कच्चा चिट्ठा
Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
पसोवा की प्रसिद्धि का क्या कारण था और लेखक वहाँ क्यों जाना चाहता था ?
उत्तर :
पसोवा एक बड़ा जैन तीर्थ स्थल है, जहाँ प्राचीन काल से प्रतिवर्ष जैनों का एक बड़ा मेला लगता है जिसमें हजारों यात्री आते हैं। इसी स्थान पर एक छोटी-सी पहाड़ी की गुफा में बुद्धदेव व्यायाम करते थे। यह भी किंवदंती थी कि सम्राट अशोक ने यहाँ एक स्तूप बनवाया था। अब पसोवे में व्यायामशाला और स्तूप के चिह्न तो शेष नहीं हैं परन्तु पहाड़ी अभी तक है। लेखक इस पुरातात्विक महत्त्व वाले गाँव में कुछ पुरातात्विक सामग्री एकत्र करने के लिए जाना चाहता था।
प्रश्न 2.
“मैं कहीं जाता हूँतो ‘छूछे’ हाथ नहीं लौटता।”से क्या तात्पर्य है ? लेखक कौशाम्बी लौटते हुए अपने साथ क्या-क्या लाया ?
उत्तर :
लेखक ब्रजमोहन व्यास जी प्रयाग संग्रहालय के लिए. विभिन्न प्रकार की पुरातात्विक महत्त्व की सामग्री को तलाशते रहते थे अतः जहाँ कहीं भी जाते वहाँ से कुछ न कुछ ऐसी सामग्री अवश्य लाते जिसे संग्रहालय में रखा जा सके। इस प्रकार वे खाली हाथ कभी न लौटते, कुछ न कुछ लेकर ही लौटते थे। कौशाम्बी लौटते समय वे अपने साथ पसोवा गाँव से कुछ बढ़िया मृण्मूर्तियाँ, सिक्के और मनके तो लाए ही, साथ ही 20 सेर वजन वाली चतुर्मुखी शिव की प्रतिमा भी ले आए जो गाँव के बाहर एक पेड़ के नीचे रखी थी।
प्रश्न 3.
“चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो बेचारी को अपना कर्त्तव्यपालन करना ही पड़ता है।”लेखक ने यह वाक्य किस संदर्भ – में कहा और क्यों ?
उत्तर :
पसोवा से जब लेखक कौशाम्बी के लिए इक्के से लौट रहा था तो रास्ते में एक छोटे से गाँव के निकट एक पेड़ के नीचे चतुर्मुखी शिव की प्रतिमा रखी थी। वह जैसे उठाने के लिए उन्हें ललचा रही थी अतः लेखक ने उसे उठाकर इक्के पर रख लिया। उस समय की अपनी मनोदशा को व्यक्त करने के लिए लेखक ने कहा है कि जैसे चांद्रायण व्रत करती (भूखी) बिल्ली के सामने यदि उसका प्रिय आहार चूहा आ जाए तो बेचारी उसे खाकर अपना कर्त्तव्यपालन करेगी ही, उसी प्रकार पुरातात्विक महत्त्व की वस्तुओं के लिए इधर-उधर भटकने वाले व्यास जी को सुनसान स्थान पर पेड़ के नीचे अगर प्रतिमा दिख गई तो उसे उठाना लाजिमी था क्योंकि इसी उद्देश्य से वह इधर-उधर की यात्राएं किया करते थे। अत: वे उसे उठाकर अपने साथ ले आए
प्रश्न 4.
“अपना सोना खोटा तो परखवैया का कौन दोस ?” से लेखक का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
कौशाम्बी मंडल से कोई मूर्ति गायब होने (या स्थानांतरित होने) पर गाँव वालों का संदेह प्रयाग संग्रहालय के व्यास जी पर जाता था। बात सच भी थी क्योंकि वे ही पुरातात्विक महत्त्व की वस्तुओं की खोज में लगे रहते थे। इसी सिलसिले में उन्होंने इस लोकोक्ति का प्रयोग किया है कि ‘अपना सोना खोटा तो परखवैया का कौन दोस’ अर्थात् जब अपने में ही कमी हो तो दूसरों के द्वारा उस ओर संकेत करने पर उन्हें भला कैसे दोषी ठहरा सकते हैं। अपनी वस्तु खोटी (दोषयुक्त) होने पर परखने वाले को दोष नहीं दिया जा सकता। यही इस कथन का मंतव्य है।
प्रश्न 5.
गाँववालों ने उपवास क्यों रखा और उसे कब तोड़ा? दोनों प्रसंगों को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
“महाराज!……… जब से शंकर भगवान हम लोगन क छोड़ के हियाँ चले आए, गाँव भर पानी न पिहिस। अउर तब तक न पी जब तक भगवान गाँव न चलि हैं। अब हम लोगन के प्रान आपै के हाथ में हैं।”मुखिया की बात कहने की शैली कैसी थी तथा लेखक ब्रजमोहन व्यास की क्या प्रतिक्रिया रही? लिखिए।
उत्तर :
व्यास जी किसी गाँव के बाहर एक पेड़ के नीचे रखी चतुर्मुखी शिव की मूर्ति को उठा लाए थे जिसकी पूजा-अर्चना गाँव वाले करते थे। जब गाँव वालों को इस बात का पता चला कि शिवजी अंतर्धान हो गए हैं तो उन्होंने ठान लिया कि जब तक शिवजी वापस नहीं आ जाएँगे तब तक वे उपवास पर रहेंगे और एक बूंद पानी तक न पियेंगे। गाँव के मुखिया ने व्यास जी के कार्यालय में आकर इस सम्बन्ध में उन्हें सूचित किया और विनम्र अनुरोध किया कि आप हमें शिवजी की उस मूर्ति को वापस ले जाने की आज्ञा दें। जब व्यास जी ने वह मूर्ति उन्हें वापस कर दी तभी गाँव वालों ने अपना उपवास तोड़ा। व्यास जी लिखते हैं कि यदि उन्हें पता होता कि गाँव वालों की इतनी ममता उस मूर्ति पर है तो वे उसे उठाकर लाते ही नहीं।
प्रश्न 6.
लेखक बुढ़िया से बोधिसत्व की आठ फुट लंबी सुन्दर मूर्ति प्राप्त करने में कैसे सफल हुआ?
उत्तर :
पुरातात्विक सामग्री की खोज में निकले व्यास जी एक गाँव के खेतों की मेड़ों पर भटक रहे थे तभी उन्हें एक मेड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी मूर्ति पड़ी दिखाई दी जिसका सिर नहीं था। यह मूर्ति कुषाण शासक कनिष्क के राज्यकाल के द्वितीय वर्ष में बनाई गई थी। ऐसी पुरातात्विक महत्त्व की मूर्ति को देखकर वे अत्यंत प्रसन्न हुए और जब उसे उठवाकर लाने लगे तो खेत में निराई करती बुढ़िया ने एतराज किया और कहा कि यह हमारे खेत से निकली है, हम नहीं देंगे।
इसे निकालने में हमारा हल दो दिन रुका रहा उस नुकसान को कौन भरेगा ? व्यास जी ने उसे दो रुपए देकर संतुष्ट किया और तब बुढ़िया ने मूर्ति ले जाने की सहमति प्रदान की। वह मूर्ति अत्यंत मूल्यवान थी, उसके निर्माण का लेख पदस्थल पर अंकित था। एक फ्रांसीसी जानकार उस मूर्ति के दस हजार रुपए तक देने को तैयार था पर व्यास जी ने वह मूर्ति उसे न दी और वह आज तक संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है।
प्रश्न 7.
“ईमान ! ऐसी कोई चीज मेरे पास हुई नहीं तो उसके डिगने का कोई सवाल नहीं उठता। यदि होता तो इतना बड़ा संग्रह बिना पैसा-कौड़ी के हो ही नहीं सकता।” के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है ?
उत्तर :
व्यास जी ने प्रयाग संग्रहालय का निर्माण करने और इसमें एक-एक वस्तु का संग्रह करने में बहुत श्रम किया है। यदि वे ‘ईमान’ पर टिके रहते तो बिना पैसा-कौड़ी खर्च किए इतना बड़ा संग्रहालय खड़ा नहीं कर सकते थे। वे यह कहना चाहते हैं कि संग्रहालय के निर्माण हेतु मैंने सब कुछ दाँव पर लगा दिया, जिसमें ईमान भी शामिल है और जब ईमान मेरे पास है ही नहीं तो भला रुपयों का लालच देकर कोई मेरा ईमान कैसे डिगा सकता है।
यह जवाब उन्होंने उस फ्रांसीसी को दिया था जिसने उनसे कहा कि मैं यदि रुपयों में आपके संग्रहालय की कीमत बताऊँ तो आपका ईमान डिग जायेगा। वह बुद्ध की उस मूर्ति के लिए दस हजार रुपए दे रहा था जिसे व्यास जी ने मात्र दो रुपए में बुढ़िया से प्राप्त किया था, पर व्यास जी ने उसके प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा दिया और आज भी वह मूर्ति प्रयाग संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है।
प्रश्न 8.
दो रुपए में प्राप्त बोधिसत्व की मूर्ति पर दस हजार रुपए क्यों न्यौछावर किए जा रहे थे ?
उत्तर :
बोधिसत्व की जो मूर्ति व्यास जी ने बुढ़िया को दो रुपए देकर प्राप्त की थी और उसे संग्रहालय में रखवा दिया था, उसे फ्रांस का एक डीलर जो संग्रहालय देखने आया था दस हजार रुपए देकर खरीदना चाहता था क्योंकि यह मूर्ति अत्यंत चीन थी और इसका निर्माण मथुरा के कुषाण शासक कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष में हुआ था। इस प्रकार का लेख मूर्ति के पदस्थल पर उत्कीर्ण था। इस पुरातत्व के महत्व की बेशकीमती मूर्ति के लिए फ्रांसीसी डीलर इसी कारण दस हजार रुपए दे रहा था परन्तु व्यास जी ने यह स्वीकार नहीं किया। उन्हें अपना संग्रहालय प्रिय था, उसकी मूर्तियों को वह रुपए के लालच में कैसे बेच सकते थे। इसी कारण उन्होंने दस हजार रुपए की बड़ी रकम का लालच भी ठुकरा दिया।
प्रश्न 9.
भद्रमथ शिलालेख की क्षतिपूर्ति कैसे हुई ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इजियापर गाँव में भद्रमथ का एक शिलालेख मिला था किन्त उसे 25 रुपए देकर मजमदार साहब ने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के लिए खरीद लिया। प्रयाग संग्रहालय में भद्रमथ के शिलालेख पहले से थे अतः अधिक हानि नहीं हुई। व्यास जी ने सोचा कि हजियापुर में और भी पुरातात्विक महत्त्व की सामग्री मिल सकती है यह सोचकर उन्होंने गुलजार मियाँ के यहाँ डेरा डाल दिया। उनके घर के सामने कुँए पर चार खम्भों को परस्पर जोड़ने वाली बँडेरों में से एक बैंडेर पर ब्राह्मी अक्षरों में लेख था। व्यास जी ने वह बँडेर संग्रहालय के लिए निकलवा ली और इस प्रकार भद्रमथ के शिलालेख की क्षतिपूर्ति हो गई।
प्रश्न 10.
