Chapter 15 Life on the Earth (पृथ्वी पर जीवन)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (1) निम्नलिखित में से कौन जैवमण्डल में सम्मिलित हैं?
(क) केवल पौधे ।
(ख) केवल प्राणी
(ग) सभी जैव व अजैव जीव
(घ) सभी जीवित जीव
उत्तर-(घ) सभी जीवित जीव।

प्रश्न (i) उष्णकटिबन्धीय घास के मैदान निम्न में से किस नाम से जाने जाते हैं?
(क) प्रेयरी ।
(ख) स्टेपी
(ग) सवाना
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-(ग) सवाना।।

प्रश्न (iii) चट्टानों में पाए जाने वाले लोहांश के साथ ऑक्सीजन मिलकर निम्नलिखित में से क्या बनाती है?
(क) आयरन कार्बोनेट
(ख) आयरन ऑक्साइड
(ग) आयरन नाइट्राइट
(घ) आयरन सल्फेट
उत्तर-(ख) आयरन ऑक्साइड।

प्रश्न (iv) प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया के दौरान प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड जल के साथ मिलकर क्या बनाती है? |
(क) प्रोटीन
(ख) कार्बोहाइड्रेट्स
(ग) एमिनो एसिड
(घ) विटामिन
उत्तर-(ख) कार्बोहाइड्रेट्स।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) पारिस्थितिकी से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-‘पारिस्थितिकी’ शब्द का अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द ‘इकोलॉजी’ (Ecology) है। ‘इकोलॉजी’ ग्रीक भाषा,के दो पदों ‘Oikos’ तथा ‘Logos’ से मिलकर बना है। Oikos का अर्थ ‘निवासस्थान’ तथा Logos का अर्थ ‘अध्ययन करना है। इस प्रकार ‘इकोलॉजी’ का शाब्दिक अर्थ ‘निवास-स्थान के अध्ययन से है। दूसरे शब्दों में, जीवों को उनके निवास स्थान के सन्दर्भ में अध्ययन करना ही पारिस्थितिकी (Ecology) कहलाता है।
विद्वानों द्वारा पारिस्थितिकी की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी गई हैं
1. 1971 में प्रकाशित ओडम की पुस्तक ‘Fundamentals of Ecology’ में पारिस्थितिकी की एक नवीन परिभाषा निम्न प्रकार प्रस्तुत की गई है
“पारिस्थितिकी, पारिस्थितिक-तन्त्र की संरचना और क्रिया का अध्ययन है।”

अत: यह कहा जा सकता है कि पारिस्थितिकी जैविक एवं पर्यावरण के आपसी सम्बन्धों तथा अन्त:प्रभावों का अध्ययन है।

प्रश्न (ii) पारितन्त्र (Ecological System) क्या है? संसार के प्रमुख पारितन्त्र के प्रकारों को बताइए।
उत्तर-किसी विशेष क्षेत्र में किसी विशेष समूह के जीवधारियों का भूमि, जल अथवा वायु से अन्तर्सम्बन्ध जिसमें ऊर्जा प्रवाह व पोषण श्रृंखलाएँ स्पष्ट रूप से समायोजित हों, उसे पारितन्त्र कहा जाता है। पारितन्त्र मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-1. स्थलीय पारितन्त्र (Terrestrial) तथा जलीय पारितन्त्र (Aquatic)। स्थलीय पारितन्त्र को पुनः विभिन्न प्रकार के बायोम में विभक्त किया जाता है; जैसे-घास बायोम, वन बायोम आदि। जबकि जलीय पारितन्त्र को समुद्री पारितन्त्र व ताजे जल के पारितन्त्र में विभक्त किया जाता है।

प्रश्न (iii) खाद्य श्रृंखला क्या है? चराई खाद्य श्रृंखला का एक उदाहरण देते हुए इसके अनेक स्तर बताएँ।
उत्तर-खाद्य श्रृंखला में एक स्तर से दूसरे स्तर पर ऊर्जा प्रवाह ही खाद्य श्रृंखला (Food Chain) कहलाती है।
चराई खाद्य श्रृंखला (Grazing Food-chain) पौधों से आरम्भ होकर मांसाहारी तृतीयक उपभोक्ता तक जाती है। इसमें शाकाहारी मध्यम स्तर पर होता है। उदाहरण के लिए-पौधा/पादप → गाय/खरगोश → शेर या घास → टिड्डे → मेंढक → सर्प → बाज। चराई खाद्य श्रृंखला लघु आकारीय तथा वृहत् आकारीय दोनों होती है। जिस श्रृंखला में तीन स्तर होते हैं, उसे लघु चराई खाद्य शृंखला तथा जिसमें पाँच या इससे अधिक स्तर होते हैं उसे वृहत् चराई श्रृंखला कहा जाता है।

प्रश्न (iv) खाद्य जाल (Food web) से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित बताएँ।।
उत्तर-सामान्यतः आहार श्रृंखला एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर तक संचालित होती है, परन्तु यह एक सरल रैखिक तन्त्र नहीं है बल्कि अन्त:ग्रन्थित श्रृंखलाओं के रूप में ऊर्जा का प्रवाह जैविक एवं अजैविक संघटकों के बीच होता है। इस प्रकार एक जटिल तन्त्र की व्यवस्था विकसित होती है, जिसे आहार जाल कहा जाता है। उदाहरण के लिए-एक चूहा जो अन्न पर निर्भर है वह अनेक द्वितीयक उपभोक्ताओं का भोजन है और तृतीय मांसाहारी अनेक द्वितीयक जीवों से अपने भोजन की पूर्ति करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक मांसाहारी जीव एक से अधिक प्रकार के शिकार पर निर्भर है, परिणामस्वरूप खाद्य श्रृंखला आपस में जुड़ी हुई है। अतः प्रजातियों के इस प्रकार जुड़े होने को ही खाद्य जाल कहा जाता है।

प्रश्न (v) बायोम क्या है?
उत्तर-बायोम पौधों व प्राणियों का एक समुदाय है जो एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में पाया जाता है। संसार के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं—वन बायोम, घास बायोम, जलीय बायोम, मरुस्थलीय बायोम तथा उच्च प्रदेशीय बायोम आदि।।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) संसार के विभिन्न वन बायोम (Forestbiomes) की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-संसार के प्रमुख वन बायोम तथा उनकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. उष्णकटिबन्धीय वन-ये वन दो प्रकार के होते हैं–(i) उष्णकटिबन्धीय आर्द्र वर्षा वन तथा
(ii) उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन।। उष्णकटिबन्धीय वर्षा वन भूमध्य रेखा के समीप मिलते हैं। इन वनों में तापमान 25° से० के लगभग रहता है। यहाँ वर्षा 200 सेमी से अधिक होती है तथा तापान्तर कम रहता है। इन वृक्षों की लम्बाई 25 से 30 मीटर होती है। इन वनों में सघनता अधिक पाई जाती है।

2. शीतोष्ण कटिबन्धीय वन-ये वन मध्य अक्षांशों में उत्तरी अमेरिका, उत्तरी-पूर्वी एशिया तथा पश्चिमी और मध्य यूरोप में पाए जाते हैं। इन वनों के क्षेत्र में तापमान 30° से० तथा वर्षा 75 से 150 सेमी तक रहती है। शीतोष्ण कटिबन्धीय वनों में ओक, बीच, मैपल, हेमलोक आदि वृक्ष मिलते हैं।

3. टैगा वन-टैगा-वनों का विस्तार 50° से 60° उत्तरी अक्षांशों में मिलता है। ये वन उत्तरी यूरेशिया, उत्तरी अमेरिका तथा साइबेरिया में विस्तृत हैं। इन वनों को कोणधारी वन भी कहते हैं। वृक्षों की पत्तियाँ नुकीली होती हैं। इनमें पाईने, फर तथा स्थूस प्रमुख वृक्ष हैं। इस क्षेत्र में तापमान बहुत कम रहता है तथा वर्षा बर्फ के रूप में होती है।

प्रश्न (ii) जैव भू-रासायनिक चक्र क्या है? वायुमण्डल में नाइट्रोजन का यौगिकीकरण कैसे होता है? वर्णन करें।
उत्तर-जैव भू-रासायनिक चक्र
जैवमण्डल में जीवधारी व पर्यावरण के बीच में रासायनिक तत्त्वों के चक्रीय प्रवाह को जैव भू-रासायनिक चक्र कहते हैं। यह चक्र जीवों द्वारा रासायनिक तत्त्वों के अवशोषण से आरम्भ होता है। जिसमें वायु, जल व मिट्टी में विघटन से इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है, जिसमें रासायनिक तत्त्वों का सन्तुलन पौधों व प्राणी ऊतकों के चक्रीय प्रवाह द्वारा बना रहता है।

