श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा
Textbook Questions and Answers
पाठ के साथ –
प्रश्न 1.
जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आम्बेडकर का क्या तर्क है?
उत्तर :
आम्बेडकर का तर्क है कि जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का एक रूप मानना अनुचित है। क्योंकि ऐसा विभाजन अस्वाभाविक और मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। इसमें व्यक्ति की क्षमता का विचार किये बिना उसे वंशगत पेशे से बाँध दिया जाता है, वह उसके लिए अनुपयुक्त एवं अपर्याप्त भी हो सकता है। फलस्वरूप गरीबी एवं बेरोजगारी की समस्या आ जाती है।
प्रश्न 2.
जाति-प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?
उत्तर :
भारतीय समाज में जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका जातिगत पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। यदि वह पेशा उसके लिए अनुपयुक्त हो अथवा अपर्याप्त हो तो उसके सामने भुखमरी की स्थिति खड़ी हो जाती है। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का भी एक प्रमुख कारण बनती रही है।
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प्रश्न 3.
लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?
उत्तर :
लेखक के अनुसार दासता केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। दासता में कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। इसमें कुछ लोगों को अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशा अपनाना पड़ता है तथा व्यवसाय-चयन की स्वतन्त्रता नहीं रहती है।
प्रश्न 4.
शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आम्बेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?
उत्तर :
अम्बेडकर का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता के विकास का पूरा अधिकार है। हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासम्भवं समान व्यवहार करना चाहिए। समाज के सभी सदस्यों को आरम्भ से ही समान अवसर तथा समान व्यवहार उपलब्ध कराये जाने चाहिए। समता यद्यपि काल्पनिक वस्तु है, फिर भी संभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए यही मार्ग उचित है और व्यावहारिक भी है।
प्रश्न 5.
सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन-सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?
उत्तर :
डॉ. आम्बेडकर भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि से जातिवाद का उन्मूलन चाहते थे। क्योंकि कुछ लोग किसी उच्च वंश या जाति में पैदा होने से ही उत्तम व्यवहार के हकदार बन जाते हैं। परन्तु थोड़ा विचार करके देखा जावे, तो इसमें उनका अपना योगदान क्या है? अतः मनुष्य की महानता उसके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप तय होनी चाहिए। वैसे भी जातिवाद की भावना समता में बाधा उत्पन्न करती है।
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प्रश्न 6.
आदर्श समाज के तीन तत्त्वों में से एक भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे/समझेंगी?
उत्तर :
लेखक ने आदर्श समाज के तीन तत्त्व माने हैं समता, स्वतन्त्रता और भ्रातृता। समाज के इस तीसरे तत्त्व ‘भ्रातृता’ पर विचार करते समय लेखक ने स्त्रियों का अलग से उल्लेख नहीं किया है। इसमें ‘भ्रातृता’ शब्द का आशय सामाजिक जीवन में गतिशीलता, अबाध सम्पर्क तथा बहुविध हितों में सबका सहभाग होना है। इस तरह भ्रातृता का अर्थ ‘भाईचारा लिया जाना उचित है, इसे ‘बन्धुता’ भी कह सकते हैं। ‘भ्रातृता’ शब्द संस्कृतनिष्ठ है, जबकि ‘भाईचारा’ शब्द सरल एवं सद्भावजनक व्यवहार का सूचक है।
पाठ के आसपास –
प्रश्न 1.
आंबेडकर ने जाति प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है-उस संदर्भ में शेखर जोशी की कहानी ‘गलता लोहा’ पर पुनर्विचार कीजिए।
उत्तर :
छात्र उक्त कहानी पढ़कर स्वयं पुनर्विचार करें।
प्रश्न 2.
कार्यकुशलता पर जाति-प्रथा का प्रभाव विषय पर समूह में चर्चा कीजिए। चर्चा के दौरान उभरने वाले बिंदुओं को लिपिबद्ध कीजिए।
उत्तर :
कक्षा में चर्चा करके बिन्दुओं को स्वयं लिखें।
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इन्हें भी जानें –
आंबेडकर की पुस्तक जातिभेद का उच्छेद और इस विषय में गांधीजी के साथ उनके संवाद की जानकारी प्राप्त कीजिए।
‘हिंद स्वराज’ नामक पुस्तक में गांधीजी ने कैसे आदर्श समाज की कल्पना की है, उसे भी पढ़ें।
उत्तर :
छात्र इन पुस्तकों को पढ़कर ज्ञानवर्धन करें।
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लघूत्तरात्मक प्रश्न –
प्रश्न 1.