लेखक अपने संग्रहालय के निर्माण में किन-किन के प्रति अपना आभार प्रकट करता है और किसे अपने संग्रहालय का अभिभावक बनाकर निश्चित होता है ?
उत्तर :
लेखक ने प्रयाग संग्रहालय के निर्माण में जिन चार महानुभावों की सहायता और सहानुभूति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है उनके नाम हैं-राय बहादुर कामता प्रसाद कक्कड़ (तत्कालीन चेयरमैन), हिज हाईनेस श्री महेन्द्रसिंहजूदेव नागौद नरेश और उनके सुयोग्य दीवान लाल भार्गवेंद्रसिंह और लेखक का स्वामिभक्त अर्दली जगदेव।
प्रयाग संग्रहालय के संरक्षण एवं परिवर्द्धन का उत्तरदायित्व व्यास जी ने सुयोग्य व्यक्ति डॉ. सतीश चंद्र काला को सौंप दिया। ऐसा सुयोग्य अभिभावक संग्रहालय को देकर उन्होंने इस कार्य से संन्यास ले लिया अर्थात् वे निश्चित हो गए।
भाषा-शिल्प –
प्रश्न 1.
निम्नलिखित का अर्थ स्पष्ट कीजिए-
(क) इक्के को ठीक कर लिया
(ख) कील-काँटे से दुरुस्त था
(ग) मेरे मस्तक पर हस्बमामूल चंदन था
(घ) सुरखाब का पर।
उत्तर :
(क) व्यास जी ने अपनी यात्रा के लिए एक इक्के वाले से भाड़ा निश्चित कर लिया और उस इक्के को अपनी सवारी के लिए ‘तय’ कर लिया।
(ख) कील काँटे से दुरुस्त था का तात्पर्य है पूरी तरह से तैयार था।
(ग) व्यास जी प्रतिदिन की भाँति उस दिन भी अपने माथे पर चंदन लगाए हुए थे जब गाँव के 15-20 लोग उनसे मिलने नगरपालिका के दफ्तर में आए।
(घ) सुरखाब का पर का अर्थ है कोई खास बात अर्थात् विशिष्टता होना।
प्रश्न 2.
लोकोक्तियों का संदर्भ – सहित अर्थ स्पष्ट कीजिए-
(क) चोर की दाढ़ी में तिनका
(ख) ना जाने केहि भेष में नारायण मिल जाएँ
(ग) यह म्याऊँ का ठौर था।
उत्तर :
(क) चोर की दाढ़ी में तिनका:जिसने कोई अपराध किया हो, वह स्वयं शंकित रहता है कि कहीं उसका अपराध पकड़ा तो नहीं जायेगा।
संदर्भ – ब्रजमोहन व्यास जी पसोवे से कौशाम्बी लौट रहे थे। तभी एक गाँव के बाहर पेड़ के नीचे सुनसान स्थान पर रखी चतुर्मुखी शिव की मूर्ति को देखकर उन्होंने उसे इक्के पर रखवा लिया और प्रयाग संग्रहालय में रखवा दिया। गाँव वालों को जब पता चला कि मूर्ति कोई ले गया है तो तुरंत ही व्यास जी पर संदेह हुआ और एक दिन जब व्यास जी अपने दफ्तर में थे तभी चपरासी ने सूचना दी कि गाँव से 15-20 आदमी मिलने आए हैं। व्यास जी को आशंका हुई कि हो न हो ये उसी गाँव के लोग हैं और मूर्ति की तलाश में यहाँ आए हैं। चोर की दाढ़ी में तिनके की कहावत का प्रयोग उन्होंने इसी संदर्भ – में किया है।
(ख) ना जाने केहि भेष में नारायण मिल जाएँ बहुमूल्य वस्तु कब और कहाँ मिल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।
संदर्भ – पुरातात्विक वस्तुओं का संग्रह करने के लिए व्यास जी गाँव-गाँव घूमते रहते थे इस आशा में कि ‘ना जाने किस भेष में नारायण मिल जाएँ’ अर्थात् पता नहीं कहाँ से कोई बहुमूल्य सामग्री उनके हाथ लग जाए। ऐसा ही एक दिन हुआ। एक खेत में मेड़ पर उन्हें बोधिसत्व की आठ फुट लंबी सिर कटी मूर्ति मिलीं जो कुषाण शासक कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष में बनाई गई थी। इस प्रकार का लेख उसके. पदस्थल में अंकित था।
(ग) यह म्याऊँ का ठौर था. अत्यंत कठिन कार्य।
संदर्भ – प्रयाग संग्रहालय में यद्यपि आठ बड़े कमरे थे पर सामग्री इतनी अधिक थी कि अब इसे नगरपालिका भवन से हटाकर किसी अलग भवन में स्थानांतरित करने की आवश्यकता अनुभव हो रही थी किन्तु इस हेतु भवन निर्माण के लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता थी। यह तो म्याऊँ का ठौर था–इस लोकोक्ति का प्रयोग करके लेखक यह बताना चाहता है कि यह अत्यधिक कठिन काम था।
योग्यता विस्तार –
प्रश्न 1.
अगर आपने किसी संग्रहालय को देखा हो तो पाठ से उसकी तुलना कीजिए।
उत्तर :
हाँ, मैंने जयपुर का संग्रहालय देखा है जिसमें मध्यकालीन राजपूत राजाओं से जुड़ी अनेक वस्तुएँ संरक्षित हैं। विशेष रूप से राजपूत राजाओं की पोशाकें एवं उनके हथियार मुझे बहुत अच्छे लगे पर उसमें पाषाण मूर्तियाँ उस मात्रा में नहीं हैं जैसी इस पाठ में प्रयाग संग्रहालय में बताई गई हैं।
प्रश्न 2.
अपने नगर में अथवा किसी सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय संग्रहालय को देखने की योजना बनाएँ।
उत्तर :
विद्यार्थी अपने अध्यापकों के साथ किसी राष्ट्रीय संग्रहालय को देखने की योजना बनाएँ और वहाँ जाकर संग्रहालय का भ्रमण करें।
प्रश्न 3.
लोकहित सम्पन्न किसी बड़े काम को करने में ईमान/ईमानदारी आड़े आए तो आप क्या करेंगे?
उत्तर :
लोकहितकारी कार्य करने हेतु यदि ईमान या ईमानदारी का त्याग भी करना पड़े तो मैं कर दूंगा। स्वार्थ के लिए ईमान या ईमानदारी छोड़ना श्रेयस्कर नहीं है पर लोकहित के लिए इसे छोड़ने में कोई हानि नहीं है। लोक-कल्याण के लिए मुझे बेईमान कहा जाना भी बुरा नहीं लगेगा।
Important Questions and Answers
वस्तुनिष्ठ प्रश्न –
प्रश्न 1.
ब्रजमोहन व्यास ने पुरातत्व सामग्री का संकलन-संरक्षण किसके लिए किया था?
उत्तर :
ब्रजमोहन व्यास ने पुरातत्व सामग्री. का संकलन-संरक्षण प्रयाग संग्रहालय के लिए किया था।
प्रश्न 2.
प्रयाग संग्रहालय के नवीन विशाल भवन का उदघाटन किसने किया था?
उत्तर :
प्रयाग संग्रहालय के नवीन विशाल भवन का उद्घाटन जवाहरलाल नेहरू ने किया था।
प्रश्न 3.
ब्रजमोहन व्यास ने उद्घाटन के बाद प्रयाग संग्रहालय का दायित्व किसे सौंपा?
उत्तर :
ब्रजमोहन व्यास ने उद्घाटन के बाद प्रयाग संग्रहालय का दायित्व डॉ. सतीश चन्द्र काला को सौंपा।
प्रश्न 4.
“मैं तो केवल निमित मात्र था। अरुण के पीछे सूर्य था।” किसका कथन है?
उत्तर :
“मैं तो केवल निमित मात्र था। अरुण के पीछे सूर्य था।” ब्रजमोहन व्यास का कथन है।
प्रश्न 5.
संग्रहालय के नए भवन का नक्शा किसने बनाया था?
उत्तर :
बंबई के विख्यात इंजीनियर मास्टर साठे और मूता’ ने संग्रहालय के नए भवन का नक्शा बनाया था।
प्रश्न 6.
ओरियंटल कांफ्रेंस का अधिवेशन कहाँ.पर हुआ था?
उत्तर :
ओरियंटल कांफ्रेंस का अधिवेशन मैसूर में हुआ था।
प्रश्न 7.
लेखक कौन-से सन में कौशाम्बी गया था? .
उत्तर :
लेखक सन् 1936 में कौशाम्बी गया था।
प्रश्न 8.
बुढ़िया ने मूर्ति देने के बदले कितने रुपये लिए थे?
उत्तर :
बुढ़िया ने मूर्ति के बदले दो रुपये लिए थे।
प्रश्न 9.
1938 में गवर्नमेंट आफ इंडिया के पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर-जनरल कौन थे? ‘
उत्तर :
1938 में गवर्नमेंट आफ इंडिया के पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर-जनरल श्री के. एन. दीक्षित जी थे।
प्रश्न 10.
‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ इस लोकोक्ति का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जब कोई चोरी करता है, तो पूछताछ में वह घबरा जाता है। इसी को कहते हैं कि चोर की दाढ़ी में तिनका होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसने गलत किया होता है वह अपनी जुर्म भावना से ही घबरा जाता है।
प्रश्न 11.
“लभते वा प्रार्थयिता न वा श्रियम् श्रिया दुरापः कथमीप्सितो भवेत्।” अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर :
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कह रहा है कि लक्ष्मी की इच्छा करने वाले को लक्ष्मी मिले या न मिले परन्तु यदि लक्ष्मी किसी के पास जाना चाहें तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता।
प्रश्न 12.
“काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेद पिपकाकयोः।
प्राप्ते वसन्तसमये काकः काकः पिकः पिकः।।”
भावार्थ लिखिए।
उत्तर :
कवि कहता है कि कौआ भी काला होता है, कोयल भी काली होती है। दोनों में भेद करना मुश्किल है। परन्तु वसंत के आते ही पता चल जाता है कि कौन कौआ है और कौन कोयल।
लघूत्तरात्मक प्रश्न –
प्रश्न 1.