वायुमण्डल में नाइट्रोजन (79%) एक प्रमुख गैस है। कुछ जीव इसका उपयोग स्वतन्त्र रूप से वायु द्वारा करते हैं, जबकि कुछ जीव प्रत्यक्ष रूप से इसे ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं। वायु में स्वतन्त्र रूप में पाई जाने वाली नाइट्रोजन को मृदा जीवाणु व नील-हरित शैवाल प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण कर लेते हैं। किन्तु सामान्यतया नाइट्रोजन यौगिकीकरण द्वारा ही प्रयोग में लाई जाती है। स्वतन्त्र नाइट्रोजन का प्रमुख स्रोत मिट्टी के सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया से सम्बन्धित पौधों की जड़ों व रंध्रों वाली मृदा है जहाँ से यह वायुमण्डल में पहुँचती है। वायुमण्डल में नाइट्रोजन का यौगिकीकरण बिजली चमकने व कोसमिक रेडिएशन द्वारा होता है, किन्तु महासागरों में इस यौगिकीकरण में जलीय जीवों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्रश्न (iii) पारिस्थितिक सन्तुलन क्या है? इसके असन्तुलन को रोकने के महत्त्वपूर्ण उपायों की चर्चा करें।
उत्तर-किसी पारितन्त्र या आवास में जीवों के समुदाय में परस्पर गतिक साम्यता की अवस्था ही पारिस्थितिक सन्तुलन कहलाती है। यह तभी सम्भव है, जब जीवधारियों की विविधता अपेक्षाकृत स्थायी रहे। इसे पारितन्त्र में हर प्रजाति की संख्या के एक स्थायी सन्तुलन के रूप में भी वर्णित किया जा सकता है। यह सन्तुलन निश्चित प्रजातियों में प्रतिस्पर्धा व आपसी सहयोग से होता है। कुछ प्रजातियों के जीवित रहने के संघर्ष से भी पर्यावरण सन्तुलन प्राप्त किया जा सकता है। पारिस्थितिक सन्तुलने इस बात पर भी निर्भर करता है कि कुछ प्रजातियाँ अपने भोजन व जीवित रहने के लिए दूसरी प्रजातियों पर निर्भर रहती हैं, जिससे प्रजातियों की संख्या निश्चित रहती है और सन्तुलन बना रहता है; जैसे—विशाल घास के मैदानों में शाकाहारी जीव अधिक संख्या में होते हैं और मांसाहारी जीव अधिक नहीं होते हैं, अत: इनकी संख्या नियन्त्रित रहती है।

पारिस्थितिक असन्तुलन को रोकने के उपाय-पारिस्थितिक असन्तुलन को रोकने के मुख्य उपाय निम्नलिखित हैं

  1. वृक्षारोपण में वृद्धि करना।
  2. वन्य पशुओं का संरक्षण एवं इनके शिकार पर प्रतिबन्ध लगाना।
  3. झूमिंग कृषि पद्धति पर प्रतिबन्ध लगाना।
  4. निर्वनीकरण को नियन्त्रित करना।
  5. मनुष्य की जीवन शैली में ऐसा परिवर्तन लाना जिससे पर्यावरण हस्तक्षेप में वह कमी आए तथा पर्यावरण संरक्षण के प्रति सतर्क हो सके।
  6. जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण।।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. पारिस्थितिक तन्त्र के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सत्य है?
(क) यह एक संवृत तन्त्र है।
(ख) सम्पूर्ण जैवमण्डल एक पारिस्थितिक तन्त्र है।
(ग) मानव द्वारा निर्मित कार्यात्मक तन्त्र है।
(घ) प्रदूषण वृद्धि तन्त्र है।
उत्तर-(ख) सम्पूर्ण जैवमण्डल एक पारिस्थितिक तन्त्र है।

प्रश्न 2. निम्नलिखित में से सर्वोच्च या अन्तिम उपभोक्ता है
(क) चीता
(ख) शेर
(ग) बाज
(घ) ये सभी
उत्तर-(घ) ये सभी।

प्रश्न 3. निम्नलिखित में अपघटक जीव है ।
(क) कवक
(ख) जीवाणु
(ग) मृतोपजीवी
(ध) ये सभी
उत्तर-(घ) ये सभी।

प्रश्न 4. पारिस्थितिक तन्त्र की कार्यप्रणाली निर्भर करती है
(क) उपभोक्ता पर ।
(ख) स्वपोषित पर ।
(ग) वियोंजक पर
(घ) ऊर्जा प्रवाह पर ।
उत्तर-(क) उपभोक्ता पर।।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. पारिस्थितिक तन्त्र की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-1. पारिस्थितिक तन्त्र एक क्रियाशील इकाई है, जिसमें जैव तथा अजैव तत्त्व परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। इस तन्त्र की सक्रियता से ही जैव तत्त्व उत्पादित होते हैं।
2. पारिस्थितिक तन्त्र ऊर्जा (सूर्य ऊर्जा) द्वारा संचालित होता है तथा अपनी कार्यप्रणाली द्वारा अन्य | तत्त्वों में ऊर्जा का प्रवाह करता है।

प्रश्न 2. पारिस्थितिकी तन्त्रों के दो प्रमुख घटकों के नाम लिखिए।
उत्तर-पारिस्थितिकी तन्त्र के दो प्रमुख घटकों के नाम हैं—(i) अजैविक घटक, (ii) जैविक घटक।

प्रश्न 3. स्थलीय पारितन्त्र के घटकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-स्थलीय. पारितन्त्र में वन, घास के मैदान, मरुस्थल आदि आते हैं।

प्रश्न 4. स्वच्छ जलीय एवं सागरीय पारितन्त्र में क्या अन्तर है।
उत्तर-स्वच्छ जलीय पारितन्त्र नदी, झील, तालाब आदि से मिलकर बनता है, जो प्रायः मीठे जल को धारण करते हैं। इसके विपरीत सागरीय पारितन्त्र खारे पानी से युक्त सागरों एवं महासागरों से मिलकर बना होता है।

प्रश्न 5. पारिस्थितिक असन्तुलन को परिभाषित कीजिए।
या पारिस्थितिकीय असन्तुलन क्या है ?
उत्तर-पारिस्थितिक-तन्त्र के किसी भी घटक का वांछित एवं आवश्यक मात्रा से कम हो जाना अथवा अधिक हो जाना पारिस्थितिक असन्तुलन कहलाता है। प्रत्येक घटक का उस अनुपात में रहना जिससे इस तन्त्र के अन्य घटकों पर कोई हानिकारक प्रभाव न हो, पारिस्थितिक सन्तुलन कहलाता है।

प्रश्न 6. जैवमण्डल से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-स्थल, जल और वायुमण्डल की सम्मिलित संकीर्ण पेटी जैवमण्डल कहलाती है। इस पेटी के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, कीड़-मकोड़े, सूक्ष्म जीवाणु, मछली आदि सम्मिलित हैं। इन जीवों का आकार सूक्ष्म जीवणु से लेकर विशालकाय सील व ह्वेल मछली तथा कल्लक से लेकर बरगद के विशाल वृक्ष तक होता है।

प्रश्न 7. प्रकाश-संश्लेषण क्या है?
उत्तर-प्रकाश-संश्लेषण वह प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत पेड़-पौधे वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड और मिट्टी से खनिज एवं जल लेकर सौर ऊर्जा द्वारा जैव पदार्थों का संश्लेषण करते हैं। पेड़-पौधों की पत्तियों में व्याप्त पर्णहरित (Chlorophyll) नामक हरे वर्णक द्वारा प्रकाश-संश्लेषण सम्भव होता है।

प्रश्न 8. प्राथमिक उपभोक्ता किन्हें कहते हैं?
उत्तर-जे जीव जो अपने भोजन के लिए पेड़-पौधों, घास, तृणमूल आदि पर आश्रित रहते हैं, प्राथमिक या शाकाहारी उपभोक्ता कहलाते हैं। उदाहरण के लिए-हिरन एवं खरगोश।

प्रश्न 9. सर्वाहारी या सर्वभक्षी उपभेक्ता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-वे जीव जो जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों दोनों से ही अपना भोजन प्राप्त करते हैं, सर्वाहारी या सर्वभक्षी उपभोक्ता कहलाते हैं। मनुष्य इसका उत्तम उदाहरण है, क्योंकि वह शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों की प्रकार का भोजन ग्रहण करर्ता है।

प्रश्न 10. अपघटक या विघटक से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-कुछ ऐसे जीव, जो सड़े-गले पौधों तथा मृत जीव-जन्तुओं के ऊतकों का विघटने या अपचयन कर अपना भोजन बना लेते हैं, अपघटक या अपरदभोजी उपभोक्ता कहलाते हैं। जीवाणु, कवक, दीमक, केंचुए और मैगट ऐसे ही विघटक जीव हैं।

प्रश्न 11, खाद्य-श्रृंखला किसे कहते हैं?
उत्तर-मानव सहित सभी जीव-जन्तु अपनी भोजन सम्बन्धी आवश्यकता-पूर्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हैं। उदाहरण के लिए-हिरन, खरगोश, भेड़, बकरी आदि जीव पेड़-पौधों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, परन्तु लोमड़ी खरगोश को और शेर हिरन को खा जाता है। इस प्रकार घास (पौधों) से खरगोश में, खरगोश से लोमड़ी में तथा लोमड़ी से शेर में ऊर्जा का प्रवाह होता है। इस प्रकार ऊर्जा का प्रवाह या स्थानान्तरण खाद्य श्रृंखला कहलाता है।

