(क) भरत-राम का प्रेम (ख) पद

तुलसीदास

सप्रसंग व्याख्या

(क) भरत-राम का प्रेम

  1. पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।। कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा। मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।। मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।। सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।। मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेंहु खेल जितावहिं मोंही।। महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन। दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) के ‘भरत-राम का प्रेम’ शीर्षक पद से लिया गया है। यह पद ‘रामचरितमानस’ के ‘अयोध्या-कांड’ में संकलित है।

प्रसंग अयोध्या के राजा दशरथ राम को राजा बनाना चाहते थे, किंतु कैकयी को दिए अपने ‘वर’ के कारण उन्हें राम को चौदह वर्षों के लिए वन भेजना पड़ा। पिता की आज्ञा से राम का वन गमन हुआ। राम के वन गमन के समय भरत अपने ननिहाल में थे। अयोध्या आने के बाद अपने पीछे हुई घटनाएँ जानकर भरत अत्यधिक दुखी हुए। उन्होंने राम के वन जाने को अपना दुर्भाग्य माना। इस पद में भरत के दुख को चित्रित किया गया है।

व्याख्या भरत राम के वन गमन से उद्विग्न हैं। वे राजसभा में खड़े हो जाते हैं। उनके कमलरूपी आँखों में जल की बाढ़ आ जाती है। राम के प्रति उनका प्रेम तथा श्रद्धा का भाव उन्हें रोमांचित कर रहा है। भरत कहते हैं कि मैं अपने भाई के स्वभाव को अच्छी तरह जानता हूँ। वे अपराध करने वाले पर भी क्रोध नहीं करते। मेरे ऊपर हमेशा उनकी कृपा बनी रही तथा मुझ पर उनका विशेष स्नेह ही रहा। बचपन में खेलते समय उन्हें कभी भी गुस्सा होते नहीं देखा। उन्होंने कभी भी मुझे अपने से अलग नहीं किया। खेल में जीतने के बाद भी हारने का स्वाँग करते तथा मेरे मन को ऊँचा रखने का प्रयास करते। मैं अपने प्रभु श्रीराम की आदर्श परंपरा को जानता हूँ।

भरत कहते हैं कि मैं अपने बड़े भाई श्रीराम का अत्यधिक सम्मान करता हूँ, पर कभी सामने नहीं कह सका। ऐसा संकोचवश हुआ है। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए हैं। अर्थात् ये आज भी प्यासे हैं।

शब्दार्थ ठाढ़े खड़े होना; कोह क्रोध; खुनिस अप्रसन्नता। बयन वचन; बिसेखी विशेष

काव्य-सौंदर्य

  1. बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।। यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।। मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।। फरह कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली।। सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।। बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।। हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा।। गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।। साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ। प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।

संदर्भ यह काव्यांश गोस्वामी तुलसीदास की रचना ‘रामचरितमानस’ के ‘अयोध्या-कांड’ से है। पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में ‘भरत-राम का प्रेम’ शीर्षक पद से यह काव्यांश लिया गया है।

प्रसंग इस काव्यांश में भरत राम के वन गमन को अपने दुर्भाग्य से जोड़ते हैं। यहाँ भरत के हृदय की व्यथा को कवि ने शब्दों में ढाला है।

व्याख्या भरत राम के वन जाने से व्यथित हैं। वे राम वन-गमन का कारण अपनी माता का व्यवहार मानते हुए लज्जित भी हैं। भरत कहते हैं कि अपने प्रिय बड़े भाई का स्नेह उन्हें मिल ही रहा था कि भाग्य ने यह खेल किया, जिसमें मेरी माता का दोष भी है। यह कहते हुए दुख होता है कि मेरी माता के इस स्वार्थ परक कार्य ने मेरे प्रभु श्रीराम और मेरे बीच यह भेद किया। वैसे मेरा यह कहना भी शोभा नहीं देता कि मैं दोषी नहीं हूँ। कोई भी अपनी समझ से सज्जन नहीं हो जाता। मनुष्य सज्जन तभी होता है, जब दूसरे उसे वैसा समझते हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि मेरी माता नीच है और मैं सदाचारी। मन में ऐसा भाव लाना ही करोड़ों दुराचारों के समान है। क्या कोदो के बीज से धान की फसल सम्भव है ? और घोंघा के शरीर में काली मिट्टी से मोती का बनना संभव नहीं है। सपने में भी कोई मुझे निर्दोष नहीं मान सकता। मेरा दुर्भाग्य अथाह सागर की तरह है।

