सुमिरिनी के मनके

Textbook Questions and Answers

(क) बालक बच गया 

प्रश्न 1.
बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए ?
उत्तर : 
बालक आठ वर्ष की उम्र का था किन्तु उससे पूछे गए प्रश्न उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के थे, यथा-धर्म के दस लक्षण, नौ रसों के उदाहरण, हेनरी आठवें की पत्नियों के नाम, मछलियों की प्राण रक्षा, चन्द्रग्रहण का कारण, अभाव को पदार्थ न मानने का कारण, पेशवाओं का कुर्सीनामा आदि। बच्चा अपनी योग्यता के आधार पर नहीं अपितु रटंत विद्या के आधार पर इन प्रश्नों के उत्तर दे रहा था। 

प्रश्न 2. 
बालक ने क्यों कहा कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा? 
उत्तर : 
बालक को इस प्रश्न का यही उत्तर उसके अभिभावकों एवं अध्यापकों ने रटा दिया था, अन्यथा यह उत्तर उसकी उम्र का बालक नहीं दे सकता था।बालक का उत्तर अपनी बुद्धि और योग्यता पर आधारित न होकर दूसरों द्वारा रटाई गई बातों पर आधारित था।

प्रश्न 3. 
बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी ? 
उत्तर : 
एक वृद्ध महाशय ने बालक की प्रतिभा से प्रसन्न होकर जब मनचाहा इनाम माँगने के लिए कहा तो बालक ने माँगा-‘लड्डू’। अभी तक बालक से जैसे प्रश्न पूछे जा रहे थे और वह उनके जो रटे-रटाए उत्तर दे रहा था उन्हें सुनकर लेखक की साँस घुट रही थी। उसे लग रहा था कि ये सब बालक की प्रवृत्ति के अनुरूप नहीं है। उसके अभिभावकों और अध्यापकों ने उसकी मूल प्रवृत्तियों का दमन कर उसे रटू तोता बना दिया है, उस पर पढ़ाई का अनावश्यक बोझ डाल दिया है। पर बालक ने जब मनचाहे इनाम के रूप में लड्डू माँगा तो लेखक ने सुख की साँस ली क्योंकि यह उत्तर उसकी उम्र और बालप्रवृत्ति के अनुकूल था अर्थात् अभी उसमें बालप्रवृत्ति शेष थी। लेखक द्वारा सुख की साँस लेने का यही कारण था।
 
प्रश्न 4. 
बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है, पाठ में ऐसा आभास किन स्थलों पर होता है कि उसकी प्रवृत्तियों का गला घोंटा जाता है ? 
उत्तर : 

  1. आठ वर्ष के बालक से ऐसे प्रश्न पूछना उचित नहीं है जो उसकी आयु वर्ग के बालकों से कहीं ऊँचे दर्जे के बालकों के लिये हैं। 
  2. बालक स्वस्थ अनुभव नहीं कर रहा था। उसका मुख पीला था, आँखें सफेद (निस्तेज) थीं और तनाव के कारण वह आँखें नीचे किए हुए जवाब दे रहा था। 
  3. बालक, जिसकी प्रतिभा का प्रदर्शन किया जा रहा था वस्तुतः इसके लिए स्वेच्छा से तत्पर नहीं था। अपने पिता एवं अध्यापकों के दबाव से वह प्रश्नों के उत्तर रटकर आया था। इस आयु वर्ग के बालक खेलकूद एवं खाने-पीने में अधिक रुचि लेते हैं पर यहाँ उसकी बाल प्रवृत्तियों का दमन करके उस पर गंभीर प्रश्नों के रटने का दबाव 
  4. बालक से जब मुँहमाँगा इनाम लेने के लिए कहा गया तो उसने किसी पुस्तक को न माँगकर खाने के लिए लड्डू माँगा। यही उसकी स्वाभाविक वृत्ति थी पर यह सुनकर प्रधानाध्यापक और अन्य अध्यापक निराश हो गए। 

इन सब दृश्यों को देखकर लेखक को लगा कि उसके अभिभावकों एवं अध्यापकों ने मिलकर बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने का प्रयास किया जो नितांत अनुचित था। बालक ने जब इनाम में लड्डू माँगा तो लेखक की साँस में साँस आई क्योंकि ऐसा करके उसने अपनी मूल प्रवृत्तियों को बचा लिया था।

प्रश्न 5. 
“बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह लड्डू की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं” कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। 
उत्तर : 
बालक की स्वाभाविक प्रवृत्ति खेलने-कूदने एवं खाने-पीने की होती है न कि गंभीर विषयों के अध्ययन की। अभिभावकों एवं अध्यापकों ने उसे गंभीर विषयों के उत्तर रटाकर और स्वाभाविक प्रवृत्तियों से विरत कर ठीक नहीं किया था। यही कारण था कि पीले चेहरे वाला और निस्तेज आँखों वाला वह बालक स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। 

साथ ही जब उससे मन मुताबिक इनाम माँगने को कहा गया तो उसने लड्डू माँगा। उसके द्वारा लड्डू की माँग करना हरे पत्तों की मर्मर ध्वनि जैसी थी जो मधुर थी, स्वाभाविक एवं जीवंत थी, जबकि रटे हुए उत्तर देकर प्रतिभा प्रदर्शन की क्रिया सूखे पेड़ से बनी काठ की अलमारी की खड़खड़ाहट थी, जिसे सुनकर आनंद नहीं मिलता, सिर दुखता था। 

बालक से. उसके अभिभावक और शिक्षक जो कहलवा रहे थे वह अस्वाभाविक था, जबकि खेल-कूद एवं खाने-पीने की इच्छा बालक की स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। लड्डू माँगना इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति का बोध कराता है।

प्रश्न 6. 
उम्र के अनुसार बालक में योग्यता का होना आवश्यक है किन्तु उसका ज्ञानी या दार्शनिक होना जरूरी नहीं …. लर्निंग आउटकम के बारे में विचार कीजिए। . 
उत्तर :
प्रकृति के नियमानुसार मानव जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर सीखता रहता है। सीखने की यह प्रवृत्ति उम्र के अनुसार स्वाभाविक गति से चलती रहती है। विशेष विधियों से सीखने की इस प्रक्रिया को तीव्र भी किया जाता है। शिक्षा बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिए नितांत आवश्यक है, लेकिन बालपन से खिलवाड़ करके शिक्षा देना, उम्र से अधिक ज्ञान देकर बालक को ज्ञानी, दार्शनिक या विद्वान सिद्ध करना अनैतिक भी है और अनुचित भी। 

लर्निंग आउटकम (सीखने के प्रतिफल) राष्ट्रीय स्तर पर संचालित एक शिक्षण विधि है जिसमें बालक की आयु के अनुरूप अपेक्षित स्तर, कौशल विकास एवं गुणवत्तायुक्त शिक्षा को परिभाषित किया है। इन शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति की सटीक निगरानी भी रखी जाती है। . अतः हम कह सकते हैं कि राष्ट्रीय स्तर की शैक्षिक आकांक्षाओं की क्रियान्विति के लिए सभी को समन्वित प्रयास करने होंगे तभी बालक लर्निंग आउटकम से लाभान्वित होकर अपेक्षित प्रदर्शन कर सकेगा। 

(ख) घड़ी के पुर्जे 

प्रश्न 1.
लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए घड़ी के पुर्जे का दृष्टांत क्यों दिया है ? 
उत्तर :
धर्मोपदेशक अपने कथन को घड़ी के दृष्टांत से समझाते हैं घड़ी समय जानने के लिये होती है। यदि स्वयं घड़ी देखना नहीं आता तो किसी जानकार व्यक्ति से समय पूछ लो। घड़ी ने वह समय क्यों बताया, इस रहस्य को जानने के लिए तुम घड़ी के पुों को खोलकर उन्हें फिर जमाने की चेष्टा मत करो। ऐसा करने पर तुम्हें निराशा हाथ लगेगी। 

ठीक इसी तरह धर्म के बारे में जो बताया जा रहा है उसे चुपचाप सुन लो, उसके बारे में तर्क-वितर्क और प्रश्न मत करो। धर्म का रहस्य पता करना उसी प्रकार तुम्हारा काम नहीं है जैसे घड़ी को खोलकर उसके पुर्जे लगाना तुम्हारे वश की बात नहीं। इसी कारण लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए घड़ी के पुजों का दृष्टात दिया है।

प्रश्न 2. 
‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है।’ आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं? धर्म सम्बन्धी अपने विचार व्यक्त कीजिए। 
उत्तर : 
धर्मोपदेशक हमें धर्म का उपदेश देकर यह कहते हैं कि हमारी बात चुपचाप सुन लो, जिज्ञासा मत करो। धर्म का रहस्य जानने का अधिकार तो केवल वेदशास्त्रज्ञ विद्वानों का है, सामान्य-जन का नहीं। लेखक ने उनकी बात को सही नहीं माना है। जो बुद्धिमान है, धर्म की जिसे जानकारी है वह धर्म के वास्तविक रहस्य को अवश्य जानना चाहेगा। उसकी जिज्ञासाओं पर अंकुश लगाना ठीक प्रतीत नहीं होता। 

धर्म आस्था का विषय है, क्या उचित है और क्या अनुचित इसे जानने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है किन्तु धर्माचार्य धर्म पर पड़े रहस्य को हटाना ही नहीं चाहते। धर्माचार्य धर्म पर अपना एकाधिकार जताकर सामान्य जन को उससे दूर रखते रहे हैं। इस तरह ये लोगों को अपना दास बनाये रखना चाहते हैं। ‘स्त्री शूद्रौ वेदम् नाधीयताम्’ का उपदेश इसी प्रवृत्ति को व्यक्त करता है। समाज में धर्म के ज्ञाता बढ़ेंगे तो धर्माचार्यों के उपदेश और आचरण पर प्रश्न खड़े करेंगे। अत: वे अपने अनुयायियों को धर्म-ज्ञान से दूर ही रखना चाहते हैं। 

प्रश्न 3. 
घड़ी समय का ज्ञान कराती है। क्या धर्म सम्बन्धी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध नहीं कराते ? 
उत्तर :
जैसे घड़ी समय का बोध कराती है उसी प्रकार धार्मिक मान्यताएँ या विचार भी अपने समय का बोध कराते हैं। कौन-सा विचार धर्मानुकूल है, यह समय-समय पर परिवर्तित होता रहता है। पुराने समय में जो बातें धर्म की दृष्टि से उचित थी आज वे अनुचित मानी जाती हैं। उदाहरण के लिए, यज्ञ में बलि देना आज तर्कसंगत नहीं है। 

बाल विवाह, सती प्रथा जैसी सामाजिक रूढ़ियाँ कभी धर्मसंगत थीं पर आज वे न तो तर्कसंगत हैं और न धर्मसम्मत। स्त्री-पुरुष की समानता आज का युगधर्म है किन्तु पहले ऐसा नहीं माना जाता था। वेदों के अध्ययन का अधिकार स्त्रियों तथा शूद्रों को नहीं था परन्तु आज वे धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ने के अधिकारी हैं। इससे सिद्ध होता है कि धर्म सम्बन्धी मान्यताएँ युग और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं।