“तीनों कारणों में से प्रत्येक मुझे प्रलुब्ध करने के लिए पर्याप्त थे” इस वाक्य के सन्दर्भ में बताइए कि व्यास जी को किस बात का लालच था तथा उसके तीन कारण कौन-से थे ?
उत्तर :
व्यास जी ने सुन रखा था कि दक्षिण भारत ताम्रमूर्तियों और तालपत्र पर लिखी पोथियों की मंडी है। इन दोनों का ही प्रयाग संग्रहालय में अभाव था। बहुत दिनों पहले मैसूर में ओरियंटल कांफ्रेन्स का अधिवेशन था। लेखक के मित्र कविवर ठाकुर गोपालशरण सिंह साहित्य विभाग के सभापति थे। लेखक तीन कारणों से दक्षिण भारत की यात्रा करना चाहता था। एक, अपने मित्र ठाकर गोपालशरण सिंह से मिलने का अवसर पाने के लिए। दो, लेखक कभी दक्षिण भारत नहीं गया था। यह वहाँ जाने का अवसर था। तीन, वहाँ ताम्रमूर्तियों और तालपत्र पर लिखी पुस्तकें मिलने की आशा थी।
प्रश्न 2.
श्रीनिवास जी कौन थे और उनके पास पुरातात्विक महत्त्व की क्या सामग्री थी? व्यास जी ने उनसे क्या खरीदा?
उत्तर :
श्रीनिवास जी मद्रास हाईकोर्ट के वकील थे और पुरातात्विक वस्तुओं के प्रेमी और संग्रहकर्ता भी थे। उनके पास सिक्कों और कांस्य एवं पीतल की मूर्तियों का अच्छा संग्रह था। उनके यहाँ चार-पाँच बड़े-बड़े नटराज भी थे पर उनकी कीमत पच्चीस हजार रुपए थी। व्यास जी ने चार-पाँच सौ रुपए की पीतल और कांस्य की मूर्तियाँ प्रयाग संग्रहालय के लिए ली।
प्रश्न 3.
तालपत्र पर लिखी पोथियाँ व्यास जी ने दक्षिण यात्रा में कहाँ से और कैसे प्राप्त की ?
उत्तर :
व्यास जी ओरियंटल कांफ्रेन्स में भाग लेने के लिए अपने मित्र गोपालशरण सिंह के साथ मैसूर गए थे। उन्हें पता था कि दक्षिण भारत ताम्रमूर्तियों एवं तालपत्र पर लिखी पोथियों की मंडी है पर उन्हें तालपत्र पर लिखी पोथियाँ नहीं मिल सकी थीं। अधिवेशन की समाप्ति के बाद वे रामेश्वरम् की यात्रा हेतु चले गए, वहाँ पण्डों ने उन्हें घेर लिया। व्यास जी ने गोपालशरण सिंह को राजा साहब के रूप में पेश किया और कहा जो पण्डा राजा साहब को जितनी अधिक तालपत्र पर लिखी पोथियाँ भेंट करेगा वही उनका पण्डा होगा। एक युवक पण्डा सिर पर एक छोटा-सा गट्ठर लादकर ले आया और उसने तालपत्र पर लिखी अनेक पोथियाँ राजा साहब को भेंट कर दी।
प्रश्न 4.
प्रयाग संग्रहालय के लिए नए भवन की आवश्यकता क्यों पड़ी?
उत्तर :
अभी तक प्रयाग संग्रहालय नगरपालिका के भवन में ही चल रहा था। नगरपालिका ने इसके हेतु आठ बड़े-बड़े कमरे दे रखे थे किन्तु अब संग्रहालय के पास विविध प्रकार की पुरातात्विक महत्त्व की प्रचुर सामग्री एकत्र हो गयी थी जिसमें दो हजार पाषाण मूर्तियाँ, पाँच-छह हजार मृण्मूर्तियाँ, कई हजार चित्र, चौदह हजार हस्तलिखित पुस्तकें, हजारों सिक्के, मनके, मोहरें इत्यादि थे। इनका प्रदर्शन और संरक्षण कठिन कार्य था अतः प्रयाग संग्रहालय हेतु पृथक् नए भवन की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। .
प्रश्न 5.
“मैं तो केवल निमित्त मात्र था। अरुण के पीछे सूर्य था।” व्यास जी के इस कथन का आशय क्या है ? इससे उनके चरित्र की किस विशेषता का परिचय मिलता है ?
उत्तर :
‘प्रयाग संग्रहालय’ के लिए पुरातत्व की वस्तुओं के संग्रह और संरक्षण तथा उसके लिए विशाल भवन बनवाने में व्यास जी ने बहुत परिश्रम किया था। इस संग्रहालय को तैयार करने का श्रेय एकमात्र उनका ही है। परन्तु व्यास जी ने इसका श्रेय नहीं लिया है। उन्होंने इसका श्रेय ईश्वर को दिया है। उन्होंने स्वयं को ‘अरुण’ (प्रकाश) माना है। अरुण (प्रकाश) के पीछे सूर्य होता है। सूर्य के तेज से ही प्रकाश संसार में फैलकर अंधेरा दूर करता है। उसी प्रकार लेखक अरुण (प्रकाश) है तथा उसको प्रेरित करने वाला सूर्य (ईश्वर) है। ईश्वर ने प्रयाग संग्रहालय बनाने का महान् कार्य किया है। व्यास जी तो केवल कारण हैं। इस स्वीकृति से व्यास जी की विनम्रता व्यक्त होती है।
प्रश्न 6.
कवि ठाकुर के कवित्त को लेखक ने इस पाठ के अंत में किस उद्देश्य से दिया है ? उसका सार क्या है ?
उत्तर :
रीतिकाल के कवि ठाकुर का एक कवित्त इस पाठ के अंत में दिया गया है जिसमें यह बताया गया है कि बड़े-बड़े काम जो असंभव से प्रतीत होते हैं, हिम्मत से पूरे हो जाते हैं। जिसने साहस नहीं खोया वह कुछ भी कर सकता है। मन में दृढ़ता और संकल्प करने से क्या नहीं हो सकता। यदि चार लोग चारों कोने गहकर सुमेरु पर्वत को हिलाकर उखाड़ें तो निश्चय ही वह भी उखड़ जाएगा। प्रयाग संग्रहालय का निर्माण ऐसा ही दुरूह कार्य था पर साहस एवं दृढ़ संकल्प के बल पर ही व्यास जी इसे पूरा कर सके।
प्रश्न 7.
व्यास जी और प्रयाग संग्रहालय के बारे में संक्षेप में बताइए।
उत्तर :
‘कच्चा चिट्ठा’ ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा का एक अंश है। व्यास जी इलाहाबाद नगरपालिका के ई. ओ. (एक्जीक्यूटिव आफीसर) थे और पुरातात्विक वस्तुओं के संग्रह की ओर उनकी रुचि थी। उन्होंने बिना कुछ अधिक खर्च किए अपने श्रम एवं अध्यवसाय से ‘प्रयाग संग्रहालय’ निर्मित कर दिया जिसमें दो हजार पाषाण मूर्तियाँ, पाँच-छह हजार मृण्मूर्तियाँ, कई हजार चित्र, चौदह हजार हस्तलिखित पुस्तकें, हजारों सिक्के, मनके, मोहरें आदि संरक्षित हैं। इनका प्रदर्शन और संरक्षण कोई हँसी-खेल नहीं है।
प्रश्न 8.
कौशम्बी से लौटते हुए लेखक साथ में क्या-क्या लेकर आया?
उत्तर :
लेखक को पुरातत्व से जुड़ी, इतिहास की कड़ियाँ, प्राचीनकाल के शिल्पों को इकट्ठा करने का शौक था। . लेखक जब भी कहीं जाता, तो वह वहाँ से बिना कुछ लिए खाली हाथ नहीं लौटता था। वह अपने साथ वहाँ के इतिहास से जुड़ी कोई न कोई पुरातत्व महत्व रखने वाली वस्तु लेकर ही आता। लेखक ने. गाँव से पुराने सिक्के, मनके, मृणमूर्तियाँ त्यादि इकट्ठा की थीं और कौशांबी से लौटते हुए अपने साथ एक 20 सेर की शिव की पुरानी मूर्ति लाया था।
प्रश्न 9.
मूर्ति गायब होने पर लोग लेखक को क्यों दोष देते थे?
उत्तर :
लेखक को मूर्ति, पुराने लेख तथा शिलालेखों का बहुत शौक था। वह इन सब कृतियों को इकट्ठा करने के लिए किसी हद तक जाकर उन चीजों को उठाकर अपने पास रख लेता था। लेखक की यह आदत जगजाहिर थी। पुरातत्व महत्व को समझते हुए जो भी वस्तु लेखक को अच्छी लगती उसको देखते ही अपने साथ ले जाता था। उसकी इस आदत से सभी भली-भाँति परिचित थे। इसलिए जब भी कहीं मूर्ति गायब होती, तो लोग लेखक का नाम लेते थे। इसलिए लेखक भी उनके दोष को बिना संकोच और विवाद को स्वीकार कर लेता था।
प्रश्न 10.
ईमान और संग्रह दोनों एक साथ बड़ी मुश्किल है।’ पाठ के आधार पर इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लेखक कहता है कि जो लोग ईमान की बात करते हैं, वह भी कभी-न-कभी बेईमान हो जाते हैं। लेखक खुद को ईमान जैसी चीजों से परे रखता है। उसका मानना था कि उसके पास जो चीज है ही नहीं, उसके खोने या चले जाने का सवाल ही नहीं। लेखक खुद को बेईमान मानता है। यह बात इस उदाहरण से समझें तो समझने में आसनी होगी। वह कहीं की मूर्ति चोरी-छुपे उठा लाता था। उसने मूर्ति पाने के लिए बुढ़िया को दो रुपये का लालच भी दिया था। मंगर लेखक संग्रहालय के साथ हमेशा ईमानदार रहा और उसके साथ कभी बेईमानी नहीं की। उसे पैसे का लालच भी नहीं था वरना उसके पास अपार संपत्ति होती।
निबन्धात्मक प्रश्न –
प्रश्न 1.
दीक्षित साहब कौन थे? उन्होंने व्यास जी को अर्द्ध-सरकारी पत्र किस सिलसिले में लिखा था ?
उत्तर :
श्री. के. एन. दीक्षित भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के डायरेक्टर जनरल थे, उन्हें प्रयाग संग्रहालय से सहानुभूति थी और वे व्यास जी के मित्र थे। पुरातत्व विभाग श्री मजूमदार के नेतृत्व में कौशाम्बी में खुदाई करा रहा था। उन्हें पता चला कि हजियापुर में भद्रमथ का एक शिलालेख है।
वे उस शिलालेख को उठवाकर ले जाना चाहते थे पर हजियापुर के जमींदार गुलजार मियाँ ने एतराज किया। वह व्यास जी का भक्त था, उसने कहा कि यह शिलालेख 25 रुपए में प्रयाग संग्रहालय को दिया जा चुका है और जब तक व्यास जी न कहेंगे यह यहाँ से नहीं हटेगा। मजूमदार साहब ने थाने में रिपोर्ट कर दी पर गुलजार मियाँ के आदमियों ने उसे न ले जाने दिया। मजूमदार ने इसकी शिकायत नमक-मिर्च लगाकर दीक्षित साहब से की तब इस बारे में उन्होंने एक अर्द्ध-सरकारी पत्र व्यास जी को लिखा था।
प्रश्न 2.