प्रश्न 12. पारिस्थितिक क्षमता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में स्थानान्तरित ऊर्जा की मात्रा को पारिस्थितिक क्षमता कहते हैं, परन्तु एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में ऊर्जा के स्थानान्तरण में भिन्नता पाई जाती है। यह क्षमता 5 से 20 प्रतिशत के मध्य पाई जाती है।

प्रश्न 13. ज्वारनदमुख पारितन्त्र से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-नदी एवं सागर का वह मिलन स्थल, जहाँ खारे एवं मृदुल जल का मिश्रण होता है, ज्वारनदमुख पारितन्त्र कहलाता है। इस क्षेत्र में पौधों का विकास तेजी से होता है जिसमें जीवों को भोजन की प्राप्ति होती रहती है।

प्रश्न 14. तृतीयक उपभोक्ता किन्हें कहते हैं?
उत्तर-वे मांसाहारी प्राणी जो अन्य मांसाहारी प्राणियों को खाते हैं, तृतीयक उपभोक्ता कहलाते हैं; जैसे–साँप मेंढक को तथा बाज या गिद्ध साँप को खा जाता है।

प्रश्न 15. अपघटक से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-अपघटक वे मृतोपजीवी जीवाणु या कवक आदि होते हैं जो पेड़-थौधों एवं जीव-जन्तुओं तथा कार्बनिक पदार्थों को सड़ा-गलाकर एवं विघटित करके सूक्ष्म एवं सरल कार्बनिक एवं अकार्बनिक यौगिकों में बदल देते हैं।

प्रश्न 16. शीतलन प्रणाली में कौन-सी गैस का उपयोग किया जाता है?
उत्तर-शीतलन प्रणाली में फ्रेओन तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस का उफ्यौगं किया जाता है।

प्रश्न 17, पारिस्थितिकी (Ecology) का क्या अर्थ है?
उत्तर-पारिस्थितिकी; पारिस्थितिक विज्ञान की वह शाखा है जो विभिन्न प्रकार के जीवों तथा उनके औतिक पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करती है।

प्रश्न 18. पारिस्थितिक सन्तुलन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-प्राकृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत जैवमंण्डल में विभिन्न जीवों के बीच पूर्ण रूप से निर्मित सन्तुलन को ‘पारिस्थितिक सन्तुलन’ कहा जाता है।

प्रश्न 19. लियानास किसे कहते हैं?
उत्तर-वृक्षों से आवृत्त जंगल का वह क्षेत्र जहाँ एक छाता जैसा स्वरूप बन जाता है और नीचे के पौधे. बेल आदि सूर्य के प्रकाश को रोकते हैं, ऐसे क्षेत्र को लियानास कहा जाता है।

प्रश्न 20. जूप्लैंकटन क्या है?
उत्तर-वह सूक्ष्म जीव जो महासागरीय जल में पाए जाते हैं, जूप्लैंकटने कॅहलाते हैं।

प्रश्न 21. जीवोम या बायोम का क्या अर्थ है?
उत्तर-भूपृष्ठ पर जलवायु-दशाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पति पाई जाती हैं। एकसमन जलवायु-दशाओं वाले भागों में पेड़-पौधों के समुदायों के पृथक्-पृथकै समूह तथा विशेष प्रकार के जीव-जन्तु पाए जाते हैं, जिन्हें जीवोम (Biome) कहते हैं।

प्रश्न 22. सर्वाहारी (सर्वभक्षी) जीव भोजन के लिए किस पार निर्भर करते हैं?
उत्तर-सर्वाहारी (सर्वभक्षी) जीव भोजन के लिए पेड़-पौधों तथा जीव-जन्तुओं दोनों पर निर्भर करते हैं।

प्रश्न 23. उत्पादक या स्वपौषी जीव से क्या अभिप्राय है?
उतर-वे जीव जो भौतिक पर्यावरण से अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं, उत्पादक या स्वपोषी जीव कहलाते हैं। हरे पेड़-पौधे एवं सभी प्रकार की वनस्पति प्राथमिक उत्पादकं हैं।

प्रश्न 24. जीवोम को प्रभावित करने वाले कारकों के नाम बताइए।।
उत्तर-जीवोम को प्रभावित वाले कारकों के नाम हैं—आर्द्रता, तापमान, मिट्टीं, उच्चावच, सूर्य-प्रकाश, एवं सागरीय जल तथा उसका उच्चावच।

प्रश्न 25. जैविक घटक किस पर निर्भर करते हैं।
उत्तर-जैविक घटक सर्वाधिक जलवायु पर निर्भर होते हैं। जलवायु प्रणियों और पौधों की क्रियाओं कों नियन्त्रित करती है। अत: स्थल, जल और वायुमण्डल जैविक घटकों के निर्धारक तत्त्व हैं।

प्रश्न 26. जैवमण्डल में असन्तुलन की स्थिति क्यों उत्पन्न लेती है।
उत्तर-जैवमण्डल की रचना जैविक (पादप, मानव, जन्तु एवं सूक्ष्म जीवं) तथा अजैविक घटक (स्थल, जल एवं वायु) तथा ऊर्जा से होती है। इन सभी तत्त्वों के घट-बढ़ जाने से जैक्मण्डल में असन्तुलने की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 27, डीटटस पोषक क्या हैं?
उत्तर-उपभोक्ताओं का वह समूह जो महासागरीय जल अथवा मृत प्राणियों पर निर्भर हो, ड्रीट्टस पोषक कहलाता है।

प्रश्न 28. जीरोफाइट्स क्या हैं?
उत्तर-जो पौधे शुष्क जलवायु में भी रह सकते हैं, उन्हें जीरोफाइट्स कहते हैं।

प्रश्न 29. जैविक तत्त्वों के तीन वर्ग कौन-से हैं?
उत्तर-जैविक तत्त्वों के तीन वर्ग निम्नलिखित हैं

प्रश्न 30. कार्बन चक्र क्या हैं?
उत्तर-कार्बन चक्र कार्बन डाइऑक्साइड का परिवर्तित रूप है।।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जैवमण्डल का अर्थ एवं उसके मुख्य तत्त्व बताइए।
या जैवमण्डल पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-जैवमण्डल में पृथ्वी के निकट का वह कटिबन्ध सम्मिलित है जो किसी-न-किसी रूप में जैव विकास के लिए अनुकूल पड़ता है। इसका निर्माण स्थलमण्डल, जलमण्डल और वायुमण्डल तीनों के सम्पर्क क्षेत्र में होता है। इन तीनों के संयोग से ऐसा पर्यावरण बन जाता है जो वनस्पति जगत, जीव-जन्तु और मानव-शरीर के विकास के लिए अनुकूल दशाएँ प्रदान करता है। पृथ्वी तल के निकट स्थित यह क्षेत्र हो । जैवमण्डल (Biosphere) कहलाता है। विद्वानों ने जैवमण्डल को तीन पर्यावरणीय उपविभागों में बाँटा है–(i) महासागरीय, (ii) ताजे जल एवं (iii) स्थलीय जैवमण्डल। इनमें स्थलीय जैवमण्डल अधिक महत्त्वपूर्ण है।

जैवमण्डल के तत्त्व-जैवमण्डल के तीन प्रमुख तत्त्व हैं-1. वनस्पति के विविध प्रकार, 2. जन्तुओं के विविध प्रकार तथा 3. मानव समूह।। वनस्पति-जगत में समुद्री पेड़-पौधों से लेकर पर्वतों की उच्च श्रेणियों तक पाए जाने वाले वनस्पति के विविध प्रकार सम्मिलित हैं। जन्तु-जगत में समुद्रों में पाए जाने वाले विविध जीव, मिट्टियों को बनाने वाले बैक्टीरिया और स्थल पर पाए जाने वाले विविध जीव-जन्तु सम्मिलित हैं। जैवमण्डल के तत्त्व वायु, जल, सूर्य-प्रकाश और मिट्टियों पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर होते हैं। जैवमण्डल के तत्त्वों में परस्पर गहरा सम्बध होता है। किसी तत्त्व में कमी या अवरोध उत्पन्न होने पर जैवमण्डल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 2. प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं में अन्तर बताइए।
उत्तर-प्राथमिक एवं द्वितीयंक श्रेणी के उपभोक्ताओं में निम्नलिखित अन्तर हैं

प्रश्न 3. पारिस्थितिक सन्तुलन की महत्ता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-पारिस्थितिक तन्त्र जीवन का आधार है। इसका मूल उद्देश्य मानव एवं प्रकृति के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करना है, परन्तु जनसंख्या में द्रुतगति से वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र गति से विदोहन हुआ है तथा पारिस्थितिक असन्तुलन के कारण जीवन के लिए संकट की स्थिति उत्पन्न होने का खतरा बढ़ा है। समग्र रूप से पारिस्थितिक सन्तुलन की महत्ता को निम्नलिखित रूपों में व्यक्त किया जा सकता है ।

1. पारिस्थितिक सन्तुलन के कारण ही वायुमण्डल एवं जलमण्डल के परिसंचरण से जलवायु सन्तुलित रहती है तथा जल एवं वन संसाधनों का भण्डार सतत बना रहता है।

