञान की प्रगति के कारण मोबाइल फोन में ऐसी तकनीक आ गई है, जिससे गीत-संगीत सुनने, फ़िल्में देखने का काम अपनी इच्छानुसार किया जा सकता है। इस प्रकार मनोरंजन की दुनिया सिमटकर मनुष्य की जेब में समा गई है। निष्कर्षत: आज अपनी आय के अनुसार व्यक्ति अपना मनोरंजन कर सकता है क्योंकि मनोरंजन की दुनिया बहुत विस्तृत हो चुकी है।
57. बढ़ती जनसंख्या : एक भीषण चुनौती
अथवा
समस्याओं की जड़ : बढ़ती जनसंख्या
अथवा
जनसंख्या–विस्फोट : एक समस्या
स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात भारत को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उनमें जनसंख्या की निरंतर वृद्ध मुख्य है। जनसंख्या-वृद्ध अपने-आप में समस्या होने के साथ-साथ अनेक समस्याओं की जड़ भी है। सरकार समस्याओं को दूर करने के जो उपाय अपनाती है, जनसंख्या विस्फोट के कारण वे अपर्याप्त सिद्ध होते हैं और समस्या पहले से भी भीषण रूप में मुँह बाए सामने खड़ी मिलती है। इस समस्या का प्रभावी नियंत्रण किए बिना आर्थिक उपलब्धियाँ प्राप्त करना कठिन ही नहीं, बल्कि असंभव है।
2011 में हुई जनगणना से ज्ञात होता है कि हमारे देश की जनसंख्या 120 करोड़ को पार कर गई है। यह वर्तमान में सवा अरब के निकट पहुँच चुकी होगी। भारत का विश्व में जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा स्थान है, पर क्षेत्रफल की दृष्टि से सातवाँ स्थान। यही विषमता जनसंख्या-संबंधी समस्याओं को बढ़ाती है। इतनी विशाल जनसंख्या के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, परिवहन, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना ही अपने-आप में भीषण चुनौती है। दिन पर दिन बढ़ती जनसंख्या की समस्या के कारण खाद्यान्न की कमी और भी बढ़ती जा रही है।
उत्पादन जितना बढ़ाया जाता है, वह बढ़ती जनसंख्या रूपी सुरसा के मुँह में चला जाता है और हमारी स्थिति वही ढाक के तीन पात वाली रह जाती है। जनसंख्या-वृद्ध का दुष्परिणाम स्वास्थ्य सेवाओं पर भी पड़ा है। सरकारी प्रयास के बावजूद हर एक को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं मिल पा रही हैं। विदेशों की तुलना में यहाँ प्रति डॉक्टर मरीजों की संख्या काफी ज्यादा है। सरकारी अस्पतालों में लगी लंबी-लंबी लाइनें इस बात का प्रमाण हैं। यहाँ प्राइवेट अस्पताल अत्यधिक महँगे हैं और सरकारी अस्पताल आवश्यकता से बहुत कम हैं, जिससे गरीब आदमी मरने को विवश है। यही हाल जनसंख्या में बेतहाशा वृद्ध के कारण शिक्षा का है।
शत-प्रतिशत साक्षरता की दर का सपना आज भी सपना बनकर रह गया है। शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी स्थिति में बहुत बदलाव नहीं आया है। सरकार प्रतिवर्ष सैकड़ों नए विद्यालय खोलती है और हजारों नए शिक्षकों की भर्ती करती है, फिर भी विद्यालयों की कक्षाओं में निर्धारित संख्या से दूने-तिगुने विद्यार्थी बैठने को विवश हैं। जनसंख्या-वृद्ध के कारण उच्च शिक्षण संस्थाएँ ऊँट के मुँह में जीरा साबित हो रही हैं। यातायात एवं परिवहन की समस्या को तो जनसंख्या-वृद्ध ने कई गुना बढ़ा दिया है। प्राइवेट वाहनों की संख्या में निरंतर वृद्ध होने पर भी बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों पर टिकट के लिए लंबी लाइनें लगी ही रहती हैं।
रेल का आरक्षित टिकट पाने के लिए लोग रात से लाइन में लग जाते हैं, पर अधिकांश के हाथ निराशा ही लगती है। जनसंख्या-वृद्ध की वजह से बेरोजगारी की स्थिति भयावह हो चुकी है। अब तो सरकारी नौकरी के दस-बीस पदों के लिए लाखों में आवेदन-पत्र आने लगे हैं। रोजगार दफ़्तरों में पंजीयकों की निरंतर बढ़ती लाइनें देखकर इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यह बेरोजगार जनसंख्या अपराध कार्यों में संलिप्त होकर समाज में अनैतिक कार्य करती है और कानून-व्यवस्था को चुनौती देती है। इस प्रकार जनसंख्या-वृद्ध एक नहीं, अनेक समस्याओं की जननी है। यह किसी भी दृष्टि से व्यक्ति, देश एवं विश्व के हित में नहीं है।