प्रयाग संग्रहालय के नए भवन का निर्माण व्यास जी ने किस प्रकार कराया ?
उत्तर :
प्रयाग संग्रहालय के पथक विशाल भवन के निर्माण के लिए प्रचुर धन की आवश्यकता थी। सहसा एक उपाय व्यास जी को सूझ गया। म्युनिसिपैलिटी एक्ट में एक धारा है कि एकज़ेकेटिव आफिसर मुकदमा चलाने के स्थान पर हरजाना लेकर समझौता कर ले। साथ ही भवन निर्माण की अनुमति देने से नगरपालिका को नियमित शुल्क भी मिलता था, इन दोनों मदों से बीस हजार रुपया साल की आय होती थी।
उन्होंने संयुक्त प्रांत की सरकार से स्वीकृति ले ली थी कि इस आय का ‘संग्रहालय निर्माण कोष’ बना दिया जाए। दस वर्ष के भीतर दो लाख रुपए एकत्र हो गए। डॉ. पन्नालाल, जो सरकार के परामर्शदाता थे, के सौजन्य और सहायता से संग्रहालय के लिए एक भूखण्ड भवन निर्माण हेतु मिल गया। जवाहरलाल नेहरू ने शिलान्यास की स्वीकृति ही नहीं दी. अपितु मुम्बई (तब बम्बई) के विख्यात इंजीनियर ‘मास्टर साठे और मूता’ को लिखकर उनसे नए भवन का नक्शा भी बनवा दिया। इस प्रकार संग्रहालय हेतु नये भवन का निर्माण हो सका।
प्रश्न 3.
ब्रजमोहन व्यास ने प्रयाग संग्रहालय के लिए क्या योगदान दिया? संक्षेप में बताइए।
अथवा
‘कच्चा चिट्ठा’ के आधार पर प्रयाग संग्रहालय को ‘ब्रजमोहन व्यास’ के योगदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
व्यास जी ने पुरातात्विक महत्त्व की प्रचुर सामग्री को पाने के लिए आस-पास की खाक छानी और धीरे-धीरे करके सामग्री एकत्र की, साथ ही वे लोभ-लालच से दूर रहे। बोधिसत्व की कुषाणकाल में निर्मित मूर्ति उन्हें मात्र दो रुपए खर्च करके प्राप्त हो गई थी। एक फ्रांसीसी डीलर उसके दस हजार रुपए देना चाहता था पर उन्होंने अपना ईमान न डिगाया।
प्रयाग संग्रहालय के नये भवन का निर्माण कराया, नेहरू जी से उसका शिलान्यास करवाया और फिर नगरपालिका भवम से संग्रहालय को नवीन भवन में स्थानांतरित कर सुयोग्य अभिभावक डॉ. सतीश चंद्र काला को संग्रहालय के संरक्षण एवं परिवर्द्धन की जिम्मेदारी सौंपकर उन्होंने संन्यास ले लिया। निश्चय ही प्रयाग संग्रहालय को निर्मित करने में व्यास जी की महती भूमिका रही हैं।
साहित्यिक परिचय का प्रश्न –
प्रश्न :
ब्रज मोहन व्यास का साहित्यिक परिचय लिखिए।
उत्तर :
साहित्यिक परिचय भाषा-व्यास जी संस्कृत साहित्य के अध्येता थे। आपकी भाषा परिष्कृत प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है। आपकी भाषा में तत्सम शब्दों के साथ अरबी, फारसी शब्द, लोक प्रचलित शब्द, अंग्रेजी के शब्द आदि भी मिलते हैं। संस्कृत भाषा के यथास्थान दिये गये उद्धरण भाषा को सशक्त बनाने वाले हैं। यत्र-तत्र मुहावरों का प्रयोग भी आपने किया है।
शैली : व्यास जी ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। इसके साथ-साथ विवरणात्मक शैली को भी अपनाया है। जीवनी तथा आत्मकथा के लिए ये शैलियाँ उपयुक्त भी हैं।
कृतियाँ-व्यास जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
- जानकी हरण (कुमारदास कृत) का अनुवाद।
- पं. बालकृष्ण भट्ट (जीवनी)।
- पं. मदन मोहन मालवीय (जीवनी)।
- मेरा कच्चा चिट्ठा (आत्मकथा)।
कच्चा चिट्ठा Summary in Hindi
लेखक परिचय :
जन्म – सन् 1886 ई., स्थान-इलाहाबाद, शिक्षा-संस्कृत का ज्ञान पं. बालकृष्ण भट्ट और पं. गंगानाथ झा से प्राप्त। सन् 1921 से 1943 तक इलाहाबाद नगरपालिका के कार्यपालक अधिकारी तथा सन् 1944 से 1951 तक लीडर समाचार पत्र समूह के जनरल मैनेजर रहे। निधन 23 मार्च, 19631.
साहित्यिक परिचय – भाषा-व्यास जी संस्कृत साहित्य के अध्येता थे। आपकी भाषा परिष्कृत प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है। आपकी भाषा में तत्सम शब्दों के साथ अरबी, फारसी शब्द, लोक प्रचलित शब्द, अंग्रेजी के शब्द आदि भी मिलते हैं। संस्कृत भाषा के यथास्थान दिये गये उद्धरण भाषा को सशक्त बनाने वाले हैं। यत्र-तत्र मुहावरों का प्रयोग भी आपने किया है।
शैली-व्यास जी ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। इसके साथ-साथ विवरणात्मक शैली को भी अपनाया है। जीवनी तथा आत्मकथा के लिए ये शैलियाँ उपयुक्त भी हैं।
कृतियाँ व्यास जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
- जानकी हरण (कुमारदास कृत) का अनुवाद।
- पं. बालकृष्ण भट्ट (जीवनी)।
- पं. मदन मोहन मालवीय (जीवनी)।
- मेरा कच्चा चिट्ठा (आत्मकथा)।
व्यास जी की सबसे बड़ी रचना प्रयोग का विशाल और प्रसिद्ध संग्रहालय है, जो पुरातत्व के महत्त्व की अनेक मूर्तियों, सिक्कों तथा हस्तलिखित पुस्तकों, चित्रों आदि के लिए प्रसिद्ध है।
पाठ सारांश :
इलाहाबाद नगरपालिका के कार्यपालक अधिकारी (एक्जीक्यूटिव ऑफीसर) पद पर कार्य करते हुए ब्रजमोहन व्यास ने. प्रयाग संग्रहालय के लिए पुरातत्व सामग्री का संकलन और संरक्षण किया। संग्रहालय का नवीन विशाल भवन बनवाया और उसका उद्घाटन जवाहरलाल नेहरू से कराया। तत्पश्चात् उसकी देख-रेख का कार्य डॉ. सतीश चन्द्रे काला को सौंप दिया। प्रस्तुत पाठ व्यास जी की आत्मकथा ‘कच्चा चिट्ठा’ का एक अंश है।
लेखक ने इसमें संग्रहालय के लिए पुरातत्व के महत्त्व की मूर्तियों, मुद्राओं, चित्रों, हस्तलिखित ग्रन्थों आदि के संग्रह में आने वाली कठिनाइयों तथा बिना अधिक पैसा खर्च किये इन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए किये गये प्रयासों का वर्णन किया है। लेखक ने चतुर्मुख शिव की मूर्ति एक खेत से उठवा ली किन्तु ग्रामवासियों के निवेदन पर लौटा दी। एक बार कौशाम्बी जाने पर खेत की मेंड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट लम्बी बिना सिर की मूर्ति लेखक ने देखी। खेत की मालकिन बुढ़िया से दो रुपये में वह मूर्ति खरीद ली। इस मूर्ति को उसने एक फ्रांसीसी को दस हजार रुपये में भी नहीं बेचा। इसी प्रकार दक्षिण भारत की यात्रा कर लेखक ने अनेक ताम्र मूर्तियाँ, हस्तलिखित पोथियाँ, मुद्राएँ, मनके, शिलालेख आदि चीजें संग्रहालय के लिए प्राप्त की।
कठिन शब्दार्थ :
- पूर्वक्रमानुसार = पहले बनाई गई योजना के अनुसार।
- कौशाम्बी = एक बौद्ध तीर्थस्थल।
- हई है = है ही।
- इक्का = घोड़े द्वारा खीची जाने वाली छोटी गाड़ी।
- इक्के को ठीक कर लिया = इक्के का भाड़ा निश्चित कर लेना।
- कील काँटे से दुरस्त = पूरी तरह तैयार।
- पसोवा = एक जैन तीर्थस्थल।
- बुद्धदेव = भगवान बुद्ध।
- विषधर = जहरीला।
- किंवदंती = लोगों द्वारा कही गई बात, कहावत।
- सन्निकट = पास।
- स्तूप = बौद्ध स्मारक जो महात्मा बुद्ध के अवशेषों पर निर्मित किए गए।
- केश = बाल।
- नखखंड = नाखूनों का भाग।
- छूछे हाथ = खाली हाथ।
- मृण्मूर्तियाँ = मिट्टी की मूर्तियाँ।
- मनके = माला के मनके जैसे आकार वाली पुरातात्विक सामग्री।
- चतुर्मुख शिव = चार मुख वाले शिव की मूर्ति।
- चांद्रायण व्रत = ऐसा व्रत जिसमें चन्द्रमा निकलने के बाद उसके दर्शन करके ही भोजन ग्रहण किया जाता है।
- कूकुर = कुत्ता।
- पहरू = पहरेदार।
- अंतर्धान = छिप जाना (गायब हो जाना)।
- मानसिंह, तहसीलदार = दो प्रसिद्ध डाकुओं के नाम जो पिता-पुत्र थे।
- स्थानांतरित = एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना।
- परखवैया = परीक्षा या परख करने वाला।
- प्रख्यात = प्रसिद्ध।
- इत्तिला की = सूचित किया।
- निकटस्थ = निकट स्थित।
- माथा ठनका = चिंतित होना (संदेह होना)।
- आघात = चोट।
- नतमस्तक होकर = अत्यंत विनम्रता, से सिर झुकाकर।
- हस्बमामूल = हमेशा की तरह।
- हियाँ = यहाँ।
- न पिहिस = नहीं पिया।
- हवाले कर दिया = सौंप दिया।
- करतूत = काम।
- लारी = बस।
- झख मारता फिरा = परेशान हुआ।
- छठे-छमासे = छ: महीने का समय, बहुत दिनों में कभी-कभी।
- दिल फड़क उठना = प्रसन्न होना।
- नारायण = भगवान।
- डाँड़-डाँड़ = मेड़ पर।
- बोधिसत्व = महात्मा बुद्ध (बुद्ध पूर्वजन्मों में बोधिसत्व कहे जाते थे)।
- पदस्थल = पैर।
- निरा रही थी = खेत की निराई कर रही थी (खर-पतवार निकालने की क्रिया)।
- तमककर = क्रोध व्यक्त करती हुई।
- हर = हल।