प्रश्न 4. 
धर्म अगर कुछ विशेष लोगों, वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है तो आम आदमी और समाज का उससे क्या सम्बन्ध होगा? अपनी राय लिखिए। 
उत्तर : 
धर्म के ठेकेदार नहीं चाहते कि आम आदमी धर्म के रहस्य से परिचित हो सके। बड़े-बड़े धर्माचार्य, मठाधीश, पंडे-पुजारी धर्म को अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं जिससे उनका वर्चस्व बना रहे। ये तथाकथित धर्माचार्य धर्म से अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं उसे अपनी रोजी-रोटी का सोधन बना लेते हैं। धर्म जब तक इन लोगों की मुट्ठी में रहता है तब तक आम आदमी और समाज का कोई लाभ नहीं होता। वह मठाधीशों का दास बना रहता है और उनकी अनुचित बातों को ही धर्म मानकर उनका पालन करता रहता है। धर्म से उसका सीधा सम्बन्ध नहीं रहता और धर्म का स्वरूप संकुचित हो जाता है।

प्रश्न 5. 
‘जहाँ धर्म पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है, वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए।
अथवा  
“धर्म का रहस्य जानना सिर्फ धर्माचार्यों का काम नहीं। कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने का हकदार है, अपनी राय दे सकता है।” टिप्पणी कीजिए। 
उत्तर : 
धर्म पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार निश्चित रूप से धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है। ये मुट्ठीभर लोग नहीं चाहते कि धर्म का रहस्य हर कोई जान ले। ऐसा होने पर उनका एकाधिकार छिन जाएगा, उनके स्वार्थ सिद्ध नहीं हो पाएँगे किन्तु जब धर्म का संबंध आम आदमी से जुड़ जाएगा और वह धर्म के रहस्य से परिचित हो जाएगा तो निश्चय ही धर्म उसके विकास में सहायक होगा। 

पंडे-पुजारी, मुल्ला-मौलवी धर्म को अपने अधिकार में रखकर उससे स्वार्थ सिद्ध करते हैं। वे धर्म के नाम पर आम आदमी को ठगते हैं, जबकि धर्म का मूल उद्देश्य आम आदमी को अच्छा इंसान बनाना और उसे बुराई से दूर रखना है। धर्म के नाम पर होने वाले ढोंग, पाखण्ड, अंधविश्वास से आम आदमी तभी बच पाएगा जब वह धर्म का वास्तविक रहस्य जान लेगा।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए – 
(क) वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या ?’ 
उत्तर :
धर्म के उपदेशक आम आदमी से कहते हैं कि धर्म के रहस्य को जानने का प्रयास मत करो, यह तुम्हारा काम नहीं है। जिस प्रकार घड़ी के पुों की जानकारी करना घड़ीसाज का काम है, आम आदमी का काम नहीं। उसी प्रकार धर्म के रहस्य को जानने का काम वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का है, आम आदमी का यह काम नहीं है। इस प्रकार का उपदेश उनकी स्वार्थपूर्ण भावना का घोतक है। 

(ख) ‘अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।’ 
उत्तर : 
आशय यह है कि धर्म का रहस्य जानने का अधिकार अयोग्य और अनपढ़ व्यक्ति को न भी हो परन्तु जो विद्वान् और शिक्षित लोग हैं, उनको इस अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता। इससे धर्म की हानि होने की कोई सम्भावना नहीं हो सकती। धर्म को सर्वजन हितकारी बनाने के लिए उसका सर्वसाधारण में प्रसार होना जरूरी है।
 
(ग) ‘हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है, न पुर्जे सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।’ 
उत्तर :
धर्मोपदेशकों से धर्म की व्याख्या सुनकर लेखक को संदेह हो रहा है कि वे धर्म का तत्व जानते भी हैं या नहीं ? . वे परदादा की जिस धर्म रूपी घड़ी को अपनी जेब में डालकर घूम रहे हैं, वह पुरानी और बेकार है। धर्मोपदेशक और मठाधीश जिस धर्म की बात कह रहे हैं, वह पुराना और आज के युग में अनुपयोगी है। धर्माचार्य धर्म के सच्चे स्वरूप को नहीं जानते। वे समय के अनुरूप उसके स्वरूप में परिवर्तन भी करना नहीं चाहते। धर्म का समयानुकूल और परिमार्जित स्वरूप समाज के सामने रखने की उनमें क्षमता भी नहीं है। 

(ग) ढेले चुन लो 

प्रश्न 1. 
वैदिक काल में हिन्दुओं में कैसी लाटरी चलती थी, जिसका जिक्र लेखक ने किया है ? 
उत्तर : 
वैदिक काल में योग्य पत्नी चुनने के लिए वर विभिन्न स्थानों की मिट्टी से बने ढेले कन्या के समक्ष रखता था और उनमें से कोई एक ढेला चुनने को कहता। वह जिस ढेले को चुनती, उसकी मिट्टी जिस स्थान से ली गई थी, उसके आधार पर यह निर्धारित किया जाता था कि वह कन्या विवाहोपरान्त कैसे पुत्र को जन्म देगी। यदि अच्छे स्थान की मिट्टी का ढेला चुनती तो अच्छी संतान को जन्म देगी और यदि बुरे स्थान की मिट्टी का ढेला चुनती है तो बुरी संतान को जन्म देगी। इस प्रकार वैदिक काल के हिन्दू ढेले छुआकर पत्नी वरण करते थे। यह एक प्रकार की लाटरी थी जिसका जिक्र लेखक ने यहाँ किया है। 

प्रश्न 2. 
‘दुर्लभ बंधु’ की पेटियों की कथा लिखिए। 
उत्तर : 
‘दुर्लभ बंधु’ हिन्दी के सुप्रसिद्ध नाटककार भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र का एक अनूदित नाटक है। इसकी नायिका का नाम है. पुरश्री। उसके सामने तीन पेटियाँ हैं सोने की, चाँदी की और लोहे की। इन तीनों में से एक में उसकी प्रतिमूर्ति स्वयंवर के लिए जो लोग एकत्र होते उनसे किसी एक पेटी को चुनने के लिए कहा जाता। 

  1. अकड़बाज सोने की पेटी चुनता और उसे कुछ नहीं हासिल होता। 
  2. लोभी चाँदी की पेटी चुनता और पेटी में उसे कुछ नहीं मिलता। 
  3. सच्चा प्रेमी लोहे की पेटी चुनता और पुरश्री उसी के गले में वरमाला डालती। 

प्रश्न 3. 
‘जीवन साथी’ का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं ? .. 
उत्तर :
जीवन-साथी का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है। व्यक्ति को अपने आँख-कान पर भरोसा करके जीवन-साथी का चुनाव करना चाहिए न कि लाटरी, ज्योतिष या मिट्टी के ढेलों पर निर्भर रहना चाहिए। ऐसा करने पर उसे न तो उचित जीवन-साथी मिल पाएगा और न ही उसका जीवन सुख से बीत सकेगा। मिट्टी के ढेलों के चुनाव के . आधार पर जीवन-साथी का चुनाव सफल नहीं हो सकता। इसमें धोखा होने की पूरी सम्भावना है। भविष्य में उसे अपने चुनाव से निराशा, क्षोभ और पश्चाताप का सामना करना पड़ सकता है। 

प्रश्न 4.
मिट्टी के ढेलों के संदर्भ में कबीर की साखी की व्याख्या कीजिए – 
पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार। 
इससे तो चक्की भली पीस खाय संसार।। 
उत्तर : 
इस साखी में कबीरदास जी ने मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए कहा है कि यदि पत्थर पूजने से ईश्वर की प्राप्ति हो जाए तो तुझे छोटे से पत्थर की तुलना में पत्थर के बड़े पहाड़ की पूजा करनी चाहिए। अर्थात् पत्थर की पूजा करने से भगवान नहीं मिलते, सदाचरण करने से मिलते हैं। इससे ज्यादा अच्छा तो यह है कि तू, पत्थर की बनी उस चक्की की पूजा कर जिससे गेहूँ पीसकर सारा संसार रोटी खाता है। लेखक ने कबीर की यह साखी उस संदर्भ में उद्धृत की है जिसमें एक वैदिक प्रथा के अनुसार विवाहेच्छुक स्नातक विभिन्न स्थानों की मिट्टी के ढेलों से अपनी पत्नी का चुनाव करता था। यह पद्धति ठीक नहीं है, इससे अधिक अच्छा है कि हम आँख-कान खोलकर प्रत्यक्ष रूप से देख-सुनकर, सोच-समझकर, बुद्धि का उपयोग करते हुए जीवन साथी का चुनाव करें। 

प्रश्न 5.
जन्मभर के साथी का चुनाव मिट्टी के ढेले पर छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए बेटी का शिक्षित होना अनिवार्य है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के संदर्भ में विचार कीजिए।
उत्तर :
शिक्षा बालक/बालिका के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए नितांत आवश्यक और अनिवार्य है। ज्ञान प्राप्त करके ही हम अपने अधिकार, कर्तव्य और लाभ-हानि के बारे में विचार कर सकते हैं। पुराने जमाने में आज की अपेक्षा स्थितियाँ बिल्कुल विपरीत थीं। 

बेटी का विवाह, ज्योतिषियों से पूछकर या किसी नाई-पंडित के कहे अनुसार तय कर दिया जाता था। आदिवासियों में अपनी परंपरा के अनुसार जीवन साथी का चयन किया जाता है। वर्तमान में बेटियों के शिक्षित होने पर इस स्थिति में आशानुरूप बदलाव आया है। अब जीवन साथी के चुनाव में उसकी योग्यता, पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ लड़की की सहमति भी अनिवार्य हो गई है। लेकिन शिक्षा से आए इस बदलाव का क्षेत्र अभी सीमित है। ‘बेटी ओ’ कार्यक्रम के अंतर्गत अभी बालिका शिक्षा पर और ध्यान दिया जाना आवश्यक है, ताकि बेटियाँ पढ़-लिखकर स्वयं आत्मबल संपन्न तथा स्वावलंबी बन सकें। 

प्रश्न 6. 
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए – 
(क) ‘अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के ढेलों -मंगल, शनिश्चर और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है।’ 
उत्तर : 
‘ढेले. चुन लो’ नामक पाठ्यांश में लेखक ने एक वैदिक प्रथा का उल्लेख किया है जिसमें विभिन्न स्थानों की मिट्टी से बने ढेले कन्या के सार रखकर उससे किसी एक ढेले का चुनाव करवाया जाता था और चुनाव करने वाली कन्या के अच्छी या बुरी पत्नी होने के निर्णय किया जाता था। लेखक इस प्रथा को उसी प्रकार अनुचित मानता है जिस प्रकार मंगल, शनैश्चर, वृहस्पति आदि ग्रहों की चाल की गणना करके ज्योतिष में पत्नी के अच्छा या बुरा होने का अनुमान लगाया जाता है। इस प्रकार पत्नी का चुनाव करना बुद्धिमानी नहीं है यही लेखक का मंतव्य है।
 
(ख) आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।’ 
उत्तर : 
लेखक यह कहना चाहता है कि समय के साथ हमें भी बदलना चाहिए। कल जो प्रथा या परम्परा अच्छी मानी । जाती थी वह आज के समय में उचित नहीं है। जमाना बदल गया है और हमें भी बदले हुए जमाने के साथ अपनी मान्यताएँ बदलनी चाहिए। हमें आज (वर्तमान) को महत्त्व देना चाहिए कल (भूतकाल) को नहीं। पुराने जमाने में आकाशीय पिण्डों की चाल की गणना अर्थात् ज्योतिष के आधार पर लोग पत्नी का चुनाव करते थे। 

