वेदामृतम् Summary and Translation in Hindi

मन्त्रों का अन्वय, सप्रसङ्ग हिन्दी-अनुवाद/व्याख्या एवं सप्रसङ्ग संस्कृत व्याख्या –

1. सङ्गच्छध्वं सं वदध्वं …………………….. सञ्जानाना उपासते ॥1॥ 

अन्वयः – (यूयं) सम् गच्छध्वम्, सम् वदध्वम्, वः मनांसि सम् जानताम्। यथा पूर्वे देवाः सञ्जानानाः भागम् उपासते ॥1॥ 

कठिन-शब्दार्थ :

प्रसंग-प्रस्तुत मंत्र हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती’ के ‘वेदामृतम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह मंत्र ऋग्वेद के दसवें मण्डल के संज्ञान सूक्त का दूसरा मंत्र है। इसमें ऋषि संवनन ने देवताओं को दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत करके सभी सांसारिक प्राणियों को एकमत होने का आह्वान किया है –

हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – हे स्तोताओ ! जैसे प्राचीन काल में देवता लोग एकमत होते हुये अपने-अपने हवि के भाग को ग्रहण करते रहे हैं। (वैसे ही) तुम सब साथ-साथ मिलकर चलो, साथ-साथ मिलकर बोलो अर्थात् तुम सब लोगों की वाणी एक जैसी हो, कथनों में परस्पर विरोध न हो। तुम्हारे मन समान रूप से वस्तुस्थिति को समझें। 

सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या – 

प्रसङ्गः – अयं मन्त्रः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शाश्वती’ इत्यस्य पद्यभागस्य ‘वेदामृतम्’ इतिशीर्षकपाठाद् उद्धृतः। मूलत: मन्त्रोऽयं ऋग्वेदस्य संज्ञानसूक्तात् संकलितः। अस्मिन् मंत्रे संवनन ऋषिः देवान् दृष्टान्त रूपे प्रस्तुतं कृत्वा सर्वान् सांसारिक प्राणिनः ऐकमत्यं भवितुं प्रेरयामास-

संस्कृत-व्याख्या – 

व्याकरणात्मक टिप्पणी – 

  1. प्रस्तुत मंत्रे ऋषिणा प्रदत्तं उपदेशः सार्वदेशिकं सार्वकालिकं चास्ति। 
  2. अस्मिन् मंत्रे अनुष्टप् छन्द वर्तते। 
  3. वो मनांस-वः + मनांसि (विसर्ग, उत्व)। सञ्जानानाः-सम् + जानाना (अनुनासिक) सम् + ज्ञा धातु + शानच् प्रत्यय, प्र. पु., एकवचन)। 

2. समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। 
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥2॥ 

अन्वयः – वः आकूतिः समानी, वः हृदयानि समाना, वः मनः समानमस्तु। यथा वः सुसह असति ॥2॥ 

कठिन-शब्दार्थ : 

प्रसंग – ‘वेदामृतम्’ पाठ से उद्धृत यह मंत्र ऋग्वेद के संज्ञान सूक्त का अन्तिम मंत्र है। इस मंत्र में ऋषि ने स्तोताओं को समान रूप से विचार करने तथा अपने भावों को अभिव्यक्त करने का उपदेश दिया है। वह अपने सदुपदेश द्वारा सबको सुसंगठित करना चाहता है 

हिन्दी-अनुवाद/व्याख्या – आप सबका संकल्प एक जैसा हो, आपके हृदय समान हों। आप लोगों के मन समान हों जिससे आपका संगठन अच्छा हो सके, मजबूत हो सके। 

विशेष – भावात्मक एकता की दृष्टि से इस श्लोक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 

सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –

प्रसङ्ग: – अयं मन्त्रः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शाश्वती’ इत्यस्य पद्यभागस्य ‘वेदामृतम्’ इतिशीर्षकपाठाद् उद्धृतः। मूलतः मन्त्रोऽयं ऋग्वेदस्य संज्ञानसूक्तात् संकलितः। ऋषिणा अत्रापि सर्वान् सांसारिकप्राणिनः ऐकमत्यं भवितुं प्रेरयामास 

संस्कृत-व्याख्या – 

व्याकरणात्मक टिप्पणी – 

  1. भावात्मक एकतादृष्ट्या अस्य मन्त्रस्य महत्त्वपूर्ण स्थानमस्ति। 
  2. आकतिः-आ + क + क्तिन स्त्रीलिङ्ग प्रथमा एकवचनम्। वः-युष्मद शब्दस्य ‘युष्माकम्’ स्थाने प्रयुक्तः। 
  3. असति-अस् धातु लोट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन। सायण ने इसे लट् लकार का वैदिक रूप माना है। 

3. मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। 
माध्वीनः सन्त्वोषधीः ॥3॥ 

अन्वयः – ऋतायते वाताः मधु (सन्तु), सिन्धवः मधु क्षरन्ति। नः ओषधीः माध्वीः सन्तु ॥3॥ 

कठिन-शब्दार्थ : 