जनसंख्या की वृद्ध रोके बिना किसी समाज और राष्ट्र की उन्नति की बात सोचना भी बेइमानी है। इसे रोकने के लिए जन-जन और सरकार को सामूहिक प्रयास करना होगा और जन-जन को इसके घातक परिणामों से अवगत कराना होगा। साथ-साथ कुछ कड़े कानून बनाकर उनको अमली जामा पहनाना जरूरी है।
58. मोबाइल फोन : सुविधाएँ एवं असुविधाएँ
अथवा
मोबाइल फोन बिना सब सूना
संचार के क्षेत्र में क्रांति लाने में विज्ञान-प्रदत्त कई उपकरणों का हाथ है, पर मोबाइल फोन की भूमिका सर्वाधिक है। मोबाइल फोन जिस तेजी से लोगों की पसंद बनकर उभरा है, उतनी तेजी से कोई अन्य संचार साधन नहीं। आज इसे अमीर-गरीब, युवा-प्रौढ़ हर एक की जेब में देखा जा सकता है। इसके प्रभाव से शायद ही कोई बचा हो। कभी विलासिता का साधन समझा जाने वाला मोबाइल फोन आज हर व्यक्ति की जरूरत बन गया है।
किसी समय मोबाइल फोन पर बातें करना तो दूर, सुनना भी महँगा लगता था। पर बदलते समय के साथ आने वाली कॉल्स नि:शुल्क हो गई। अनेक प्राइवेट कंपनियों के इस क्षेत्र में आ जाने से दिनोंदिन इससे फोन करना सस्ता होता जा रहा है। वस्तुत: मोबाइल फोन को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक योगदान है-इसमें बढ़ती नित नई-नई सुविधाओं का। पहले इन फोनों से केवल बातें ही की जा सकती थीं, पर आजकल इसकी उपयोगिता को देखते हुए अगर इसे जेबी कंप्यूटर कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। इससे व्यापारी बाजार की गतिविधियों की जानकारी हासिल करता है तो मजदूर वर्ग मोबाइल के माध्यम से घर बैठे काम तलाश लेता है।
मोबाइल की ही देन है कि एक कॉल पर राज मिस्त्री, प्लंबर कारपेंटर आदि उपस्थित हो जाते हैं। विद्यार्थी पुस्तकों का पीडिएफ या उपयोगी लेक्चर डाउनलोड करके समयानुसार पढ़ते-सुनते रहते हैं। इसमें लगा कैल्कुलेटर, कैलेंडर भी बड़े उपयोगी हैं, जिनका उपयोग समय-समय पर किया जा सकता है। साथ-साथ विशेष रूप से महिलाएँ एवं बुजुर्ग मोबाइल के साथ अपने को सुरक्षित महसूस करते हैं; क्योंकि कोई भी परेशानी आने पर वे तत्काल अपने परिजनों से संपर्क कर सकते हैं। हालाँकि हरेक सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार मोबाइल फोन का दूसरा पक्ष उतना उज्ज्वल नहीं है। मोबाइल फोन के दुरुपयोग की प्राय: शिकायतें मिलती रहती हैं। इसका सर्वाधिक नुकसान विद्यार्थियों की पढ़ाई पर हो रहा है।
विद्यार्थीगण पढ़ने की बजाय फोन पर गाने सुनने, अश्लील फ़िल्में देखने, अनावश्यक बातें करने में व्यस्त रहते हैं। इससे उनकी पढ़ाई का स्तर गिर रहा है। मोबाइल फोन पर बातें करना हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इस पर ज्यादा बातें करना बहरेपन को न्यौता देना है। आतंकवादियों के हाथों इसका उपयोग गलत उद्देश्य के लिए किया जाता है। मोबाइल फोन नि:संदेह अत्यंत उपयोगी उपकरण और विज्ञान का चमत्कार है। इसका सदुपयोग और दुरुपयोग मनुष्य के हाथ में है।
59. बेरोजगारी की समस्या
अथवा
बेरोजगारी का दानव
यहाँ जो समस्याएँ दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ी हैं, इनमें जनसंख्या-वृद्ध, महँगाई, बेरोजगारी आदि मुख्य हैं। इनमें से बेरोजगारी की समस्या ऐसी है जो देश के विकास में बाधक होने के साथ ही अनेक समस्याओं की जड़ बन गई है। किसी व्यक्ति के साथ बेरोजगारी की स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब उसे उसकी योग्यता, क्षमता और कार्य-कुशलता के अनुरूप काम नहीं मिलता, जबकि वह काम करने के लिए तैयार रहता है।