- निकरवावा = निकलवाया।
- ई नकसान = यह नुकसान।
- कउन भरी = कौन पूरा करेगा।
- मुँह लगना = बहस करना।
- ठनठनाया = झंकृत किया (बजाया)।
- अंडसै = अवरोध, रुकावट।
- डेहरी लायक = दरवाजे के उपयुक्त।
- मने नाहीं करित = मना नहीं कर रही।
- डीलर = व्यापारी।
- ईमान डिग जाए = लालच आना।
- बँडेरी = छप्पर को साधने वाली मोटी बल्ली।।
- मस्तक ऊँचा कर रही है = शोभा बढ़ा रही है।
- सुरखाब का पर लगना = विशिष्ट होना।
- बेसिर पैर = निराधार, तर्कहीन।
- कनिष्क = कुषाण सम्राट।
- उत्कीर्ण = उकेरना (पत्थर पर लिखना)।
- दिल दूना होना = प्रसन्न हो जाना।
- अनुप्राणित = प्रेरित।
- खाक छानना = परेशानी, उठाना, भटकना।
- पुरातत्व विभाग = पुरानी चीजों को सहेजकर रखने वाला सरकारी महकमा।
- डायरेक्टर जनरल = महानिदेशक।
- साधु प्रकृति = सीधे-सादे स्वभाव वाले।
- दबदबा = प्रतिष्ठा।
- एतराज = विरोध, आपत्ति।
- म्युनिसिपैलिटी = नगरपालिका।
- पाषाण मर्तियाँ = पत्थर की मूर्तियाँ।।
- आमादा हो गए = तत्पर हो जाना।
- रपट = रिपोर्ट।
- नोन = मिर्च
- लगाकर = बढ़ा-चढ़ाकर कहना।
- हाकिम = अधिकारी।
- अर्धसरकारी पत्र = डी.ओ. (D.O.).Demi Official Letter, एक ऐसा पत्र जो सरकारी कामकाज के सिलसिले में किन्तु वैयक्तिक स्तर पर लिखा जाता है।
- आशय = तात्पर्य।
- आमादा फौजदारी = लड़ने पर उतारू।
- हस्तक्षेप = हाथ डालना।
- खून का चूँट = क्रोध को दबाना।
- आग लग गई = क्रोध आना।
- बर्दाश्त = सहन करन क्रोध भरे शब्दों से (लक्षणा से)।
- वरुणास्त्र = मीठे या मधुर शब्दों से (लक्षणा से)।
- प्रतिवाद = विरोध।
- नितांत असत्य = पूर्णतः झूठ।
- उकसाया = लड़ने को उत्तेजित करना।
- उत्तरोत्तर = लगातार।
- वृद्धि = बढ़ोतरी।
- विनम्र = विनय से युक्त।
- उपेक्षा = महत्व न देना।
- क्षति = हानि।
- निहायत पुख्ता = अत्यंत मजबूत ।
- बँडेर = पानी भरने के लिए दो खम्भों के बीच लगा पत्थर का मोटा खम्भा।
- ब्राह्मी = एक पुरानी लिपि का नाम।
- हिचक = संकोच।
- तबीयत फड़कना = मन प्रसन्न होना।
- अबहिन = अभी। आपैक = आपका ही।
- क्षतिपूर्ति = हानि पूरी होना।
- कांफ्रेंस = सम्मेलन।
- अधिवेशन = बैठक (सभा)।
- अभिन्न = गहरे।
- रुचिकर = अच्छा लगने वाला।
- तालपत्र पर हस्तलिखित पोथियाँ = ताड़पत्र पर हाथ से लिखी पुस्तकें (पुरातात्विक महत्त्व की पुस्तकें)।
- मंडी = बाजार। प्रलुब्ध = लोभी।
- दर-दर = द्वार-द्वार पर।
- छक्के छूटना = हिम्मत हारना।
- यज्ञोपवीत = जनेऊ।
- नदारद = गायब।
- हाईकोर्ट = उच्च न्यायालय।
- कांस्य = काँसे की बनी।
- एक रुपए में तीन अठन्नी भुनाना = अधिकतम लाभ लेना।
- नटराज = शिव की नृत्य करती मूर्ति।
- आशिक = प्रेमी।
- कृष्णदास = श्रीराय कृष्ण दास जी (प्रसिद्ध लेखक एवं संग्रहकर्ता)।
- अपराह्न = दोपहर बाद।
- युवराज = राजकुमार।
- रामेश्वरम् = दक्षिण भारत का प्रमुख तीर्थस्थान।
- कसक रहा था = टीस दे रहा था।
- खलीफा मंडी = बड़े बाजार के पंड़ा, तीर्थस्थल के पुजारी जो तीर्थयात्रियों के पुरोहित होते हैं।
- लड़कौंधा पंडा = लड़के जैसा पंडा।
- छोटा गट्टर = छोटी गठरी।
- बही = जिस पर पंडा अपने यजमानों का विवरण अंकित करता है।
- अखरा = बुरा लगना।
- फाँस निकालना = तसल्ली मिलना।
- आशातीत = आशा से अधिक।
- धरते-उठाते = सहेजते।
- संरक्षण = साज-सँभाल।
- पृथक् = अलग।
- म्याऊँ का ठौर होना = अत्यधिक कठिन कार्य।
- दाद = प्रशंसा।
- म्युनिसिपैलिटीज एक्ट = नगरपालिका अधिनियम (कानून)।
- एकजेकेटिव आफिसर = (Executive कार्यपालक अधिकारी।
- हरजाना = क्षतिपूर्ति के लिए लिया गया जुर्माना।
- अनुमति = आज्ञा।
- शुल्क = फीस (निर्धारित धन)।
- संयुक्त प्रांत = तत्कालीन उत्तर प्रदेश का नाम।
- कोष = खजाना।
- सौजन्य = सज्जनतापूर्ण सहयोग।
- शिलान्यास = किसी योजना पर कार्य प्रारंभ करना जिसमें कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति पट्टिका का अनावरण करता है या नींव की पहली ईंट रखता है।
- आपसदारी = भाईचारा, मित्रता।
- म्युजियम = संग्रहालय।
- अहद = प्रण।
- फिजूल = व्यर्थ।
- प्रोग्राम = कार्यक्रम।
- अभूतपूर्व = जो पहले कभी न हुआ हो।
- न भूतो न भविष्यति = न हुआ हो और न भविष्य में होगा ऐसा जोरदार कार्यक्रम।
- परिधि = सामर्थ्य, क्षमता।
- इंजीनियर = वास्तुविद् (नक्शे बनाने वाला)।
- संगृहीत = एकत्र वस्तुएँ।
- चारा = उपाय।
- प्रायश्चित = गलती या अपराध करने पर स्वयं को पापमुक्त करने के लिए की गई क्रिया।
- कृतजता = अहसान फरामोशी।
- विधान = नियम।
- साहाय्य = सहायता।
- दीवान = सचिव।
- अर्दली = व्यक्तिगत सेवक।
- अथक परिश्रम = कड़ी मेहनत।
- पीर = पीड़ा।
- हिम्मत कपाट = साहस रूपी किवाड़।
- उघारै = खोलना।
- ठान ठानै = प्रण करे।
- मेरु = सुमेरू पर्वत।
- उखरि = उखाड़ना।
- निमित्तमात्र = उपादान (कारण मात्र कर्त्ता नहीं)।
- अरुण = सूर्य का सारथी।
- परिवर्धन = बढ़ोत्तरी।
- अभिभावक = संरक्षक।
महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ –
1. सन् 1936 के लगभग की बात है। मैं पूर्वक्रमानुसार कौशाम्बी गया हुआ था। वहाँ का काम निबटाकर सोचा कि दिनभर के लिए पसोवा हो आऊँ। ढाई मील तो हुई है। सौभाग्य से गाँव में कोई सवारी इक्के पर आई थी। उस इक्के को ठीक कर लिया और पसोवे के लिए रवाना हो गया। कील-काँटे से दुरुस्त था। पसोवा एक बड़ा जैन तीर्थ है। वहाँ प्राचीन काल से प्रतिवर्ष जैनों का एक बड़ा मेला लगता है जिसमें दूर-दूर से हजारों जैन यात्री आकर सम्मिलित होते हैं। यह भी कहा जाता है कि इसी स्थान पर एक छोटी-सी पहाड़ी थी जिसकी गुफा में बुद्धदेव व्यायाम करते थे। वहाँ एक विषधर सर्प भी रहता था।
संदर्भ प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ से ली गई हैं। यह ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा ‘मेरा कच्चा चिट्ठा’ का एक अंश है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग – 2’ में ‘कच्चा चिट्ठा’ शीर्षक से संकलित किया गया है।
प्रसंग ब्रजमोहन व्यास जी इलाहाबाद नगरपालिका के कार्यपालक अधिकारी रहे तथा उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रयासों से इलाहाबाद संग्रहालय के लिए पुरातात्विक महत्त्व की प्रचुर सामग्री एकत्र कर एक प्रसिद्ध म्यूजियम बनाया। एक बार वे कौशाम्बी और पसोवा गए। वहाँ से उन्हें क्या सामग्री मिली यहाँ इसका विवरण उन्होंने दिया है।
व्याख्या : व्यास जी बताते हैं कि सन् 1936 में वे प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थस्थल कौशाम्बी गए जहाँ उन्हें कोई काम था। वहाँ का काम समाप्त कर उन्होंने सोचा कि एक दिन के लिए जैन तीर्थ स्थल पसोवा हो आता हूँ जो वहाँ से ढाई मील की दूरी पर ही था। सौभाग्य से कोई इक्का सवारी लेकर गाँव में आया था। उसे ही अपने लिए तय करके वे इक्के से पसोवा चले गए। पसोवा एक बड़ा जैन तीर्थ स्थल है। वहाँ प्राचीन काल से प्रतिवर्ष जैनों का बड़ा मेला लगता है जिसमें दूर-दूर से हजारों तीर्थयात्री आते हैं। ऐसे स्थान पर पुरातात्विक महत्त्व की सामग्री मिलने की आशा रहती है। उन्होंने पसोवा के बारे में यह भी सुना था कि यहाँ पहाड़ी पर एक छोटी गुफा भी है जिसमें बुद्ध व्यायाम किया करते थे और वहाँ एक जहरीला सर्प भी रहता था।
विशेष :
- कौशाम्बी बौद्ध तीर्थ स्थल तथा पसोवा जैन तीर्थ स्थल हैं तथा ये पास-पास हैं।
- ब्रजमोहन व्यास जी ने अपना संग्रहालय कैसे बनाया इसका कच्चा चिट्ठा उन्होंने अपनी आत्मकथा में प्रस्तुत किया है।
- जब कोई व्यक्ति अपने जीवन के बारे में स्वयं लिखकर अपना जीवन वृत्त प्रस्तुत करता है तो उसे आत्मकथा कहते हैं।
- विवरणात्मक शैली एवं सरल-सहज भाषा प्रयुक्त है।