भरत कहते हैं कि मैंने अपने पाप का परिणाम जाने बिना ही माता के प्रति कटु वचन कहे। मैंने देख लिया कि मेरी भलाई का कोई कारण सामने नहीं है। अब गुरु वशिष्ठ और प्रभु श्रीराम ही मुझे मेरी भलाई का मार्ग बता सकते हैं।

भरत कहते हैं कि साधुओं की इस सभा में मैंने जो बातें कही हैं, वह झूठ है या सच, इसे बताने में गुरु वशिष्ठ तथा श्रीराम ही समर्थ हैं।

शब्दार्थ सुचि शुद्ध; कोदव कोदो सुसाली धान; मुकुता मोती; संबुक घोंघा

काव्य-सौंदर्य

  1. भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।

देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं।

महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।।

सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।

बिन पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ ऐहि घाएँ।।

बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।

अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।

जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तापस तीछी।।

तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।

तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित ‘भरत-राम का प्रेम’ शीर्षक कविता से लिया गया है। यह तुलसीदास की महाकाव्यात्मक रचना ‘रामचरितमानस’ के अयोध्या कांड में संकलित है।

प्रसंग भरत राम के वन गमन से व्यथित हैं तथा अपनी व्यथा का कारण अपनी माता को मानते हैं। कवि ने भरत की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है।

व्याख्या भरत राम से अनुनय करते हुए कहते हैं कि प्रेम के प्रण का निर्वाह करते हुए अयोध्या के राजा दशरथ का मरना तथा माता कैकयी की कुबुद्धि, दोनों का संसार साक्षी है। माताओं की व्यग्रता देखी नहीं जाती। अयोध्या के लोगों में शोक की लहर है। शोक के ताप से वे जल रहे हैं। इन सब अनर्थों का कारण मैं हूँ। यह बात मुझे दुखी कर रही है। प्रभु श्रीराम, सीता और लक्ष्मण राजसी वेश को त्यागकर वनवासी हो गए, वे नंगे पैर पैदल ही चले गए। इसके साक्षी भगवान शंकर हैं। इस हृदय विदारक समाचार को सुनकर मेरे प्राण क्यों नहीं निकल गए। निषादराज का प्रेम देखकर भी इस कठोर हृदय को फट जाना चाहिए। मैं यह सब देखने के लिए ही मैं जीवित हूँ। मैं अब उन्हें जाकर देखना चाहता हूँ जो जड़ और चेतन सभी के सहायक हैं। उन्हें देखकर तो मार्ग में आने वाले साँप और बिच्छू तक अपने भयंकर विष को त्याग देते हैं।

भरत कहते हैं कि जिसे श्रीराम, लक्ष्मण और सीता ही शत्रु जान पड़े, उस कैकयी के पुत्र को छोड़कर भाग्य का असहनीय दुख और कहाँ जाएगा अर्थात् ऐसे ही दुर्भाग्यशाली को असीम दुख प्राप्त होता है।

शब्दार्थ अघ पाप; नीक ठीक; कुलिस वज्र; तनय पुत्र; बीछी बिच्छू

काव्य-सौंदर्य

(ख) पद

  1. जननी निरखति बान धनुहियाँ।

बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ।।

कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।

“उठहु तात ! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे”।।

कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँ, भैया।

बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया”

कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।

तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी।।

संदर्भ प्रस्तुत पद पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित है। यह गोस्वामी तुलसीदास की रचना ‘गीतावली’ से लिया गया है।

प्रसंग इस काव्यांश में राम के वन चले जाने के बाद कौशल्या की स्थिति का चित्र सामने आया है। उनके पुत्र-प्रेम से उत्पन्न ‘भ्रम’ को कवि ने शब्दों में ढाला है।