बेरोजगारी की समस्या शहर और गाँव दोनों ही जगहों पर पाई जाती है। नवीनतम आँकड़ों से पता चला है कि इस समय हमारे देश में ढाई करोड़ बेरोजगार हैं। यह संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है। यद्यपि सरकार और उद्यमियों दुवारा इसे कम करने का प्रयास किया जाता है, पर यह प्रयास ऊँट के मुँह में जीरा साबित होता है। हमारे देश में विविध रूपों में बेरोज़गारी पाई जाती है। पहले वर्ग में वे बेरोजगार आते हैं जो पढ़-लिखकर शिक्षित और उच्च शिक्षित हैं। यह वर्ग मज़दूरी नहीं करना चाहता , क्योंकि ऐसा करने में उसकी शिक्षा आडे आती है।
दूसरे वर्ग में वे बेरोजगार आते हैं जो अनपड़ और अप्रशिक्षित हैं। तीसरे वर्ग में व बेरोज़गार आत्ते हैं जो काम तो कर रहे है, पर उन्हें अपनी योग्यता और अनुभव के अनुपात में बहुत कम वेतन मिलता है। चौथे और अंतिम वर्ग में उन बेरोजगारों को रख सकते है, जिन्हें साल मैं कुछ ही महीने कम मिल माता है। खेती में काम करने वाले मज़दूरों और किसानों को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। बेरोज़गारी के कारणों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि इसका मुख्य कारण ओदृयोगीकरण और नवीनतम साधनों की खोज एवं विकास है। जो काम हजारों मज़दूरों द्वारा महीनों में पूरे किए जाते थे, आज मशीनों की मदद से कुछ ही मज़दूरों की सहायता से कुछ ही दिनों में पूरे कर लिए जाते हैं।
उदाहरणस्वरूप जिन बैंकों में पहले सौ-सौ क्लर्क काम करते थे, उनका काम अब चार-पाँच कंप्यूटरों दुवारा किया जा रहा है। बेरोजगारी का दूसरा सबसे बड़ा कारण है जनसंख्या-वृदूधि। आजादी मिलने के बाद सरकार ने रोज़गार के नए-नए अवसरों का सृजन करने के लिए नए पदों का सृजन किया और कल-कारखानों को स्थापना की। इससे लोगों को रोजगार तो मिला, पर बढती जनसंख्या के कारण ये प्रयास नाकाफी सिद्ध हो रहै हैं। बेरोज़गारी का अन्य करण है-गलत शिक्षा – नीति, जिसका रोजगार से कुछ भी लेना – देना नहीं है।
फलता बेरोजगारी दिन-पर दिन बढती जा रही है। बेरोजगारी एक और जहाँ परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति बाधक है, वहीँ यह खाली दिमाग शैतान का घर होने की स्थिति उत्पन्न करती है। ऐसै बेरोजगार युवा अपनी ऊर्जा का उपयोग ममाज एवं राष्ट्र विरोधी कार्यों में करते हैं। पलतः सामाजिक शांति भंग होती है तथा अपराध का ग्राफ बढ़ता है। बेरोज़गारी की समस्या से छुटकारा पाने के लिए शिक्षा को रोजगार से जोड़ने को आवश्यकता है। व्यावसायिक शिक्षा को त्रिदूयालयों में लागू करने के अलावा अनिवार्य बनाना चाहिए।
स्कूली पाट्यक्रमों में श्रम की महिमा संबधी पाठ शामिल किया जाना चाहिए ताकि युवावर्ग श्रम के प्रति अच्छी सोच पैदा कर सके। इसके अलावा एक बार गुन: लघु एवं कुटीर उदूयोग की स्थापना एवं उनके विकास के लिए उचित वातावरण बनाने को आवश्यकता है। किसानों को खाली समय में दुग्ध उत्पादन, मधुमक्खी पालन, जैसे कार्यों के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। इस काम में सरकार के अलावा धनी लोगों को भी आगे आना चाहिए ताकि भारत बेरोजगार मुक्त बन सके और प्रगति के पथ पर चलते हुए विकास की नई ऊँचाइयाँ छू सके।
60. जनसंख्या में स्त्रियों का घटता अनुपात
अथवा
स्वियों की घटती संख्या और बढता सामाजिक असंतुलन
स्त्री और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं। जिस प्रकार किसी भी गाड़ी को सुचारु रूप से गतिमान रहने के लिए समरूपी दो पहियों की जरूरत होती है, उसी प्रकार सामाजिक जीवन की गाड़ी को सुचारु रूप से गतिशील बनाए रखने के लिए स्त्री-पुरुष दोनों की संख्या में समानता होने की जरूरत होती है। दुर्भाग्य से भारतीय जनसंख्या में स्त्रियों का अनुपात दिन पर दिन घटता जा रहा है। इससे सामाजिक असंतुलन का खतरा उत्पन्न हो गया है जो किसी भी दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है। यदि इस पर ध्यान न दिया गया तो यह असंतुलन बढ़ता ही जाएगा।