2. पारिस्थितिक सन्तुलन के कारण प्राकृतिक जैव एवं अजैव घटकों की स्वनिर्मित प्रक्रिया में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं होता, जिसके कारण प्राकृतिक आपदाओं की सम्भावनाएँ न्यूनतम रहती हैं।

3. पर्यावरण सन्तुलन पृथ्वी पर जीव-जन्तु और पेड़-पौधों में एक निश्चितै अनुपात कायम रखता है,

अत: जीवन की सतत साम्यावस्था बनी रहती है। इस प्रकार पारिस्थितिक सन्तुलन को जीवन में व्यापक महत्त्व है। इसकी साम्यावस्था मानव-जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि अन्य जीव-जन्तु, पेड़-पौधों और समस्त अजैव संसाधनों की दीर्घ अवधि तक उपभोग क्षमता में वृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

प्रश्न 4. पर्यावरण किस प्रकार सन्तुलित रह सकता है?
उत्तर-जैव समुदाय में वृद्धि, विकास एवं अस्तित्व के लिए पर्यावरण का सन्तुलित होना आवश्यक है। मानव के सभी क्रियाकलाप पर्यावरण से सम्बन्धित होते हैं तथा उसी से ही निर्धारित होते हैं। मानव का आवास इसी पृथ्वी तल पर है। वह पृथ्वी तल पर उत्पन्न होने वाली वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं से अलग नहीं रह सकता है, क्योंकि अपने भोजन और अन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए वह वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं पर ही आश्रित है; अतः मानव के लिए इनकी सुरक्षा करना अति आवश्यक हो जाता है। पर्यावरण सन्तुलन के लिए आज पर्यावरण के प्रति जागरूक होना अथवा पर्यावरण का बोध होना अति आवश्यक है।

पारिस्थितिक सन्तुलन तभी बना रह सकता है जब प्रत्येक घटक सम्मिलित रूप से सभी क्रियाएँ करता रहे, जो वह पहले से करता आ रहा है; जैसे—यदि वन पर्याप्त मात्रा में बने रहते हैं तो इससे वातावरण एवं वायु में नमी बनी रहती है, जिससे वर्षा होती रहेगी, कृषि फसलों के लिए जल मिलता रहेगा, फलस्वरूप खाद्य-पदार्थों का उत्पादन होगा और भोजन की कमी नहीं रहेगी। वास्तव में पारिस्थितिक सन्तुलन के लिए इसके प्रत्येक घटक का सन्तुलित अवस्था में रहना आवश्यक है।

प्रश्न 5. पारिस्थितिक तन्त्र को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-भौतिक पर्यावरण में पेड़-पौधे, जीव-जन्तु तथा अन्य सूक्ष्म जीवाणु सब एक साथ मिलकर पारितन्त्र की रचना करते हैं। “पारिस्थितिकी जीवविज्ञान का वह भाग है जिसके द्वारा हमें जीव तथा पर्यावरण की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं का बोध होता है। इस प्रकार विभिन्न जीवों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा उनका भौतिक पर्यावरण से सम्बन्धों का अध्ययन पारिस्थितिक विज्ञान (Ecology) के अन्तर्गत किया जाता है। हमारी पृथ्वी स्वयं में एक बहुत बड़ा पारिस्थितिक तन्त्र है, जिसमें समस्त जैव समुदाय सूर्य द्वारा प्राप्त ऊर्जा पर निर्भर है तथा वे स्थलमण्डल, जलमण्डल तथा वायुमण्डल से जीवनोपयोगी सभी तत्त्वों को प्राप्त करते हैं। जलवायु प्राणियों और पौधों की क्रियाओं को नियन्त्रित करती है। ये दोनों ही एक-दूसरे को तथा साथ ही अपने पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। इस प्रकार पर्यावरण और उसमें निवास करने वाले जीवधारी परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए एक तन्त्र की रचना कर लेते हैं, जिसे ‘पारितन्त्र’ अथवा ‘पारिस्थितिक तन्त्र’ कहा जाता है।

प्रश्न 6. पारितन्त्र के प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-पारितन्त्र के निम्नलिखित दो प्रमुख घटक होते हैं
1. अजैव घटक-मृदा, जल और वायुमण्डल में विद्यमान अनेक रासायनिक पदार्थ अजैव घटक कहलाते हैं। इन रासायनिक पदार्थों में जल, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाइ-ऑक्साइड, कैल्सियम, फॉस्फोरस तथा अन्य अनेक रासायनिक पदार्थ सम्मिलित किए जाते हैं। भौतिक पर्यावरण के अजैव घटक किसी क्षेत्र में निवास करने वाले जीव-जन्तुओं तथा वनस्पति की विभिन्न प्रजातियों को प्रभावित करते हैं। अजैव घटकों में जलवायु का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जो सम्पूर्ण पारितन्त्र को प्रभावित करती है तथा उसमें अनेक परिवर्तन लाती है।

2. जैव घटक-स्थल, जल और वायुमण्डल में निवास करने वाले सभी प्रकार के जीव-जन्तु, जीवाणु, कीटाणु आदि तथा सभी प्रजातियों के पेड़-पौधे (वनस्पति) जैव घटक के अन्तर्गत सम्मिलित किए जाते हैं।

प्रश्न 7. जैव घटक के दो प्रमुख वर्ग कौन-कौन से हैं? वर्णन कीजिए।
उत्तर-जैव घटक के दो प्रमुख वर्ग निम्नलिखित हैं
1. उत्पादक-उत्पादक वे जीव हैं जो भौतिक पर्यावरण से अपना भोजन स्वयं लेते हैं। इन्हें स्वपोषित जीव भी कहते हैं। हरे पेड़-पौधे तथा सभी प्रकार की वनस्पति प्राथमिक उत्पादक हैं। महासागरीय जल में पादप प्लवक प्राामिक उत्पादक हैं, क्योंकि वे सौर ऊर्जा का उपयोग कर अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं।

2. उपभोक्ता-उपभोक्ता अपने भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं। इन्हें परपोषी भी कहा जाता है। इनकी चार श्रेणियाँ हैं
(क) शाकाहारी या प्राथमिक उपभोक्ता हिरण एवं खरगोश।
(ख) मांसाहारी या गौण उपभोक्ता–शेर एवं चीता।
(ग) सर्वाहारी या सर्वभक्षी उपभोक्ता—मनुष्य।
(घ) अपघटक या अपरदभोजी उपभोक्ता–जीवाणु, कवक, दीमक, केंचुए एवं मैगट आदि।।

इस प्रकार अपघटक जीव, जैव पदार्थों को अजैव पदार्थों में परिणत कर देते हैं। पुनः इन अजैव पदार्थों को सौर ऊर्जा की सहायता से पेड़-पौधे अपना भोजन बना लेते हैं। हिरण एवं खरगोश पेड़-पौधों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, जबकि शेर एवं चीता, हिरण एवं खरगोश को खा जाते हैं। मनुष्य अपना भोजन पेड़-पौधों एवं गौण उपभोक्ताओं से प्राप्त करता है। इस प्रकार यह क्रम अबाध गति से चलता रहता है तथा चक्रीय प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।

प्रश्न 8. खाद्य-श्रृंखला या आहार-जाल किसे कहते हैं?
उत्तर-मानव सहित सभी जीव अपनी भोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं तथा उनमें भोजन के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा रहती है। इस प्रकार पारिस्थितिक तन्त्र में एक जीव से दूसरे जीव में ऊर्जा का स्थानान्तरण’खाद्य-श्रृंखला’ कहलाता है। उदाहरण के लिए-खरगोश, हिरण, भेड़, बकरी आदि जीव घास (पौधों) से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, परन्तु लोमड़ी खरगोश को खा जाती है। और शेर लोमड़ी को खा जाता है। परन्तु विघटक पौधों और जीवों के सड़े-गले अंश से ऊर्जा और पोषक तत्त्व प्राप्त करते हैं। ये जैव पदार्थों को अजैव पदार्थों में बदल देते हैं जिन्हें हरे पौधे ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार खाद्य–श्रृंखला का चक्र पूर्ण हो जाता है। परन्तु अपघटक पौधों एवं मृत शरीरों के ऊतकों से ऊर्जा और पोषक तत्त्वों को ग्रहण करते हैं। अपने भोजन की प्रक्रिया में अपघटक जीव, जैव पदार्थों को अजैव पदार्थों में परिणत कर देते हैं। इस प्रकार प्रकृति में खाद्य-श्रृंखलाएँ जटिल बन जाती हैं तथा इनका एक जाल-सा बन जाता है। जीवों द्वारा पारस्परिक रूप से सम्बन्धित खाद्य-श्रृंखलाओं के जटिल समूह को आहार-जाल कहते हैं।

प्रश्न 9. पृथ्वी के पारितन्त्र को कितने भागों में विभाजित किया जाता है?
उत्तर-पृथ्वी के पारितन्त्र को. निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जाता है
1. जलीय पारितन्त्र-जल में घुले विभिन्न लवणों के कारण जलीय जीवों की संख्या सीमित होती है। जलीय पारितन्त्र का उपविभाजन मीठे जल, ज्वारनदमुख तथा समुद्री पारितन्त्रों के रूप में किया जाता है। जल में घुली हुई ऑक्सीजन का संकेन्द्रण और जल में सूर्य के प्रकाश का प्रवेश तथा पोषण की उपलब्धि, जलीय जीवों को सीमित करने वाले प्रमुख कारक हैं।