वे ग्रह हमसे लाखों-करोड़ों मील दूर हैं, उनके बारे में हमें कुछ पता नहीं है, उनकी तुलना में कम से कम मिट्टी के वे ढेले श्रेष्ठ हैं जिन्हें हमने अपनी. आँख से देखकर किसी स्थान की मिट्टी से बनाया है। आज का कबूतर कल के मोरं से श्रेष्ठ है। आज का पैसा कल के मोहर से अधिक मूल्यवान् है। अच्छी पत्नी चुनने के लिए वर्तमान में प्रचलित प्रणाली को अपनाना ही सही है। 

योग्यता विस्तार 

(क) बालक बच गया 

प्रश्न 1. 
बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास में ‘रटना’ बाधक है कक्षा में संवाद कीजिए। 
उत्तर : 
एक छात्र-वे बच्चे जो शिक्षा को समझ लेते हैं, ज्यादा समझदार बनते हैं, जबकि बिना समझे रट लेने वाले बालक शिक्षित नहीं हो पाते। दूसरा छात्र-तुम ठीक कहते हो, रटने से कुछ भी समझ में नहीं आता। रटू तोता बनने से बुद्धि का स्वाभाविक विकास नहीं होता। कम उम्र के बालकों पर अस्वाभाविक दबाव बनाकर किताबें रटने के लिए कहना अत्याचार है। शिक्षकों और अभिभावकों को ऐसा नहीं करना चाहिए। पहला छात्र-आपकी बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ। रटन्त विद्या से कुछ हासिल नहीं होता, इससे बच्चे का स्वाभाविक विकास भी रुक जाता है। खेलने-खाने की उम्र में बच्चे के दिमाग पर किताबों का बोझ लाद देना और चीजों को रटने के लिए दबाव बनाना नितांत अनुचित है। इस प्रकार इन संवादों को आगे बढ़ाया जा सकता है।

प्रश्न 2. 
ज्ञान के क्षेत्र में ‘रटने’ का निषेध है किन्तु क्या आप रटने में विश्वास करते हैं? अपने विचार प्रकट कीजिए। 
उत्तर :
शिक्षा प्राप्त करना रटू तोता बनना नहीं है इसलिए मैं रटत विद्या में विश्वास नहीं करता। रटने से ज्ञान प्राप्त नहीं होता। शिक्षा का उद्देश्य मस्तिष्क को क्रियाशील बनाना है, उसे चिंतन-मनन के लिए तैयार करना है किन्तु ‘रटने से यह संभव नहीं है। जब तक बालक चीजों को समझकर शिक्षा ग्रहण नहीं करता तब तक वह उसके बारे में अच्छी तरह सीख नहीं सकता। शिक्षा का तात्पर्य केवल सूचनाओं का संग्रह करना नहीं है अपितु जीवन-मूल्यों को विकसित करना भी है। रटंत विद्या से जीवन-मूल्यों का विकास नहीं हो सकता अतः मैं इस बात का विरोध करता हूँ कि बालक को ‘रट’ लेने के लिए प्रेरित किया जाए।

(ख) घड़ी के पुर्जे

प्रश्न 1. 
धर्म संबंधी अपनी मान्यता पर लेख/निबंध लिखिए। : 
उत्तर :
‘धर्म’ का अर्थ है-धारण करना अर्थात् जो गुण या विशेषताएँ व्यक्ति धारण करता है उन्हें धर्म की संज्ञा दी गई है। सभी धर्मों में मानव के लिए कुछ अच्छे गुणों का विधान किया गया है। धर्म या मजहब परस्पर प्रेम 3 देते हैं। हमें सभी धर्मों का आदर करना चाहिए और किसी धर्म के प्रति घृणा या द्वेष भाव नहीं रखना चाहिए। भारत के प्रमुख धर्म हैं हिन्दू, इस्लाम, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई इत्यादि। 

सत्य, प्रेम, सद्भाव, ईमानदारी, नैतिक मूल्यों का पालन, सदाचार आदि धर्म के सामान्य लक्षण हैं। हिन्दू धर्म में सबके सुखी और नीरोग होने की प्रार्थना की गई है। सच्चा भक्त ईश्वर से सुख-समृद्धि नहीं लोगों के कष्ट दूर करने की याचना करता है। धर्म का अंकुश व्यक्ति को समाज विरोधी एवं अनैतिक कार्यों से रोकता है। कुछ स्वार्थी धर्माचार्य धर्म के नाम पर अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं। वोटों की राजनीति ने भी धर्म की मूल भावना को नष्ट कर पारस्परिक विद्वेष बढ़ाया है।

धर्म को रूढ़ियों और अंधविश्वासों का रूप नहीं दिया जाना चाहिए। धर्म के जड़तापूर्ण रूप ने विश्व में अनेक संकट उत्पन्न किये हैं। प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक लॉक ने धर्म की उत्पत्ति भय और लोभ से मानी है। मनुष्य उन शक्तियों की पूजा करता है जिनसे उसे कष्ट होने का भय होता है या कुछ पाने की सम्भावना होती है। समाजवादी विचारधारा में धर्म को मनुष्य का विवेक नष्ट करने वाली अफीम कहा जाता है। 

प्रश्न 2. 
‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ धर्माचार्यों का काम नहीं, कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है’ टिप्पणी कीजिए।  
उत्तर :
धर्माचार्य यह प्रयास करते हैं कि धर्म के रहस्य को आम आदमी न जान पाए। यही नहीं, वे इस बात का विरोध भी करते हैं कि आम आदमी धर्म के रहस्य को जानने की चेष्टा करे। वे अपने एकाधिकार को नष्ट नहीं होने देना चाहते। किन्तु धर्म पर एकाधिकार नहीं होना चाहिए। इसका दरवाजा हर-एक के लिए खुला रखना चाहिए और हर व्यक्ति को अपने . स्तर पर धर्म के रहस्य को जानने व समझने की कोशिश करनी चाहिए। यही नहीं प्रत्येक व्यक्ति को धर्म के बारे में अपनी राय व्यक्त करने का भी अधिकार होना चाहिए। 

(ग) ढेले चुन लो 

प्रश्न 1. 
समाज में धर्म संबंधी अंधविश्वास पूरी तरह व्याप्त है। वैज्ञानिक प्रगति के संदर्भ में धर्म, विश्वास और आस्था पर निबंध लिखिए। 
उत्तर : 
भले ही आज का युग विज्ञान का युग है किन्तु आज भी हमारे देश की आबादी का एक बहुत बड़ा भाग अंधविश्वासों और बाह्याडम्बरों से ग्रस्त हैं। धर्म के तथाकथित ठेकेदार मुल्ला-मौलवी, पंडे-पुरोहित इससे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। धर्म के नाम पर आज भी तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत, झाड़-फूंक जारी है। अखबारों में तांत्रिकों, ओझाओं आदि के विज्ञापन छपते हैं और लोग इस वैज्ञानिक युग में भी इनके द्वारा ठग लिए जाते हैं। 

धर्म, आस्था और विश्वास की वस्तु है। यदि मानव की किसी धर्म में आस्था है तो उस धर्म के बताए हुये पथ पर उसे चलना चाहिए। धर्म दूसरों के कल्याण के लिए होता है उसे पतन के गर्त में गिराने के लिए नहीं। धार्मिक व्यक्ति वह है जिसका मन ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि विकारों से रहित है। जो मानवता के कल्याण हेतु अपने जीवन को समर्पित करता है और सबका हित चाहता है वही धर्मात्मा है। धर्म बैर-भाव नहीं सिखाता यह तो जोड़ने का काम करता है।

प्रश्न 2. 
अपने घर में या आस-पास दिखाई देने वाले किसी रिवाज या अंधविश्वास पर एक लेख लिखिए। 
उत्तर :
आज भी हमारे समाज में अंधविश्वास या कुछ पुरानी रीतियाँ प्रचलित हैं जो अनुपयोगी हैं। इनमें शनि की दशा या कुदृष्टि से काम बिगड़ने का अंधविश्वास मुख्य है। इसे शान्त कराने के लिए शनिवार को तेल का दान दिया जाता है। इस अंधविश्वास का फायदा उठाने के लिए कुछ चालाक लोग हरेक शनिवार को हमारे मोहल्ले में एक बाल्टी लेकर घर-घर में तेल माँगने आ जाते हैं। वे घंटे दो घंटे में ही एक बाल्टी तेल इकट्ठा करके बाजार में बेच आते हैं और उस पैसे से शराब पीते हैं। कुछ घरों एवं दुकानों पर ‘नीबू-मिर्च’ लटकाकर शनि की शांति कराई जाती है और ये तथाकथित ‘तांत्रिक’ शनि देव की शांति के नाम पर अच्छे खासे रुपए घरों से वसूल कर ले जाते हैं। 

Important Questions and Answers

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1.
विद्यालय के वार्षिकोत्सव में किसे बुलाया गया था? 
उत्तर :  
विद्यालय के वार्षिकोत्सव में पण्डित चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ को बुलाया गया था। 

प्रश्न 2. 
प्रतिभाशाली बालक किसका पुत्र था? 
उत्तर : 
प्रतिभाशाली बालक प्रधानाध्यापक का पुत्र था।

प्रश्न 3. 
घड़ी के दृष्टांत से लेखक ने किस पर व्यंग्य किया है? 
उत्तर : 
घड़ी के दृष्टांत से लेखक ने धर्म उपदेशकों पर व्यंग्य किया है। 

प्रश्न 4. 
‘ढेले चुन लो’ वृत्तांत में भारतेंदु हरिश्चन्द्र के किस नाटक का उल्लेख किया है? 
उत्तर : 
‘ढेले चुन लो’ वृत्तांत में भारतेंदु हरिश्चन्द्र के दुर्लभ बंधु नाटक का उल्लेख किया है। 

प्रश्न 5. 
वैदिक काल में हिन्दुओं में पत्नी चुनने के लिए क्या प्रयोग किए जाते थे? 
उत्तर : 
वैदिक काल में हिन्दुओं में पत्नी चुनने के लिए मिट्टी के ढेले का प्रयोग किया जाता था। 

प्रश्न 6. 
वैदिक काल के लोग पत्नी का वरण कैसे करते थे? 
उत्तर : 
वैदिक काल के हिन्दू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी-वरण करते थे। 

प्रश्न 7. 
शेक्सपियर के कौन-से नाटक का जिक्र लेखक ने किया है?
उत्तर : 
लेखक ने शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘मर्चेन्ट आफ वेनिस’ का जिक्र पाठ में किया है।

प्रश्न 8. 
बालक की उम्र कितनी थी? 
उत्तर :  
बालक की उम्र आठ वर्ष की थी। 

प्रश्न 9. 
कौन-सा ढेला उठाने पर संतान वैदिक पंडित’ होती थी? 
उत्तर : 
वेदी का ढेला उठाने पर पैदा होने वाली संतान ‘वैदिक पंडित’ होती थी।