‘असमान प्रयत्न के कारण असमान व्यवहार’ से आप क्या समझते हैं? क्या आप इस दृष्टिकोण से सहमत हैं? मौलिक उत्तर दीजिए।
उत्तर :
श्रम करने की शक्ति या शरीर-रचना के अनुसार व्यक्ति काम करता है, इस कारण उसका प्रयत्न असमान रहता है और उसी अनपात से उसे लाभ मिलता है। डॉ. अम्बेडकर का यह कथन आंशिक कुल, श्रेष्ठ शिक्षा, पैतृक सम्पदा और व्यावसायिक प्रतिष्ठा के कारण असमानता का व्यवहार उचित ही माना जाता है।
प्रश्न 2.
मनुष्य की क्षमता किन बातों पर निर्भर करती है? बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर के ‘मेरी कल्पना का आदर्श समाज’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
बाबा साहेब आम्बेडकर ने बताया कि मनुष्य की क्षमता तीन बातों पर निर्भर करती है –
- शारीरिक वंश-परम्परा
- सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात् सामाजिक परम्परा के रूप में माता-पिता की कल्याण-कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन. आदि सभी उपलब्धियाँ तथा
- मनुष्य के अपने प्रयत्न।
प्रश्न 3.
लेखक ने किन कारणों से जाति-प्रथा को अस्वीकार्य माना है?
अथवा
किन दोषों के कारण जाति-प्रथा स्वीकार्य नहीं है?
उत्तर :
लेखक ने जाति-प्रथा के अनेक कारणों जैसे – अस्वाभाविक श्रम-विभाजन, श्रमिक-वर्ग में भेदभाव, ऊँच नीच की भावना, वंशानुगत कार्य होने से रुचि और क्षमता का ध्यान न रखना, अपर्याप्त व्यवसाय से बेरोजगार रहना, स्वतन्त्रता-समता एवं बन्धुता की भावना में कमी आना। जिनके परिणामस्वरूप आदर्श समाज का निर्माण रुक जाता है।
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प्रश्न 4.
डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी के क्या कारण बताए हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
आम्बेडकर ने प्रमुख कारण जाति-प्रथा, जाति पर आधारित श्रम का दोषपूर्ण विभाजन, श्रमिकों की क्षमता का आकलन किये बिना उनका अस्वाभाविक विभाजन और वंशानुगत रोजगार से बँध जाना बताये हैं। इन कारणों से उनकी स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि और आत्मशक्ति दब जाती है। इससे उनका विकास रुक जाता है।
प्रश्न 5.
जाति-प्रथा से समाज को क्या आर्थिक हानि होती है?
उत्तर :
जाति-प्रथा के अनुसार अपना पेशा निश्चित करने में उसकी रुचि, क्षमता और प्रशिक्षण आदि का कोई योगदान नहीं रहता है। मजबूरी में अपनाने से वह जीवन-भर के लिए उससे बँध जाता है। जिससे उसकी कार्य-कुशलता कमजोर पड़ जाती है और आर्थिक लाभ भी नहीं मिलता है। अतः जाति-प्रथा से समाज एवं व्यक्ति को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है।
प्रश्न 6.
डॉ. आम्बेडकर ने आदर्श समाज के सम्बन्ध में क्या मान्यता व्यक्त की है?
उत्तर :
डॉ. आम्बेडकर की मान्यता है कि आदर्श समाज स्वतन्त्रता, समता और भ्रातृता पर आधारित हो। इसके लिए आदर्श समाज में गतिशीलता तथा बहुविध हितों का सहभाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सहभागी होना चाहिए। जिससे कर्तव्यों और इच्छाओं में सुन्दर समन्वय स्थापित हो जायेगा। इसी का दूसरा नाम लोकतन्त्र है।
प्रश्न 7.
‘समता’ पर विचार करते हुए डॉ. आम्बेडकर ने क्या तर्क दिये? बताइये।
उत्तर :
डॉ. आम्बेडकर ने तर्क दिया कि –
- शारीरिक वंश परम्परा
- उत्तराधिकार अर्थात् सामाजिक परम्परा से प्राप्त उपलब्धियाँ तथा.
- मनुष्य के अपने प्रयत्न-इन तीनों दृष्टियों से मनुष्य समान नहीं होते हैं, फिर भी कुछ विशेषताओं के कारण उनमें असमान व्यवहार नहीं करना चाहिए।
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प्रश्न 8.