हरियाणा और पंजाब जैसे शिक्षित और संपन्न राज्यों में स्त्रियों की संख्या प्रति हजार पुरुषों की तुलना में 850 है, तो पिछड़ा कहे जाने वाले पूर्वोत्तर राज्यों में स्त्रियों की संख्या का अनुपात इन संपन्न राज्यों से काफी बेहतर है। कुछ शिक्षित और संपन्न राज्यों में विवाह योग्य लड़कों को लड़कियाँ मिलने में काफी परेशानी आ रही है। इस प्रकार समाज में स्त्रियों का घटता अनुपात एक सामाजिक समस्या है।
इस समस्या का मुख्य कारण है-भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही पुत्रों को अधिक महत्व दिया जाना। माता-पिता की सोच रही है कि पुत्र के पिंडदान किए बिना उन्हें स्वर्ग नहीं प्राप्त होगा। हालाँकि जब तक महँगाई कम थी, तब तक लोग एक से अधिक बच्चों का बोझ आसानी से वहन कर लेते थे, परंतु वर्तमान में बढ़ती महँगाई ने परिवार को एक या दो बच्चों तक सीमित रहने पर विवश कर दिया है। अत: हरेक व्यक्ति को एक
लड़का अवश्य चाहिए। इसके लिए नाना प्रकार की विधियाँ अपनाई जाती हैं। यहाँ तक कि कन्या भ्रूण-हत्या तक की जाती है। इस समस्या का एक अन्य प्रमुख कारण है-समाज की पुरुष-प्रधान मानसिकता। इस सोच के कारण समाज में लड़के-लड़कियों के पालन-पोषण में दोहरा मापदंड अपनाया जाता है, जिससे जन्म के बाद प्राय: कन्या शिशुओं की मृत्यु हो जाती है। लड़कियों को समाज में बोझ माने जाने का एक कारण दहेज-प्रथा भी है। इन्हीं कारणों से स्त्री-पुरुषों की जनसंख्या संबंधी असंतुलन में वृद्ध होती है।
सरकार ने इस समस्या की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए कई योजनाएँ लागू की है; जैसे-‘लाडली योजना’, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘कन्या विद्याधन’ आदि। इसके अलावा विभिन्न प्रचार माध्यमों द्वारा जन-जागरूकता अभियान चलाकर सरकार जनचेतना उत्पन्न करने का प्रयास करती है। कन्या जन्म देने पर माता-पिता को प्रोत्साहन राशि देना, कन्या के विवाह में आर्थिक मदद प्रदान करना आदि इस दिशा में उठाए गए ठोस कदम हैं। सरकार ने भ्रूण-लिंग-परीक्षण को अपराध बनाकर तथा लिंग-परीक्षण करने वाले डॉक्टरों को सजा देने का कानूनी प्रावधान बनाकर सराहनीय प्रयास किया है। इससे लोगों की सोच में बदलाव आया है और वे कन्याओं के प्रति अधिक सदय बने हैं।
61. सठ सुधरहिं सत्संगति पाई
अथवा
सत्संगति
सत्संगति शब्द ‘संगति’ में ‘सत्’ उपसर्ग लगाने से बना है, जिसका अर्थ है-अच्छे लोगों की संगति। यहाँ अच्छे लोगों से तात्पर्य श्रेष्ठ, सदाचारी और विद्वतजनों से है जो लोगों को कुमार्ग त्यागकर सन्मार्ग पर चलने और श्रेष्ठ आचरण की सीख देते हैं। ऐसे लोगों के संपर्क में आने से व्यक्ति के दुर्गुणों का नाश होता जाता है और उसमें अच्छे गुणों का उदय होने लगता है। सत्संगति की महत्ता बताते हुए कवि तुलसीदास ने कहा है-
सठ सुधरहिं सत्सगति पाई। पारस परस कुधातु सुहाई।
अर्थात श्रेष्ठ लोगों की संगति पाकर दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति सुधरकर अच्छा आदमी उसी प्रकार बन जाता है, जैसे पारस पत्थर का स्पर्श पाकर लोहे जैसी साधारण और कुरूप-सी धातु सुंदर और सोने में बदलकर बहुमूल्य बन जाती है। सत्संगति की तुलना कल्पवृक्ष से की जा सकती है, जो मनुष्य को मधुर फल देते हुए सर्वविधि भलाई करता है। कहा भी गया है-‘महाजनस्य संगति: कस्यो न उन्नतिकारक:।’
अर्थात श्रेष्ठ जनों की संगति किसकी उन्नति नहीं करती। इसका तात्पर्य यह है कि सत्संगति सभी की उन्नति का साधन बनती है। खिलते कमल का साथ पाकर ओस की बूंदें मोती के समान चमक उठती हैं और साधारण-से कीट-पतंगे पुष्प की संगति करके देवताओं के सिर पर इठलाने का सौभाग्य पा जाते हैं। इसी प्रकार गंधी (इत्र बेचने वाला) चाहे कुछ दे या न दे, पर इत्र की संगति के कारण सुवास (सुगंध) तो दे ही जाता है। सत्संगति मनुष्य को सदाचार और ज्ञान ही नहीं प्रदान करती, बल्कि इससे मनुष्यों को अच्छे लोगों के विचारों को सुनने, समझने और व्यवहार में लाने की प्रेरणा मिलती है। इससे वह सुख, संतोष एवं शांति की अनुभूति करता है। सत्संगति के प्रभाव से व्यक्ति की आत्मा पूर्णतया बदल जाती है। उसका हृदय-परिवर्तन हो जाता है।