प्रश्न 10. 
तीन गृह्यसूत्रों का नाम बताइये, जिसमें ढेलों की लाटरी का जिक्र है? 
उत्तर : 
तीन गृह्यसूत्र, जिसमें ढेलों की लाटरी का उल्लेख है-आश्वलायन, गोभिल और भारद्वाज।

प्रश्न 11. 
पिता को बालक से क्या उम्मीद थी? 
उत्तर : 
सभी सवालों के सही जवाब देने के बाद वृद्ध महाशय ने खुश होकर बच्चे से पूछा कि क्या इनाम चाहिए। पिता. और अध्यापक को उम्मीद थी कि बालक पुस्तक माँगेगा। 

लघूत्तरात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1. 
बालक बच गया’ कहानी के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है ? 
उत्तर : 
‘बालक बच गया’ कहानी के माध्यम से लेखक यह बताना चाहता है कि छोटी उम्र के बालकों पर हमें। जबरदस्ती किताबों का बोझ नहीं लादना चाहिए। शिक्षा की सही उम्र आने पर ही बालक को विद्यालय भेजना चाहिए। ‘रटने की प्रवृत्ति’ शिक्षा का उद्देश्य नहीं है, यह भी लेखक बताना चाहता है। आठ वर्ष के बालक की मूल प्रवृत्ति खेलने-खाने की होती है, विविध विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की नहीं। अभिभावकों एवं अध्यापकों को यह बात समझकर बालक की मूल प्रवृत्तियों का दमन नहीं करना चाहिए। 

प्रश्न 2. 
‘घड़ी के पुर्जे’ कहानी के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए। 
उत्तर : 
धर्मोपदेशक उपदेश देते समय यह कहा करते हैं कि हमारी बातें ध्यान से सुनो पर धर्म का रहस्य जानने की चेष्टा न करो। अपने कथन के समर्थन में वे घड़ी का उदाहरण देते हैं कि घड़ी से समय जान लो यह देखने की कोशिश न करो कि इसका कौन-सा पुर्जा कहाँ लगा है। धर्माचार्य धर्म का रहस्य आम आदमी तक पहुँचने नहीं देना चाहते, जबकि हर व्यक्ति को धर्म का मूल रहस्य जानने का अधिकार है। ‘घड़ी के पुर्जे’ कहानी का उद्देश्य यह बताना है कि धर्म पर मठाधीशों का एकाधिकार ठीक नहीं है। उसका विस्तार जनसाधारण में होना जरूरी है तभी धर्म जनहितकारी हो सकता है। 

प्रश्न 3. 
‘द्वैले चन लो’ कहानी के माध्यम से लेखक क्या संदेश देना चाहता है ? 
उत्तर : 
यह लघुकथा रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का विरोध करती है और यह संदेश देती है कि हमें अपनी बुद्धि का उपयोग करके जीवन से संबंधित निर्णय लेने चाहिए। पत्नी का चुनाव आँख-कान से देख-सनकर करना ज्यादा अच्छा है न कि ढेले स्पर्श करवाकर वैदिक रीति से जीवन-साथी का चुनाव करना। ज्योतिषीय गणनाओं के द्वारा जीवन-साथी का चुनाव . करने की अपेक्षा अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए जीवन-साथी का चुनाव करना लेखक बेहतर मानता है। 

प्रश्न 4. 
‘बालक बच गया’ कहानी के माध्यम से लेखक क्या शिक्षा देना चाहता है? अपने शब्दों में स्पष्ट करें। 
अथवा 
‘बालक बच गया’ लघकथा का क्या संदेश है ? 
उत्तर : 
इस कहानी के माध्यम से गुलेरी जी यह बताना चाहते हैं कि हमें बालकों की मूल प्रवृत्ति को दबाकर उनके ऊपर किताबों एवं पढ़ाई का बोझ नहीं लादना चाहिए। बालक की मूल प्रवृत्ति खेलने-खाने की होती है, न कि किताबें रटने की। उसके द्वारा ‘लड्डू’ की माँग इनाम में करना इसी प्रवृत्ति का बोध कराती है। अभिभावक और अध्यापक कम उम्र में बालकों पर पढ़ाई का बोझ डाल देते हैं, उन्हें किताबें रटने को बाध्य करते हैं और इस प्रकार उनकी मूल प्रवृत्तियों का दमन करने का प्रयास करते हैं। यह ठीक नहीं है, इससे बालक का स्वाभाविक विकास रुक जाता है तथा उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। 

प्रश्न 5. 
‘बालक बच गया’ लघु कथा में लेखक ने किस मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के बारे में बताया है ? । 
उत्तर : 
‘बालक बच गया’ लघु कथा में लेखक ने बाल-मनोविज्ञान के सम्बन्ध में बताया है। मनोविज्ञान के अनुसार शिक्षक तथा अभिभावकों को बालक की रुचि का ध्यान रखना चाहिए। माता-पिता बालक की आयु तथा रुचि पर ध्यान न देकर उस पर अपनी इच्छाओं को बलात् लाद देते हैं। वह अपने जीवन में जो उपलब्धि नहीं पा सके, उसे बच्चे से प्राप्त कराना चाहते हैं। वे बच्चे की क्षमता तथा इच्छा की उपेक्षा करते हैं। इससे बच्चे के विकास तथा शिक्षा प्राप्ति में बाधा ही उत्पन्न होती है। लेखक ने मनोविज्ञान के इस सिद्धान्त पर प्रकाश डाला है कि बालक की शिक्षा उसकी अपनी क्षमता और रुचि के अनुकूल ही होनी चाहिए। 

प्रश्न 6.
बालक के मनोभाव के बारे में बताइये। 
उत्तर : 
बालक मंच पर खड़ा होकर सभी प्रश्नों का जवाब दे रहा था। उसको सभी जवाब उसके पिताजी और अध्यापकों ने रटवा दिए थे। बालक रोबोट की तरह उसके दिमाग में डाली गयी बात को जवाब के तौर पर कह रहा था, मगर जो बात वह कह रहा था उसको उस बात का कोई अर्थ मालम न था

प्रश्न 7.
स्वयंवर क्या होता था? 
उत्तर : 
युवक को अपनी युवती तथा युवती को अपना युवक स्वयं चुनने हेतु स्वयंवर का आयोजन होता था। इसमें उस समय के प्रथानुसार, खेल के विजयी होने या सवालों के जवाब देने, दूसरों को रिझाने वाले कार्यक्रमों में विजयी होने पर दोनों एक-दूसरे से शादी कर लेते थे। 

प्रश्न 8. 
हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में स्वयंवर के संबंध में क्या घटना वर्णित है? 
उत्तर : 
हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में स्वयंवर के सम्बन्ध में एक घटना वर्णित है, जिसमें पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ हैं- एक सोने की, दूसरी चाँदी की, तीसरी लोहे की। तीनों में से कोई मूर्ति उसकी है। स्वयंवर के लिए जो आता है उसे कहा जाता है कि इनमें से एक को चुन ले। अकड़बाज सोने को चुनता है और उल्टे पैर लौटता है। लोभी को चाँदी की पिटारी अँगूठा दिखाती है। सच्चा प्रेमी लोहे को छूता है और युवती उसकी हो जाती है। 

प्रश्न 9.
“पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार। 
इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार।।” 
कबीर के इस दोहे का भावार्थ लिखिए। 
उत्तर : 
कबीरदास जी कहते हैं कि यदि पत्थर की मूर्ति पूजने से भगवान मिल जाते, तो मैं पहाड़ की भी पूजा कर लेता। ताकि भगवान मुझे जल्दी मिल जाएँ। ईश्वर पाने का मार्ग ऐसा नहीं होता, इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि पत्थर पूजने से अच्छा घर की चक्की की पूजा करो। जिससे पूरी दुनिया अन्न पीसकर अपना पेट भरती है। 

प्रश्न 10. 
छोटे बालक से किस तरह के सवाल किये गए? 
उत्तर : 
छोटे बालक से सभी सवाल उसकी योग्यता के ऊपर के थे। जैसे कि धर्म के लक्षण बताओ, रसों के नाम बताओ तथा उनके उदाहरण भी, चार डिग्री के नीचे ठंड में पानी के अंदर मछलियाँ कैसे जिंदा रहती हैं तथा चंद्रग्रहण लगने का वैज्ञानिक कारण बताओ इत्यादि, ये सभी प्रश्न उस कोमल और मासूम बच्चे की उम्र के हिसाब से अधिक गंभीर थे। 

प्रश्न 11. 
“मैं जीवनपर्यन्त लोकसेवा करूँगा।” ऐसा उस मासूम बालक ने क्यों कहा? 
उत्तर : 
पिता ने उस मासूम को इस प्रकार का जवाब रटा रखा था। पिता ने सोचा था कि इस प्रकार का संवाद सीख लेने से उस बच्चे की योग्यता पर श्रेष्ठता की मुहर लग जाएगी। मगर लेखक कहते हैं कि इस प्रकार की बात अपने बेटे को सिखा कर उसके पिता ने बच्चे का बालपन और उसकी मासूमियत को समाप्त करने का प्रयास किया था। उस बालक के पिता को सामाजिक प्रतिष्ठा अपने बच्चे की मासूमियत से अधिक प्रिय थी। 

प्रश्न 12. 
‘डेले चन लो’ कहानी के आधार पर आज के भारतीय समाज की विवेचना कीजिए। 
उत्तर : 
भारतीय समाज में वैदिककाल से ही मान्यताओं और कुरीतियों का दबदबा रहा है। धर्म के आड़ में ढेर सारी ऐसी धारणाओं ने समाज को जकड़ लिया था, जिसने समता और मानवता को दब्बू और संवेदनहीन बना दिया। भारतीय समाज में लोग प्रतिष्ठा और ढोंग के चक्कर में एक दूसरे को नीचा दिखाने, भेद-भाव और छुआ-छूत जैसी भावनाओं से ग्रसित हो गये। मगर अब धीरे-धीरे शिक्षा इन सब दूरियों और अंधविश्वासों को दूर करने का काम कर रही है। 

प्रश्न 13. 
लेखक ने घड़ीसाजों के सन्दर्भ में क्या बात कही है? .. . 
उत्तर : 
लेखक कहते हैं कि जो व्यक्ति घड़ी बनाने के विषय में जानकारी रखता है, वह उसे बड़ी आसानी के साथ खोल कर वापस जोड़ सकता है। ऐसे लोग ही घड़ीसाज कहलाने हैं। लेखक घड़ीसाज की बात करके धर्म से जुड़े रहस्यों को बाहर लाना चाहता है। उसका कहना है कि हम धर्म से जुड़े छोटे-बड़े पहलुओं पर गौर करें, तो हो सकता है हम धर्मगुरु न बनें मगर उसकी जटिलता को अवश्य समाप्त कर सकते हैं। हमें एक घड़ीसाज की तरह ही धर्म के संबंध में जानकारी जुटानी चाहिए और खुद को धोखे से बचाकर रखना चाहिए। 