2. मैं कहीं जाता हूँ तो छूछे हाथ नहीं लौटता। यहाँ कोई विशेष महत्त्व की चीज तो नहीं मिली पर गाँव के भीतर कुछ बढ़िया मृण्मूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिल गए। इक्के पर कौशाम्बी लौटा एक-दूसरे रास्ते से। एक छोटे से गाँव के निकट पत्थरों के ढेर के बीच, पेड़ के नीचे एक चतुर्मुख शिव की मूर्ति देखी। वह वैसे ही पेड़ के सहारे रखी थी जैसे उठाने के लिए मुझे ललचा रही हो। अब आप ही बताइए, मैं करता ही क्या? यदि चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो बेचारी को अपना कर्तव्य पालन करना ही पड़ता है। इक्के से उतरकर इधर-उधर देखते हुए उसे चुपचाप इक्के पर रख लिया।
संदर्भ : प्रस्तुत गद्यावतरण ‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ से लिया गया है जो हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग- 2’ से संकलित है और ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा ‘मेरा कच्चा चिट्ठा’ का एक अंश है।
प्रसंग : ब्रजमोहन व्यास जी इलाहाबाद नगरपालिका के कार्यपालक अधिकारी तथा प्रयाग संग्रहालय के संस्थापक थे। ‘ संग्रहालय के लिए वे पुरातात्विक महत्त्व की वस्तुएँ इधर-उधर से एकत्र करते रहते थे। यहाँ वह संग्रह के काम में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या : व्यास जी कहते हैं कि किसी स्थान की यात्रा पर जब मैं जाता हूँ तो संग्रहालय के लिए कुछ लेकर ही लौटता हूँ, खाली हाथ नहीं लौटता। कौशाम्बी की यात्रा पर जब गया तो वहाँ से पसोवा चला गया जो एक बौद्धस्थल था। वहाँ एक पहाड़ी थी। गाँव से कुछ मिट्टी की मूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिल गए। इक्के पर जब कौशाम्बी लौट रहा था तो रास्ते में एक पेड़ के नीचे चतुर्मुखी शिव की प्रतिमा रखी देखी। मुझे वह मूर्ति जैसे ललचा रही थी।
यदि भूखी बिल्ली के सामने चूहा आ जाए तो वह उसे खाकर अपना व्रत तोड़ेगी ही, ठीक इसी प्रकार पुरातात्विक महत्त्व की वस्तुओं का संग्रह करने वाले मुझे उस चतुर्मुखी शिव मूर्ति ने ऐसा ललचाया कि मैंने चुपचाप बीस सेर की उस मूर्ति को उठाकर इक्के पर रख लिया। न कुत्ता भौंका और न किसी ने उन्हें देखा। मैं मूर्ति लेकर इलाहाबाद आ गया और उसे संग्रहालय में रखवा दिया।
विशेष :
- जब कोई लेखक अपने बारे में या अपने मिशन के बारे में स्वयं लिखता है तब उसे आत्मकथा कहते हैं। प्रस्तुत अवतरण उनकी आत्मकथा का ही एक अंश है।
- ब्रजमोहन व्यास इलाहाबाद नगरपालिका के एक्जीक्यूटिव आफीसर कार्यपालक अधिकारी थे। इस पद पर रहते हुए उन्होंने ‘प्रयाग संग्रहालय’ की स्थापना की। पुरातात्विक महत्त्व की पुरानी वस्तुओं का संग्रह वे संग्रहालय के लिए करते रहते थे। यहाँ एक ऐसी ही घटना का जिक्र उन्होंने किया है।
- शैली-विवरणात्मक शैली तथा आत्मकथन शैली का प्रयोग किया गया है।
- भाषा-भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है जिसमें अंग्रेजी एवं उर्दू शब्दों के साथ-साथ हिन्दी मुहावरों का भी सटीक प्रयोग किया गया है।
3. उसके थोड़े ही दिन बाद गाँववालों को पता चल गया कि चतुर्मुख शिव वहाँ से अंतर्धान हो गए। जिस प्रकार भरतपुर राज्य की सीमा पर डकैती होने से पुलिस का ध्यान मानसिंह अथवा उसके सुपुत्र तहसीलदार पर सहसा जाता है, कुछ उसी प्रकार कौशाम्बी मंडल से कोई मूर्ति स्थानांतरित होने पर गाँववालों का संदेह मुझ पर होता था। और कैसे न हो? ‘अपना सोना खोटा तो परखवैया का कौन दोस?’ मैं इस संबंध में इतना प्रख्यात हो चुका था कि संदेह होना स्वाभाविक ही था, क्योंकि 95 प्रतिशत उनका संदेह सही निकलता था।
संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ से ली गई हैं। ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा का यह अंश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है।.
प्रसंग : कौशाम्बी से लौटते समय व्यास जी को एक गाँव के बाहर पेड़ के नीचे चतुर्मुखी शिव की प्रतिमा रखी दिखाई दी। वे उसे वहाँ से ले आए और संग्रहालय में रखवा दिया। गाँव वालों को जब इसका पता चला तो वे समझ गए कि यह प्रतिमा कौन ले गया होगा क्योंकि व्यास जी अपने संग्रहालय के लिए पुरातात्विक सामग्री एकत्र करने के लिए पूरे मण्डल में कुख्यात हो चुके थे।
व्याख्या : चतुर्मुखी शिव गाँव से अंतर्धान हो गए इस बात का पता जब गाँव वालों को चला तो वे समझ गए कि हो न हो यह काम व्यास जी का हो सकता है। जैसे भरतपुर राज्य की सीमा पर डकैती होने पर पुलिस का संदेह इस क्षेत्र के प्रसिद्ध डाकू मानसिंह और उसके पुत्र तहसीलदार पर होता था, उसी प्रकार कौशाम्बी मण्डल से पुरातात्विक महत्त्व की कोई वस्तु यदि गायब हो जाती तो लोगों का संदेह ब्रजमोहन व्यास जी की तरफ जाता क्योंकि वे अपने इलाहाबाद संग्रहालय हेतु पुरातात्विक महत्त्व की सामग्री की तलाश में रहते थे और इसके लिए हर प्रकार के हथकण्डे अपनाते थे।
इसीलिए चतुर्मुखी शिव की मूर्ति गाँव से गायब होने पर गाँव वालों को व्यास जी पर संदेह हुआ। वे इस संबंध में कुख्यात हो चुके थे और बात ठीक भी थी क्योंकि 95 प्रतिशत मामलों में उनका यह संदेह सही होता था। जब अपना सोना खोटा हो तो परखने वाले का क्या दोष। वास्तविकता यही थी कि चतुर्मुखी शिव की मूर्ति व्यास जी ही वहाँ से उठा लाए थे। गाँव वाले उसी की तलाश में . संग्रहालय आ धमके।
विशेष :
- ब्रजमोहन व्यास ने आत्मकथा में अपनी कमियों का उल्लेख भी किया है और बताया है कि पुरातात्विक महत्त्व की इधर-उधर बिखरी सामग्री को वे किस प्रकार चुपके से उठा लाते थे।
- भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है। . इसमें लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया गया है।
- लेखक ने वर्णनात्मक तथा आत्मकथन शैली में अपनी बात कही है।
4. मुखिया ने नतमस्तक होकर निवेदन किया, “महाराज ! (मेरे मस्तक पर हस्बमामूल चंदन था) जब से शंकर भगवान हम लोगन के छोड़ के हियाँ चले आए, गाँव भर पानी नै पिहिस। अउर तब तक न पी जब तक भगवान गाँव न चलिहैं। अब हम लोगन क प्रान आपै के हाथ में हैं। आप हुकुम देओ तो हम भगवान को लेवाए जाइ।” यदि मुझे मालूम होता कि गाँव वालों को उन पर इतनी ममता है तो उन्हें कभी न लाता। मैंने तुरंत कहा, “आप उन्हें प्रसन्नता से ले जाएँ।”
संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा का एक अंश हैं जिन्हें हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में ‘कच्चा चिट्ठा’ शीर्षक से संकलित किया गया है।
प्रसंग : कौशाम्बी से इलाहाबाद लौटते समय एक गाँव के बाहर पेड़ के नीचे चतुर्मुखी शिव की प्रतिमा रखी देखकर व्यास जी ने उसे उठा लिया और संग्रहालय में रखवा दिया। गाँव वाले मूर्ति न मिलने पर समझ गये कि उसे व्यास जी ही ले गये होंगे। वे नगरपालिका, इलाहाबाद के कार्यालय में आए और व्यास जी से मूर्ति वापस माँगी।
व्याख्या : चपरासी ने व्यास जी को बताया कि पसोवे के निकट स्थित गाँव से 15-20 आदमी उनसे मिलने आए हैं। व्यास जी ने उन्हें बुला लिया। मुखिया ने अत्यंत विनम्रता से कहा कि महाराज जब से शंकर भगवान हमें छोड़कर यहाँ आ गए हैं तब से गाँव भर के लोगों ने पानी तक नहीं पिया। अब हम लोगों के प्राण आपके हाथ में हैं। आप आज्ञा दें तो हम अपने भगवान को साथ ले जाएँ।
व्यास जी माथे पर चंदन का टीका हमेशा की तरह लगाए हुए थे इसी कारण मुखिया ने उन्हें महाराज कहकर संबोधित किया था। व्यास जी को जब यह पता चला कि गाँव वाले अपने शंकर भगवान के प्रति इतनी ममता रखते हैं तो उन्होंने वह मूर्ति उन्हें सहर्ष वापस कर दी और वे उसे लेकर प्रसन्न होकर चले गए। व्यास जी लिखते हैं कि यदि उन्हें यह पता होता कि इस मूर्ति के प्रति गाँव वालों की इतनी ममता है तो शायद वे उसे उठाकर लाते ही नहीं।
विशेष :
- गाँव वाले अपने देवी-देवताओं के प्रति ममत्व रखते हैं। सारे गाँव द्वारा पानी तक न पीना इस प्रमाण है।
- मुखिया की विनम्रता एवं गाँववालों की ममता देखकर व्यास जी ने चतुर्मुखी शिव की मूर्ति वापस कर दी।
- शैली – विवरणात्मक शैली प्रयुक्त है।
- भाषा-तत्सम शब्दों के साथ उर्दू के शब्द भाषा में प्रयुक्त हैं। भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है।