आजीवन लूटमार करने वाले वाल्मीकि क्रूर और हिंसक डाकू के रूप में जाने जाते थे, किंतु साधु-महापुरुषों की संगति पाकर वे साधु ही नहीं बने, बल्कि उच्च कोटि के विद्वान बने और संस्कृत भाषा में भगवान राम की पावन गाथा का गुणगान ‘रामायण’ के रूप में करके विश्व प्रसिद्ध हो गए। कुछ ऐसा ही उदाहरण डाकू अंगुलिमाल का है जो लोगों को लूटने के बाद उनकी आँगुली काट लेता था और उनकी माला बनाकर गले में पहन लेता था। उसी क्रूर डाकू का सामना जब महात्मा बुद्ध से हुआ तो उनकी संगति पाकर उसने लूटमार और हत्या का मार्ग त्याग दिया और सदा-सदा के लिए सुधरकर अच्छा आदमी बन गया और भगवद्भजन में रत रहने लगा।
इसी प्रकार पुष्पों की संगति पाकर हवा सुवासित हो जाती है और लोगों का मन अपनी ओर खींच लेती है। निष्कर्षत: सत्संगति व्यक्ति में अनेक मानवीय गुणों का उदय करती है। इससे व्यक्ति में त्याग, परोपकार, साहस, निष्ठा, ईमानदारी जैसे मूल्यों का उदय होता है। सत्संगति से व्यक्ति विवेकी बनता है, जिससे उसका जीवन सुगम बन जाता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि ऐसी लाभदायिनी सत्संगति को छोड़कर भूलकर भी कुसंगति की ओर कदम न बढ़ाए। सत्संगति ही व्यक्ति की भलाई कर सकती है, कुसंगति नहीं। अत: हमें सदैव सत्संगति ही करनी चाहिए।
62. धूम्रपान की बढ़ती प्रवृत्ति और उसके खतरे
अथवा
धूम्रपान कितना घातक
‘धूम्रपान’ शब्द दो शब्दों ‘धूम्र’ और ‘पान’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है-धूम्र अर्थात धुएँ का पान करना। अर्थात नशीले पदार्थों के धुएँ का विभिन्न प्रकार से सेवन करना, जो नशे की स्थिति उत्पन्न करते हैं और यह नशा व्यक्ति के मनोमस्तिष्क पर हावी हो जाता है। इससे धूम्रपान करने वाले व्यक्ति का मस्तिष्क शिथिल हो जाता है और वह अपने आस-पास की वास्तविक स्थिति में अलग-सा महसूस करने लगता है। यही स्थिति उसे एक काल्पनिक आनंद की दुनिया में ले जाती है। समाज में धूम्रपान की प्रवृत्ति बहुत पुरानी है।
मनुष्य प्राचीन काल से ही तंबाकू और उनके उत्पादों का विभिन्न रूप में सेवन करता रहा है। समाज की वही प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। दुख तो यह है कि यह शिक्षित एवं प्रतिष्ठित वर्ग हो या श्रमिक एवं अशिक्षित वर्ग का की उत्पादक कंपनियाँ हों या सरकार सबको ही यह पता है कि बीड़ी-सिगरेट का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए घातक होता है, पर कंपनियाँ इनके पैकेटों पर साधारण-सी चेतावनी-‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’ लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती हैं, सरकार भी इसे मौन स्वीकृति दे देती है और लोग कभी थकान मिटाने के नाम पर तो इसके भी अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला मानकर सेबन करते हैं।
जाने-अनजाने में राष्ट्रीय स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ बदस्तूर जारी है। धूम्रपान का दोहरा नुकसान है। एक ओर यह स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालता है तथा दूसरी ओर गाढ़ी कमाई को बर्बाद करता है धूम्रपान करने वालों के पास जो लोग खड़े होते हैं, वे भी अपनी साँस द्वारा उस धुएँ का सेवन करते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। रोगी, बूढ़े और बच्चे विशेष रूप से इसका शिकार होते हैं। युवा वर्ग तो विज्ञापन और फ़िल्मों के अलावा समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं में दर्शाए गए विज्ञापनों की जीवन-शैली देखकर स्वयं धूम्रपान की कुप्रवृत्ति का शिकार जरूर हो जाता है।
