यथास्मै रोचते विश्वम्

Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से क्यों की है?
अथवा
रामविलास शर्मा ने कवि की तुलना प्रजापति से क्यों की है?
अथवा
‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ के लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से क्यों की है? 
उत्तर :
प्रजापति ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं। कवि अपनी काव्य-सृष्टि का निर्माण करता है। कवि को जैसा रुचता है वैसे ही वह अपनी रुचि के अनुकूल संसार अपने काव्य जगत में बनाता है। अपने काव्य-जगत का निर्माता होने के कारण ही उसको प्रजापति के समान बताया गया है। 

प्रश्न 2. 
‘साहित्य समाज का दर्पण है’ इस प्रचलित धारणा के विरोध में लेखक ने क्या तर्क दिए हैं?
उत्तर : 
कवि का काम यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना मात्र होता तो वह प्रजापति का दर्जा न पाता। प्रजापति ने जो संसार बनाया उससे असन्तुष्ट होकर ही कवि नया संसार (समाज) रचता है। इससे यह सिद्ध होता है कि साहित्य समाज का दर्पण नहीं है। उसमें यथार्थ का ही नहीं आदर्श का भी चित्रण होता है। ट्रेजेडी नाटक में मनुष्य जैसे होते हैं उससे बढ़कर दिखाए जाते हैं अतः साहित्य को समाज का दर्पण कहना ठीक नहीं है। कवि अपनी रुचि के अनुकूल संसार को परिवर्तित करता है अर्थात् वह यथार्थ से कुछ अलग (आदर्शोन्मुखी यथार्थ का) चित्रण साहित्य में करना पसंद करता है।

प्रश्न 3. 
दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र में दिखाने के पीछे कवि का क्या उद्देश्य है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर : 
कभी-कभी कवि संसार के.दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र में समाविष्ट कर उसके चरित्र को आदर्श बनाकर लोगों के सामने पेश करता है। ऐसा करके वह प्रजापति की तरह नयी सृष्टि करता है न कि समाज को दर्पण में प्रतिबिंबित करना है। राम में सभी दुर्लभ गुण एक साथ विद्यमान हैं। वे चरित्रवान, शूरवीर, दृढ़प्रतिज्ञ, सत्यवादी, कृतज्ञ, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन हैं। ऐसा चरित्र गढ़कर कवि हमारे समक्ष आदर्श महामानव का स्वरूप प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 4. 
‘साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है’ स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर :
साहित्य का उद्देश्य केवल थके हुए मन के लिए विश्रांति (थकान दूर करना) ही नहीं है अपितु वह निराश व्यक्ति को उत्साहित कर उसके मन में आशा का संचार करता है। वह कायरों को ललकारता हुआ उन्हें समरभूमि में उतरकर प्राण-पंण से जूझने का हौसला देता है। साहित्य-मनुष्य के हताश मन में आशा का संचार करता है, उसे नयी शक्ति देता है। जीवन में नया प्रकाश देने का काम साहित्य का है। 

प्रश्न 5. 
‘मानव सम्बन्धों से परे साहित्य नहीं है’ कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
साहित्य में मानव समाज और मानव सम्बन्धों को ही विषय-वस्तु बनाया जाता है। मानव सम्बन्धों की परिधि में ही साहित्य की रचना होती है। यदि कवि विधाता (राम, कृष्ण) को साहित्य का विषय बनाता है तो उसे भी मानव रूप में प्रस्तुत कर मानवीय सम्बन्धों में बाँधकर ही प्रस्तुत करता है। राम और कृष्ण का मानवीय स्वरूप ही साहित्य का विषय है। . राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का यह कहना ‘राम तुम ईश्वर हो मानव नहीं हो क्या ?’ इसी बात को प्रकट करता है। – साहित्य में विविध मानवीय सम्बन्ध अपने गुण-दोष के साथ अभिव्यक्त होते हैं। जब उसे मानव-सम्बन्धों में दरार आती दिखती है तो उसके अन्तर्मन को पीड़ा होती है और वह इन्हीं सम्बन्धों को अपनी कविता, कहानी या उपन्यास का विषय बना लेता है। 

प्रश्न 6. 
पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी में हिन्दी साहित्य ने मानव जीवन के विकास में क्या भूमिका निभाई?
उत्तर :
पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य ने मानव जीवन की मुक्ति के लिए वर्ण और धर्म के सीकचों पर प्रहार किए। भक्त कवियों ने पीड़ित जनता के मर्म को स्पर्श कर उसे नए जीवन के लिए संगठित किया, संघर्ष के लिए आमंत्रित किया और आशा प्रदान की। तत्कालीन साहित्य ने उसे धर्म और जाति के भेदों से मुक्त कर उसके सामने सच्ची मानवता का आदर्श प्रस्तुत किया।

प्रश्न 7. 
साहित्य के पांचजन्य’ से लेखक का क्या तात्पर्य है? ‘साहित्य का पांचजन्य’ मनुष्य को क्या प्रेरणा देता है? 
उत्तर :
‘पांचजन्य’ श्रीकृष्ण के शंख का नाम है। जब श्रीकृष्ण शंखनाद करते थे तो पाण्डवों की सेना उत्साह में भरकर युद्ध के लिए तत्पर हो जाती थी। ‘साहित्य के पांचजन्य’ का अभिप्राय है प्रेरणाप्रद साहित्य जो लोगों को भाग्य भरोसे नहीं बैठने देता है और उद्यम करने की प्रेरणा देता है। साहित्य का यह पांचजन्य मनुष्य को ललकारता हुआ उन्हें समरभूमि में उतरने की प्रेरणा देता है, बुराई के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित करता है।

प्रश्न 8. 
साहित्यकार के लिए स्रष्टा और द्रष्टा होना अत्यन्त अनिवार्य है क्यों और कैसे?
उत्तर : 
म्रष्टा का अर्थ है-सृष्टि करने वाला और द्रष्टा का अर्थ है-(भविष्य को) देखने की शक्ति रखने वाला। साहित्यकार को दोनों भूमिकाओं का निर्वाह करना पड़ता है। वह ऐसे साहित्य की सृष्टि करता है जो मानव के लिए कल्याणकारी हो, उसे रूढ़िवादिता और पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करे, उसमें आशा और उत्साह का संचार करे और अपनी समस्याओं से जूझने की ताकत पैदा करे। साहित्यकार की दृष्टि भविष्योन्मुखी होती है और वह अच्छे भविष्य का चित्र अपनी रचनाओं में उतारता है इस प्रकार वह स्रष्टा भी होता है और द्रष्टा भी। 