“समता यद्यपि काल्पनिक जगत् की वस्तु है।” लेखक ने किस आशय से ऐसा कहा है?
उत्तर :
प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक क्षमता, वंश-परम्परा या जन्म से, सामाजिक उत्तराधिकार की परम्परा से तथा अपने प्रयत्नों के कारण दूसरों से भिन्न और असमान होता है। इस तरह समता पहले से ही स्वयं नहीं आती है। समता को आदर्श समाज के निर्माण हेतु अपनायी जाती है। अतः समाज-निर्माण में समता की सत्ता काल्पनिक है।
प्रश्न 9.
सामाजिक समानता के समर्थक होते हुए भी डॉ. आम्बेडकर किन स्थितियों में असमान व्यवहार को उचित मानते हैं?
उत्तर :
डॉ. आम्बेडकर कुछ दशाओं में व्यक्ति-विशेष के दृष्टिकोण से, असमान प्रयत्न के कारण अथवा मनुष्यों के प्रयत्नों में भिन्नता के कारण असमान व्यवहार को उचित मानते हैं। उत्तम कुल, श्रेष्ठ शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक सम्पदा तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठा के कारण भी असमानता का व्यवहार उचित ही माना जाता है।
प्रश्न 10.
डॉ. आम्बेडकर ने ‘दासता’ किसे बताया है? समझाइए।
उत्तर :
डॉ. आम्बेडकर के अनुसार जब अपना व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता न हो, तो उसका अर्थ ‘दासता’ मानना चाहिए। क्योंकि दासता का आशय केवल कानूनी पराधीनता के अन्तर्गत ही नहीं माना जाता, अपितु जिसमें कुछ व्यक्तियों को अपनी क्षमता एवं रुचि के विरुद्ध पेशा अपनाने को विवश होना पड़ता है। ऐसी विवशता को भी दासता कहा गया है।
प्रश्न 11.
“समाज के आर्थिक विकास में जाति-प्रथा हानिकारक है।” इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
अथवा
“आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है।” क्या आप इस दृष्टिकोण से सहमत हैं? अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
समाज के आर्थिक विकास के लिए मानव-श्रम का उचित नियोजन परमावश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम सभी मनुष्यों को उनकी रुचि, क्षमता और उपयोगिता के अनुसार पेशा अपनाने की छूट मिलनी चाहिए। साथ ही रोजगार के समान अवसर मिलने चाहिए, क्योंकि जाति-प्रथा में वंशानुगत पेशा अपनाने की विवशता से व्यक्ति की क्षमता का उपयोग नहीं होता है।
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प्रश्न 12.
डॉ. भीमराव आम्बेडकर जातिप्रथा के अन्तर्गत किस विडम्बना की बात करते हैं?
उत्तर :
डॉ. आम्बेडकर विडम्बना की बात कहते हुए बताते हैं कि आधुनिक युग में भी जातिवाद पोषकों की कमी नहीं है। जिसका स्वरूप जातिप्रथा, श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप है जो श्रम विभाजन के साथ स्वतः ही स्वाभाविक रूप से हो जाता है और यही विडम्बना है।
प्रश्न 13.
श्रम विभाजन के पोषक श्रमिक विभाजन के पक्ष में क्या तर्क देते हैं?
उत्तर :
जातिवाद के पोषकों का मानना है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिए श्रम विभाजन आवश्यक मानता है और जातिप्रथा, श्रम विभाजन का ही रूप है इसलिए श्रमिक विभाजन का स्वतः ही तय हो जाने में कोई बुराई नहीं है।
प्रश्न 14.
जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों पर डॉ. आम्बेडकर साहब की प्रमुख आपत्तियाँ क्या हैं?
उत्तर :
जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्क पर डॉ. आम्बेडकर की प्रमुख आपत्तियाँ ये हैं कि जातिप्रथा ने श्रम विभाजन का रूप ले लिया है और किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन व्यवस्था श्रमिकों के विभिन्न पहलुओं में अस्वाभाविक रूप से विभाजन नहीं करती है।
प्रश्न 15.
जातिप्रथा, भारतीय समाज में श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप क्यों नहीं कही जा सकती है?
उत्तर :
भारतीय समाज में जातिप्रथा के आधार पर श्रम विभाजन और श्रमिक विभाजन अस्वाभाविक है। क्योंकि जातिगत श्रम विभाजन श्रमिकों की रुचि अथवा कार्यकुशलता के आधार पर नहीं होता, बल्कि माता के गर्भ में ही श्रम विभाजन कर दिया जाता है। जो विवशता एवं अरुचिपूर्ण होने के कारण गरीबी और बेरोजगारी को बढ़ाता है।
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प्रश्न 16.