वस्तुत: बीड़ी-सिगरेट आदि सरकार की आय तथा कंपनियों के ऊँचे मुनाफ़े का साधन हैं। इस कारण इन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने में सरकार भी ईमानदारी और दृढ़ता से प्रयास नहीं करती। साथ-साथ काम करने वाले श्रमिक के बेरोजगार होने का भय सरकार को ऐसा करने से रोकता है। यदि ईमानदारी से इस समस्या के समाधान के लिए कदम उठाया जाए तो इसका हल यह है कि इन श्रमिकों को अन्य कामों में समायोजित करके उन्हें भुखमरी से बचाया जा सकता है। लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने की बजाय बीड़ी, तंबाकू और सिगरेट उद्योग पर प्रतिबंध लगाने से ही मानवता का कल्याण हो सकेगा।
धूम्रपान रोकने के लिए सरकार के साथ-साथ लोगों को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और इसके खतरों से सावधान होकर इसे त्यागने का दृढ़ निश्चय करना होगा। यदि एक बार ठान लिया जाए तो कोई भी काम असंभव नहीं है। बस आवश्यकता है तो दृढ़ इच्छा-शक्ति की। इसके अलावा सरकार को धूम्रपान कानून के अनुपालन के लिए ठोस कदम उठाना चाहिए। धूम्रपान का प्रचार करने वाले विज्ञापनों पर अविलंब रोक लगाना चाहिए तथा इसका उल्लंघन करने वालों पर कडी कार्यवाही करनी चाहिए। विदृयालय पाट्यक्रम का विषय बनाकर बच्चों को शुरू से ही इसके दुष्परिणाम से अवगत कराना चाहिए ताकि युवावर्ग इससे दूरी बनाने के लिए स्वयं सचेत हो सके। हमें धूम्रपान रोकने में सरकार और लोगों को हर संभव मदद करनी चाहिए।
63. वितूयार्थी और अनुशासन
अथवा
विदृयार्थी-जीबन में अनुशासन की आवश्यकता
विद्यार्थी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल है। इस काल में सीखी गई बातों पर ही पूरा जीवन निर्भर है। और असुंदर बनाने में इस काल का सर्वाधिक महत्व है। जिस प्रकार किसी प्रासाद की मजबूती और उसकी नींव या आधारशिला की मजबूती पर निर्भर करती है, उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन की सुख-शांति, विचार और व्यवहार उसके विद्यार्थी-जीवन पर निर्भर करता है।
विद्यार्थी-जीवन में बालक का मस्तिष्क गीली – होता है, जिसे मनचाहा आकार प्रदान करके भाँति-भाँति के खिलौने और मूर्तियाँ बनाई जा हैं। उसी मिट्टी के सूख जाने और पका लिए जाने पर उसे और कोई नया आकार नहीं दिया जा सकता। अत: इस काल में विद्यार्थी अनुशासन, सच्चरित्रता, सदाचारिता आदि का भरपूर पालन करना चाहिए ताकि वह समाज और राष्ट्र के उत्थान में अपना योगदान दे सके। हालाँकि आज विद्यार्थियों में बढ़ती के लिए चिंता का विषय है।
अनुशासनहीनता के मूल कारणों पर यदि विचार करें तो ज्ञात होता है कि इसका पिता के संस्कार तथा उसकी शरारतों को अनदेखा किया जाना है। बच्चे की अनुशासनहीनता की करे या विद्यालय प्रशासन माता-पिता अपने बच्चे के पक्ष में खड़े हो जाते हैं तथा उसे निर्दोष बताने हैं। अनुशासनहीन विद्यार्थियों का मनोबल और भी बढ़ जाता है। अनुशासनहीनता बढ़ाने में वर्तमान शिक्षाप्रणाली भी कम उत्तरदायी नहीं है।
विद्यार्थियों को रट्टू तोता बनाने वाली शिक्षा से व्यावहारिक ज्ञान नहीं हो पाता। इसके अलावा, पाठ्यक्रम में नैतिक एवं चारित्रिक शिक्षा को कोई स्थान नहीं दिया गया है। विद्यालयों में सुर्विधाओं की कमी, कुप्रबंधन, अध्यापकों की कमी, उनकी अरुचिकर शिक्षण-विधि, खेल-कूद की सुविधाओं का घोर अभाव, पाठ्यक्रम की अनुपयोगिता, शिक्षा का रोजगारपरक न होना, उच्च शिक्षा पाकर भी रोजगार और नौकरी की अनिश्चयभरी स्थिति विद्यार्थियों के मन में शिक्षा के प्रति अरुचि उत्पन्न करती है।
विद्यार्थियों की मनोदशा का अनुचित फ़ायदा राजनैतिक तत्व उठाते हैं। वे विद्यार्थियों को भड़काकर स्कूल-कॉलेज बंद करवाने तथा उनका बहिष्कार करने के लिए प्रेरित करते हैं। इससे विद्यार्थियों बढ़ती है। विद्यार्थियों में अनुशासन की भावना उत्पन्न करने के लिए माता-पिता, विद्यालय-प्रशासन और सरकारी तंत्र तीनों को ही अपनी-अपनी भूमिका का उचित निर्वहन करना होगा। इसके अलावा पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा और चारित्रिक शिक्षा को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए।