प्रश्न 9. 
‘कवि पुरोहित’ के रूप में साहित्यकार की भूमिका स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर : 
पुरोहित की भूमिका अपने यजमान के धार्मिक एवं लोककल्याणकारी कार्यकलापों को सम्पन्न कराने की है। वह उसका दिशा निर्देश करता है। इसी प्रकार कवि भी समाज का दिशा निर्देशक होता है। उसे बताता है कि क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए। इसीलिए लेखक ने कवि की तुलना पुरोहित (जन-कल्याण की भावना से पूजा-पाठ कराने वाला पण्डित) से की है। ‘कवि-पुरोहित’ निश्चय ही लोकमंगलकारी क्रियाकलापों का विधान करता है।

प्रश्न 10. 
सप्रसंग व्याख्या कीजिए 
(क) ‘कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों की त्यों आकृति भले ही न देखें पर ऐसी आकृति जरूर देखते हैं, जैसी हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं। 
(ख) ‘प्रजापति-कवि गम्भीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं।’ 
(ग) इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृत काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के ‘सिद्धान्त’ वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अन्धकार।’ 
उत्तर : 
सप्रसंग व्याख्या संदर्भ-प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा लिखे गए निबन्ध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से ली गई हैं। 
(क) कवि की तुलना प्रजापति ब्रह्मा से की गई है। वह विधाता की सृष्टि से असन्तुष्ट होकर अपनी रुचि के अनुकूल नयी सृष्टि अपने काव्य-जगत् में करता है। कवि जिस सृष्टि का निर्माण करता है वह निराधार नहीं होती। भले ही हम उसमें अपनी ज्यों की त्यों (यथार्थ) आकृति न देखें पर ऐसी आकृति अवश्य देखते हैं जो हमें प्रिय है और जैसी हम चाहते हैं। इसे ही आदर्श कहते हैं।

(ख) प्रजापति कवि इस अर्थ में यथार्थवादी होता है क्योंकि उसके पैर तो जमीन पर टिके होते हैं किन्तु आँखें भविष्य के क्षितिज पर टिकी होती हैं। अर्थात् वह यथार्थवादी होते हुए भी आदर्शोन्मुख होता है। 

(ग) कवि का उद्देश्य हताश और निराश व्यक्ति में साहस और आशा का संचार करना, उन्हें संघर्ष के लिए प्रेरित करना होता है। यही साहित्य का वास्तविक उद्देश्य भी है न कि पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों द्वारा निरूपित सिद्धान्त (कला, कला के लिए, कला मनोविकारों के शमन के लिए या कला अहं और व्यक्तिवाद की तुष्टि के लिए) ये साहित्य रचना के उद्देश्य नहीं हैं। साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है मानव को प्रेरित करना। 

भाषा-शिल्प 

प्रश्न 1.
पाठ में प्रतिबिंब प्रतिबिंबित जैसे शब्दों पर ध्यान दीजिए। इस तरह के दस शब्दों की सूची बनाइए। 
उत्तर : 
प्रतिबिंब प्रतिबिंबित

प्रश्न 2. 
पाठ में ‘साहित्य के स्वरूप’ पर आए वाक्यों को छाँटकर लिखिए। 
उत्तर : 

  1. यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती (अर्थात्-साहित्य समाज का बर्पण मात्र नहीं होता)। 
  2.  मानव सम्बन्धों से परे साहित्य नहीं है। (अर्थात् साहित्य का कथ्य मानव सम्बन्धों पर आधुत होता है। मानवीय रिश्तों की अभिव्यक्ति ही साहित्य में की जाती है।) 
  3. साहित्य जीवन का प्रतिबिंब रखकर उसे समेटने, मंगठित करने और उसे परिवर्तित करने का अजेय अस्त्र बन जाता है। 
  4. साहित्य का पांचजन्य समर भूमि में उदासीनता का पा नहीं सुनाता। (अर्थात् साहित्य लोगों को जीवन संघर्ष में शौर्य प्रदर्शित करने की प्रेरणा देता है)। 

प्रश्न 3. 
इन पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए 
उत्तर : 
(क) कवि की सृष्टि निराधार नहीं होती, 
(ख) कवि गम्भीर यथार्थवादी होता है, 
(ग) धिक्कार है उन्हें जो तालियाँ सोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहे हैं। 
उत्तर : 
(क) कवि अपनी रचना में जिस प्रकार के चरित्र की सृष्टि करता है वह निराधार नहीं होती। वह जैसे आदर्श चरित्रों की परिकल्पना अपने मन में करता है उसी को अपनी रचना में प्रस्तुत करता है। 
(ख) कवि यथार्थ का यथातथ्य वित्रण भले ही न करे किन्तु यथार्थ में उसे जो रुचिकर नहीं लगता उसे हटाकर अपने मनोनुकूल चरित्र की सृष्टि करता है। कवि जिस आदर्श को प्रस्तुत करता है उसका मूल यथार्थ ही है इसलिए उसे गंभीर यथार्थवादी कहा गया है। 
(ग) पिंजड़े की. तीलियाँ तोड़ने का काम कवि का है अर्थात् कवि मुक्ति के लिए प्रेरित करता है। जो कवि मानव की मुक्ति के गीत नहीं गाते अपितु उनके बन्धनों को मजबूत करते हैं, लेखक ऐसे कवियों को धिक्कारता है।

योग्यता विस्तार 

प्रश्न 1. 
‘साहित्य और समाज’ पर चर्चा कीजिए। 
उत्तर : 
साहित्य समाज के लिए लिखा जाता है। साहित्यकार समाज में जो कुछ देखता-सुनता है उसी का चित्रण साहिल में करता है। पर वह केवल यथार्थ का चित्रण नहीं करता अपितु यह भी बताता है कि समाज कैसा होना चाहिए अर्थात् साहित्य में आदर्शोन्मुखी यथार्थ प्रस्तुत किया जाता है। कवि का कार्य हताश लोगों में आशा एवं उत्साह का संचार कला और पराजित एवं निराश लोगों को संघर्ष की प्रेरणा देना है।

प्रश्न 2. 
‘साहित्य मात्र समाज का दर्पण नहीं है’ विषय पर कक्षा में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन कीजिए। 
उत्तर : 
इस विषय पर कक्षा में वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित करें। इसके पक्ष-विपक्ष में अग्रलिखित तर्क दिए जा सक्ते हैं . . पक्ष साहित्य समाज का दर्पण मात्र नहीं है अर्थात साहित्य में केवल यथार्थ का चित्रण ही नहीं होता। जो जैसा है अका वैसा चित्रण करना यथार्थ है। समाज में लूट-खसोट, अन्याय-अत्याचार, भूख-गरीबी, लाचारी-बेबसी का बोलबाला है किन्तु कवि या साहित्यकार केवल इसका ही चित्रण नहीं करता अपितु वह ऐसे समाज का चित्रण अपनी रचना में करता है जैसा वह देखना चाहता है अर्थात् वह अपने मनोनुकूल समाज का चित्रण करता है जैसा उसे अच्छा लगता है। कवि का यह चित्रण आदर्शोन्मुखी होता है। हम जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ पर विचार करें। कहानीकार ने इसके पात्र गुंडा की महरी मानवीय संवेदना. और करुणा को ही उभारा है। 