प्रसंग – प्रस्तुत मंत्र हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती’ के ‘वेदामृतम्’ शीर्षक पाठ से उधत है। मूलतः यह मंत्र ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 90वें सूक्त से लिया गया है। इस मंत्र में मन्त्रद्रष्टय ऋषि ने भगवान् से इस संसार में सर्वत्र माधुर्य भर देने हेतु प्रार्थना की है। 

हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – अपने लिए यज्ञ की कामना करने वाले यजमान के लिए सभी हवायें मधुरता से युक्त हो जाएँ। सभी नदियाँ अथवा समुद्र मधु (मीठे) जल को प्रवाहित करें। हमारी सभी औषधियाँ मधुरता से युक्त हो जाएँ। 

विशेष – प्रस्तुत मन्त्र के द्वारा ऋषि ने प्रकृति के सभी तत्त्वों के मानव-कल्याण करने की कामना की है। 

सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या – 

प्रसङ्गः – मन्त्रोऽयम् अस्माकं पाठ्युस्तकस्य ‘वेदामृतम्’ इति पाठात् उद्धृतः। 
मूलतः अयं मन्त्रः ऋग्वेदस्य प्रथम मण्डलात् संकलितः। 
अस्मिन् मन्त्रे आत्मकल्याणाय यज्ञकामः यजमानः परमश्वरमपेक्षते यत् अस्मभ्यं अखिलमेव मधुरं भवतु। 

संस्कृत-व्याख्या –

व्याकरणात्मक टिप्पणी –

(i) माध्वीन – माध्वीः + न (विसर्ग, रुत्व)। 
माध्वीः = मधु + अण् + डीप् (ब.व.)। 
सन्त्वोषधी: – सन्तु + ओषधीः (यण् सन्धि)। 
(ii) अस्मिन् मन्त्रे गायत्री छन्द वर्तते। 

4. यज्जाग्रतो दूर ………………………………………… शिवसड्कल्पमस्तु ॥4॥ 

अन्वयः – जाग्रतः यत् (मनः) दूरम् उदैति। तथा एव सुप्तस्य तदु दैवम् (मनः) इति। (यत्) ज्योतिषाम् दूरम् गमम् एकं ज्योतिः। मे तत् मनः शिवसंकल्पम् अस्तु ॥4॥ 

कठिन शब्दार्थ : 

प्रसंग – प्रस्तुत मंत्र हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती’ के ‘वेदामृतम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। मूल रूप से यह मंत्र यजुर्वेद के चौंतीसवें अध्याय से संकलित किया गया है। इसमें मन्त्रद्रष्टा ऋषि ने ईश्वर से प्रार्थना की है कि मन शुभ व कल्याणकारी विचारों वाला बने 

हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – जागते हुए प्राणी का जो मन दूर भाग जाता है, वैसे ही सोये हुए प्राणी की भी वही दशा होती है। परन्तु वही दिव्य विज्ञान युक्त मन जो विषयों का प्रकाशन करने वाली इन्द्रियों में सर्वाधिक दूरी तक पहुँचाने वाला एकमात्र प्रकाशक है, मेरा वह मन कल्याणकारी, शुभ विचार वाला बने। 

विशेष – यहाँ दिव्य ज्ञान से युक्त सभी प्राणियों के मन सद्विचारों से सम्पन्न होने की कामना व्यक्त की गई है। सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या 

प्रसङ्ग: – अयं मन्त्रः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शाश्वती’ इत्यस्य ‘वेदामृतम्’ इति शीर्षक पाठाद् उद्धृतः। मूलतः अयं मन्त्रः यजुर्वेदात् संकलितः। अस्मिन् मन्त्रे ऋषिः कथयति यत् तस्य मनः शिवसंकल्पयुक्तं भवतु। 

संस्कृत-व्याख्या – 

व्याकरणात्मक-टिप्पणी – 

(i) यज्जाग्रतः – यत् + जाग्रतः (श्चुत्व सन्धि)। 
सुप्तस्य – सुप् + क्त (षष्ठी एकवचन)। 
तथैवेति – तथा + एव + एति (वृद्धि सन्धि)। 
ज्योतिरेकम् – ज्योतिः + एकम् (विसर्ग, सत्व)। 
तन्मे – तत् + मे। 

(ii) अस्मिन् मन्त्रे त्रिष्टुप् छन्द वर्तते। 

5. तच्चक्षुर्देवहितः ……………………………………………… शरदः शतात्॥5॥ 

अन्वयः – देवहितं शुक्रं तत् चक्षुः पुरस्तात् उच्चरत्। शतम् शरदः पश्येम, शतम् शरदः जीवेम, शतम् शरदः शृणुयाम, शतम् शरदः प्रब्रवाम, शतम् शरदः अदीनाः स्याम, भूयः च शतात् शरदः॥5॥ 

कठिन-शब्दार्थ :