प्रतिदिन प्रार्थना-सभा में नैतिक शिक्षा देने के अलावा इसे पाठ्यक्रम का अंग बनाना चाहिए। विद्यालयों में विद्यार्थियों के लिए इतनी सुविधाएँ बढ़ानी चाहिए कि विद्यालय और वर्गकक्ष में उनका मन लगे। निष्कर्षत: आज शिक्षा-प्रणाली और शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव लाने की आवश्यकता है। शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाकर तथा उज्ज्वल भविष्य के लिए नैतिक सीख देकर अनुशासनहीनता की बढ़ती समस्या पर अंकुश लगाया जा सकता है।
64. आदर्श विदयार्थी
‘विद्यार्थी’ शब्द दो शब्दों ‘विद्या’ और ‘अर्थी’ के मेल से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-विद्या को चाहने वाला अर्थात ज्ञान-प्राप्ति में रुचि रखने वाला। आदर्श विद्यार्थी वह होता है जो आलस्य और अन्य व्यसनों से दूर रहकर विद्यार्जन में अपना मन लगाए। वह अधिकाधिक ज्ञानार्जन को ही अपना लक्ष्य बनाए और उसकी प्राप्ति के लिए सतत प्रयासरत रहे। आदर्श विद्यार्थी सदाचार के पथ पर चलते हुए विदूयार्जन के लिए कठिन साधना करता है। वस्तुत: विद्यार्थी और सुख में धनात्मक सहसंबंघ होने पर विद्यार्जन में बाधा आती है और वह अपने लक्ष्य से भटक जाता है। कहा भी गया है-
सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिन: कुतो सुखम्।
विद्यार्थी वा त्यजेत विद्या वा त्यजेत सुखम्।।
अर्थात सूख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्यार्थी को सुख कहाँ। विद्यार्थी या त्तो विदृया को त्याग है रा सुख को त्याग दे। आदर्श विद्यार्थी के लक्षण बताते हुए संस्कृत में कहा गया है-
काक चेष्टा बकोध्यानम् श्वान निद्रा तथैव च,
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पचलक्षणम्।
अर्थात एक आदर्श विद्यार्थी में अपने लक्ष्य को पाने के प्रति कौए जैसी चेष्टा हो, बगुले जैसा ध्यान लगाने की दक्षता हो और उसकी नींद कुत्ते जैसी हो, अर्थात तनिक-सी आहट मिलते ही नींद खुलने वाली हो। वह अल्प भोजन करने वाला तथा घर-परिवार के शोरगुलमय वातावरण से दूर रहकर विद्यार्जन करने वाला हो। इसे हम संक्षेप में कह सकते हैं कि विद्यार्थी के जीवन की सुख-सुविधाओं से दूर रहकर तपस्वियों जैसा जीवन बिताने वाला तथा लक्ष्य के प्रति समर्पित होना चाहिए। आदर्श विद्यार्थी का फ़ैशन और बनाव-श्रृंगार से कुछ लेना-देना नहीं होता।
वस्तुत: आदर्श विद्यार्थी का व्यवहार अनुकरणीय होता है। वह विद्यालय में अपना पाठ समाप्त करके कमजोर सहपाठियों की मदद करता है। वह सहपाठियों से मित्रवत व्यवहार करता है तथा उनसे लड़ाई-झगड़ा नहीं करता। वह अपने व्यवहार से सभी विद्यार्थियों का प्रिय बन जाता है। वह खेल के मैदान में भी अपनी अच्छी आदतों का परिचय देता है। वह खेल में हार को भी उसी प्रकार लेता है, जैसे जीत की। वह बेईमानी से जीतना पसंद नहीं करता। वह खेल-भावना का परिचय देता हुआ अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है।
पुस्तकालय में वह शांतिपूर्वक पढ़ता है तथा पुस्तकालय के नियमों का पालन करता है। वह समाज के प्रति भी अपने कर्तव्य को भली प्रकार समझता है तथा समाज-सेवा में रूचि लेता है। वह बड़ों को सम्मान और छोटों को स्नेह देता है। वह वृद्धजनों, दीन-दुखियों और महिलाओं की मदद करता है। वह अपनी विनम्रता से सभी का दिल जीत लेता है। साथ-साथ इसी प्रकार वह देश के प्रति अगाध सम्मान रखते हुए उसकी रक्षा करते हुए सब कुछ न्योछावर करने की भावना रखता है। इन गुणों से युक्त होने पर कोई विद्यार्थी आदर्श विद्यार्थी की संज्ञा से विभूषित करने योग्य बन पाता है। सभी विद्यार्थियों को आदर्श विद्यार्थी बनने का यथासंभव प्रयास करना चाहिए।