विपक्ष – समाज में जो कुछ हो रहा है उसका चित्रण ही साहित्य में होता है। दर्पण में जैसे हमें अपना यथार्थ प्रतिबिम्ब दिखाई देता है उसी प्रकार साहित्य रूपी दर्पण में हमें समाज का यथार्थ प्रतिबिम्ब ही दिखता है। जैसा बिम्ब होगा उसका वैसा प्रतिनिधि होगा। इसीलिए कहा गया है कि किसी देश के साहित्य के आधार पर तत्कालीन समाज की परिकल्पना की जा सकती है। यदि साहित्य में युद्ध, अशांति का चित्रण है तो समाज में भी यही अशांति और संघर्ष रहा होगा यह ध्रुव सत्य है। दर्पण कभी नहीं बोलता, इसी प्रकार साहित्य कभी झूठ नहीं कहता। समाज में जो कुछ चल रहा है साहित्य उसी को प्रतिबिंबित करता है। इस प्रकार यह कथन ठीक ही है कि साहित्य समाज का दर्पण है।

Important Questions and Answers

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न – 

प्रश्न 1. 
‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबन्ध के लेखक कौन हैं? 
उत्तर : 
‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबन्ध के लेखक डॉ. रामविलास शर्मा हैं। 

प्रश्न 2. 
लेखक ने कवि की तुलना किससे की है? 
उत्तर : 
लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से की है। 

प्रश्न 3. 
कवि अपनी कविता में संसार की रचना कैसे करता है? 
उत्तर : 
कवि अपनी कविता में संसार की रचना अपने मन के अनुकूल करता है।

प्रश्न 4. 
बंधन तोड़कर नए समाज के निर्माण की दिशा में बढने वालों को श्रेष्ठ कवि क्या देता है? 
उत्तर : 
बंधन तोड़कर नए समाज के निर्माण की दिशा में बढ़ने वालों को श्रेष्ठ कवि नई शक्ति देता है। 

प्रश्न 5. 
कवि का उत्तरदायित्व कब पूरा होता है? 
उत्तर : 
बन्धन मुक्त होकर आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील लोगों का मार्गदर्शक बनने पर ही कवि का उत्तरदायित्व पूरा होता है। 

प्रश्न 6. 
अफलातून ने संसार को क्या कहा था? 
उत्तर : 
अफलातून ने संसार को असल की नकल बताकर कला को जीवन की नकल कहा है। 

प्रश्न 7. 
अरस्तू ने मनुष्य के सम्बन्ध में क्या कहा था? 
उत्तर : 
अरस्तू ने कहा है कि जैसे मनुष्य को उसकी सीमा से बढ़कर दिखने पर नकल-नवीस कला का खंडन हो जाता है। 

प्रश्न 8. 
यूनानी विद्वानों के बारे में क्या कहा गया है? 
उत्तर : 
यूनानी विद्वानों के बारे में कहा जाता है कि वे कला को जीवन की नकल समझते थे। 

प्रश्न 9.
लेखक के अनुसार प्रजापति कौन होता है? 
उत्तर : 
लेखक प्रजापति को सृष्टि का रचनाकर्ता मानते हैं। 

प्रश्न 10. 
‘हैमलेट’का लेखक कौन था? 
उत्तर : 
हैमलेट के लेखक का नाम शेक्सपियर था। 

प्रश्न 11. 
17वीं और 20वीं सदी के प्रमुख कवियों का नाम लिखिए। 
उत्तर : 
17वीं और 20वीं सदी के प्रमुख कवि रवींद्रनाथ, भारतेंदु, वीरेश लिंगम्, तमिल भारती, मलयाली वल्लतोल आदि थे।

प्रश्न 12. 
कवि कैसे अपने रुचि के अनुसार विश्व को परिवर्तित करता है? 
उत्तर : 
कवि अपनी रुचि के अनुसार विश्व को परिवर्तित करने हेतु विश्व को बताता है कि उसमें इतना असंतोष क्यों है? वह यह भी बताता है कि विश्व में व्याप्त कुसंगतियाँ क्या हैं। ताकि लोग अपने समाज को ढंग से समझ पायें। 

प्रश्न 13. 
लेखक के खींचे गये चित्र समाज की व्यवस्था से मेल खाते हैं। कैसे?
उत्तर : 
लेखक जो साहित्य लिखता है, वह समाज में अपनी आँखों द्वारा देखी हुई कुसंगतियों या तथ्यों के आधार पर लिखता है। इसलिए लेखक का साहित्य समाज के भावों से मेल खाता है।

प्रश्न 14. 
साहित्य को कैसा होना चाहिए?
उत्तर : 
साहित्य को समाज का दर्पण होने के साथ-साथ मानव सुधार के लेखों से भरा होना चाहिए। साहित्य सम्बन्धों, कुरीतियों, असंगतियों के खिलाफ एक मुहिम से भरा होना चाहिए, जिसमें समाज सुधार का भाव भरा हुआ हो।

लघूत्तरात्मक प्रश्न – 
 
प्रश्न 1. 
कवि और प्रजापति में क्या समानता है?
उत्तर :  
प्रजापति (विधाता) का कार्य है सृष्टि निर्माण करना। वह अपनी इच्छा से सृष्टि बनाता है और जैसी चाहता है वैसी बनाता है। इसी प्रकार कवि अपने मनोनुकूल चरित्र की सृष्टि करता है। वह किसी पात्र को जैसा चाहता है वैसा बनाता’ है और अपनी रचना में अपने मन के अनुकूल चरित्र की सृष्टि करता है। वह जैसी चाहता है वैसी ही रचना करता है। मनोनुकूल रचना करने की इच्छा और सामर्थ्य का होना ही कवि और प्रजापति को समान बनाता है।

प्रश्न 2. 
लेखक किनको साहित्यकार नहीं मानता ? 
अथवा
‘धिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहे हैं’-लेखक के इस कथन पर टिप्पणी कीजिए। 
उत्तर : 
लेखक का मानना है कि सच्चा साहित्यकार वह है जो मन को मानव सम्बन्धों के पिंजड़े से मुक्त होने में सहयोग देता है, उनका मार्ग दर्शन करता है। आज भारतीय जीवन इस पिंजड़े की तीलियों को संगठित होकर तोड़ रहा है। वह मुक्ति का जीवन जीने को व्याकुल है। किन्तु स्वयं को साहित्यकार कहने वाले कुछ लोग तीलियों को तोड़ने के स्थान पर उन्हें और मजबूत कर रहे हैं। ऐसे साहित्यकार दंभी हैं वे मानव मुक्ति के गीत गाते हैं और दूसरी ओर भारतीयों को पराधीनता का पाठ पढ़ाते हैं। वे न तो साहित्यकार हैं और न भविष्य दृष्टा। वे धिक्कार के योग्य हैं।