व्याख्या राम वन को जा चुके हैं, किंतु माता कौशल्या वात्सल्य वियोग की उस परम स्थिति में पहुँच चुकी हैं, जहाँ उन्हें यह भान ही नहीं होता कि उनका पुत्र उनके समक्ष नहीं है। वह राम के धनुष तथा बाणों को बार-बार देखती हैं। उनके सुंदर तथा छोटे-छोटे जूतों को बार-बार हृदय तथा आँखों से लगाती हैं। प्रातःकाल माता कौशल्या राम के शयन कक्ष में जाती हैं तथा उन्हें जगाती हुई कहती हैं कि हैं पुत्र, तुम्हारे छोटे भाई तुम्हारे जगने की प्रतीक्षा द्वार पर कर रहे हैं। कभी कहती हैं कि राम जल्दी उठो, बहुत देर हो गई, तुम्हारे पिता खाने को बुला रहे हैं।

माता कौशल्या अपने पुत्र के रूप पर न्यौछावर हो रही हैं। दूसरे ही क्षण माता कौशल्या का भ्रम दूर होता है और वह चित्र की तरह स्थिर हो जाती हैं।

कवि कहता है कि हृदय की वेदना के कारण माता कौशल्या का यह वियोग-वर्णन संभव नहीं हो रहा। उनकी व्यग्रता हृदय में टीस पैदा कर रही है।

शब्दार्थ पनहियाँ = जूते; बार = देरी; जेंइय = भोजन करना; सवारे = सवेरे; चित्रलिखी-सी चित्र के समान स्थिर

काव्य-सौंदर्य

  1. राघौ ! एक बार फिरि आवौ।

ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ।।

जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे।

क्यों जीवहि, मेरे राम लाडिले! ते अब निपट बिसारे।।

भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।

तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे।।

सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु संदेसो।

तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो।।

संदर्भ प्रस्तुत पद पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित है। यह कवि तुलसीदास की रचना ‘गीतावली’ से लिया गया है।

प्रसंग राम के वन जाने से उनके घोड़ों की पीड़ा को देखते हुए माता कौशल्या राम को पुनः अयोध्या लौट आने को कहती हैं।

व्याख्या माता कौशल्या राम के वन जाने से दुखी उनके घोड़ों की स्थिति को देख कर कहती हैं कि हे राम! तुम पुनः अयोध्या लौट आओ। ये सुंदर घोड़े, जिन्होंने आपको वन पहुँचाया था, बहुत दुखी हैं। ये वही घोड़े हैं जो तुम्हारे कमलरूपी हाथों के स्पर्श से प्रसन्न रहा करते थे। कौशल्या कहती हैं कि हे पुत्र! तुमने जिन्हें भुला दिया है, वह कैसे जीवित रह सकता है। यद्यपि भरत उन्हें तुम्हारा प्रिय जानकर उन घोड़ों की सेवा सौ गुना अधिक करता है, लेकिन घोड़े दिन-प्रतिदिन दुख के कारण मलिन होते जा रहे हैं। इनको देखकर ऐसा लगता है, मानो पाले के कारण कमल मृतप्राय हो गए हों अर्थात् जिस प्रकार पाले के प्रहार से कमल कुम्हला जाते हैं उसी प्रकार ये सुंदर घोड़े तुम्हारे वियोग में काले पड़ रहे हैं।

वन की ओर जाते पथिक को संबोधित करती माता कौशल्या कहती हैं कि हे पथिक! यदि तुम्हें वन में राम कहीं मिल जाएँ, तो उन्हें इस दुखी माता का संदेश कहना तथा उन्हें सुना देना कि पारिवारिक जनों की अपेक्षा तुम्हारे वन जाने का सबसे अधिक दुख, तुम्हारे घोड़ों को है।

शब्दार्थ बाजि घोड़ा; पोखि सहलाना; निपट = बिलकुल; सार = ध्यान; झाँवरे = मलिन होना; उदधि = सागर; गवनु जाना

काव्य-सौंदर्य

प्रश्न-अभ्यास

भरत-राम का प्रेम

  1. ‘हारेंहु खेल जितावहिं मोही’ भरत के इस कथन का क्या आशय है?