डॉ. आम्बेडकर ने किन पक्षों में जातिप्रथा को एक हानिकारक प्रथा के रूप में माना है?
उत्तर :
डॉ. आम्बेडकर ने अस्वाभाविक श्रम विभाजन, बढ़ती बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी, अरुचि और विवशता, श्रम का चुनाव, गतिशील और आदर्श समाज तथा वास्तविक लोकतंत्र के स्वरूप में प्रभावित करने वाली जातिप्रथा को हानिकारक प्रथा के रूप में माना है।
प्रश्न 17.
जातिप्रथा का दूषित सिद्धान्त क्या है?
उत्तर :
यही कि यह मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किये बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही त गर्भधारण के समय से है कर देती है।
प्रश्न 18.
कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर :
सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमताओं को विकसित करें, जिससे कि वे अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सकें। उनके साथ असमान व्यवहार न करें तथा समान अवसर उपलब्ध करवाएँ।
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प्रश्न 19.
जातिप्रथा को किस प्रकार की स्वतंत्रता पर आपत्ति नहीं है?
उत्तर :
गमनागमन की स्वतंत्रता अर्थात् आने-जाने की स्वतत्रता, शारीरिक सुरक्षा की स्वतंत्रता, सम्पत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता, जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक औजार एवं सामग्री रखने के अधिकार की स्वतंत्रता पर जातिप्रथा को कोई आपत्ति नहीं है।
निबन्धात्मक प्रश्न –
प्रश्न 1.
सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए किन विशेषताओं का होना आवश्यक है? पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए समाज में बहुविध प्रकार के हित एवं कल्याणकारी कार्यों में सबका भाग होना चाहिए तथा सभी को मिलजुलकर उन हितों की रक्षा के प्रति सजग और सतर्क होना चाहिए। सामाजिक जीवन में निर्बाध रूप से मेलजोल बनाये रखने के सम्पर्क साधनों व अवसरों की उपलब्धता बनी रहनी चाहिए। मेल-जोल या भाई-चारा इस प्रकार होना चाहिए जैसे दूध और पानी का मिश्रण, जो आपस में मिलते ही समरूप हो जाता है।
सभी के मध्य श्रद्धा व सम्मान का भाव होना चाहिए। विश्वास और आस्था की अखंड निधि होनी चाहिए। ऊँच-नीच व असमता का भाव दूर-दूर तक किसी की सोच में भी नहीं होना चाहिए। समता, भातृता एवं स्वतंत्रता तीनी तत्त्वों का अद्भुत समन्वय लोकतंत्र की नींव होनी चाहिए। क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन या पद्धति नहीं है वरन् लोकतंत्र सामूहिक दिनचर्या की एक रीति और समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है।
प्रश्न 2.
समता से तात्पर्य एवं इसके तत्त्वों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
फ्रांसिसी क्रांति के नारे में ‘समता’ शब्द विवाद का विषय रहा है। कहा जाता है कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते हैं। लेकिन यह एक तथ्य होते हुए भी विशेष महत्त्व नहीं रखता है, क्योंकि शाब्दिक अर्थ में ‘समता’ असंभव होते हुए भी एक नियामक सिद्धान्त है।
इसके तीन तत्त्व प्रमुख हैं –
- शारीरिक वंश परम्परा
- सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात् सामाजिक परम्परा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि।
- मनुष्य के अपने प्रयत्न।
इन तीनों दृष्टियों का विवेचन करें तो अवश्य ही सभी मनुष्य समान नहीं होते हैं लेकिन सामूहिक रूप से इनका वर्गीकरण या श्रेणीकरण संभव नहीं होता है तो सामूहिक हित की दृष्टि से व्यवहार्य सिद्धान्त का प्रयोग करते हुए इसे . मानना सबके लिए मानवीय एवं उचित है।
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प्रश्न 3.