प्रश्न 3. 
‘प्रजापति की भूमिका भूलकर कवि दर्पण दिखाने वाला ही रह जाता है’ लेखक के इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर : 
कवि स्रष्टा होता है। अपने काव्य जगतं की रचना वह उसी प्रकार करता है जैसे प्रजापति ब्रह्मा विश्व की सृष्टि करते हैं। जब कवि अपना यह स्वरूप भूलकर केवल अपने समाज को अपनी रचनाओं में प्रतिबिम्बित करता है और साहित्य को समाज का दर्पण बताता है तो वह मात्र दर्पण दिखाने वाला रह जाता है। वह साहित्यकार के ऊँचे आसन से पतित हो जाता है। उसकी असलियत नष्ट हो जाती है और वह नकलची बन जाता है। यदि वह परिवर्तन चाहने वाली जनता का अगुवा नहीं बनता तो उसका व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है। 

प्रश्न 4. 
‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ का क्या अर्थ है? 
उत्तर :
संस्कत में एक उक्ति है ‘यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते।’ अर्थात कवि को जैसा रुचता है. वह उसी प्रकार के विश्व की रचना अपनी सृष्टि (काव्य संसार) में कर लेता है। यह आवश्यक नहीं है कि संसार जैसा है कवि उसको अपनी कृति में वैसा ही दिखाये। वह इस विश्व को अपनी इच्छा के अनुसार बदल देता है। 

प्रश्न 5. 
विधाता की सृष्टि से कवि असंतुष्ट क्यों होता है? 
उत्तर : 
विधाता द्वारा रची गई सृष्टि कवि को अपने मनोनुकूल प्रतीत नहीं होती। उसको सृष्टि के जिस रूप की कल्पना होती है, यथार्थ रूप में वह वैसी नहीं होती। कवि इसी कारण विधाता द्वारा रची हुई सृष्टि से सन्तुष्ट नहीं होता। वह उससे असंतुष्ट होकर अपने मनोनुकूल सृष्टि रच लेता है। 

प्रश्न 6. 
15वीं-16वीं शताब्दी के किन साहित्यकारों का उल्लेख लेखक ने किया है और किस सन्दर्भ में किया है? 
उत्तर :
15वीं-16वीं शताब्दी के साहित्यकारों में प्रमुख हैं- कश्मीरी भाषा के ललद्यद, पंजाबी के नानक, हिन्दी के सूर-तुलसी, मीरा, कबीर; बंगाली भाषा के चण्डीदास, तमिल के तिरुवल्लुवर। इनकी वाणी ने सामंती पिंजड़े में बन्द मानव जीवन की मुक्ति के लिए वर्ण और धर्म के सीकचों पर प्रहार किया और पीड़ित जनता के मर्म को स्पर्श कर उसे नए जीवन को अपनाने के लिए उत्साहित किया, उसे संगठित किया और जीवन को बदलने के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। 

प्रश्न 7.
‘साहित्य का पांचजन्य समरभूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता’ इस कथन का मर्म स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर :
पांचजन्य श्रीकृष्ण का शंख था। जब श्रीकृष्ण पांचजन्य का नाद करते थे तो उसे सुनकर योद्धा युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाते थे। उनके मन में उत्साह की लहरें उठने लगती थीं। युद्ध के लिए उनकी भुजाएँ फड़कने लगती थीं। इसी प्रकार साहित्य भी हताश और निराश लोगों को आगे बढ़ने और संघर्ष करने के लिए प्रेरित करता है। वह लोगों को संघर्ष से पलायन का पाठ नहीं पढ़ाता। 

निबन्धात्मक प्रश्न – 
 
प्रश्न 1. 
साहित्य की समाज में क्या भूमिका है? ‘कवि स्रष्टा ही नहीं द्रष्टा भी होता है’ इस कथन का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर : 
साहित्य समाज को बदलने में प्रभावी भूमिका का निर्वाह करता है। सच्चा कवि केवल स्रष्टा (रचयिता) ही नहीं होता अपितु भविष्य द्रष्टा भी होता है। उसके पैर जमीन पर रहते हैं पर आँखें आकाश की ओर रहती हैं। हमारे लिए क्या हितकर है और क्या अहितकर यह कवि ही भली-भाँति जानता है। साहित्य की युगांतरकारी भूमिका होती है। कवि यह भलीभाँति जानता है और उसी के अनुरूप जनता को प्रेरित करता है। लेखक के मत से साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं होता। साहित्य लोगों को समरभूमि में उतरने की प्रेरणा देता है। हताश और निराश व्यक्ति के मन में आशा, उत्साह का संचार साहित्य ही करता है। साहित्य समाज के दोषों के प्रति लोगों को जागरूक करता है तथा उनसे मुक्त होने की प्रेरणा देता है। 

प्रश्न 2. 
आदर्श पात्र और उनके गुणों को अपनी रचना में संग्रहीत करने के पीछे कवि का चेष्टा क्या होती है? 
उत्तर : 
दुर्लभ गुणों का समावेश रखने वाला एक ही व्यक्ति हो, अक्सर ऐसा नहीं होता। इसलिए ऐसा व्यक्ति ढूँढ़ने से . भी नहीं मिलता। मगर कवि के अंदर ऐसी क्षमता कूट-कूटकर भरी होती है कि दुर्लभ गुणों से युक्त पात्र का निर्माण कर सके। यह पात्र मात्र मनोरंजन के लिए नहीं होता। इसके पीछे खास उद्देश्य होता है। जैसे दिशाहीन मनुष्य को दिशा दिखाना। कुछ गुण तो मनुष्य साथ लेकर ही जन्म लेता है। 

परन्तु कुछ गुणों का समावेश उसके परिवेश या समाज की शिक्षा से होता है। लेकिन कवि ऐसे पात्रों की रचना करता है, जिसमें दुर्लभ गुणों का समावेश होता है तो उसका उद्देश्य समाज के आगे आदर्श पात्र रखना होता है। यह समाज में लोगों का आदर्श बन जाता है। यही आदर्श लोगों में दुर्लभ गुणों का विकास कर सकता है। जैसे राम की कल्पना का उद्देश्य हर घर में राम जैसे लक्षण और गुण रखने वाली संतान, पति, मित्र और मनुष्य से है। कवि इस प्रकार के आदर्श पात्र वाले व्यक्ति की रचना कर, समाज में व्याप्त दुर्गुणों को समाप्त कर, आदर्श स्थापित करने का प्रयास करता है। 