2. स्थलीय पारितन्त्र-हम स्थलखण्ड पर निवास करते हैं; अत: स्थलीय पारितन्त्र से हमारा गहन सम्बन्ध है, क्योंकि हमारी भोजन तथा अन्य सभी आवश्यकताएँ इन्हीं से ही पूर्ण होती हैं। भू-पृष्ठ पर जलवायु की दशाओं के अनुसार विभिन्न प्रकार की वनस्पति पाई जाती है। एकसमान जलवायु-दशाओं वाले भागों में पौधों के समुदायों के पृथक्-पृथक् समूह मिलते हैं, जिन्हें ‘जीवोम’ कहते हैं। इस प्रकार स्थलीय पारितन्त्र का वर्गीकरण जलवायु-दशाओं के आधार पर किया जाता है। इनमें आर्द्रता, तापमान तथा मृदा महत्त्वपूर्ण कारक हैं।

प्रश्न 10. प्रकाश-संश्लेषण के महत्त्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर-प्रकाश-संश्लेषण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हरे पौधे सूर्य की ऊर्जा की सहायता से अजैव पदार्थों को जैव पदार्थों में परिवर्तित कर देते हैं। प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया में पौधे वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड और मृदा से खनिज व जल लेकर, सूर्य की ऊर्जा द्वारा जैव पदार्थों को संश्लेषण करते हैं। पेड़-पौधों की पत्तियों में व्याप्त पर्णहरित (Chlorophyll) नामक हरे वर्णक द्वारा प्रकाश-संश्लेषण सम्भव होता है। महासागरीय जल में पादप प्लवक प्राथमिक उत्पादक हैं क्योंक वे सौर ऊर्जा का उपयोग कर अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं।

प्रश्न 11. पारिस्थितिक पिरामिड को समझाइए।
उत्तर-जीव-जन्तुओं के प्रत्येक समूह का एक पोषण स्तर होता है। हरी घासें एवं अन्य वनस्पति प्रथम स्तर के पोषण के अन्तर्गत सम्मिलित की जाती हैं, जिन्हें प्राथमिक उत्पादक भी कहा जाता है। शाकाहारी जीव-जन्तु, जो इनका भक्षण करते हैं, द्वितीय स्तर के पोषण में सम्मिलित किए जाते हैं। वे मांसाहारी जीव-जन्तु, जो शाकाहारी जीव-जन्तुओं का शिकार करते हैं, तृतीय स्तर के पोषण में सम्मिलित होते हैं, जिन्हें द्वितीयक उपभोक्ता भी कहते हैं। चतुर्थ स्तर के पोषण में ऐसे मांसाहारी जीव सम्मिलित किए जाते हैं जो अपने से छोटे मांसाहारी जीवों का भक्षण करते हैं, इन्हें तृतीयक उपभोक्ता कहते हैं। मनुष्य तृतीयक उपभोक्ता है जो तीनों ही पोषण स्तरों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में उपभोग करता है, क्योंकि मनुष्य सर्वाहारी उपभोक्ता है। ऊर्जा की उपलब्धता के अनुसार सभी पोषण स्तर समान नहीं होते हैं, क्योंकि निम्न स्तर से उच्च स्तर पर ऊर्जा का एक अंश ही स्थानान्तरित होता है। इन पोषण स्तरों का प्रदर्शन एक पिरामिड की सहायता से किया जाता है, जिसे पारिस्थितिक पिरामिड कहा जाता है।

प्रश्न 12. पारिस्थितिक क्षमता का वर्णन कीजिए।
उत्तर-एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर में स्थानान्तरित ऊर्जा के प्रतिशत को पारिस्थितिक क्षमता कहा जाता है। जीवों के एक समूह का एक पोषी स्तर होता है।

एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर में ऊर्जा स्थानान्तरण की क्षमता भिन्न-भिन्न होती है। जीवों की जाति और पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार यह क्षमता 5% से लेकर 20% के मध्य हो सकती है। स्थलीय पारिस्थितिक तन्त्र में शाकाहारी जीवों द्वारा पादप पदार्थ के केवल 10% भाग का ही उपभोग किया जाता है। औसत रूप से केवल 10% ऊर्जा का स्थानान्तरण एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर में होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जीवों को 10 किग्रा मांस के उत्पादन के लिए 100 किग्रा खाद्यान्नों की आवश्यकता होती है। इस कम क्षमता का कारण यह है कि उच्च स्तर के उपभोक्ताओं को एक स्तर पर विद्यमान सभी जीव सुगमता से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। परभक्षी जीव उपलब्ध प्रत्येक शिकार को पकड़ नहीं पाते हैं। परभक्षियों के आक्रमण से जो जीव बच जाते हैं वे अन्ततोगत्वा काल-कवलित हो जाते हैं। तथा इन्हें विघटक खा जाते हैं। इस प्रकार उच्च पोषी स्तर के जीवों की निर्वाह करने की क्षमता भी सीमित होती है।

प्रश्न 13. पारितन्त्र में ऊर्जा और खनिज पदार्थों के प्रवाह पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-सम्पूर्ण पारितन्त्र ऊर्जा के लिए सूर्यातप पर निर्भर करता है; अतः सभी प्रकार के पोषकों में ऊर्जा का प्रवाह सतत रूप में प्रतिपल होता रहता है। उत्पादकों को अपना भोजन बनाने के लिए सौर-विकिरण से ऊर्जा प्राप्त होती है। ऊर्जा का स्थानान्तरण उत्पांदकों से शाकाहारियों में और शाकाहारियों से मांसाहारियों में होता रहता है। इस प्रकार उत्पादकों शाकाहारियों तथा मांसाहारियों के निर्जीव या विघटित अवशेष, अपघटकों को ऊर्जा प्रदान करते हैं। अत: सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का प्रवाह एक ही दिशा में होता रहता है तथा यह प्रवाहं तब तक जारी रहता है जब तक कि ऊर्जा विलीन नहीं हो जाती है। जीव-जन्तु भोजन से प्राप्त ऊर्जा का कुछ भाग तो पचा लेते हैं तथा शेष भाग श्वसन द्वारा ऊष्मा के रूप में बाहर निकल जाता है। मृदा से खनिज पदार्थों का पेड़-पौधों में प्रवाह उनकी वृद्धि एवं विकास में सहायक होता है। उपभोक्ता अपनी वृद्धि एवं विकास के लिए इन पोषकों का भरपूर उपयाग करते हैं। जब पेड़-पौधे और जीव-जन्तु । नष्ट अर्थात् काल-कवलित हो जाते हैं, तब जीवाणु और कवक जैसे अपघटक उन्हें अपना भोजन बना लेते हैं तथा उन्हें विघटित कर अजैव पोषकों में परिणत कर दते हैं। ये अजैव पोषक मृदा में विलीन होते रहते हैं तथा पेड़-पौधे पुन: उनका उपभोग करते हैं। इस प्रकार पारितन्त्र में खनिज पदार्थों की यह चक्रीय प्रक्रिया अबाध गति से चलती रहती है।

प्रश्न 14. ज्वारनदमुख पारितन्त्र का विवरण दीजिए।
उत्तर-नदी जब अपने मुहाने का निर्माण करती है तो उसका जल भू-सतह पर फैल जाता है। ज्वार-भाटा के समय सागरीय जलं नदी के जल को पीछे की ओर धकेल देता है। इस क्षेत्र को ज्वारनदमुख कहते हैं। इस प्रकार की नदियाँ डेल्टाओं का निर्माण नहीं करती हैं; अत: इस क्षेत्र में नदी के मृदुल जल तथा सागर के खारे जल का सम्मिश्रण होता रहता है। ज्वारनदमुख के उथला होने के कारण सूर्य भी अधःस्थल तक पहुँचता है। ज्वार-भाटा के समय इस क्षेत्र में जल का उतार-चढ़ाव होता रहता है, फलस्वरूप यहाँ पोषक तत्त्वों का मिश्रण हो जाता है। अतः इस क्षेत्र में पौधों का विकास तीव्रता से होता है, जिनसे जीवों को भोजन की प्राप्ति होती रहती है तथा यहाँ केकड़े, सीपियाँ, झींगे, मछलियाँ, जलचर एवं जलीय वनस्पति पर्याप्त मात्रा में विकसित होती हैं। कुछ विशिष्ट प्रकार की मछलियों के लिए ज्वारनदमुख सबसे सुरक्षित प्रजनन क्षेत्र होते हैं, क्योंकि जल की कम लवणता महासागरीय परभक्षियों के लिए बाधा उपस्थित करती है।

प्रश्न 15. स्थलीय पारितन्त्र को कौन-कौन से कारक प्रभावित करते हैं?
उत्तर-स्थलीय पारितन्त्र को निम्नलिखित कारकै प्रभावित करते हैं
1. आर्द्रता-पौधों की वृद्धि के लिए जल अति आवश्यक है क्योंकि पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व घुली हुई अवस्था में जड़ों के माध्यम से पत्तियों तक पहुँचते हैं। अतएव जल पौधों में पोषकों के प्रवाह का माध्यम है।