प्रसंग – ‘वेदामृतम्’ शीर्षक पाठ से लिया गया यह मंत्र मूलतः यजुर्वेद के छत्तीसवें अध्याय का चौबीसवाँ मंत्र है। प्रस्तुत मंत्र में मन्त्रद्रष्टा ऋषि ने ईश्वर से दीनता से रहित होकर सौ वर्षों से अधिक जीवन धारण करने की प्रार्थना की है –

हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – देवताओं द्वारा स्थापित, दिव्य या चमकीला नेत्र रूपी सूर्य पूर्व दिशा में उदय हुआ है। (हे सूर्य!) (हम आपकी कृपा से) सौ वर्ष देखें, सौ वर्ष जीवित रहें, सौ वर्ष सुनें, सौ वर्ष तक बोलें अर्थात् इतने समय तक बोलने की शक्ति ग्रहण करें। सौ वर्ष तक दीनता से रहित या स्वस्थ रहें। इतना ही नहीं, बार-बार सौ वर्षों से भी अधिक हमारी यही स्थिति बनी रहे। 

विशेष – यहाँ ऋषि ने सूर्य देव से मानव-मात्र के स्वस्थ, सुखी एवं सौ वर्षों से भी अधिक जीवन के लिए प्रार्थना की है। इसमें सूर्य की उपासना वर्णित है। 

सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –

प्रसङ्ग: – अयं मन्त्रः ‘वेदामृतम्’ इति शीर्षक पाठाद् उद्धृतः। मूलतः अयं मन्त्रः यजुर्वेदात् संकलितः। अस्मिन् मंत्रे ऋषिणा शतं शरदं यावत् जीवनस्य कामना कृता। 

संस्कृत-व्याख्या – 

भावोऽयं यत् शरीरेण, विविधाङ्गैश्च वयं कल्याणमेव कुर्मः। 

व्याकरणात्मक-टिप्पणी-

(i) उच्चरत् – उद् + चरत् (श्चुत्व)। 
भूयश्च – भूयः + च (विसर्ग सत्व व श्चुत्व)। 
अदीना: – न दीनाः (नञ् तत्पुरुष) 
पुरस्ताच्छुक्रम् – पुरस्तात् + शुक्रम् (छत्व, हल्)। 
तच्चक्षुर्देव – तत् + चक्षुः + देव (श्चुत्व तथा विसर्ग, रुत्व सन्धि)। 

(ii) अस्मिन् मंत्रे सूर्योपासनायाः वर्णनं वर्तते। 

सूर्यः प्रकाशस्य नियन्ता दिवारानेश्च निर्माणकर्ता अस्ति। अतः सः वर्षस्य निर्माता अपि उक्तः। 

6. जनं बिभ्रती ……………………………………………….. धेनुर नुपस्फुरन्ती ॥6॥ 

अन्वयः – बहुधा विवाचसम् यथौकसम् नानाधर्माणं जनम् बिभ्रती पृथिवी ध्रुवा अनुपस्फुरन्ती धेनुः इव मे द्रविणस्य सहस्रम् धाराः दुहाम् ॥6॥ 

कठिन-शब्दार्थ : 

प्रसंग – यह मंत्र हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती’ के प्रथम पाठ ‘वेदामृतम्’ से लिया गया है। मूलतः यह मंत्र अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त से संकलित किया गया है। इस मंत्र में पृथ्वी के उदारतापूर्वक स्वरूप का वर्णन किया गया है। 

हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – विभिन्न भाषा वाले तथा धारण करने वाले घर के समान अनेक धर्मों वाले लोगों को धारण करती हुई पृथ्वी न काँपती हुई तथा निश्चल खड़ी गाय की तरह मेरे लिए धन की हजार धाराओं से दुहे गये दूध की तरह है। अर्थात् अटल रूप से स्थित गाय के समान मेरे लिए धन की हजार धाराओं को (दूध की तरह) यह पृथ्वी बहा दे। 

विशेष – मंत्र का भाव यह है कि जिस प्रकार अचल होकर खड़ी एक धेनु से हजारों धाराओं वाला दूध निकाला जा सकता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी भी अपार सम्पदा को धारण करती हुई भी उसी तरह अटल, स्थिर तथा कम्पन रहित होकर खड़ी है। 

सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –  

प्रसङ्गः – अयं मन्त्रः अस्माकं पाठ्यपुस्तकं ‘शाश्वती’ प्रथम भागस्य ‘वेदामृतम्’ शीर्षकपाठात् उद्धृतोस्ति। मूलतः अयं मंत्रः अथर्ववेदस्य पृथिवीसूक्तात् संकलितः। अस्मिन् मंत्रे पृथिव्याः उदारतापूर्ण स्वरूपस्य वर्णनं कृतम् – 

संस्कृत-व्याख्या – 

व्याकरणात्मक-टिप्पणी – 

यथौकसम् – यथा + ओकसम् (वृद्धि सन्धि)। 
ध्रुवेव – ध्रुवा + इव (गुण सन्धि)। 
धेनुरनुस्फुरन्ती – धेनुः + अनुस्फुरन्ती (विसर्ग, रुत्व)। 
बिभ्रती – शतृ प्रत्यय। 

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