प्रश्न 3. 
साहित्य मनुष्य को साहस देने के साथ-साथ उत्साहित भी रखता है। कैसे? 
उत्तर : 
साहित्य हतोत्साहित मनुष्यों को आगे बढ़ने के लिए उत्साहित करता है। उसका काम समाज को नई दिशा और थके-हारे मनुष्य को नई ऊँचाई देने के अलावा मन को शांति प्रदान करना भी है। साहित्य से इंसान की उदासी, प्रसन्नता में बदल जाती है, सड़ी-गली परंपराएँ, नई परंपराओं के द्वारा बदल दी जाती हैं और मनुष्य में पुन: उत्साह का संचार होता है। यह कार्य ही मनुष्य को जीने की अनेक राहें उपलब्ध करवाता है। 

साहित्य मार्गदर्शक बनकर जीवन की सभी विसंगति को भुलाने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। साहित्य में मनुष्य को अपने जीवन की झलक तो मिलती ही है साथ ही साथ जीवन में आने वाली मुसीबतों से निकलने के लिए प्रेरणा भी मिलती है। इन्हीं सभी करणों से साहित्य मनुष्य को प्रेरणा, उद्देश्य, मार्ग, नया उत्साह भी देने में सक्षम है, एक लेखक या कवि की लिखी रचना या उसके द्वारा रचित साहित्य को लोगों द्वारा बड़े चाव से पढ़ा जाता है और आगे भी पढ़ा जाता रहेगा।

प्रश्न 4. 
साहित्य मानवीय संबंधों से जुड़ा हुआ है। कैसे? 
उत्तर : 
मानव ही एक कवि या लेखक होता है। वह मानव संबंधों या समाज से स्वयं घुला-मिला होता है। आज तक कोई ऐसा साहित्यकार नहीं हुआ, जो मानव संबंधों से जुड़ा न हो। असल में मनुष्य के जीवन की नींव ही मानव संबंध है। कोई किसी का माता-पिता है, तो कोई मित्र, कोई भाई-बहन, पुत्र-पुत्री इत्यादि मिलकर मानव संबंधों या मानवीय संबंधों की एक श्रृंखला बनाते हैं। इस कारण जब कोई लेखक या कवि साहित्य का निर्माण करता है, तो साहित्य का समाज से जुड़ाव निश्चित है। एक कवि या लेखक की रचना में संबंधों का उल्लेख तभी मिलता है, जब खुद लेखक उस संबंध से आहत हो या प्रसन्न हुआ हो । इससे उन संबंधों की छाया उसके साहित्य में स्वतः ही पड़ जाती है। इस प्रकार साहित्य के माध्यम से इन रिश्तों के बारे में लेखक बारीक और सुंदर मूल्यांकन कर पाता है। इसलिए कवि या लेखक संतोष तथा असंतोष के आधार पर मानव संबंधों का उल्लेख करते हैं। इसलिए किसी लेखकं के लिए साहित्य का सृजन करते वक्त इंसानों के विभिन्न पहलुओं के प्रति चेतना का होना आवश्यक हो जाता है। इसी प्रकार साहित्य का सम्बन्ध मानव हित और उसकी जरूरतों से जुड़ता चला जाता है।

साहित्यिक परिचय का प्रश्न – 

प्रश्न :
डॉ. रामविलास शर्मा का साहित्यिक परिचय लिखिए। 
उत्तर : 
साहित्यिक परिचय डॉ. शर्मा के बहुमुखी व्यक्तित्व के अनुरूप ही उनकी भाषा के उनकी रचनाओं के अनुसार अनेक रूप हैं। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है किन्तु साथ ही उसमें आवश्यकता होने पर अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के शब्दों को भी स्थान मिला है। डॉ. शर्मा ने अनेक शैलियों का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। वर्णनात्मक, विचात्मक, विवरणात्मक, विवेचनात्मक शैलियों के साथ आपने समीक्षात्मक शैली को भी अपनाया है। यत्र-तत्र व्यंग्य शैली तथा उद्धरण शैली भी पाई जाती है।

कृतियाँ :

  1. निबन्ध-संग्रह ‘विराम चिह्न। 
  2. समीक्षा-भारतेन्दु और उनका युग, प्रेमचन्द और उनका युग, निराला की साहित्य-साधना (तीन खण्ड) इत्यादि। 
  3. भाषा-विज्ञान भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी (तीन खण्ड), भाषा और समाज आदि। 
  4. इतिहास और संस्कृति-भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश इत्यादि।

सम्मान एवं पुरस्कार-साहित्य अकादमी पुरस्कार (निराला की साहित्य साधना के लिए), भारत-भारती पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, व्यास सम्मान, हिन्दी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान।

यथास्मै रोचते विश्वम् Summary in Hindi 

लेखक परिचय :

जन्म-सन् 1912 ई.। स्थान-ऊँचगाँव-सानी ग्राम। जिला-उन्नाव (उ.प्र.)। शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए., पी-एच.डी., शिक्षण लखनऊ विश्वविद्यालय तथा बलवन्त राजपूत कॉलेज, आगरा में अंग्रेजी के प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष (1943 से 1971), के. एम. मुंशी हिन्दी विद्यापीठ, आगरा विश्वविद्यालय, आगरा के निदेशक। सेवामुक्ति के बाद दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन। निधन-सन् 2000 ई.। 

साहित्यिक परिचय – डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी विचारक, समालोचक, भाषाशास्त्री, इतिहासवेत्ता तथा कवि थे। हिन्दी समालोचना को आपने नई दिशा दी है। भारतीय समाज, जनजीवन तथा उसकी समस्यायें आपके चिन्तन का विषय रहे हैं। डॉ. शर्मा एक कुशल निबन्धकार हैं। 

भाषा – डॉ. शर्मा के बहुमुखी व्यक्तित्व के अनुरूप ही उनकी भाषा के उनकी रचनाओं के अनुसार अनेक रूप हैं। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है किन्तु साथ ही उसमें आवश्यकता होने पर अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के शब्दों को भी स्थान मिला है।

शैली – डॉ. शर्मा ने अनेक शैलियों का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। वर्णनात्मक, विचारात्मक, विवरणात्मक, विवेचनात्मक शैलियों के साथ आपने समीक्षात्म शैली को भी अपनाया है। यत्र-तत्र व्यंग्य शैली तथा उद्धरण शैली भी पाई जाती है। 

कृतियाँ – डॉ. शर्मा ने सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं 

  1. निबन्ध-संग्रह विराम चिह्न। 
  2. समीक्षा-भारतेन्दु और उनका युग, प्रेमचन्द और उनका युग, निराला की साहित्य-साधना (तीन खण्ड) इत्यादि। 
  3. भाषा-विज्ञान भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी (तीन खण्ड); भाषा और समाज आदि। 
  4. इतिहास और संस्कृति – भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश इत्यादि। 