5. खेतों की डाँड-डाँड़ जा रहा था कि एक खेत की मेड़ पर बोधिसत्व की. आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति पड़ी देखी। मथुरा के लाल पत्थर की थी। सिवा’ सिरे के पदस्थल तक वह संपूर्ण थी। मैं लौटकर पाँच-छह आदमी और लटकाने का सामान गाँव से लेकर फिर लौटा। जैसे ही उस मूर्ति को मैं उठवाने लगा वैसे ही एक बुढ़िया जो खेत निरा रही थी, तमककर आई और कहने लगी, “बड़े चले हैं मूरत उठावै। ई हमार है। हम न देबै। दुइ दिन हमार हर रुका रहा तब हम इनका निकरवावा है। ई नकसान कउन भरी ? “मैं समझ गया। बात यह है कि मैं उस समय भले आदमी की तरह कुरता धोती में था इसलिए उसे इस तरह बोलने की हिम्मत पड़ी। सोचा कि बुढ़िया के पुँह लगना ठीक नहीं।
संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा का एक अंश हैं जो ‘कच्चा चिट्ठा’ शीर्षक से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है।
प्रसंग : व्यास जी प्रयाग संग्रहालय के संस्थापक थे। पुरातात्विक महत्त्व की इधर-उधर बिखरी सामग्री को उन्होंने किस प्रकार इकट्ठा किया इसका कच्चा चिट्ठा उन्होंने अपनी आत्मकथा में प्रस्तुत किया है।
व्याख्या : कौशाम्बी और उसके आस-पास पुरातात्विक महत्त्व की प्रभूत सामग्री मिल जाती है क्योंकि यह बौद्ध-तीर्थ रहा है। एक दिन कौशाम्बी के आस-पास के किसी गाँव के खेत की मेड़ पर वह जा रहे थे कि एक खेत की मेड़ पर उन्हें बोधिसत्व की लाल पत्थर की बनी 8 फुट लम्बी मूर्ति पड़ी दिखी। उसका सिर नहीं था किन्तु शेष भाग पूर्ण सही-सलामत था। वे गाँव में आकर पाँच-छह आदमियों को तथा मूर्ति लटकाने के सामान को लेकर खेत पर लौटे और जब मूर्ति उठाने लगे तो खेत निराती एक बुढ़िया तमककर क्रोध व्यक्त करती हुई बोली – यह हमारी मूर्ति है, हम नहीं देंगे।
दो दिन तक हमारा हल खेत में रुका रहा तब इसे हमने निकाला है। उस नुक़सान (क्षति) की भरपाई कौन करेगा ? व्यास जी उसकी बात तुरंत समझ गए और उन्होंने दो रुपये देकर वह मूर्ते उठाने की अनुमति ले ली। व्यास जी उस समय धोती-कुरता पहने एक आम आदमी की तरह लग रहे थे इसलिए बुढ़िया को यह सब कहने का साहस हुआ। उन्होंने बुढ़िया के मुँह लगना उचित न समझा और चुपचाप दो रुपए देकर वह मूर्ति ले ली।
विशेष :
- व्यास जी ने किस प्रकार की कठिनाइयाँ उठाकर संग्रहालय के लिए सामग्री प्राप्त की इसकी जानकारी यहाँ दी गई है।
- भाषा-भाषा सरल सहज हिन्दी है। तत्सम शब्दों, लौकिक भाषा के शब्दों तथा मुहावरों के कारण वह समृद्ध है।
- शैली – विवरणात्मक शैली प्रयुक्त की गई है।
- बोधिसत्व की जिस मूर्ति का उल्लेख यहाँ है वह कुषाण शासक कनिष्क के राज्यकाल में बनाई गई थी।
6. दूसरे की मुद्रा की झनझनाहट गरीब आदमी के हृदय में उत्तेजना उत्पन्न करती है। उसी का आश्रय लिया। मैंने अपने जेब में पड़े हुए रुपयों को ठनठनाया। मैं ऐसी जगहों में नोट-वोट लेकर नहीं जाता, केवल ठनठनाता। उसकी बात ही और होती है। मैंने कहा, “ठीकै तो कहत हौ बुढ़िया। ई दुई रुपया लेओ। तुम्हार नुकसानौ पूर होए जाई। ई हियाँ पड़े अंडसै करिहैं। न डेहरी लायक न बँडेरी लायक।” बुढ़िया को बात समझ में आ गई और जब रुपया हाथ में आ गया तो बोली, “भइया ! हम मने नाहीं करित तुम लै जाव।”
संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ ब्रजमोहन व्यास के आत्मकथा-अंश ‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ से ली गई हैं। यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा-भाग-2’ में संकलित है।
प्रसंग इस अवतरण में लेखक ने यह बताया है कि उन्हें बोधिसत्व की कुषाणकालीन मूर्ति किस तरह दो रुपयों में प्राप्त हुई। एक बुढ़िया के खेत पर पड़ी आठ फुट की वह प्राचीन मूर्ति पुरातात्विक दृष्टि से बेशकीमती थी। बुढ़िया उस पर अपना हक जता रही थी.तब व्यास जी ने जेब में पड़े रुपयों को खनकाते हुए बुढ़िया को दो रुपए देकर संतुष्ट किया और मूर्ति अपने संग्रहालय के लिए ले ली।
व्याख्या : संस्कृत में एक कहावत है- ‘उद्वेजयति दरिद्रं परमुद्रायाः झणत्कारम्।’ अर्थात् दूसरे की मुद्रा की झनझनाहट गरीब आदमी के हृदय में उत्तेजना पैदा करती है। व्यास जी ने जब खेत की मेड़ पर पड़ी आठ फुट लम्बी बोधिसत्व की उस प्रतिमा को उठवाने का उपक्रम किया तो खेत की मालकिन बुढ़िया ने यह कहते हुए एतराज किया कि यह मूर्ति मेरी है और मैं इसे नहीं दूंगी। यह मेरे खेत से निकली है। दो दिन तक हमारा हल रुका रहा तब हम इसे निकलवा पाए हैं। हमारा नुकसान कौन भरेगा।
तब व्यास जी ने जेब में पड़े सिक्कों (रुपयों) को खनखनाकर बुढ़िया के मन में लालच और उत्तेजना उत्पन्न कर दी और उसे दो रुपये देकर कहा- तुम ठीक कहती हो। ये दो रुपये लो। इससे तुम्हारा नुकसान भी पूरा हो जाएगा और ये मूर्ति यहाँ पड़े-पड़े जो रुकावट पैदा कर रही है वह भी दूर हो जाएगी। साथ ही ये तुम्हारे किसी काम की भी नहीं है न तो देहरी (के स्थान) पर इन्हें लगा सकती हो, न छप्पर में बँडेरी (मोटा खम्भा) के रूप में ये लग सकेगी। बुढ़िया तुरंत मान गई और कहने लगी मैं मना नहीं करती आप इसे ले जाएँ। इस तरह दो रुपए में वह बेशकीमती बोधिसत्व की मूर्ति प्रयाग संग्रहालय हेतु व्यास जी ने प्राप्त कर ली।
विशेष :
- व्यास जी ने प्रयाग संग्रहालय के लिए महत्त्वपूर्ण मूर्तियाँ आदि अपने इसी कौशल से प्राप्त की हैं।
- बोधिसत्व की यह मूर्ति कुषाणकालीन थी। एक फ्रांसीसी उस मूर्ति के दस हजार रुपए दे रहा था, पर व्यास जी ने मूर्ति देने से इनकार कर दिया।
- भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है जिसमें इलाहाबाद क्षेत्र की आंचलिक भाषा के वाक्य भी प्रयुक्त हैं। शैली वर्णनात्मक है।
- ‘अंडसै करिहैं’ का अर्थ है-रुकावट पैदा करना। बैंडेरी उस मोटे बांस को कहते हैं जो छप्पर को साधने के लिए खम्भों के बीच में लगता है। कबीर ने ज्ञान की आँधी आने से ‘मोह बलिंड़ा टूटा’ कहा है।
7. जिस गाँव में भद्रमथ का शिलालेख हो सकता है वहाँ संभव है और भी शिलालेख हों। अत: मैं हजियापुर जो कौशाम्बी से केवल चार-पाँच मील था, गया और मैंने गुलजार मियाँ के यहाँ डेरा डाल दिया। उसके भाई को, जो म्युनिसिपैलिटी में नौकर था, साथ ले लिया था। गुलजार मियाँ के मकान के ठीक सामने उन्हीं का एक निहायत पुख्ता सजीला कुँआ था। चबूतरे के ऊपर चार पक्के खम्भे थे जिनमें एक से दूसरे तक अठपहल पत्थर की बँडेर पानी भरने के लिये गड़ी हुई थी। सहसा मेरी दृष्टि एक बँडेर पर गई जिसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक ब्राह्मी अक्षरों में एक लेख था।
संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ ब्रजमोहन व्यास जी की आत्मकथा के अंश ‘कच्चा चिट्ठा’ से ली गई हैं। यह पाठ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है।
प्रसंगहजियापुर गाँव में भद्रमथ का शिलालेख मिला, यह जानकर व्यास जी ने सोचा कि यहाँ और भी शिलालेख मिल सकते हैं। यह सोचकर उन्होंने गाँव में गुलजार मियाँ के घर डेरा डाल दिया। उनके कुँए की एक बँडेर ब्राह्मी अक्षरों से लिखी मिली जिसे उन्होंने अपने संग्रहालय के लिए निकलवा लिया।
व्याख्या : लेखक कहता है कि जब हजियापुर में भद्रमथ का शिलालेख मिला तभी उनको लगा कि यहाँ पुरातात्विक . महत्त्व के और भी शिलालेख हो सकते हैं। उनकी खोज में लेखक ने हजियापुर गाँव में जो कौशाम्बी से चार-पाँच मील की दूरी पर है, गुलजार मियाँ के यहाँ डेरा डाल दिया। उसके साथ गुलजार मियाँ का छोटा भाई था जो इलाहाबाद नगरपालिका में नौकर था। गुलजार मियाँ के घर के ठीक सामने एक पुराना पक्का कुँआ था जिस पर चार खम्भे थे और चारों खम्भों को आपस में बँडेरों से जोड़ा गया था।
इनमें से एक बँडेर पर व्यास जी (लेखक) को ब्राह्मी अक्षरों में एक सिरे से दूसरे सिरे तक कुछ लिखा हुआ दिखा। यह देखकर उनकी तबियत फड़क उठी और गुलजार मियाँ ने वह बँडेर संग्रहालय के लिये तुरंत निकलवा दी। पुरातात्विक महत्त्व के उस शिलालेख (बँडेर, जिस पर लेख अंकित था) को संग्रहालय के लिए पाकर व्यास जी को लगा कि भद्रमथ का जो शिलालेख उन्हें नहीं मिल पाया था, उसकी क्षतिपूर्ति हो गई और यहाँ आना सार्थक हो गया।