प्रश्न 14. 
लेखक ने भारतीय समाज में लाटरी के संबंध में क्या बात कही है?
उत्तर : 
वैदिककाल में युवक विवाह करने हेतु युवती के घर, सात ढेले लेकर जाता था। यह प्रथा हिंदू समाज में लाटरी के समान थी। इन ढेलों की मिट्टी, भिन्न-भिन्न तरह की होती थी। मिट्टी के विषय में केवल युवक को ही ज्ञात होता था कि कौन सी मिट्टी किस स्थान से लायी गई है। इनमें खेत, वेदी, मसान, चौराहे तथा गौशाला की मिट्टियाँ सम्मिलित हुआ करती थीं। मिट्टी के ढेले का अर्थ हुआ करता था। हर ढेले के साथ एक मान्यता और धारणा जुड़ी होती थी। यह प्रथा लाटरी के ती थी। इस प्रथा में जिसने सही ढेला उठाया उसे दुल्हन या वर प्राप्त होता था और जिसने गलत ढेला उठाया, उसके हाथों निराशा लगती थी। लेखक ने इसी कारण से इस प्रथा को लाटरी से जोड़ दिया है। 

निबन्धात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1. 
‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।’ कथन का आशय ‘सुमिरिनी के मनके’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर :
लेखक यह कहना चाहता है कि समय के साथ हमें भी बदलना चाहिए। कल जो प्रथा या परम्परा अच्छी मानी जाती थी वह आज के समय में उचित नहीं है। जमाना बदल गया है और हमें भी बदले हुए जमाने के साथ अपनी मान्यताएँ बदलनी चाहिए। हमें आज (वर्तमान) को महत्त्व देना चाहिए कल (भूतकाल) को नहीं। पुराने जमाने में आकाशीय पिण्डों की चाल की गणना अर्थात् ज्योतिष के आधार पर लोग पत्नी का चुनाव करते थे। 

वे ग्रह हमसे लाखों-करोड़ों मील दूर हैं, उनके बारे में हमें कुछ पता नहीं है, उनकी तुलना में कम से कम मिट्टी के वे ढेले श्रेष्ठ हैं जिन्हें हमने अपनी आँख से देखकर किसी स्थान की मिट्टी से बनाया है। आज का कबूतर कल के मोर से श्रेष्ठ है। आज का पैसा कल के मोहर से अधिक मूल्यवान् है। अच्छी पत्नी चुनने के लिए वर्तमान में प्रचलित प्रणाली को अपनाना ही सही है।

प्रश्न 2.
बालक बच गया’ कहानी का सार अपने शब्दों में प्रस्तुत कीजिए। 
उत्तर : 
गुलेरी जी एक बार एक विद्यालय के वार्षिकोत्सव में गए। वहाँ एक आठ वर्ष के बालक से तरह-तरह के प्रश्न पूछे जा रहे थे और बालक उनके रटे-रटाए उत्तर दे रहा था। अभिभावक और अध्यापक वाह-वाह कर रहे थे। इस प्रकार बालक की प्रतिभा का प्रदर्शन वहाँ किया जा रहा था। 

प्रश्नों का स्तर बालक की उम्र के लिहाज से कहीं ऊपर था। बालक को इन प्रश्नों के उत्तर रटा दिए गए थे और वह रटे-रटाए जवाब आँखें नीची करके दे रहा था। तभी एक वृद्ध महाशय ने बालक को आशीर्वाद देते हुए कहा कि यदि तुझे मुँहमाँगा इनाम माँगने को कहा जाए तो क्या लेगा ? अध्यापकों को लगा कि यह किसी किताब का नाम लेगा पर बालक के मुँह से निकला लड्डू। यह सुनते ही गुलेरी जी की साँस में साँस आई और उन्हें लगा कि बालक बच गया।

प्रश्न 3. 
बालक द्वारा किताब की जगह ‘लड्डू’ की माँग करना उसके किस स्वभाव और प्रवृत्तियों का उल्लेख करता है? 
उत्तर : 
एक साधारण छोटे से बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ जैसे-जिद कदना, दोस्तों के साथ खेलना, रंगों से आकर्षित होना, उछल-कूद करना, स्वयं के सम्मुख आने वाली सभी चीजों के प्रति जिज्ञासु होना, शरारतें करना इत्यादि होती हैं। यदि उसमें ये प्रवृत्तियाँ न पाई जाएँ, तो चिंता का विषय माना जाता है। आलोच्य पाठ में लेखक ने जिस बालक का उल्लेख किया है उसकी उम्र मात्र आठ वर्ष है, उसके पिता ने उसकी उन प्रवृत्तियों को अपनी आकांक्षाओं के नीचे दबा दिया है।

उसके अंदर अभी इतनी समझ विकसित नहीं हुई कि वह इतने गंभीर विषयों को समझे। उसे यह सब रटवाया गया था। उनके इस प्रयास से बालक की बालसुलभ प्रवृत्तियों का पूरी तरीके से ह्रास हो गया है। लेकिन फिर भी उसका लड्डू माँगना इस बात की ओर संकेत करता है कि अब भी कहीं उसमें बच्चों वाली आदतें बची ई हैं ! जो उसे और सभी बच्चों के बराबर का बनाती हैं। लेखक को लग रहा था कि अभी भी इस बालक के कोमल स्वभाव को बचाया जा सकता है। 

प्रश्न 4.
घड़ी की बात लेखक ने किस सन्दर्भ में कही है? 
उत्तर : 
धर्म का जटिल रहस्य और उसकी संरचना के सम्बंध में लेखक ने घड़ी के पुर्जे का उदाहरण देते हुए कहा है कि जिस तरह घड़ी की संरचना समझना कठिन है, वैसे ही धर्म की संरचना समझना भी मुश्किल है। कोई भी इंसान घड़ी को खोल तो सकता है किन्तु उसे दोबारा जोड़ नहीं सकता। मगर वह प्रयास तो कर ही सकता है, लेकिन वह यह भी नहीं करता। उसका यह मानना है कि वह ऐसा नहीं कर सकता। 

इसी प्रकार लोग प्रायः बिना धर्म को समझे ही उसके जाल में उलझे रहते हैं क्योंकि उनके लिए पुरोहितों ने इस धर्म के जाल को रहस्य बना रखा है। लोग इस रहस्य को जानने की कोशिश भी नहीं करते और धर्मगुरुओं के हाथ की कठपुतली बने रहते हैं। लेखक घड़ी का उदाहरण देते हुए कहता है कि घड़ी को पहनने वाला अलग होता है और ठीक करने वाला अलग। आजकल धर्म के ठेकेदार साधारण लोगों के लिए बेवजह के कुछ कायदे-कानून बना देते हैं और लोग बिना किसी विवेक के इस जाल में उलझे रहते हैं।


प्रश्न 5. 
धर्म, अधर्म और धर्माचार्य के विषय में लेखक के विचार प्रस्तुत करिये। 
उत्तर : 
इस बात में कोई भी सत्यता नहीं है कि धर्म का रहस्य जानना सिर्फ धर्माचार्यों या वेदशास्त्र का ही काम है। असल में धर्म बाहरी रूप से जितना जटिल मालूम होता है, वह उतना जटिल है नहीं। धर्म को वेदशास्त्रों और धर्म की किताबों से नहीं समझा जा सकता, बल्कि उसे व्यवहार में उपयोग में लाकर ही समझा जा सकता है, नमाज़-रोजे, व्रत-पूजा इत्यादि को धर्म समझ लेते हैं। सारी उम्र इन्हीं नियमों में उलझे रहते हैं। 

मगर धर्म की पढ़ाई और चीजें बहुत ही सरल और आसान हैं, जैसे कि गलत न देखना, सत्य बोलना, बड़ों का आदर, गरीबों की मदद, अन्याय का विरोध, न्याय करना धर्म है। चोरी, धोखा, अन्याय, अपने स्वार्थों के लिए लोगों पर अत्याचार करने वाला कभी धार्मिक नहीं हो सकता। सही शब्दों में अधर्म यही कहलाता है। श्रीकृष्ण ने महाभारत में .पांडवों का साथ देना धर्म समझा था। क्योंकि कौरवों ने पांडवों का अधिकार छीनकर अधर्म किया था। श्रीकृष्ण ने कहा है कि यदि धर्म रक्षा में भाई, भाई के विरुद्ध में भी खड़ा हो, तो वह अधर्म नहीं कहलाएगा। 

प्रश्न 6.
धर्म में उत्पन्न आडम्बरों की तुलना घड़ी से करते हुए, पाठ को आधार मानकर टिप्पणी कीजिए। 
उत्तर :
घड़ी इसलिए मूल्यवान है कि वह समय का ज्ञान करवाती है। यदि घड़ी अपने मूल लक्ष्य से हटकर, समय दिखाना छोड़ दे या खराब हो जाए, तो घड़ी का मूल्य ही समाप्त हो जाता है। ठीक इसी प्रकार धर्म अपने विचार और मान्यताओं द्वारा व्यक्ति को सुबोध कराता है। यदि वह नहीं कर पा रहा तो उसका भी अंत होना निश्चित है। प्राचीनकाल में इंसान के जीवन में धर्म का अस्तित्व तक नहीं था किन्तु मानव विकास और सभ्यताओं के विकास ने ढेर सारी मान्यताएँ और विचार उत्पन्न किये। 

हर धर्म का अपना रूप, सबसे अलग मान्यता तय करते हुए एक अर्थ बनाया। धर्मों का मूल स्वभाव परोपकार तथा मानवता पर आधारित था। लेकिन आडंबरों ने इसमें स्थान बनाना शुरू कर दिया। विश्व में विभिन्न धर्मों के लोग और अलग-अलग सम्प्रदायों को मानने वाले विद्यमान हैं। अकेले भारत में ही हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, जैन, मुस्लिम न जाने कितने ही धर्म हैं। समय-समय पर अलग-अलग धर्माचार्य हुए, सबने अपनी-अपनी व्याख्या दी। लोग इसे अपनी समझ और विवेकानुसार अलग दिशाओं में ले गये। 

प्रश्न 7.
धर्म के एकाधिकार से क्या हानियाँ हुई ? विस्तृत रूप से लिखिए। 
उत्तर : 
धर्म पर कुछ मुट्ठी भर लोगों का एकाधिकार हो गया है। यह धर्म के लिए एक दयनीय स्थिति बन गई। यह धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करती है। ये लोग धर्म को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़कर जटिल बना देते हैं। लोग इस जाल में फंसते जाते हैं। आजादी से कुछ साल पहले के भारत में इसी तरह की जटिलता खूब विद्यमान थी। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत लंबे समय तक गुलाम रहा। इस तरह की कुंठित सोच के परिणामस्वरूप ऊँच-नीच, छूआछूत जैसी कुरीतियों से भारतीय समाज जकड़ गया। 

इन आडंबरों के चक्कर में लोगों ने मानवता लगभग भुला ही दी थी। समाज में अब भी ऐसी कुरीतियों मौजूद हैं किन्तु इस स्थिति में पहले की अपेक्षा बहुत सुधार हुआ है। आजकल धर्म का अर्थ लोगों ने बहुत हद तक समझ लिया है। वह आम आदमी से जुड़ गया है। वह स्वयं को इन आडंबरों से मुक्त करने लगा है। अब धर्म की मान्यताओं, धारणाओं तथा परंपराओं में बदलाव हुए हैं। इसी कारण जहाँ समाज के स्तर में सुधार हुआ है, वहीं विकास भी हुआ है। 

साहित्यिक परिचय का प्रश्न –

प्रश्न :
पण्डित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का साहित्यिक परिचय लिखिए। 
उत्तर : 
साहित्यिक परिचय-संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, अवधी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, षा में के साथ अंग्रेजी. लेटिन और फ्रेंच पर भी गलेरी जी की अच्छी पकडे थी। गलेरी जी ने लेखन के लिए खड़ी बोली हिन्दी को अपनाया। उनकी भाषा सरल, सरस तथा विषयानुकुल है। उसमें सहज प्रवाह है। 

संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ ही लोक प्रचलित शब्दों और मुहावरों को आपकी भाषा में स्थान प्राप्त है। शैली साहित्यकार के नाते गुलेरी जी के विविध रूप हैं। इस कारण आपने विवेचनात्मक, वर्णनात्मक तथा संवादात्मक शैली को अपनाया है। आवश्यकतानुसार आपने समीक्षात्मक तथा नाटकीय शैली का भी प्रयोग किया है। उनकी रचनाओं में यत्र-तत्र व्यंग्य के भी छींटे हैं। 

प्रमुख कृतियाँ – कहानियाँ – सुखमय जीवन, बुद्ध का काँटा, उसने कहा था। सिर्फ ‘उसने कहा था’ कहानी से गुलेरी जी हिन्दी कहानीकारों में अमर हो गये हैं।

सम्पादन – (1) समालोचक (1903-06 ई.), (2) मर्यादा (1911 से 12 ई.), (3) प्रतिभा (1918-20 ई.), (4) नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-22 ई.)। 

सम्मान – गुलेरी जी विद्वान् इतिहासकार थे। इस कारण आपको ‘इतिहास दिवाकर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था।

सुमिरिनी के मनके Summary in Hindi

जन्म – सन् 1883 ई.। स्थान – पुरानी बस्ती, जयपुर (राजस्थान)। संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित, बहुभाषाविद्, प्राचीन इतिहास और पुरातत्व वेत्ता, भाषा-विज्ञानी, लेखक और समालोचक। सन् 1904 से 1922 तक अनेक महत्वपूर्ण संस्थानों में प्राध्यापक रहे। पं. मदनमोहन मालवीय के आग्रह पर 11 फरवरी, 1922 ई. को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग के प्राचार्य बने। निधन – सन् 1922 ई.।

भाषा – संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, अवधी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, बांग्ला (भारतीय भाषा में) के साथ अंग्रेजी, लेटिन और फ्रेंच पर भी गुलेरी जी की अच्छी पकड़ थी। गुलेरी जी ने लेखन के लिए खड़ी बोली हिन्दी को अपनाया। आपने निबन्ध, कहानी, समालोचना, इतिहास आदि पर लेखनी चलाई। उनकी भाषा सरल, सरस तथा विषयानुकूल है। उसमें सहज प्रवाह है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ ही लोक प्रचलित शब्दों और मुहावरों को आपकी भाषा में स्थान प्राप्त है। 

उनके भाषा जगत में विभिन्न भाषाओं के शब्द मिल जाते हैं। उनकी कहानी ‘उसने कहा था’ में पंजाबी शब्द ही नहीं पंजाबी वाक्य भी प्रयुक्त हुए हैं। इस प्रकार आपकी भाषा अत्यन्त समृद्ध और. सम्पन्न है। आप वर्णित विषय के अनुरूप शब्द-चयन में निपुण हैं।

शैली – साहित्यकार के नाते गुलेरी जी के विविध रूप हैं। इस कारण आपने विवेचनात्मक, वर्णनात्मक तथा संवादात्मक शैली को अपनाया है। आवश्यकतानुसार आपने समीक्षात्मक तथा नाटकीय शैली का.भी प्रयोग किया है। उनकी रचनाओं में यत्र-तत्र व्यंग्य के भी छींटे हैं। ‘धर्म’ के सम्बन्ध में उपदेशकों के बारे में गुलेरी जी का यह कथन देखने योग्य हैं “हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बन्द हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्जे सुधारना तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।” 

प्रमुख कृतियाँ कहानियाँ सुखमय जीवन, बुद्ध का काँटा, उसने कहा था। सिर्फ ‘उसने कहा था’ कहानी से गुलेरी जी हिन्दी कहानीकारों में अमर हो गये हैं। 

निबन्ध – गुलेरी जी ने निबन्धों (विविध विषयों पर) की रचना की। ये निबन्ध अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। – सम्पादन गुलेरी जी ने चार पत्रिकाओं का सम्पादन किया –

  1. समालोचक (1903-06 ई.) 
  2. मर्यादा (1911 से 12 ई.) 
  3. प्रतिभा (1918-20 ई.) 
  4. नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-22 ई.)। 

सम्मान – गुलेरी जी विद्वान् इतिहासकार थे। इस कारण आपको ‘इतिहास दिवाकर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था। 

पाठसारांश इस पाठ का नाम है सुमिरिनी के मनके, जिसके अन्तर्गत तीन लघु वृत्तांत प्रस्तुत किए गए हैं इनके शीर्षक हैं (क) बालक बच गया, (ख) घड़ी के पुर्जे और (ग) ढेले चुन लो। इनका सारांशं निम्न प्रकार है 

(क) बालक बच गया – एक पाठशाला के वार्षिक उत्सव में गुलेरी जी को भी बुलाया गया था। उस पाठशाला के प्रधानाध्यापक का आठ साल का इकलौता पुत्र भी वहाँ उपस्थित था। उसका मुँह पीला, आँखें सफेद थीं और वह नीची नजर किए हुए जमीन को देख रहा था। उसकी प्रतिभा की परीक्षा ली जा रही थी। उसे विभिन्न विषय रटू तोते की तरह रटाए गए थे। प्रधानाध्यापक उपस्थित समुदाय पर अपने पुत्र की प्रतिभा की छाप छोड़ना चाहते थे। बालक से नव रस, भूगोला, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे गए। बालक ने इन सभी प्रश्नों के सही जवाब दिए क्योंकि वे उसे पहले से रटाए गये थे। उपस्थित समुदाय बालक की प्रशंसा कर रहा था। एक वृद्ध ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम जो इनाम माँगो वही दूंगा। बालक कुछ सोचने लगा। 

पिता और अन्य अध्यापकों को यह चिन्ता हुई कि देखें यह क्या जवाब देता है, कौन-सी पुस्तक माँगता है ? बालक के मुख पर तरह-तरह के भाव आ-जा रहे थे अन्त में उसके मुख से शिमला- ‘लड्डू’। पिता और अन्य अध्यापक यह सुनकर निराश हो गए किन्तु गुलेरी जी ने सुख की साँस ली। उन्हें लगा कि सब लोग मिलकर बाल प्रवृत्ति का गला घोंट रहे थे, उस पर अपनी इच्छाएँ लाद रहे थे। शिक्षा रटंत विद्या नहीं है और जबर्दस्ती किसी पर नहीं थोपी जा सकती। शिक्षा के क्रम में हम बालकों की मूल प्रवृत्ति का गला घोंट दें यह कतई जरूरी नहीं है।

(ख) घड़ी के पुर्जे-घड़ी समय बताती है। यदि आपको समय जानना है तो किसी घड़ी वाले से समय पूछकर अपना काम चला लो। यदि अधिक करना चाहो तो स्वयं घड़ी देखना सीख लो किन्तु घड़ीसाज बनने का प्रयास मत करो। यदि तुम घड़ी खोलकर उसके पुर्जे हटाकर उन्हें फिर से साफ करके लगाना चाहोगे तो यह तुमसे संभव न हो सकेगा, तुम उसके अधिकारी नहीं हो। 

घड़ी का यह उदाहरण उपदेशक धर्म के सिलसिले में प्रायः देते हैं। धर्म का रहस्य जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य को नहीं करनी चाहिए। वे कहते हैं कि जो वे कह रहे हैं सुनने वाले चुपचाप उनको मान लें। उन पर तर्क-वितर्क न करें। धर्म का रहस्य जानना उनका काम नहीं है। 

किन्तु इस दृष्टांत से हमारी जिज्ञासा पूर्ण नहीं हो जाती। यदि हमें घड़ी देखना आता है और दो घड़ियों में समय का भारी अंतर दिखता है तो निश्चय ही हमें घड़ी खोलकर यह देखने की जरूरत है कि इसका कौन-सा पुर्जा सही काम नहीं कर रहा। पुर्जे खोलकर ठीक करना भी जरूरी है। उन उपदेशकों को यह भी समझाना जरूरी है कि वे अपनी जेब में परदादा की जो धर्मरूपी घड़ी डाले फिरते हैं, वह बंद हो चुकी है और उनको न चाबी देना आता है, न पुर्जे सुधारना, फिर भी वे दूसरों को उसमें हाथ नहीं लगाने देते। इस लघु निबंध में लेखक ने धर्म उपदेशकों द्वारा धर्म के रहस्य को जानने पर लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत से गलत ठहराया है और उन पर कठोर व्यंग्य-प्रहार किया है।

(ग) ढेले चुन लो – अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार शेक्सपीयर के नाटक ‘मर्चेट ऑफ वेनिस’ की नायिका पोर्शिया अपने वर को सुंदर रीति से चुनती है। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के नाटक ‘दुर्लभ बंधु’ की नायिका पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ हैं सोने की, चाँदी की और लोहे की। इनमें से एक में उसकी प्रतिमूर्ति है। स्वयंवर में भाग लेने वालों को उनमें से एक को चुनना है। सच्चा प्रेमी लोहे की पेटी छूता है और प्रथम पुरस्कार पाता है।
 
लेखक कहता है कि पत्नी चुनने के लिए ऐसी ही लाटरी वैदिक काल के हिन्दुओं में प्रचलित थी। पढ़-लिखकर कोई स्नातक विवाह की इच्छा से किसी कन्या के घर जाता, उसके पिता को गाय भेंट करता और कन्या के सामने कुछ मिट्टी के ढेले रख देता। वह स्नातक उन ढेलों को अलग-अलग जगह से मिट्टी लेकर बनाता था। जैसे-यज्ञवेदी की मिट्टी, गौशाला की मिट्टी, खेत की मिट्टी; चौराहे की मिट्टी, मसान की मिट्टी आदि। 

वह कन्या से एक ढेला उठाने को कहता। अगर कन्या ने गोबरयुक्त मिट्टी का ढेला चुना तो इसका अर्थ होता था कि उसका पति ‘पशुओं का धनी’ होगा, खेत की मिट्टी का ढेला चुनने वाली का पति ‘जमींदार पुत्र’ होगा और यदि मसान की मिट्टी को उसने हाथ लगाया तो तात्पर्य यह लिया जाता कि यह घर को श्मशान बना देगी। यह तो एक प्रकार की लाटरी है जिसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों- आश्वलायन, गोभिल, भारद्वाज आदि में मिलता है। जन्मभर के साथी का चनाव मिट्टी के ढेलों के आधार पर करना कहाँ की बद्धिमत्ता है। व्यक्ति को अपनी बद्धि से चनाव करना चाहिए न कि मिट्टी के ढेलों से। जो रूढ़ियाँ और परम्पराएँ तर्कसंगत और बुद्धिविरोधी हों उन्हें त्याग देना ही श्रेयस्कर है – यही इस लघु निबंध की शिक्षा है। 

कठिन शब्दार्थ :

महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ –

1. एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। 

संदर्भ प्रस्तुत पंक्तियाँ पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा लिखे गए निबंध ‘सुमिरिनी के मनके’ के प्रथम खण्ड ‘बालक बच गया’ से ली गई हैं। यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तके ‘अतंरा भाग-2’ में संकलित है। 