सम्मान एवं पुरस्कार-साहित्य अकादमी पुरस्कार (निराला की साहित्य साधना के लिए), भारत-भारती पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, व्यास सम्मान, हिन्दी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान। 

पाठ सारांश – ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबन्ध डॉ. रामविलास शर्मा के निबन्ध-संग्रह ‘विराम-चिह्न’ में संकलित है। इसमें लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति ब्रह्मा से की है क्योंकि कवि अपने मन के अनुकूल संसार की रचना अपनी कविता में करता है। लेखक साहित्य को समाज का दर्पण नहीं मानता। उसका कहना है कि यदि ऐसा होता तो संसार को बदलने की बात ही न उठती। विधाता द्वारा निर्मित संसार से असन्तुष्ट होकर उसे बदलने की बात कहने के कारण ही कवि प्रजापति का दर्जा पाता है। 

कवि यह भी बताता है कि वह संसार में किन गुणों को विकसित करना चाहता है। कवि यथार्थवादी होता है। उसके पैर जमीन पर तथा आँखं आकाश पर टिकी होती हैं। वह विश्रांति के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देता है। ईश्वर को नायक बनाकर वह उसे भी मानवीय स्वरूप प्रदान करता है। वह बंधन तोड़कर नये समाज के निर्माण की दिशा में बढ़ने वालों को नई शक्ति देता है। सत्रहवीं और बीसवीं शताब्दी के साहित्य ने अंग्रेजी राज और सामंती अवशेषों के विरुद्ध भारतीयों को लड़ने के लिए प्रेरित किया है। 

उन्हें समरभूमि में उतरने को तैयार किया है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, रवीन्द्रनाथ, सुब्रह्मण्यम भारती, वीरेश लिंगम आदि कवियों का साहित्य इसका प्रमाण है। बंधन-मुक्त होकर आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील लोगों का मार्गदर्शक बनने पर ही कवि का उत्तरदायित्व पूरा होता है और उसका व्यक्तित्व निखरता है। 

कठिन शब्दार्थ :

महत्त्वपूर्ण व्याराएँ 

1. प्रजापति से कवि की तुलना करते हुए किसी ने बहुत ठीक लिखा था-“यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते।” कवि को जैसे रुचता है वैसे ही संसार को बदल देता है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती। कवि का काम यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना ही होता तो वह प्रजापति का दर्जा न पाता। वास्तव में प्रजापति ने जो समाज बनाया है, उससे असन्तुष्ट होकर नया समाज बनाना कविता का जन्मसिद्ध अधिकार है। 

संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा के निबन्ध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से ली गई हैं। यह निबन्ध हमारी पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित है। 

प्रसंग : इन पंक्तियों में लेखक ने बताया है कि कवि की तुलना प्रज्ञापति (विधाता, ब्रह्मा) से इसलिए की जाती है कि वह भी अपनी रुचि का संसार बना लेता है। वास्तव में विधाता के बनाए संसार से असन्तुष्ट होकर ही वह अपने मनोनुकूल संसार की रचना काव्यजगत् में कर लेता है। 

व्याख्या : किसी संस्कृत विद्वान ने प्रजापति विधाता की तुलना कवि से की है। उसका कथन ठीक ही है क्योंकि कवि को जैसा संसार रुचता है वह उसे अपने काव्य में उसी रूप में बदल देता है अर्थात् कवि को विधाता का बनाया संसार जब अच्छा नहीं लगता तो वह उसमें अपनी इच्छा से ऐसे काव्य जगत् का निर्माण करता है जो उसके मनोनुकूल हो। कुछ लोग यह कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह कथन सत्य नहीं है। 

यदि यह कथन सत्य होता तो संसार को बदलने की बात ही न उठती। कवि का काम केवल अपने यथार्थ जीवन को अपने काव्य में प्रतिबिम्बित करना ही होता तो वह प्रजापति (विधाता) का दर्जा भी न पाता। वास्तविकता तो यह है कि प्रजापति ने जो समाज बनाया है वह जब कवि को सन्तुष्ट न कर पाया तब उसने अपना नया संसार (समाज) कविता में रच लिया जो उसका जन्मसिद्ध अधिकार रहा है। 

विशेष : 

  1. कवि की तुलना प्रजापति से इसलिए की गई है क्योंकि दोनों ही निर्माण करते हैं। 
  2. कवि केवल यथार्थ को प्रस्तुत नहीं करता वह आदर्श को भी दिखाता है अर्थात् ‘क्या होना चाहिए’ इस ओर भी अपनी रचनाओं में संकेत करता है। 
  3. कवि जब विधाता के द्वारा बनाए समाज से असन्तुष्ट होता है तभी अपने मनोनुकूल समाज की रचना काव्य जगत् में करता है। (4) विचार प्रधान शैली का प्रयोग है। 
  4. भाषा सहज, संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है।

2. कवि की यह सष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों की त्यों आकति भले ही न देखें पर ऐसी आकति जरूर देखते हैं जैसी हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं। जिन रेखाओं और रंगों से कवि चित्र बनाता है वे उसके चारों ओर यथार्थ जीवन में बिखरे होते हैं और चमकीले रंग और सुघर रूप ही नहीं, चित्र के पार्श्व भाग में काली छायाएँ भी वह यथार्थ जीवन से ही लेता है। राम के साथ रावण का चित्र न खींचें तो गुणवान, वीर्यवान, कृतज्ञ, सत्यवाक्य, दृढ़व्रत, चरित्रवान, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन नायक का चरित्र फीका हो जाए और वास्तव में उसके गुणों के प्रकाशित होने का अवसर ही न आए। 

सन्दर्भ : प्रस्तुत गंद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा भाग-2’ में संकलित निबन्ध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है। इस निबन्ध के लेखक डॉ. रामविलास शर्मा हैं। 

प्रसंग : कवि की तुलना प्रजापति से की गई है। वह जिस संसार की सृष्टि करता है उसमें यथार्थ का पुट होते हुए भी वह आदर्शोन्मुख होती है। चित्र अपनी पृष्ठभूमि से ही उभरता है। इसी प्रकार राम की अच्छाई तभी उभरती है जब उसकी पृष्ठभूमि में रावण के दुर्गुण हों। 

व्याख्या : लेखक की मान्यता है कि कवि अपनी रचना में जिस प्रकार की सृष्टि करता है वह निराधार नहीं होती। भले ही हमें किसी काव्यकृति में सृष्टि का यथार्थ रूप देखने को न मिले पर उसमें हमें वह रूप देखने को अवश्य मिलेगा जो हम आदर्श रूप में अपने मन में संजोए हुए हैं और जिसे देखना चाहते हैं। 