उत्तर भरत राम के स्वभाव से परिचित हैं। राम अपने भाइयों के प्रति वात्सल्य मान रखते हैं। उन्हें अपने छोटे भाइयों से असीम स्नेह है। भरत के प्रति उनका स्नेह अद्वितीय है। इसका कारण भरत के स्वभाव तथा चरित्र की उदात्तता भी है। राम अपने भाइयों के साथ खेलते हुए, हमेशा अपने भाइयों का मन रखने का प्रयास करते हैं। वे खेल में जीतने पर भी हारने का नाटक करते हैं। अपने भाइयों के प्रति इस स्नेह के कारण ही छोटे भाइयों में राम के प्रति अत्यधिक श्रद्धा भाव रहा है।

  1. ‘मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ’ में राम के स्वभाव की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है?

उत्तर भरत राम के स्वभाव की विशेषताओं को जानता है। वह कहता है कि राम अपराध करने वालों पर भी क्रोधित नहीं होते बल्कि उन्हें सुधरने का मौका देते हैं। राम खेल में कभी अप्रसन्न नहीं होते थे। भरत का मानना है कि मेरे प्रति उनका

कुछ विशेष स्नेह रहा है। बचपन में खेलते समय जीतने पर भी राम हारने का स्वाँग करते थे। वे वास्तव में जीत कर भरत का मन छोटा नहीं करना चाहते थे। राम ने कभी भी भरत का साथ नहीं छोड़ा। भरत राम के वन जाने पर दुखी हैं तथा सभा में यह बता रहे हैं कि मैं राम के उदात्त स्वभाव से परिचित हूँ।

3. भरत का आत्म परिताप उनके चरित्र के किस उज्ज्वल पक्ष की ओर संकेत करता है?

उत्तर भरत राम के प्रति अगाध श्रद्धा से भरे हुए थे। उन्हें अयोध्या के राज्य का लेशमात्र भी लोभ नहीं था। कैकयी तथा मंथरा की साजिश के सफल होने पर राम को वन जाना पड़ा। राम का वन जाना भरत के लिए अथाह दुख का कारण बना है। भरत राज्य सत्ता को त्याग कर पुनः राम को अयोध्या का राजमुकुट देना चाहते हैं। अपने बड़े भाई के स्नेह तथा उनकी विपत्ति को याद कर भरत आँसू बहाते हैं। राम के दर्शन की आकांक्षा भरत के मन में है। अपनी माता के ओछे कर्म पर ग्लानि महसूस करने वाले भरत का आत्म-परिताप उसके चरित्र के उज्ज्वल पक्ष की ओर संकेत करता है।

4. राम के प्रति अपने श्रद्धाभाव को भरत किस प्रकार प्रकट करते हैं? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर राम के प्रति भरत का श्रद्धाभाव अद्वितीय है। सभा में रोमांचित भरत के नेत्र अश्रु की धारा से पूरित हैं। भरत भरे नेत्र तथा रुंधे गले से सभा में बैठे लोगों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि मैं अपने स्वामी श्रीराम के स्वभाव को जानता हूँ। वे अपराधियों को भी सुधरने का मौका देते हैं। राम का मेरे प्रति विशेष स्नेह रहा है। बचपन में खेलते समय कभी उन्होंने मेरा साथ नहीं छोड़ा। खेल में जीतने के बाद भी मेरा मन रखने के लिए स्वयं को पराजित मान लेते थे।

भरत राम के स्वभाव के कारण उनके प्रति श्रद्धा का भाव रखते हैं।

  1. ‘महीं सकल अनरथ कर मूला’ पंक्ति द्वारा भरत के विचारों-भावों का स्पष्टीकरण कीजिए।

उत्तर भरत राम के वन गमन, माताओं की व्यग्रता, पिता के निधन तथा अयोध्या के नर-नारियों के ताप तथा शोक का दोषी स्वयं को मानते हैं। उन्हें लगता है कि कैकयी जैसी माता का पुत्र होने के कारण ही उन्हें भाग्य का कोप-भाजन बनना पड़ा है। भरत मानते हैं कि समस्त परिस्थितियों के लिए अंततः दोषी वही हैं।

यदि उनकी माता कैकयी भरत के लिए राज सत्ता तथा राम को वन भेजने का वचन राजा दशरथ से नहीं लेतीं तो यह स्थिथि नहीं आती। भरत समस्त दुखों का कारण अपने आप को मानते हैं। यह भरत का अपने जीवन की निरर्थकता के प्रति विलाप है।