प्रसंग – एक विद्यालय के वार्षिकोत्सव में आठ वर्ष के बालक से प्रश्न पूछे जा रहे थे और वह रटे-रटाए उत्तर दे रहा था। वास्तव में वहाँ के प्रधानाध्यापक अपने बेटे की तथाकथित प्रतिभा की प्रदर्शनी (नुमाइश) कर रहे थे। 

व्याख्या – एक विद्यालय में वार्षिकोत्सव का आयोजन था जिसमें लेखक गुलेरी जी को भी बुलाया गया था। वहाँ के प्रधानाध्यापक का आठ वर्षीय बालक मंच पर प्रदर्शित किया जा रहा था ठीक उसी तरह जैसे मिस्टर हादी का कोल्हू नुमाइश में दिखाया जा रहा हो। प्रधानाचार्य जी का मुख्य उद्देश्य यह दिखाना था कि देखो मेरा पुत्र कितना होशियार है। तरह-तरह के प्रश्न उससे पूछे जा रहे थे और वह सिर झुकाए रटे-रटाए उत्तर दे रहा था। बालक का स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। मुँह पीला और आँखें सफेद थीं जो इस बात को व्यक्त कर रही थीं कि वह रटू तोता है तथा उसकी सामान्य बाल प्रवृत्तियों का दमन करके केवल उसकी पढ़ाई पर जोर दिया जा रहा है। 

विशेष :

  1. लेखक ने बड़ी कुशलता से यह प्रतिपादित किया है कि सूचनाएँ जानना और रटकर उन्हें सुना देना शिक्षा नहीं है। 
  2. बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का गला घोंटकर दी जाने वाली शिक्षा बाल मनोविज्ञान के विपरीत है। 
  3. आठ वर्ष का बालक खेलने-कूदने, खाने-पीने में ज्यादा रुचि रखता है पर माता-पिता रटू तोता बनाकर उसे प्रदर्शनी की वस्तु बना देते हैं। लेखक इसे उचित नहीं मानता। 
  4. भाषा-भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है, जिस पर स्थानीय प्रभाव है। 
  5. शैली-विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।

2. धर्म के दस लक्षण वह सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीतता में फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राणरक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने न मानने का शास्त्रार्थ कह गया और इग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया। यह पूछा गया कि तू क्या करेगा। बालक ने सीखा सिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा। सभा वाह-वाह करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था। 

संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘सुमिरिनी के मनके’ नामक पाठ के प्रथम खण्ड ‘बालक बच गया’ से ली गई हैं। पंडित चंद्रधर शर्मा का यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है। 

प्रसंग : 

एक विद्यालय के वार्षिकोत्सव में प्रधानाचार्य अपने बालक की योग्यता का प्रदर्शन कर रहे थे। उस पढ़ाकू बालक से विभिन्न विषयों के प्रश्न पूछे जा रहे थे और वह उनका रटा-रटाया उत्तर दे रहा था और लोग वाह-वाह’ कर रहे थे किन्तु वास्तविकता यह थी कि ऐसा करके उसकी-बाल प्रवृत्तियों का दमन किया गया था। 

व्याख्या – बालक से वार्षिकोत्सव में तरह-तरह के प्रश्न पूछे जा रहे थे जिनके रटे-रटाए उत्तर वह दे रहा था। इस प्रकार बालक की प्रतिभा का प्रदर्शन कर उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाया जा रहा था। बालक से धर्म के दस लक्षण बताने को कहा गया, उसने रटे हुए लक्षण सुना दिए। पूछने पर नौ रसों के नाम उदाहरण सहित बता दिएं। विज्ञान और भूगोल से जुड़े प्रश्नों-शीतता, चंद्रग्रहण आदि के कारण भी उसने सही-सही बताये। 

उसने दर्शनशास्त्र के प्रश्नों के सही उत्तर दिए और यह भी बता दिया कि इंग्लैंड के राजा हेनरी आठवें की स्त्रियों के क्या नाम थे और पेशवाओं का कुर्सीनामा भी उसने सुना दिया। उससे यह भी पूछा गया कि तू क्या बनना चाहता है। इसका रटा-रटाया जवाब भी उसने दिया कि मैं जीवन-पर्यन्त लोक सेवा करूंगा। उसके उत्तर को सुनकर वहाँ उपस्थित लोग वाह-वाह करते हुए उसकी प्रशंसा कर रहे थे तथा पिता का हृदय अपने पुत्र के इस प्रतिभा-प्रदर्शन पर उल्लास से भर रहा था।
 
विशेष :

  1. लेखक यह कहना चाहता है कि शिक्षा का उद्देश्य रटू तोता बनना नहीं है। 
  2. बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का दमन करके उसे अपनी इच्छानुसार पढ़ाना अमनोवैज्ञानिक और हानिकारक है। 
  3. भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है। 
  4. यहाँ विवरणात्मक शैली प्रयुक्त है।

3. बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पुस्तक माँगता है। बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ कर नकली परदे के हट जाने पर स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, ‘लड्डू’। पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख से साँस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था। पर बालक बच गया। 

संदर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘सुमिरिनी के मनके शीर्षक पाठ के प्रथम अंश ‘बालक बच गया’ से ली गई हैं। इस पाठ के लेखक प्रसिद्ध कहानीकार पं. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ जी हैं और यह हमारी पाठ्य-पुस्तक अंतरा भाग 2′ में संकलित है। 

प्रसंग : एक विद्यालय के वार्षिकोत्सव में आठ वर्ष के बालक की प्रतिभा की प्रदर्शनी हो रही थी। उससे तरह-तरह के सवाल पूछे जा रहे थे और वह उनके रटे-रटाए उत्तर देकर सबकी प्रशंसा प्राप्त कर रहा था। एक वृद्ध महाशय ने बच्चे के सिर पर हाथ रखकर जब मनचाहा इनाम माँगने के लिए कहा तो बच्चे के मुख से अनायास निकला–‘लड्डू’। लेखक निष्कर्ष निकालता है कि यही बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। 

व्याख्या : जब बालक से मनचाहा इनाम माँगने को कहा गया तो बालक सोच में पड़ गया-‘क्या माँगू’। पिता और अध्यापक सोचने लगे कि संभवतः वह किसी किताब को इनाम में माँगेगा। बालक के मुख पर तरह-तरह के भाव आ-जा रहे थे। स्वाभाविक और बनावटी भावों का अन्तर्द्वन्द्व उसके हृदय में चल रहा था। अन्त में कुछ खाँसकर, गला साफ कर बालक ने इनाम में माँगा-‘लड्डू’। यह सुनकर उसका पिता और अध्यापक तो निराश हो गए किन्तु लेखक (गुलेरी जी) प्रसन्न हो गए। उन्हें लगा कि इस बालक ने लड्डू कहकर अपनी ‘बालवृत्ति’ को बचा लिया। स्वाभाविक ही बालक किसी खाने-पीने की चीज के प्रति जो रुचि रखता है, वह पढ़ने के प्रति.या किताबों के प्रति नहीं।

परन्तु अभिभावकों और अध्यापकों ने उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाकर पढ़ाई का जो बोझ उसके ऊपर डाल दिया था, उससे उसका बाल स्वभाव दब गया था, पर लड्डू माँगकर उस बालक ने स्वयं को (अपने बालपन को) जैसे बचा लिया। उसके पिता एवं अन्य लोगों ने बालक की सामान्य स्वाभाविक प्रवृत्तियों का गला घोंटने का पूरा प्रयास किया था पर बालक ने अपनी इच्छा से लड्डू माँगकर जैसे अपने को बचा लिया थ।

विशेष : 

  1. लेखक यह कहना चाहता है कि हमें जोर-जबर्दस्ती करके बालकों को उनकी रुचि के विपरीत शिक्षा नहीं देनी चाहिए।
  2. प्रायः अभिभावक बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ दबाकर उन्हें बाध्य करते हैं कि वे अधिक से अधिक पढ़ें, न तो खेलें, न स्वास्थ्य की चिंता करें और न अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करें। स्वाभाविक प्रवृत्तियों का दमन करके उन पर अपनी इच्छा थोपना उचित नहीं है यही शिक्षा इस पाठ से मिलती है। 
  3. ‘बालक बच गया’ का तात्पर्य यह है कि बालक में मूल प्रवृत्तियाँ पूरी तरह समाप्त नहीं हुईं। ‘लड्डू’ माँगकर बालक ने यह जता दिया कि उसकी रुचि खाने में है किताबों में नहीं। 
  4. भाषा-भाषा सरल-सहज और स्वाभाविक खड़ी बोली हिन्दी है जिसमें मुहावरे भी हैं। 
  5. शैली वर्णनात्मक शैली का प्रयोग इस अवतरण में किया गया है। 

4. धर्म के रहस्य जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य न करे, जो कहा जाए वही कान ढलकाकर सुन ले, इस सत्ययुगी मत के समर्थन में घड़ी का दृष्टांत बहुत तालियाँ पिटवाकर दिया जाता है। घड़ी समय बतलाती है। किसी घड़ी देखना जाननेवाले से समय पूछ लो और काम चला लो। यदि अधिक करो तो घड़ी देखना स्वयं सीख लो किन्तु तुम चाहते हो कि घड़ी का पीछा खोलकर देखें, पुर्जे गिन लें, उन्हें खोलकर फिर जमा दें, साफ करके फिर लगा.लें यह तुमसे नहीं होगा। तुम उसके अधिकारी नहीं। यह तो वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या ? 
क्या इस उपमा से जिज्ञासा बंद हो जाती है ? 

संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ पण्डित चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ जी द्वारा रचित पाठ ‘सुमिरिनी के मनके’ से ली गई हैं। यह अंश इस पाठ के दूसरे खण्ड ‘घड़ी के पुर्जे’ से उद्धृत किया गया है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित किया गया है। 

प्रसंग : धर्म का उपदेश देने वाले विद्वान घड़ी का उदाहरण देकर धर्म के विषय में बताते हैं। घड़ी में केवल समय देखो। उसको खोलकर मत देखो। धर्म के उपदेश सुनो, उस पर तर्क मत करो।

व्याख्या : धर्मोपदेशक प्रायः यह कहा करते हैं कि तुम्हें धर्म के बारे में जो कुछ बताया जाए उसे चुपचाप कान खोलकर सुन लो, उस पर कोई टीका-टिप्पणी मत करो, कोई जिज्ञासा न करो क्योंकि तुम्हें धर्म का रहस्य जानने की कोई आवश्यकता नहीं। इस धर्मरूपी घड़ी का उपयोग तुम्हें केवल समय जानने के लिए करना है न कि घड़ी को पीछे से खोलकर उसके पों को देखने, खोलने, साफ करने या पुनः जोड़ने की जरूरत है। 

जब धर्मोपदेशक धर्म की तुलना घड़ी से करते हैं तो श्रोता ताली बजाकर उनका समर्थन करते हैं। इस प्रकार तालियाँ पिटवाकर उपदेशक लोगों के मन में धर्म का रहस्य जानने के लिये उठी. जिज्ञासा को बेमानी बताकर उसे शांत करना चाहते हैं। किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं। हर व्यक्ति के मन में धर्म का रहस्य जानने की कुछ जिज्ञासा रहती है। साथ ही जो शंकाएँ उसके मन में उठती हैं उनका वह समाधान भी करना चाहता है। 

विशेष : 

  1. लेखक ने धर्मोपदेशकों की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है। वे चाहते हैं कि लोग उनकी बात को चुपचाप सुन लें। न कोई प्रश्न पूछे, न जिज्ञासा व्यक्त करे और न धर्म के रहस्य को जानने का प्रयास करे। 
  2. उपदेशक धर्म की उपमा घड़ी से देते हैं। घड़ी में समय देखना चाहिए, खोलकर उसके पुर्जे नहीं गिनने चाहिए। उसी तरह श्रोता को केवल धर्म की बातें सुननी चाहिए, उसके रहस्य को जानने का प्रयास नहीं करना चाहिए। 
  3. भाषा-भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है। 
  4. शैली-उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। 
  5. धर्मोपदेशकों के आचरण पर व्यंग्य किया गया है। 

5. इसी दृष्टांत को बढ़ाया जाए तो जो उपदेशक जी कह रहे हैं उसके विरुद्ध कई बातें निकल आवें। घड़ी देखना तो सिखा दो, उसमें तो जन्म और कर्म की पख न लगाओ, फिर दूसरे से पूछने का टंटा क्यों? गिनती हम जानते हैं, अंक पहचानते हैं, सइयों की चाल भी देख सकते हैं, फिर आँखें भी हैं तो हमें ही न देखने दो, पड़ोस की घड़ियों में दोपहर के बारह बजे हैं। आपकी घड़ी में आधी रात है, जरा खोलकर देख न लेने दीजिए कि कौन-सा पेच बिगड़ रहा है, यदि पुर्जे ठीक हैं और आधी रात ही है तो हम फिर सो जाएंगे, दूसरी घड़ियों को गलत न मान लेंगे पर जरा देख तो लेने दीजिए। 

संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ द्वारा लिखे गए ‘सुमिरिनी के मनके’ पाठ के लघु शीर्षक ‘घड़ी के पुर्जे’ से ली गई हैं। इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग – 2’ में संकलित किया गया है। 

प्रसंग : धर्म के रहस्य को जानने पर धर्मोपदेशक द्वारा लगाये गये प्रतिबंध को लेखक ने अनुचित बताया है। इसको धर्माचार्य तक सीमित रखना धर्म और समाज दोनों के ही हित में नहीं है। 

व्याख्या : धर्मोपदेशक तो यह चाहते हैं कि धर्म के सम्बन्ध में जो कुछ कहा जाए चुपचाप सुन लो, उसके रहस्य को घडी का काम समय बताना है। यदि घडी खराब हो गई हो तो उसे स्वयं खोलकर देखना ठीक नहीं। घड़ीसाज को ही यह काम करने दो, ऐसा कहकर धर्मोपदेशक यही कहते हैं कि धर्म के रहस्य को जानने की चेष्टा। करना सामान्य व्यक्ति का काम नहीं है किन्तु यदि घड़ी के इस दृष्टान्त को ही आगे बढ़ाया जाए तो धर्माचार्यों के इस प्रतिबंध के विरुद्ध भी कई बातें निकल आएँगी। 

यदि परमात्मा ने हमें आँखें दी हैं, बुद्धि दी है, हम पढ़े-लिखे हैं, घड़ी देखना हमें आता है तो अपनी घड़ी खराब होने पर उसे खोलकर देखने में क्या हर्ज है ? हम जान तो लें कि कौन-सा पेच खराब है जो घड़ी के कार्य में व्यवधान डाल रहा है ? पुर्जे खोलकर देखने से रोकना ठीक नहीं है। किसी अनाड़ी के हाथ में भले ही घड़ी न दो पर जो घड़ीसाजी की परीक्षा पास कर चुका हो, उसे क्यों मना कर रहे हो ? 

विशेष :

  1. धर्म के रहस्य को जानने का अधिकार सबको है, इस पर प्रतिबंध लगाना ठीक नहीं। 
  2. प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग है। घड़ी धर्म का तथा घड़ीसाज-धर्म का रहस्य जानने वाले का प्रतीक है। 
  3. लेखक ने सरल खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया है। 
  4. घड़ी के उदाहरण द्वारा धर्म के रहस्य जानने से रोकने को लेखक ने मनोविज्ञान के विपरीत माना है। 
  5. लेखक द्वारा पख लगाना, टंटा होना, पेच बिगड़ना आदि के प्रयोग के कारण भाषा मुहावरेदार तथा चुटीली हो गई है।

6. ऐसी ही लाटरी वैदिक काल में हिन्दुओं में चलती थी। इसमें नर पूछता था, नारी को बूझना पड़ता था। स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर, सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के यहाँ पहुँच जाता। वह उसे गौ भेंट करता। पीछे वह कन्या के सामने कुछ मट्टी के ढेले रख देता। उसे कहता कि इसमें से एक उठा ले। कहीं सात, कहीं कम, कहीं ज्यादा। नर जानता था कि ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया हूँ और किस-किस जगह की मिट्टी इनमें है। कन्या जानती न थी। यही तो लाटरी की बुझौवल ठहरी। 

संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ द्वारा रचित ‘सुमिरिनी के मनके’ नामक पाठ से ली गई हैं। इस पाठ में तीन लघु कथाएँ हैं। यह अवतरण तीसरी लघु कथा ‘ढेले चुन लो’ से अवतरित है। इस पाठ को हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित किया गया है।

प्रसंग : वैदिक काल में पत्नी चुनने की एक प्रथा थी जिसमें वर अलग-अलग स्थानों से लाए गए मिट्टी के ढेलों को कन्या के सामने रखकर उनमें से एक को चुनने के लिए कहता। कन्या जिस स्थान का ढेला चुनती उसी के आधार पर यह निर्धारित किया जाता कि उसकी संतान कैसी होगी।
 
व्याख्या : वैदिक काल में वधू चुनने की एक प्रथा प्रचलित थी जो एक प्रकार की लाटरी पद्धति पर आधारित थी। इसमें पुरुष प्रश्न पूछता था और नारी उत्तर देती थी। गुरुकुल से पढ़ा कोई स्नातक नहा-धोकर, माला पहनकर विवाह योग्य आयु होने पर किसी बेटी के बाप के घर जा पहुँचता, उसे गौ भेंट में देता और फिर उसकी पुत्री के सामने कई स्थानों से लाई गई मिट्टी के कुछ ढेले रखकर कहता कि इनमें से किसी एक को चुन लो। कन्या जिस स्थान की मिट्टी का ढेला चुनती उसी के आधार पर यह निश्चय किया जाता था कि वह कैसी सन्तान को जन्म देगी। वह वटु तो जानता था कि मिट्टी कहाँ की है पर कन्या नहीं जानती थी। यही इस लाटरी की पहेली होती थी।

विशेष : 

  1. लेखक ने यहाँ लोक में प्रचलित अंधविश्वास पर चोट की है। 
  2. लाटरी, पहेली, ढेले आदि पत्नी चुनने के मापदण्ड नहीं होने चाहिए, यही लेखक कहना चाहता है। 
  3. लेखक की भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है। 
  4. लेखक ने विवरणात्मक तथा उद्धरण शैली का प्रयोग किया है। 
  5. बूझना, बुझौवल, लाटरी इत्यादि प्रचलित शब्दों के प्रयोग ने भाषा को सशक्त बनाया है।

7. जन्मभर के साथी की चुनावट मट्टी के ढेलों पर छोड़ना कैसी बुद्धिमानी है! अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चने हए मटटी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बरा है और लाखों-करोडों कोस दर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के ढेलों – मंगल और शनैश्चर और बृहस्पति-की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है, यह मैं क्या कह सकता हूँ ? बकौल वात्स्यायन के, आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल के मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस की तेज पिण्ड से। 

संदर्भ : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित पाठ ‘सुमिरिनी के मनके’ के तीसरे अंश ‘ढेले चुन लो’ से लिया गया है। इस पाठ के लेखक प्रसिद्ध कहानीकार पं. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ हैं।
 
प्रसंग : इस अवतरण में लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि हमें अंधविश्वासों के आधार पर अपने जीवन साथी का चयन नहीं करना चाहिए। यह बुद्धिमत्ता नहीं है कि हम आकाशीय पिण्डों या मिट्टी के ढेलों पर विश्वास करके अपने जीवन-साथी का चयन करें। 

व्याख्या : वैदिक काल में जगह-जगह की मिट्टी से बनाए देले कन्या के सामने रखे जाते थे और उनमें से एक ढेला चुनने के लिए कहा जाता था। कन्या ने किस प्रकार का ढेला चुना, इस आधार पर ही निर्धारित हो जाता था.कि वह ‘वर’ के लिए उपयुक्त पत्नी होगी या नहीं और उसका भविष्य कैसा होगा ? पत्नी चुनने की इस विधि को लेखक असामयिक तथा अनुचित मानता है। आज हम इस प्रथा के आधार पर जीवन-साथी का चुनाव नहीं कर सकतें क्योंकि यह चयन विधि बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है।

अपनी आँखों से कन्या का रूप-गुण देखकर उसे जीवन साथी के रूप में चुनना ज्यादा उपयुक्त एवं बुद्धिमत्तापूर्ण है। आकाशीय पिण्डों (मंगल, शनैश्चर, बृहस्पति की चाल अर्थात् ज्योतिष) या ढेलों के आधार पर जीवन साथी का चुनाव करना अवैज्ञानिक है। जन्म कुण्डलियों के मिलान से भी जीवन-साथी का चुनाव करना रूढ़िवादिता है। अपने आँख-कान पर विश्वास करके चुनाव करना लाखों-करोड़ों मील दूर स्थित आकाशीय पिण्डों के काल्पनिक हिसाब-किताब (गुणा-भाग) के आधार पर चुनाव करने से लाख गुना बेहतर है।

वात्स्यायन का उदाहरण देकर लेखक पही दष्टिकोण रखने पर जोर देता है। उसने आज प्राप्त हए कबतर को कल मिलने वाले मोर से अच्छा माना है। आज मिलने वाला एक पैसा कल मिलने वाले मोहर की आशा से बेहतर है। आशय यह है कि मनुष्य को अपने वर्तमान को सुधारने सँभालने का ही अधिक ध्यान करना चाहिए। उत्तम भविष्य को कल्पना के पीछे नहीं दौड़ना चाहिए। 

विशेष :

  1. लेखक ने उन पुरानी कपोल कल्पनाओं एवं परम्पराओं का विरोध किया है जिनके आधार पर लोग जीवन-साथी का चुनाव किया करते थे। 
  2. ज्योतिष, जन्मकुण्डली, लाटरी या मिट्टी के ढेलों का स्पर्श कराके जीवन साथी का चुनाव करना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है. यही बताना इस लघु निबंध का उद्देश्य है। 
  3. लेखक ने समाज में प्रचलित अंधविश्वासों पर गहरी चोट की है और लोगों से यह अपेक्षा की है कि वह इन रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों से मुक्त होकर अपनी बुद्धि पर विश्वास करें। 
  4. भाषा-भाषा सरल, सहज एवं बोलचाल की हिन्दी है। 
  5. शैली-विवरणात्मक शैली का प्रयोग इस अवतरण में किया गया है। 

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