कवि इन चित्रों की रचना अपने आस-पास बिखरे यथार्थ जगत् से ही ग्रहण करता है। जिस प्रकार कोई चित्र अपनी पृष्ठभूमि से ही उभरता है उसी प्रकार कवि आदर्श चरित्र को उभारने के लिए खल पात्रों की सृष्टि पृष्ठभूमि में करता है। राम की अच्छाई तभी उभर पाती है जब उसके समानान्तर रावण की दुष्टता का चित्र उभारा जाए। राम के श्रेष्ठ गुण-रावण की दुष्टता के समक्ष ही पाठकों को प्रभावित कर पाते हैं। यदि रावण की बुराई सामने न हो तो राम की अच्छाई का कोई महत्त्व ही न हो।
 
विशेष :

  1. कवि की सष्टि विधाता की यथार्थ सष्टि से अलग होती है। 
  2. कवि यथार्थ के साथ-साथ आदर्श को भी प्रस्तुत करता है जो उसके मनोनुकूल होता है। 
  3. पवित्रता की माप है मलिनता। अच्छाई का महत्त्व बुराई के सापेक्ष ही है। राम की अच्छाई को उभारने के लिए रावण के दुर्गुणों को उभारना आवश्यक है। 
  4. भाषा सहज प्रवाहपूर्ण संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है। 
  5. विवेचनात्मक शैली का प्रयोग है। 

3. कवि अपनी रुचि के अनुसार जब विश्व को परिवर्तित करता है तो यह भी बताता है कि विश्वं से उसे असंतोष क्यों है। वह यह भी बताता है कि विश्व में उसे क्या रुचता है जिसे वह फलता-फूलता देखना चाहता है। उसके चित्र के भूमि की गहरी काली रेखाएँ दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं। इसलिए प्रजापति-कवि गम्भीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं। इसलिए मनुष्य साहित्य में अपने सुख-दुख की बात ही नहीं सुनता, वह उसमें आशा का स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है। 

संदर्भ प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबन्ध से ली गई हैं। इस निबन्ध के लेखक डॉ. रामविलास शर्मा हैं और इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा भाग – 2’ में संकलित किया गया है। 

प्रसंग : कवि केवल यथार्थ विश्व का चित्रण नहीं करता अपितु वह यथार्थ से असंतुष्ट होकर ऐसे विश्व का चित्रण अपने काव्य में करता है जो उसकी रुचि के अनुकूल है। कवि का यह चित्रणं आदर्शोन्मुखी होता है जिसके पैर वर्तमान की धरती पर होते हैं पर आँखें भविष्य पर पर टिकी होती हैं।
 
व्याख्या : जब कोई कवि अपनी काव्य सृष्टि में अपनी रुचि के अनुसार संसार रचता है और उसे यथार्थ विश्व से अलग तथा परिवर्तित रूप में प्रस्तुत करता है तो इसका कारण भी बताता है कि यथार्थ जगत् से वह असन्तुष्ट क्यों है? वह यह भी बताता है कि यथार्थ विश्व में उसे क्या अच्छा लगता है और क्या गलत लगता है। जो उसे अच्छा लगता है उसे वह फलता-फूलता देखना चाहता है। 

कवि अपनी काव्य सृष्टि में संसार के उजले एवं काले (अर्थात् अच्छे और बुरे) दोनों रूप प्रस्तुत करता है, क्योंकि बुराई के द्वारा ही वह अच्छाई को उभारता है। वस्तुत: कवि ऐसा यथार्थवादी कलाकार होता है जिसके पैर वर्तमान की धरती पर टिके होते हैं और दृष्टि भविष्य के क्षितिज पर टिकी होती है। कवि केवल मानव के सुख-दुख का चित्रण ही नहीं करता अपितु भविष्य के आशावादी स्वर भी अपनी रचना में प्रस्तुत करता है। साहित्य थके हुए व्यक्ति को शान्ति ही नहीं देता अपितु आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी करता है। यही कवि की भूमिका है।

विशेष :

  1. लेखक ने कवि को प्रजापति के समकक्ष माना है जो अपनी इच्छा से संसार की सृष्टि करता है। 
  2. कवि की अपनी सृष्टि अपनी रुचि के अनुसार होती है। वह भविष्यद्रष्टा भी होता है और निराश लोगों के मन में आशा का संचार भी कर देता है। यह यथार्थ ही नहीं आदर्श को भी दिखाता है। 
  3. बुराई का महत्त्व अच्छाई को उजागर करने में माना गया है। रावण का चित्रण राम के गुणों को उभारने के लिए जरूरी है। 
  4. भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है।
  5. विवेचनात्मक शैली प्रयुक्त है।

4. मानव सम्बन्धों से परे साहित्य नहीं है। कवि जब विधाता पर साहित्य रचता है, तब उसे भी मानव सम्बन्धों की परिधि में खींच लाता है। इन मानव सम्बन्धों की दीवाल से ही हैमलेट की कवि सुलभ सहानुभूति टकराती है और शेक्सपीयर एक महान ट्रेजडी की सृष्टि करता है। ऐसे समय जब समाज के बहुसंख्यक लोगों का जीवन इन मानव-सम्बन्धों के पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने लगे, सींकचे तोड़कर बाहर उड़ने के लिए आतुर हो उठे, उस समय कवि का प्रजापत्ति रूप और भी स्पष्ट हो उठता है। वह समाज के द्रष्टा और नियामक के मानव-विहग से क्षुब्ध और रुद्धस्वर को वाणी देता है। वह मुक्त गगन के गीत गाकर उस विहग के परों में नयी शक्ति भर देता है। साहित्य जीवन का प्रतिबिंबित रहकर उसे समेटने, संगठित करने और उसे परिवर्तन करने का अजेय अस्त्र बन जाता है। . 

संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा के निबन्ध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से ली गई हैं जिन्हें हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा भाग-2’ में संकलित किया गया है।

प्रसंग : लेखक का विचार है कि कवि दूसरा प्रजापति है। समाज के अधिकांश लोग जब मानव सम्बन्धों के पिंजड़े में बन्द होकर मुक्ति के लिए पंख फड़फड़ाते हैं तब कवि उनके क्षुब्ध और रुद्ध स्वर को वाणी देकर अपनी प्रजापति की भूमिका का निर्वाह करता है।। 

व्याख्या : साहित्य मानव सम्बन्धों को व्यक्त करता है। इन सम्बन्धों से परे साहित्य नहीं है। साहित्य में मानव-सम्बन्धों को ही विषय बनाया जाता है। कवि जब विधाता अर्थात् राम, कृष्ण आदि को अपना विषय बनाता है तो वह उनके मानवीय स्वरूप का ही वर्णन करता है, मानव रूप में उनके गुणों तथा चरित्र का चित्रण करता है। अंग्रेजी साहित्य के महान् नाटककार शेक्सपीयर ने अपने दुखांत नाटक हैमलेट की रचना की है। यह एक श्रेष्ठ रचना है। इस नाटक के पात्र हैमलेट के चरित्र में कवियों जैसी सहानुभूति का भाव है। मानव सम्बन्धों की यही विशेषता ‘हैमलेट’ की श्रेष्ठता का कारण है। 