श्रम विभाजन और श्रमिक विभाजन में अंतर स्पष्ट कीजिए। …
उत्तर :
श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है। जातिप्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाये तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है। श्रम विभाजन में क्षमता और कार्यकुशलता के आधार पर काम का बँटवारा होता है जबकि श्रमिक विभाजन में लोगों को जन्म के आधार पर बाँटकर पैतृक पेशे को अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है।
श्रम-विभाजन में व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार व्यवसाय का चयन करता है। श्रमिक-विभाजन में व्यवसाय का चयन तो दूर की बात है, व्यवसाय परिवर्तन की भी अनुमति नहीं होती है। जिससे समाज में ऊँच-नीच, भेदभाव, असमानता का भाव पैदा होता है। यह अस्वाभाविक विभाजन है। इससे गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।
प्रश्न 4.
जातिप्रथा किस प्रकार मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्म-शक्ति को दबाकर निष्क्रिय बना देती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जातिप्रथा के अंतर्गत व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का कोई स्थान या महत्त्व नहीं रहता है। बहुत-से लोग ‘निर्धारित कार्य को ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति में हीनभावना से ग्रस्त होकर टाल काम करने तथा कम काम करने की प्रवत्ति बनी रहती है। क्योंकि इस स्थिति में काम करने वालों का न तो दिल लगता है और न ही दिमाग तथा कुशलता प्राप्त करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। आज के उद्योग-धंधों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी जातिप्रथा द्वारा जबरन थोपे गए कार्यों को करने की विवशता है। अतः यह बात सिद्ध हो जाती है कि जातिप्रथा मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि एवं आत्म-शक्ति को दबाकर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।
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प्रश्न 5.
आधुनिक युग में किस प्रकार जातिप्रथा व्यक्ति के क्रमिक विकास को अवरुद्ध करती है? विस्तार से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जातिप्रथा मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण भूखों मरने की स्थिति बन जाए। आधुनिक युग में इस प्रकार की स्थिति प्रायः आती ही रहती है। उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अचानक परिवर्तन की स्थिति आने पर मनुष्य को अपना पेशा बदलने की जरूरत पड़ जाती है। किन्तु हिन्दू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को पेशा चुनने की स्वतंत्रता नहीं देती है। इस प्रकार प्रतिकूल परिस्थितियों में मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं हो तो उसका विकास रुक जाता है। इस प्रकार परिस्थितियों एवं विकास को दरकिनार करके जातिप्रथा समाज के विकास में अवरोध उत्पन्न करती है।
प्रश्न 6.
डॉ. भीमराव आम्बेडकर का ‘समता का औचित्य’ या व्यवहार्य सिद्धान्त’ से क्या अभिप्राय है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘समता का औचित्य’ और ‘व्यवहार्य सिद्धान्त’ दोनों एक ही बात रखते हैं कि सभी मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाये। समानता का उचित व्यवहार को ही ‘व्यवहार्य सिद्धान्त’ के नाम से जाना जाता है। इसका उदाहरण जैसे एक राजनीतिज्ञ का सामना बहुत बड़ी जनसंख्या से होता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय राजनीतिज्ञ के पास न तो समय होता है, न ही प्रत्येक विषय में जानकारी होती है।
जिससे कि वह अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर जरूरी व्यवहार अलग-अलग रूप से कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर व्यवहार कितना भी आवश्यक क्यों न हो, मानवता के दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों में बाँटा नहीं जा सकता है। ऐसी स्थिति में राजनीतिज्ञ ‘व्यवहार्य सिद्धान्त’ का व्यवहार प्रयोग में लेते हैं। यह व्यवहार इसलिए काम में लिया जाता है कि सभी लोग समान हैं और इनका कोई वर्गीकरण या श्रेणीकरण संभव नहीं है।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न –
प्रश्न 1.
डॉ. भीमराव आम्बेडकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानव मुक्ति के पुरोधा बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रेल, सन् 1891 को मध्यप्रदेश में हुआ। प्राथमिक शिक्षा के बाद बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर, उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने हेतु विदेश गए। ‘द कास्ट्स इन इंडिया’, ‘देयर मैकेनिज्म’.’बद्धा एंड हिज धम्मा’, ‘द राइज एंड फॉल’.’द हिन्द वीमैन’ एनीहिलेशन ऑफ कम्यूनिकेशन’ आदि प्रमुख. रचनाएँ हैं।
मूक नायक, बहिष्कृत भारत, जनता (पत्रिका सम्पादन)। भारतीय संविधान के निर्माताओं में से एक आम्बेडकर आधुनिक भारतीय चिंतन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अधिकारी हैं। जातिवादी उत्पीड़न के कारण हिन्दू समाज से मोहभंग होने के बाद बुद्ध के समतावादी दर्शन से प्रभावित होकर वे बौद्ध मतानुयायी बन गए।