2. तापमान-प्रत्येक पौधे को अपने अंकुरण, वृद्धि, विकास, पुनरुत्पादन के लिए एक निश्चित तापमान की आवश्यकता होती है।

3. मृदा-स्थलीय पारितन्त्र में मृदा सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, क्योंकि वह पौधों की वृद्धि का माध्यम है। मृदा की निर्माण प्रक्रिया बहुत मन्द गति से होती है तथा इस प्रक्रिया में भौतिक, रासायनिक और जैविक परिवर्तन होते हैं। मृदा की रचना में जलवायु सर्वप्रथम कारक है। जलवायु प्रदेश ही मृदा के प्रकारों का निर्धारण करते हैं।

प्रश्न 16. उत्पादक तथा उपभोक्ता में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-उत्पादक तथा उपभोक्ता में अन्तर

प्रश्न 17. कार्बन चक्र से आप क्या समझते हैं? सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर-कार्बन चक्र कार्बन डाइऑक्साइड का परिवर्तित रूप है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया पौधों में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के यौगिकीकरण से आरम्भ होती है। इस प्रक्रिया से । कार्बोहाइड्रेट्स व ग्लूकोज बनता है जो कार्बनिक यौगिक; जैसे-स्टार्च, सेल्यूलोज, सुक्रोज आदि के रूप में पौधों में संचित हो जाता है। कार्बोहाइड्रेट्स का कुछ भाग सीधे पौधों की जैविक क्रिया में प्रयुक्त होता है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत पौधों के पत्तों व जड़ों के विघटन से कार्बन डाइऑक्साइड गैस मुक्त होती है तथा शेष कार्बोहाइड्रेट्स जो पौधों की जैविक क्रियाओं में प्रयुक्त नहीं होती वह पौधों के ऊतकों में एकत्र हो जाती है। ये पौधे या तो शाकाहारियों का भोजन बनते हैं या सूक्ष्म जीवों द्वारा विघटित हो जाते हैं। यही शाकाहारी जीव उपभोग किए गए कार्बोहाइड्रेट्स को कार्बन डाइऑक्साइड में परिवर्तित करते हैं और श्वसन क्रिया द्वारा वायुमण्डल में छोड़ते हैं। इसके अतिरिक्त सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा भी कार्बोहाइड्रेट्स ऑक्सीजन प्रक्रिया द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड में परिवर्तित होकर पुनः वायुमण्डल में आ जाती है (चित्र 15.1)।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. ऑक्सीजन चक्र अथवा नाइट्रोजन चक्र पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-ऑक्सीजन चक्र
ऑक्सीजन प्रकाश-संश्लेषण क्रिया का प्रमुख सहपरिणाम है। यह कार्बोहाइड्रेट्स के ऑक्सीकरण में सम्मिलित है जिससे ऊर्जा, कार्बन डाइऑक्साइड व जल विमुक्त होते हैं।

ऑक्सीजन चक्र बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। ऑक्सीजन बहुत-से रासायनिक तत्त्वों के सम्मिश्रण में पाई जाती है। ऑक्सीजन नाइट्रोजन के साथ मिलकर नाइट्रेट बनाती है तथा बहुत से अन्य खनिज तत्त्वों से मिलकर कई तरह के ऑक्साइड बनाती है; जैसे—आयरन ऑक्साइड, ऐलुमिनियम ऑक्साइड आदि। ऑक्सीजन की उत्पत्ति सूर्य प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया के दौरान जल अणुओं के विघटन से होती है और पौधों की वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया के द्वारा वायुमण्डल में पहुँचती है।।

नाइट्रोजन चक्र

नाइयेजन वायुमण्डल की संरचना का प्रमुख घटक है। वायमुण्डलीय गैसों में नाइट्रोजन का योगदान सर्वाधिक (79%) है। वायु में स्वतन्त्र रूप से पाई जाने वाली नाइट्रोजन को अधिकांश जीव प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं। इसे प्रत्यक्ष रूप से केवल कुछ विशिष्ट प्रकार के जीव ही गैसीय रूप में ग्रहण करते हैं जिसमें मृदा जीवाणु एवं ब्लू-ग्रीन एल्गी मुख्य हैं।

सामान्यतः नाइट्रोजन यौगिकीकरण द्वारा ही प्रयोग में लाई जाती है। वायुमण्डल में यह गैस मिट्टी के सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया तथा सम्बन्धित पौधों की जड़ों व रन्ध्र वाली मृदा से वायु द्वारा पहुँचती है। वायुमण्डलीय नाइट्रोजन के इस तरह यौगिक रूप में उपलब्ध होने पर हरे पौधों में इसका स्वांगीकरण (Nitrogen assimilation) होता है (चित्र 15.2)। शाकाहारी जन्तुओं द्वारा इन पौधों के खाने पर नाइट्रोजन का कुछ भाग उनमें चला जाता है। फिर मृत पौधों व जानवरों के नाइट्रोजनी अपशिष्ट
(Excretion of Nitrogenous Wastes), मिट्टी में उपस्थित बैक्टीरिया द्वारा नाइट्राइट में परिवर्तित हो जाते हैं।

प्रश्न 2. पारिस्थितिक-तन्त्र (Ecosystem) से आप क्या समझते हैं। ये कितने प्रकार के होते हैं?
या टिप्पणी लिखिए-पारिस्थितिकी-तन्त्र।
या पारिस्थितिक-तन्त्र की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-पारिस्थितिकी
‘पारिस्थितिकी’ शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द ‘OIKOs’ से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘घर’ अथवा ‘आवास। अत: इस आधार पर पारिस्थितिकी का अर्थ हुआ—जीव को घर या
आवास। इस प्रकार जीव विज्ञान का वह भाग जिसके अन्तर्गत जीवों तथा उनके पर्यावरण की पारस्परिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है, पारिस्थितिकी विज्ञान कहलाता है। जीव और पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन को वातावरणीय जीव विज्ञान (Environmental Biology) भी कहा जाता है। एच० रेटर (H. Reiter) ने ‘इकोलॉजी’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1868 ई० में किया था। जीव और उसका पर्यावरण प्रकृति के जटिल एवं गतिशील घटक हैं। पर्यावरण अनेक घटकों का समूह है। ये घटक जीवों को पारस्परिक क्रियाओं द्वारा प्रभावित करते रहते हैं। पारिस्थितिकी को अनेक विद्वानों ने परिभाषित किया है, जिनमें से कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

ओडम (Odum) के अनुसार, “इकोसिस्टम पारिस्थितिकी की वह आधारभूत इकाई है जिसमें जैविक और अजैविक वातावरण एक-दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हुए पारस्परिक अनुक्रिया से ऊर्जा और रासायनिक पदार्थों के निरन्तर प्रवाह से तन्त्र की कार्यात्मक गतिशीलता बनाये रखते हैं।”

“पारिस्थितिकी प्रकृति की अर्थव्यवस्था तथा प्राणियों के अपने अजैविक तथा जैविक पर्यावरण के साथ समस्त सम्बन्धों का अध्ययन है।” -हैकल

“पारिस्थितिकी पर्यावरण के सन्दर्भ में जीवों के अध्ययन का विज्ञान है।” -वार्मिंग

इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं से निष्कर्ष निकलता है कि पारिस्थितिकी जैविक तथा पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन है। वास्तव में पृथ्वीतल पर पाये जाने वाले प्राणियों तथा जैविक एवं अजैविक पर्यावरण की सम्मिलित क्रिया-प्रतिक्रिया पारिस्थितिक-तन्त्र कहलाती है।

पारिस्थितिक-तन्त्र.

‘इकोसिस्टम’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सन् 1935 में ए०जी० तांसले द्वारा किया गया था। उनके अनुसार, “पारिस्थितिक-तन्त्र पर्यावरण के सभी जीवित एवं निर्जीव कारकों के सम्पूर्ण सन्तुलन के परिणामस्वरूप बनी हुई प्रणाली है।”

विभिन्न विद्वानों द्वारा पारिस्थितिकी एवं पारिस्थितिक-तन्त्र (Ecosystem) के पर्याय शब्दों का प्रयोग

कोई भी जैविक तत्त्व पर्यावरण के बिना जीवित नहीं रह सकता। उसका एक निश्चित पारिस्थितिक-तन्त्र होता है। स्वयं में हमारी पृथ्वी एक बहुत बड़ा पारिस्थितिक-तन्त्र है, जिसमें समस्त जीव समुदाय सूर्य से ऊर्जा प्राप्ति पर निर्भर करता है तथा भौतिक पर्यावरण जो भूतल पर पाया जाता है; अर्थात् स्थलमण्डल, वायुमण्डल एवं जलमण्डल में जीवनोपयोगी- समस्त तत्त्वों की प्राप्ति करता है। जलवायु जैविक तत्त्वों–प्राणी एवं पौधों के विचरण तथा उनकी क्रियाओं को नियन्त्रित करती है। प्राणी एवं पौधे स्वयं पारस्परिक रूप से पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। इस प्रकार पर्यावरण और उसमें निवास करने वाले जीवधारी आपस में एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए एक तन्त्र बना लेते हैं। यही तन्त्र ‘पारिस्थितिक-तन्त्र’ (Ecosystem) कहलाता है।