विशेष :
- व्यास जी ने प्रयाग संग्रहालय के लिए कितनी कठिनाइयों को पार करते हुए पुरातात्विक महत्त्व की सामग्री एकत्र की इसका कच्चा चिट्ठा इस पाठ में दिया गया है। यह उनकी लगन, कार्यशैली एवं कर्मठता का परिचायक है।
- शैली – विवरणात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।
- भाषा-भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है। इसमें तत्सम शब्दों के साथ उर्दू शब्द भी हैं।
8. उस साल ओरियंटल कांफ्रेन्स का अधिवेशन मैसूर में था। मेरे अभिन्न मित्र कविवर ठाकुर गोपालशरण सिंह भापति थे। एक तो उनका साथ रुचिकर, दूसरे इसके पहले दक्षिण मैं गया नहीं था। प्रशंसा बहुत सुन रखी थी। यह भी सुन रखा था कि ताम्रमूर्तियों और तालपत्र पर स्तलिखित पोथियों की वह मंडी है। दोनों का प्रयाग संग्रहालय में नितांत अभाव था। उपर्युक्त तीनों कारणों में प्रत्येक मुझे प्रलुब्ध करने के लिये पर्याप्त थे, पर तीनों के सामूहिक आकर्षण ने मुझे मैसूर की ओर बरबस खींच लिया।
संदर्भ : प्रस्तुत गद्यखण्ड हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित पाठ ‘कच्चा चिट्ठा’ से लिया गया है। यह ब्रजमोहन व्यास द्वारा लिखी आत्मकथा का एक अंश है।
प्रसंग : व्यास जी ओरियंटल कांफ्रेन्स के अधिवेशन के सिलसिले में अपने मित्र कविवर ठाकुर गोपालशरण सिंह के साथ मैसूर गए। संग्रहालय में ताम्रमूर्तियों एवं तालपत्र पर लिखी पोथियों का अभाव था और ये दोनों दक्षिण भारत में प्रचुरता से उपलब्ध होने की संभावना थी। इसके साथ-साथ दक्षिण भारत घूमने की भी लालसा थी।
व्याख्या : उस वर्ष ‘ओरियंटल कांफ्रेन्स’ (प्राच्य विद्या सम्मेलन) का आयोजन मैसूर में किया गया था। लेखक के मित्र प्रसिद्ध कविवर ठाकुर गोपालशरण सिंह साहित्य विभाग के सभापति थे, वे भी उसमें भाग लेने जा रहे थे अतः व्यास जी पने मित्र का रुचिकर साथ मिल गया। दूसरे, उन्होंने सन रखा था कि दक्षिण भारत ताम्रमर्तियों और तालपत्रों पर लिखी पोथियों (पुस्तकों) की मंडी है। इन वस्तुओं का व्यास जी के प्रयाग संग्रहालय में अभाव था अतः उन्हें प्राप्त करने का लोभ भी उन्हें था। तीसरे, वे दक्षिण भारत में पहले कभी नहीं गए थे अतः इस बहाने दक्षिण भारत की यात्रा भी कर लेना चाहते थे। इन तीनों कारणों से उन्होंने मैसूर अधिवेशन में भाग लेने का निश्चय किया।
विशेष –
- व्यास जी ने संग्रहालय के लिए पुरातात्विक महत्त्व की सामग्री किस प्रकार एकत्र की इसका कच्चा चिट्ठा ही इस पाठ की विषय-वस्तु है।
- आत्मकथा में लेखक का अपना व्यक्तित्व पूरी तरह उभरकर सामने आ गया है।
- शैली-विवरणात्मक शैली का प्रयोग है।
- भाषा-भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है जिसमें अंग्रेजी, संस्कृत के शब्द भी हैं; जैसे-ओरियंटल कांफ्रेन्स, प्रलुब्ध आदि।
9. संग्रह में तो आशातीत सफलता हुई। इतनी संख्या में और इतनी महत्त्वपूर्ण सामग्री आई कि धरते-उठाते नहीं बनता था। लगभग दो हजार पाषाण-मूर्तियाँ, पाँच-छह हजार मृण्मूर्तियाँ, कई हजार चित्र, चौदह हजार हस्तलिखित पुस्तकें, हजारों सिक्के, मनके, मोहरें इत्यादि। इनका प्रदर्शन और संरक्षण कोई हँसी-खेल नहीं है। लोगों की शिकायत थी कि म्युनिसिपैलिटी में इनके लिए स्थान बहुत छोटा है। बात ठीक ही थी।
संदर्भ : प्रस्तुत गद्यावतरण ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा का एक अंश है जिसे ‘कच्चा चिट्ठा’ शीर्षक से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित किया गया है।
प्रसंग : प्रयाग संग्रहालय के पास असंख्य मूर्तियाँ आदि थीं, जिनको आठ कमरों में रखना और प्रदर्शित करना सम्भव नहीं था। इस काम के लिए एक विशाल भवन की आवश्यकता थी।
व्याख्या : धीरे-धीरे संग्रहालय का संग्रह बढ़ता गया और पुरातात्विक महत्त्वं की वस्तुओं के संग्रह में आशातीत सफलता मिली। संग्रहालय के पास प्रचुर सामग्री एकत्र हो गई जिसमें लगभग दो हजार पत्थर की मूर्तियाँ थीं, पाँच-छह हजार मिट्टी की मूर्तियाँ, कई हजार चित्र थे और चौदह हजार तो हस्तलिखित पुस्तकें ही थीं। इनके अतिरिक्त हजारों सिक्के, मनके, मोहरें इत्यादि भी थीं। इस प्रचुर सामग्री का प्रदर्शन, रख-रखाव करना आसान बात न थी।
नगरपालिका ने यद्यपि इसके लिए आठ बड़े-बड़े कमरे दे रखे थे पर अब यह स्थान छोटा पड़ रहा था और लोगों को यह लगने लगा था कि संग्रहालय के लिए एक पृथक् भवन की महती आवश्यकता है। उनकी बात ठीक थी अतः व्यास जी ने इस सम्बन्ध में सोचना शुरू कर दिया कि पृथक् भवन के निर्माण हेतु जगह और धन की व्यवस्था कैसे की जाए। सामग्री इतनी अधिक थी और चीजें इतने प्रकार की थीं कि उनका पृथक् प्रदर्शन और संरक्षण आवश्यक हो गया था।
विशेष :
- इस अवतरण से संग्रहीत वस्तुओं के संरक्षण के सम्बन्ध में व्यास जी की चिन्ता का पता चलता है।
- भाषा-भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है।
- शैली-लेखक ने विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया है।
- शब्द-चयन-लेखक ने संस्कृत, उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों के साथ मुहावरों का भी प्रयोग किया है।
10. मैं तो केवल निमित्तमात्र था। अरुण के पीछे सूर्य था। मैंने पुत्र को जन्म दिया, उसका लालन-पालन किया, बड़ा हो जाने पर उसके रहने के लिए विशाल भवन बनवा दिया, उसमें उसका गृह-प्रवेश करा दिया, उसके संरक्षण एवं परिवर्धन के लिए एक सुयोग्य अभिभावक डॉ. सतीश चंद्र काला को नियुक्त कर दिया और फिर मैंने संन्यास ले लिया।
संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘कच्चा चिट्ठा’ नामक पाठ से ली गई हैं जो ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा का एक अंश है। . यह पाठ हमारी पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है।
प्रसंग : व्यास जी प्रयाग संग्रहालय के संस्थापक थे। उन्होंने अनेक कठिनाइयों एवं बाधाओं पर विजय प्राप्त कर संग्रहालय की वस्तुएँ एकत्र की थीं, उसके लिए पृथक् भवन का निर्माण कराया और फिर उसके संरक्षण एवं परिवर्द्धन का उत्तरदायित्व एक सुयोग्य व्यक्ति को सौंपकर संन्यास ले लिया। अवतरण के इस भाग में इसी वृत्तांत का उल्लेख है।
व्याख्या : व्यास जी प्रयाग संग्रहालय के संस्थापक थे पर उन्होंने अत्यंत विनम्रतापूर्वक स्वयं को इसका श्रेय न देते हुए निमित्तमात्र घोषित किया है। स्वयं को कर्त्ता न मानकर केवल ‘कारण’ (साधन) मात्र बताना उनकी विनम्रता ही है अन्यथा ‘प्रयाग संग्रहालय’ की कल्पना भी उनके बिना नहीं की जा सकती थी। आकाश में अरुणोदय होते ही अंधकार छंट जाता है पर वास्तविकता यह है कि अरुण (सारथी) को अपने पीछे ‘सूर्य’ का बल प्राप्त है। व्यास जी यह कहना चाहते हैं कि उन्होंने जो कुछ किया उसके पीछे परमात्मा की इच्छा थी अर्थात् परमात्मा की कृपा से इतना बड़ा काम सफल हो सका।
जैसे हम बच्चे को जन्म देकर उसका लालन-पालन करते हैं, जब वह बड़ा हो जाता है, तब उसके लिए भवन बनवाकर गृह प्रवेश करा देते हैं, ठीक इसी प्रकार व्यास जी ने प्रयाग संग्रहालय को जन्म दिया, उसका संरक्षण-परिवर्द्धन किया और उसके लिए एक विशाल भवन बनवा दिया। यही नहीं अपितु उस भवन में उसका प्रवेश भी करा दिया अर्थात् संग्रहालय की समस्त सामग्री नवीन भवन में प्रदर्शित-संरक्षित कर दी और डॉ. सतीश चंद्र काला को उसका संरक्षक नियुक्त कर दिया। इस संग्रहालय के संरक्षण-परिवर्द्धन की जिम्मेदारी सुयोग्य हाथों में सौंपकर उन्होंने संन्यास ले लिया अर्थात् वे अपने कार्य से विरत हो गए।
विशेष :
- व्याल जी के व्यक्तित्व में अद्भुत विनम्रता का गुण विद्यमान है। उन्होंने संग्रहालय की स्थापना का श्रेय स्वयं को न देकर ईश्वर को दिया है।
- संग्रहालय की तुलना पत्र से की गई है। यह संग्रहाल व्यास जी की ममता का प्रमाण है।
- शैली – विवरणात्मक तथा आत्मकथन शैली का प्रयोग है।
- भाषा-भाषा सरल, सहज एवं प्रतीकात्मक हिन्दी है जो तत्सम प्रधान है।