65. प्रदूषण-नियंत्रण में मनुष्य का योगदान
अथवा
प्रदूषण-नियंत्रण में हमारी भूमिका
अपने आरंभिक काल में मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थीं। अत: वह उस समय प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था। इससे उसका पर्यावरण शुद्ध और जीवन के अनुकूल था, पर ज्यों-ज्यों मनुष्य ने सभ्यता की ओर कदम बढ़ाए, उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती ही गई। उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की और प्रकृति का भरपूर दोहन किया। इससे हमारा पर्यावरण दूषित हो गया।
दुर्भाग्य यह है कि जीवधारियों में श्रेष्ठ और विवेकशील कहलाने वाला मनुष्य ही आज इस पर्यावरण का दुश्मन बन बैठा है और जाने-अनजाने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने को तैयार है। वह अपने स्वार्थ और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध और अविवेकपूर्ण दोहन करता जा रहा है। फलत: असमयवृष्टि, सूखा, भू-स्खलन, चक्रवात, समुद्री तूफान, बाढ़ आदि इस बिगड़े प्राकृतिक तंत्र के कुछ दुष्परिणाम हैं जो जान-माल को भारी क्षति पहुँचा रहे हैं।
वायुमंडल में बढ़ती कार्बन डाई-ऑक्साइड और अन्य जहरीली गैसों से वैश्विक तापमान बढ़ता जा रहा है, जिससे पहाड़ों और ध्रुवों पर जमी बर्फ़ के पिघलने का खतरा उत्पन्न हो गया है, जिससे समुद्र का जल-स्तर बढ़ जाएगा कि पूरी पृथ्वी उसमें समाहित हो जाएगी, जीवों का नामोनिशान भी शेष न रहेगा। वस्तुत: पर्यावरण-प्रदूषण के कारणों में प्रमुख है-वृक्षों की अंधाधुंध कटाई और उनके स्थान पर नए वृक्षों का रोपण न किया जाना। इसके लिए मुख्यत: बढ़ती जनसंख्या जिम्मेदार है।
इतनी अधिक जनसंख्या के लिए भोजन और आवास की समस्या को दूर करने के लिए वनों की कटाई की गई। इससे प्राकृतिक संतुलन डगमगाने लगा। प्राणवायु ऑक्सीजन देने वाले वृक्षों के कटने से वातावरण में कार्बन डाइ-ऑक्साइड गैस का बढ़ना तय हो गया। खेतों से अधिकाधिक उपज पाने के लिए रासायनिक उर्वरकों और रसायनों का जमकर प्रयोग किया गया, जिससे ये रासायनिक पदार्थ बहकर जल-स्रोतों में जा मिले और जल-प्रदूषण को बढ़ाया।
एक ओर चिमनियों से निकलने वाला जहरीला धुआँ वायु को प्रदूषित कर रहा है तो दूसरी ओर इनसे निकला रासायनिक तत्वयुक्त जहरीला पानी जल-स्रोतों को दूषित कर रहा है। मनुष्य ने वैज्ञानिक सुविधाओं का खूब लाभ उठाया और उसने मोटर-गाड़ियों का भारी संख्या में निर्माण किया। इन वाहनों के लिए पेट्रोल और डीजल का भरपूर दोहन किया गया। इनसे निकला धुआँ वायु-प्रदूषण को बढ़ावा दे रहा है तो इनका शोर ध्वनि-प्रदूषण फैला रहा है। इससे साँस संबंधी बीमारियाँ बढ़ रही हैं और शोर के कारण मनुष्य बहरा हो रहा है। इन सबसे हमारा पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित हो रहा है। ऐसे में पर्यावरण-प्रदूषण को तत्काल रोकने हेतु सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है, जिसमें सरकार और जन-साधारण को मिल-जुलकर प्रयास करना पड़ेगा।
सरकार को चाहिए कि वह वर्षा का जल संरक्षित करने के लिए कानून बनाएँ ताकि हर व्यक्ति इसका पालन करे ताकि भौमिक जलस्तर ऊँचा उठ सके। नदियों और अन्य जल-स्रोतों को दूषित करने वालों के साथ सरकार सख्ती से बर्ताव करे। जन-साधारण को चाहिए कि वे अपने आस-पास की खाली जमीन पर अधिकाधिक पेड़-पौधे लगाकर उनकी देखभाल करें ताकि वे वृक्ष बन सकें।
खेती में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग कम करके जैविक कृषि को बढ़ावा देना चाहिए। वाहनों में डीजल की जगह सी०एन० जी० का प्रयोग करना चाहिए। पर्यावरण-प्रदूषण रोकने तथा पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए यह कदम आज ही उठा लेना चाहिए, क्योंकि कल तक बहुत देर हो चुकी होगी।
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