प्रकृति में कोई भी जीवधारी एवं उसका समुदाय अकेले रहकर अपनी क्रियाओं का सम्पादन नहीं कर सकता, बल्कि प्रकृति में पाये जाने वाले एवं विचरण करने वाले सम्पूर्ण जीव-जन्तु एवं पेड़-पौधे एक साथ मिलकर कार्य करते हैं तथा एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। इस प्रकार किसी क्षेत्र में कार्य करने वाले जैविक एवं अजैविक अंशों का सम्पूर्ण योग ही ‘पारिस्थितिक-तन्त्र’ कहलाता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि “पारिस्थितिक-तन्त्र प्रकृति की एक क्रियात्मक इकाई है।” इस प्रकार किसी क्षेत्र या प्रदेश विशेष में कार्यरत जैविक एवं अजैविक अंशों का पूर्ण योग ही पारिस्थितिक-तन्त्र कहलाता है। पारिस्थितिक-तन्त्र को वैज्ञानिकों ने निम्नलिखित प्रकार परिभाषित किया है

“पारिस्थितिक-तन्त्र पर्यावरण तथा समुदाय की क्रियात्मक समक्रिया है।” -क्लार्क

“पारिस्थितिक-तन्त्र मूल क्रियात्मक इकाई है, जिसमें जैविक तथा अजैविक पर्यावरण सम्मिलित हैं जो परस्पर प्रभावित करते हैं जिससे ऊर्जा प्रवाह-तन्त्र में निश्चित एवं स्पष्ट जैविक विविधता का चक्र बनता है।” -ओडम

इस प्रकार पारिस्थितिक-तन्त्र जैविक एवं पर्यावरण के सभी भागों में तथा उसके बीच पारस्परिक क्रिया का योग है। पारिस्थितिक-तन्त्र में जीवधारियों का समुदाय अनेक प्रकार के जीवों (पेड़-पौधे एवं जीव-जन्तु) से मिलकर बनता है। पारिस्थितिक-तन्त्र स्थायी अथवा अस्थायी दोनों प्रकार का हो सकता है।

पारिस्थितिक-तत्र का वर्गीकरण

पारिस्थितिक-तन्त्र को अनेक छोटी इकाइयों में वर्गीकृत किया जा सकता है जिससे उनको आकारिकी, कार्यिकी एवं गति सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हो सके। इस वर्गीकरण का आधार जलवायु, निवास स्थान एवं पौधों का समुदाय होता है। पारिस्थितिक-तन्त्र निम्नलिखित दो प्रकार का होता है
1. प्राकृतिक पारिस्थितिक-तन्त्र—यह तन्त्र प्रकृति द्वारा सम्पन्न किया जाता है। प्राकृतिक आवास निम्नलिखित दो प्रकार का होता है
(i) स्थलीय (Terrestrial)-वन, घास के मैदान, मरुस्थलीय आदि।
(ii) जलीय (Aquatic)-जलीय पारिस्थितिक-तन्त्र दो प्रकार का होता है

(अ) स्वच्छ जलीय (Fresh water)-इसके अन्तर्गत, नदी, झील एवं तालाब,आदि सम्मिलित किये जाते हैं।
(ब) समुद्र जलीय (Sea water)-इसके अन्तर्गत खारे जल के क्षेत्र अर्थात् महासागर, सागर. एवं खारे पानी की झीलें सम्मिलित की जाती हैं।

2. कृत्रिम अथवा मानव-निर्मित पारिस्थितिक-तन्त्र-यह तन्त्र मानव एवं उसकी क्रियाओं द्वारा सम्पन्न होता है। मानव अपने क्रिया-कलापों एवं तकनीकी-प्राविधिक ज्ञान द्वारा प्राकृतिक सन्तुलन में गड़बड़ कर देता है; अर्थात् असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मानव बड़े-बड़े क्षेत्रों को काटकर कृषि-योग्य भूमि, औद्योगिक क्षेत्रों तथा बड़ी-बड़ी बस्तियों का निर्माण करता है। यह मानव द्वारा निर्मित भूदृश्य कहलाता है। मानव भौतिक पर्यावरण को नियन्त्रित करने का प्रयास करता है, परन्तु नियन्त्रण के स्थान पर इसमें असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसे कृत्रिम | अथवा अप्राकृतिक पारिस्थितिक-तन्त्र कहा जाता है।

प्रश्न 3. पारिस्थितिक-तन्त्र में असन्तुलन की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
या पारिस्थितिक-तन्त्र के असन्तुलन की समस्या की विवेचना कीजिए तथा उसके निराकरण के उपायों को प्रस्तावित कीजिए। |
या टिप्पणी लिखिए-पारिस्थितिक असन्तुलन।
उत्तर-पारिस्थितिकीय असन्तुलन की समस्या
मानव द्वारा पारिस्थितिक-तन्त्र का शोषण किया जाता है। इनमें प्राकृतिक वनस्पति, वन्य जीव-जन्तु, मत्स्य आदि प्रमुख हैं। अधिकतम खाद्यान्नों की प्राप्ति के लिए पारिस्थितिक-तन्त्र में अनेक परिवर्तन हुए। हैं जिससे सामान्य पारिस्थितिक-तन्त्र का विकास हुआ है। पारिस्थितिकीय असन्तुलन को पर्यावरण-प्रदूषण भी कहा जा सकता है। मानव प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करता है; जैसे-खानों से खनिजों का शोषण, भूगर्भ से खनिज तेल, वनों से लकड़ी की कटाई कर तथा अपने मनोरंजन के लिए। वन्य जीवों का आखेट कर पारिस्थितिकीय सन्तुलन को बिगाड़ता रहता है। पालतू पशुओं से दूध, मांस, ऊन तथा अन्य पदार्थ प्राप्त होते हैं जिससे उसकी भोजन-श्रृंखला छोटी हो गयी है। इससे इन पालतू पशुओं की संख्या में भी कमी होने लगी है तथा पारिस्थितिकीय असन्तुलन की समस्या ने जन्म ले लिया है।

“पारिस्थितिक-तन्त्र के किसी भी घटक को वांछित एवं आवश्यक मात्रा से कम हो जाना अथवा अधिक हो जाना ही ‘पारिस्थितिकीय असन्तुलन’ कहलाता है तथा प्रत्येक घटक का उस अनुपात में रहना जिससे इस तन्त्र के अन्य घटकों पर कोई हानिकारक प्रभाव न पड़े ‘पारिस्थितिक सन्तुलन कहलाता है।” पारिस्थितिक-तन्त्र में असन्तुलन की स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब किसी सम्पूर्ण पोषण-स्तर का विनाश हो जाता है। यह स्थिति जीवों की कमी के कारण अथवा वैकल्पिक साधनों की कमी के कारण अथवा प्रदूषण के कारण हो सकती है।

1. प्रदूषण की समस्या-कृषि उत्पादन की सफलता फसलों द्वारा अपने पारिस्थितिक-तन्त्र के अनुकूलन पर निर्भर करती है। स्थानीय जलवायु दशाएँ फसलों का निर्धारण करती हैं। रासायनिक उर्वरकों द्वारा पोषक तत्वों में वृद्धि कर उत्पादन में भी वृद्धि के प्रयास किये गये हैं तथा अधिक उत्पादन देने वाली फसलें खोज ली गयी हैं। ‘हरित क्रान्ति’ ने खाद्यान्न उत्पादन में तो वृद्धि की है,.. परन्तु उर्वरकों के उत्पादन से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गयी है। मानव ने फसलों के क्षेत्रफल में वृद्धि की है जिसके कारण प्रेयरी, टैगा एवं स्टेप्स घास के मैदानों में प्राकृतिक वनस्पति में कमी हो गयी है। पादपों को कीटनाशकों से बचाव के लिए कीटनाशक दवाओं का अधिकाधिक उपयोग : किया जाने लगा है, परन्तु इनका अधिक उपयोग मानव के लिए हानिकारक है। इनसे मानव को । दूषित खाद्य सामग्री प्राप्त होती है। इन कीटनाशकों के उत्पादन काल में प्रदूषण की अनेक समस्याएँ जन्म लेती हैं। भोपाल गैस त्रासदी इसका एक मुख्य उदाहरण है जिससे मानवता में। अपंगता ने जन्म लिया है।

2. जैव-प्रदूषण की समस्या-आदि काल से लेकर आज तक वनों का बड़ी निर्ममता से शोषण किया जाता रहा है। इससे वन-क्षेत्रों का ह्रास हुआ है। प्रारम्भ से ही विश्व के अनेक भागों में स्थानान्तरित अथवा शूमिंग कृषि पद्धति प्रचलित है। इस पद्धति के अन्तर्गत उर्वर भूमि को प्राप्त करने के लिए मानव वन-क्षेत्रों का शोषण कर उस पर कृषि करता है। जब इस भूमि की उर्वरता समाप्त हो जाती है तो इसे परती छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार वनों के निर्दयतापूर्वक शोषण से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई है तथा पारिस्थितिक-तन्त्र भी असन्तुलित हुआ है। वनों की कमी के कारण भू-अपरदने, अनावृष्टि, बाढ़ आदि समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। अतः आज मानव के समक्ष अनेक प्रदूषण सम्बन्धी समस्याएँ विकराल रूप धारण कर गयी हैं। इसी कारण विश्व में वन-संरक्षण के प्रयास किये जा रहे हैं।