जब समाज के अधिकतर लोगों का जीवन इन मानव-सम्बन्धों के पिंजड़े में बन्द होकर मुक्ति के लिए पंख फड़फड़ाए और तमाम तरह की बाधाएँ तोड़कर बाहर आने के लिए आतुर हो उठे उस समय कवि प्रजापति बनकर उसके क्षुब्ध और रुद्ध स्वर को अपनी रचना में प्रकट करता है। समाज के लोगों का असन्तोष तत्कालीन कवि की वाणी से व्यक्त होता है। सच्चे अर्थों में कवि अपने समकालीन समाज का द्रष्टा और नियामक होता है। उसके द्वारा गाए गीत पिंजड़े में बन्द उस मानव-विहग के पंखों में सक्ति का संचार कर देते हैं और वह विद्रोह के लिए तत्पर हो जाता है। वस्तुतः साहित्य जीवन में प्रतिबिम्बित तो रहता है. साथ ही उसे समेटने, संगठित करने और परिवर्तित करने का अचूक अस्त्र (साधन) भी बन जाता है। 

विशेष : 

  1. कवि की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। 
  2. साहित्य का उद्देश्य क्या है इसे इन पंक्तियों में लेखक है। 
  3. कवि समाज का द्रष्टा, नियामक और मार्गदर्शक होता है। 
  4. भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है। शैली विचार-विवेचनात्मक है। 

5. साहित्य का पांचजन्य समर भूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता। वह मनुष्य को भाग्य के आसरे बैठने और ले में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा नहीं देता। इस तरह की प्रेरणा देने वालों के वह पंख कतर देता है। वह कायरों और अब प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी समरभूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है। कहा भी है. भनीबानां धाष्यंजननमुत्साहः शूरमानिनाम्।” भरतमुनि से लेकर भारतेन्दु तक चली आती हुई हमारे साहित्य की यह शाली परम्परा है। इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृत काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और जय के सिद्धान्त’ वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अन्धकार।

संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा के निबन्ध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से ली गई हैं। इस निबन्ध को हमारी पुस्तक ‘अन्तरा भाग – 2’     में संकलित किया गया है। 

प्रसंग : साहित्य आशा का संचार करता है, निराशा का नहीं। वह मानव को पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करता है। कायरों को समरांगण में उतरने की प्रेरणा देने के लिए वह ललकारता है। भारतीय साहित्य में भरतमुनि से भारतेन्दु तक यही मशाली परम्परा रही है।
 
माख्या : लेखक साहित्य को श्रीकृष्ण के शंख पांचजन्य जैसा बताता है। श्रीकृष्ण अपने शंखनाद से पाण्डवों को युद्ध लाए जैसे प्रेरित कर देते थे, उनमें साहस, शूरता का संचार करते थे, वही भूमिका साहित्य की है। साहित्यकार अपनी रचना समाज में व्याप्त उदासीनता को दूर करता है, उनमें आशा का संचार करता है। वह लोगों को भाग्य के भरोसे बैठे रहने की अपितु पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है। कायरों को ललकारता हुआ साहित्यकार उन्हें युद्धभूमि में अपनी,वीरता दिखाने गणा देता है। 

कायर ही भाग्य भरोसे बैठते हैं। किन्तु शूरवीर तो उत्साह में भरकर अपने अधिकार के लिए संघर्ष करते रुषार्थ करते हैं। भारतीय साहित्य में आचार्य भरतमुनि से लेकर आधुनिक काल के जनक भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र तक साहित्य में साहित्य की यही गौरवशाली परम्परा रही है। जो साहित्य लोगों के पौरुष को न जंगा सके, वीर भावों को न कर सके वह किसी काम का नहीं। साहित्य का यही उद्देश्य है जिसके सामने अन्य उद्देश्य (कला, कला के लिए, कला पारों के शमन के लिए या अहं को व्यक्त करने के लिए आदि) कहीं नहीं ठहरते। 

विशेष : 

  1. साहित्य के मूल उद्देश्य पर प्रकाश डाला गया है।
  2. श्रीकृष्ण अपना पांचजन्य नामक शंख बजाकर बों को युद्ध की प्रेरणा देते थे। 
  3. साहित्य भी पांचजन्य के समान बुराई के विरुद्ध संघर्ष के लिए प्रेरित करता है ! भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है। शैली विचार-विवेचनात्मक है।

6. जापति की अपनी भूमिका भूलकर कवि दर्पण दिखाने वाला ही रह जाता है। वह ऐसा नकलची बन जाता की अपनी कोई असलियत न हो। कवि का व्यक्तित्व पूरे वेग से तभी निखरता है जब वह समर्थ रूप से परिवर्तन वाली जनता के आगे कवि पुरोहित की तरह बढ़ता है। इसी परम्परा को अपनाने से हिन्दी साहित्य उन्नत और समता हमारे जातीय सम्मान की रक्षा कर सकेगा। 

संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ “यथास्मै रोचते विश्वम्’ नामक निबन्ध से ली गई, हैं। डॉ. रामविलास शर्मा का यह निबन्ध पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा भाग-2’ में संकलित है। 

“मंग – कवि यदि अपनी भूमिका भूलकर केवल यथार्थ का चित्रण करने का कार्य करेगा तो उससे समाज का कोई भला गा। कवि को पुरोहित बनकर समाज का दिशा निर्देशन करना होगा तभी हम अपने जातीय सम्मान की रक्षा कर पाएँगे। …याख्या-कवि को प्रजापति के समान बताया गया है अर्थात् उसे अपनी इच्छा से अपने मनोनुकूल संसार की रचना का अधिकार अपनी काव्य सृष्टि में होता है। उसकी यह भूमिका बहुत महान एवं गरिमापूर्ण है। 

वह समाज को जैसः या चाहता है वैसा ही अपने साहित्य में प्रस्तुत करता है। यदि वह ऐसा न करके केवल वही दिखाए जो समाज में यथाः। हो रहा है तो वह एक नकलची बन जाएगा। कवि का कार्य है समाज को दिशा निर्देश देना, उसका नियामक बनना जनता जो परिवर्तन चाहती है उसका नियामक कवि बनता है। पुरोहित की तरह आगे रहकर वह समाज को आगे ले जाता है। जब कवि अपनी इस भूमिका का निर्वाह करता है तभी हम अपने जातीय सम्मान की रक्षा कर पाते हैं। 

विशेष : 

  1. कवि को प्रजापति ब्रह्मा की तरह बताया गया है। 
  2. साहित्यकार हमारे समाज का नियामक एवं दिशा निर्देशक होता है। 
  3. भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है।
  4. विवेचनात्मक शैली प्रयुक्त है।

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