  1. ‘फरै कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।’ पंक्ति में छिपे भाव और शिल्प सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर इस पंक्ति के माध्यम से कवि यह स्पष्ट करना चाहता है कि जिस प्रकार से कोदों से धान की अच्छी फसल की आशा नहीं की जा सकती और काली घोंघी में मोती जन्म नहीं ले सकता, उसी प्रकार से बुरे विचारों वाली स्त्री की संतान भी अच्छी नहीं हो सकती है। इस प्रकार भरत स्वयं को कैकेयी की बुरी संतान बताकर आत्म-परिताप करते हैं। भाषा अवधी एवं चौपाई छंद है।

  1. राम के वन-गमन के बाद उनकी वस्तुओं को देखकर माँ कौशल्या कैसा अनुभव करती हैं? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।

उत्तर राम के वन जाने पर माँ कौशल्या वात्सल्य-वियोग की र्थिति में हैं। माता कौशल्या राम के बचपन के धनुष-बाण तथा जूतों को बार-बार स्पर्श करती हैं। वह उन्हें अपने हृदय तथा नेत्रों से लगा रही हैं। इन वस्तुओं को देखने तथा स्पर्श करने से माता कौशल्या को ऐसा आभास होता है कि उनका पुत्र राम उनके आस-पास है। माता कौशल्या राम के शयन कक्ष में आती हैं तथा उन्हें जगाती हुई कहती हैं कि हे पुत्र! जग जाओ, तुम्हारे छोटे भाई द्वार पर तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। माता कौशल्या का विरह अतुलनीय है।

2. ‘रहि चकि चित्रलिखी सी’ पंक्ति का मर्म अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर माता कौशल्या राम के वन जाने के बाद भी यह स्वीकार नहीं कर पातीं कि उनका प्रिय पुत्र राजमहल में नहीं है। वे पूर्व की भाँति उन्हें जगाने के लिए शयन कक्ष में जाती हैं। माता कौशल्या कहती हैं कि हे पुत्र! जागने का समय हो गया है तथा तुम्हारे छोटे भाई द्वार पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। शयन कक्ष से कोई ध्वनि नहीं सुनकर माता कौशल्या का भ्रम टूट जाता है और वह चित्र की भाँति स्थिर हो जाती हैं। उनकी स्थिरता से ऐसा आभास होता है जैसे कोई चित्र दीवार पर टंगा हो। ऐसी स्थिति असीम वेदना तथा वात्सल्य-वियोग के कारण सामने आती है।

  1. गीतावली से संकलित पद ‘राघौ एक बार फिरि आवौ’ में निहित करुणा और संदेश को अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर माता कौशल्या वात्सल्य-वियोग की चरम स्थिति में हैं। वह राम के वन गमन से व्यग्रता का अनुभव कर रही हैं। उनका मन राम के घोड़ों की ओर जाता है।


वह वन की ओर जाने वाले पथिक से कहती हैं कि यदि तुम्हें वन में राम मिलें तो उनसे कहना कि उनके प्रिय घोड़े मलिन पड़ते जा रहे हैं। वैसे तो भरत उन घोड़ों का अत्यधिक ध्यान रखते हैं किंतु घोड़ों का वियोग पारिवारिक जनों तथा अयोध्यावासियों से भी अधिक तीव्र है।

माता कौशल्या राम को उन घोड़ों के लिए पुनः अयोध्या लौट आने को कहती हैं। वह उन घोड़ों के दुख से व्याकुल हैं।

  1. (क) उपमा अलंकार के दो उदाहरण छाँटिए।

(ख) उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग कहाँ और क्यों किया गया है? उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए।

उत्तर (क) उपमा अलंकार

(ख) ‘तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे, मनहु कमन हिम मारे’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है, क्योंकि यहाँ घोड़ों के दुर्बल होने में कमल पर पाला गिरने की संभावना व्यक्त की गई है।

  1. पठित पदों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि तुलसीदास का भाषा पर पूरा अधिकार था।