जलीय जीवों के प्राणों की रक्षा करना भी अति आवश्यक है। मत्स्य व्यवसाय पर ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है। मछली से मानव को प्रोटीन की प्राप्ति होती है। यदि मत्स्य व्यवसाय का विकास सुचारु रूप से नहीं हुआ तो खाद्यान्न में प्रोटीन की कमी हो जाएगी। विश्व में 3% मानव का भोजन पूर्ण रूप से मछली पर निर्भर करता है, जबकि नॉर्वे, न्यूफाउण्डलैण्ड एवं जापान सदृश देशों में 10% मानव मछली के ऊपर ही निर्भर करते हैं। इनकी कमी से खाद्य समस्या उत्पन्न हो सकती है। अत: इस ओर ध्यान दिये जाने की नितान्त आवश्यकता है।

3. जनाधिक्य की समस्या संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार-सन् 2010 में विश्व की जनसंख्या 6.9 अरब हो गयी है। सन् 2050 तक इसके 9.10 अरब हो जाने का अनुमान है। जनसंख्या की इस अतिशय वृद्धि के कारण वन क्षेत्रों एवं चरागाहों की कमी होती जा रही है। भोजन की समस्या के समाधान के लिए कृषि-क्षेत्रों का विस्तार किया जा रहा है जिस कारण वन एवं घास क्षेत्रों का विनाश किया जा रहा है जिससे पारिस्थितिक-तन्त्र में अन्तर उपस्थित हुआ है। इसके साथ ही आवास समस्या उत्पन्न हो गयी है। बस्तियों के विकास के लिए उत्पादक भूमि का अधिग्रहण होता
जा रहा है।

इस प्रकार जनसंख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि के कारण अनेक समस्याएँ विकराल रूप धारण कर चुकी हैं। भोजन, वस्त्र एवं आवास जैसी प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव होता जा रहा है। इससे प्रदूषण की अनेक समस्याओं ने जन्म लिया है। वायु, जल व मृदा प्रदूषण वर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्याएँ हैं। यह पारिस्थितिकीय असन्तुलन की स्थिति है। इससे आज मानव समुदाय को अनेक विषमताओं का सामना करना पड़ता है।

पारिस्थितिकीय असन्तुलन की समस्या का निवारण

पारिस्थितिक-तन्त्र में असन्तुलन की समस्या के निवारण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए
1. जनाधिक्य पर नियन्त्रण-आधुनिक युग में विश्व की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होती जा | रही है जिस पर नियन्त्रण किया जाना अति आवश्यक है। यदि जनसंख्या-वृद्धि उपलब्ध संसाधनों के अनुसार हो तो अधिक उपयुक्त रहेगा।

2. वन क्षेत्रफल में वृद्धि तथा उनका संरक्षण-प्रदूषण से बचाव के लिए वन क्षेत्रफल में वृद्धि किया जाना अति आवश्यक है। भारत में सामाजिक वानिकी तथा वन महोत्सव आदि कार्यक्रमों द्वारा वन क्षेत्रफल में वृद्धि के प्रयास किये जा रहे हैं। उत्तराखण्ड में श्री सुन्दर लाल बहुगुणा का ‘चिपको आन्दोलन’ भी इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।

वन एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत है। यह वन्य जीवन के लिए अति आवश्यक है। पर्यावरणीय सन्तुलन को बनाये रखने के लिए वनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। पौधे पर्यावरण से कार्बन
डाइ-ऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन निःसृत करते हैं जिसका उपयोग जन्तुओं द्वारा श्वसन क्रिया में किया जाता है।

3. जल संसाधनों में वृद्धि एवं उनका संरक्षण-जल संसाधनों में वृद्धि किया जाना अति आवश्यक है। जब जल में अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ, कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थों तथा गैसों के एक निश्चित अनुपात में अधिक अथवा कम अनावश्यक एवं हानिकारक पदार्थ घुले होते हैं, तब जल का प्रदूषण हो जाता है। प्रदूषित जल का उपयोग करने से प्राणी समुदाय में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं; अत: ऐसे प्रयास किये जाने चाहिए कि जल का प्रदूषण न होने पाये।

जल संसाधनों में वृद्धि के लिए मत्स्य उत्पादक क्षेत्रों में जल प्रदूषणरहित होना चाहिए। जल-क्षेत्रों में जिन मछलियों की प्रजाति की कमी है, उनके पकड़ने पर रोक लगा देनी चाहिए; जैसे—सील, ह्वेल आदि। ऐसे प्रयास किये जाने चाहिए कि मछलियों की भोज्य-सामग्री वनस्पति एवं प्लैंकटन पर्याप्त मात्रा में पनपती रहे। इसके लिए इन क्षेत्रों में शुद्ध जल की प्राप्ति होना अति आवश्यक है। यह जल प्रदूषणरहित होना चाहिए। ऐसे क्षेत्र मछलियों के अक्षय भण्डार हो सकते हैं। मछली पकड़ने की विकसित तकनीक होनी चाहिए तथा उन्हें नियमित रूप से ही पकड़ा जाना चाहिए।

4. वन्य-प्राणियों का संरक्षण-वन्य जीवों में लगभग 350 जातियाँ स्तनधारियों की तथा 2,100 पक्षियों की होने के साथ-साथ लगभग 20,000 प्रजातियों कीटों की वन्य अवस्था में पायी जाती हैं। अतः पारिस्थितिक-तन्त्र में सन्तुलन बनाये रखने के लिए वन्य प्राणियों का संरक्षण अति आवश्यक है। वन्य जीवों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपायों को कार्यरूप में परिणत किया जाना चाहिए
(i) वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए अभयारण्यों की स्थापना की जानी चाहिए।
(ii) वन्य जीवों के आवासीय स्थलों को संरक्षण दिया जाना चाहिए।
(iii) वन्य जीवों की विभिन्न जातियों को संरक्षण दिया जाना चाहिए।
(iv) नवीन वन्य जातियों को वन-क्षेत्रों में पालन-पोषण के प्रयास किये जाने चाहिए।
(v) सभी देशों में वन्य जीवों के आखेट पर प्रतिबन्ध लगा दिये जाएँ तथा इनके अनुपालन के | लिए कठोर नियम एवं कानून होने चाहिए। इनका कठोरता से अनुपालन किया जाना
चाहिए।

इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों से निष्कर्ष निकलता है कि प्राणी-समुदाय के कल्याण एवं उसके पर्यावरण को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए पारिस्थितिक-तन्त्र को सन्तुलित बनाये रखना अति आवश्यक है।

प्रश्न 4. पारितन्त्र की कार्यप्रणाली एवं संरचना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-पारितन्त्र की कार्यप्रणाली एवं संरचना
पारिस्थितिकी की क्रियाशील इकाई पारिस्थितिक-तन्त्र होती है जिसमें जैव तथा अजैव पर्यावरण एक-दूसरे के गुणों से प्रभावित होते हुए महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। यह दोनों ही धरातल पर जीवन बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। कोई भी जैव, अजैव पर्यावरण के बिना जीवित नहीं है। उसके जीवन का निश्चित तन्त्र पारिस्थितिक-तन्त्र द्वारा ही निर्धारित होता है।

संरचना की दृष्टि से पारितन्त्र में जैविक एवं अजैविक कारकों की सक्रिय भूमिका होती है। जैविक कारकों में उत्पादक-प्राथमिक, द्वितीयक व तृतीयक, उपभोक्ता तथा अपघटक सम्मिलित हैं। अजैविक कारकों में तापमान, वर्षा, सूर्य का प्रकाश, आर्द्रता, मृदा की स्थिति एवं अकार्बनिक तत्त्व (कार्बन डाइ-ऑक्साइड, जल, नाइट्रोजन, कैल्सियम, फॉस्फोरस, पोटैशियम आदि) सम्मिलित हैं।

ओडम के अनुसार, “पारिस्थितिक-तन्त्र, पारिस्थितिकी की वह आधारभूत इकाई है जिसमें जैविक और अजैविक वातावरण एक-दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हुए पारस्परिक अनुक्रिया एवं ऊर्जा व रासायनिक पदार्थों के निरन्तर प्रवाह से तन्त्र की कार्यात्मक गतिशीलता बनाए रखते हैं।” (चित्र 15.3)। समुदाय के जैविक सदस्यों तथा उनके अजैविक वातावरण में ऊर्जा प्रवाह और खनिज पदार्थों के चक्र को पूरा करने के लिए निरन्तर रचनात्मक और कार्यात्मक पारस्परिक अनुक्रियाएँ होती रहती हैं, इन्हीं अनुक्रियाओं एवं कार्य-प्रणाली से पारितन्त्र संचालित होकर जीवों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

0:00
0:00