उत्तर भक्तिकाल में तुलसीदास ऐसे कवि हैं जिनका भाषा पर पूरा अधिकार है। उन्होंने अवधी तथा ब्रजभाषा में रचनाएँ की हैं। हिंदी की सर्वश्रेष्ठ रचना ‘रामचरितमानस’ अवधी में रचित है, किंतु इसमें विभिन्न भाषाओं के शब्दों को स्थान दिया गया है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का अर्द्ध तत्सम रूप उनकी कविता की काव्य-भाषा को नया आयाम देती है। ‘गीतावली’ जैसी रचनाएँ साहित्यिक ब्रजभाषा में रचित हैं। तुलसी की भाषा साहित्यिक, परिनिष्ठित तथा परिमार्जित है। भाव, प्रवृत्तियाँ तथा चेतनाओं के अनुरूप शब्दों का प्रयोग करने के कारण तुलसी की भाषा महत्त्वपूर्ण है।

  1. पाठ के किन्हीं चार स्थानों पर अनुप्रास के स्वाभाविक एवं सहज प्रयोग हुए हैं, उन्हें छाँटकर लिखिए।

उत्तर – ए बर बाजि बिलोकि आपने।

योग्यता विस्तार

  1. ‘महानता लाभलोभ से मुक्ति तथा समर्पण त्याग से हासिल होता है’ को केंद्र में रखकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।

उत्तर यह कथन सत्य है कि महानता लाभलोभ से मुक्ति तथा समर्पण त्याग से हासिल होता है। क्योंकि जब कैकेयी ने दशरथ जी से अपने पुत्र भरत के लिए राजगद्दी और राम को चौदह वर्ष का वनवास वरदान स्वरूप माँगा था, तब सभी अयोध्यावासी कैकेयी के साथ-साथ भरत को भी लोभी, स्वार्थी और कैकेयी के षड्यंत्र में सहायक कहकर उनकी भर्त्सना कर रहे थे। परंतु जब भरत ने अपनी ननिहाल से लौटकर कैकेयी को भला-बुरा कहा और कैकेयी के इस दुष्कृत्य के लिए स्वयं उनका पुत्र होने से भी अस्वीकार कर दिया और अयोध्या के राज-पाट पर श्रीराम का अधिकार कह स्वयं उन्हें लेने वन चले गए। परंतु जब श्रीराम ने अयोध्या वापिस चलने से मना कर दिया, तब वे राजसी सुविधाओं को त्यागकर नंदी ग्राम में ही रहने लगते हैं और तपस्वी का जीवन व्यतीत करते हैं। तब अयोध्यावासी उनको महान् कहकर उनकी प्रशंसा करते हैं। इस प्रकार, महानता उन्हें राज्य के लोभ से मुक्त होने पर तथा समर्पण राजसी सुख-सुविधाओं के त्याग से ही प्राप्त होता है।

  1. भरत के त्याग और समर्पण के अन्य प्रसंगों को भी जानिए।

उत्तर – भरत ने अयोध्या के राजा बनने को अस्वीकार कर दिया।

  1. आज के संदर्भ में राम और भरत जैसा भातृप्रेम क्या संभव है? अपनी राय लिखिए।

उत्तर आज का युग पूरी तरह से भौतिकता पर आधारित है। निजी स्वार्थ, आरामपरस्त जीवन शैली और सुख-सुविधाओं का मनुष्य इतना अभ्यस्त हो गया है कि आज जीवन मूल्यों का उसके जीवन में स्थान नहीं रह गया है। त्याग, तपस्या, समर्पण, सहानुभूति आदि गुण लुप्त हो गए हैं। ऐसे में राम और भरत जैसे भातृप्रेम की कल्पना करना व्यर्थ है क्योंकि आज संबंधों का अवमूल्यन हो गया है। आज माता और पुत्र, पिता-पुत्र और भाई-भाई जैसे संबंध केवल पुस्तकों की शोभा तो बढ़ाते है पर व्यावहारिकता के धरातल पर उनमें अब कुछ नहीं बचा है। सब स्वार्थ के वशीभूत होकर इन रिश्तों का खून कर देने में संकोच नहीं करते। इसलिए मेरी राय में वर्तमान युग में राम और भरत जैसा भातृप्रेम नितांत असंभव और काल्पनिक है।

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