Chapter 2 ऋतुचित्रणम्
Summary and Translation in Hindi
पाठ के श्लोकों का अन्वय, सप्रसंग हिन्दी-अनुवाद/व्याख्या एवं सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
1. सुखानिलोऽयं…………………………………………………जातपुष्यफलद्रुमः॥1॥
अन्वयः – सौमित्रे! सुखानिलः गन्धवान् जातपुष्पफलद्रुमः प्रचुरमन्मथः अयं कालः सुरभिः मासः॥1॥
कठिन-शब्दार्थ :
- सौमित्रे! = सुमित्रा के पुत्र हे लक्ष्मण !
- सुखानिलः = सुख देने वाली हवा।
- गन्धवान् = सुगन्ध से युक्त।
- जातपुष्प फलद्रुमः = उत्पन्न हुये, फूलों, फलों वाले वृक्षों वाला।
- प्रचुरमन्मथः = कामदेव की अधिकता वाला।
- सुरभिमासः = वसन्त ऋतु।
प्रसंग – यह श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती’ के ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। मूलतः यह श्लोक वाल्मीकि विरचित रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के प्रथम सर्ग से संकलित किया गया है। इसमें वसन्त ऋतु का वर्णन करते हुए राम लक्ष्मण को कह रहे हैं –
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – हे सुमित्रा-पुत्र लक्ष्मण! सुख प्रदान करने वाली हवा को देने वाला, सुगन्ध प्रदान करने वाला, उत्पन्न हुए फूलों, फलों वाले वृक्षों वाला, कामदेव के आधिक्य को व्यक्त करने वाला, यह वसन्त ऋतु का समय है। फलों से परिपूर्ण, कामदेव की अधिकता-ये सभी विशेषण वसन्त ऋतु के द्योतक हैं।
विशेष – यहाँ वसन्त ऋतु का मनोहारी चित्रण किया गया है। वसन्त ऋतु में सुख देने वाली एवं सुगन्धित वायु बहती है, कामभाव में वृद्धि होती है तथा वृक्षों पर पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं। सभी जगह सुगन्धित एवं रमणीय वातावरण हो जाता है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
प्रसङ्ग: – अयं श्लोकः ‘ऋतुचित्रणम्’ इति शीर्षक पाठाद् उद्धृतः। मूलतः पाठोऽयं आदिकवि महर्षि वाल्मीकिविरचितात् रामायणस्य किष्किन्धाकाण्डात् संकलितः। अस्मिन् श्लोके आदि कविना वसन्तऋतोः वर्णनं कृतम्।
संस्कृत-व्याख्या-
- सौमित्रे! = हे सुमित्रापुत्र लक्ष्मण!
- सुखानिलो = सुख प्रदायिनी वायुयुक्तः अयं = एषः,
- प्रचुरमन्मथः = कामाधिक्य युक्तं,
- कालः = समयः वर्तते।
- गन्धवान् = सुगन्धयुक्तं
- सुरभिर्मासः = वसन्तुऋतुः (वर्तते)
- जातपुष्पफलद्रुमः = अस्मिन् वसन्तमासे
- द्रुमाः = वृक्षाः पुष्पफलानि युक्ताः जाताः।
व्याकरणात्मक टिप्पणी-
(i) अस्मिन् श्लोके वसन्त ऋतो: वर्णनं कृतम्। वसन्त ऋतौ सुखदायिनी वायुः वहति, कामभावः वर्धते, वृक्षेषु पुष्पाणि फलानि च जातानि, सर्वत्र सुगन्धित वातावरणं भवति।
(ii) अस्मिन् श्लोके अनुष्टप् छन्दः वर्तते।
(iii) सौमित्र – सुमित्रा + अण्।
मन्मथः – मथ्नातियः सः कामदेवः (बहुव्रीहि)।
गन्धवान् – गन्ध + मतुप्।
जातपुष्पफलद्रुमः – जातानि पुष्पाणि फलानि यस्मिन् स द्रुमः (बहुव्रीहि)।
सुखानिल: – सुख + अनिलः (दीर्घ सन्धि)।
2. पुष्पभारसमृद्धानि …………………………………………. सर्वतः।। 2॥
अन्वयः – समन्ततः पुष्पभार समृद्धानि सर्वतः पुष्पिताग्राभिः लताभिः उपगूढानि शिखराणि (सन्ति) ॥2॥
कठिन-शब्दार्थ –
- समन्ततः = चारों ओर।
- पुष्पभारसमृद्धानि = फलों के भार से समृद्ध।
- पुष्पिताग्राभिः = खिले हुए फूलों से।
- उपगूढानि = भरी हुई।
- शिखराणि = पर्वत की चोटियाँ।
प्रसंग : प्रस्तुत श्लोक ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। मूलतः यह श्लोक वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के प्रथम सर्ग से संकलित है। इसमें श्रीराम वसन्त ऋतु का वर्णन करते हुए लक्ष्मण से कह रहे हैं
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – इस वसन्त ऋतु में चारों ओर से फूलों के भार से समृद्ध (परिपूर्ण), सब ओर से खिले हुए फूलों वाली लताओं से भरी हुई पहाड़ों की चोटियाँ दिखाई दे रही हैं।
विशेष – यहाँ वसन्तकालीन पर्वतों की शोभा का यथार्थ व सुन्दर चित्रण किया गया है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
प्रसङ्गः – अयं श्लोकः ‘ऋतुचित्रणम्’ इति शीर्षक पाठाद् उद्धृतः। मूलतः पाठोऽयं आदिकवि महर्षि वाल्मीकिविरिचतात् रामायणस्य किष्किन्धाकाण्डात् संकलितः। अस्मिन् श्लोके आदि कविना वसन्तऋतोः वर्णनं कृतम्।।
संस्कृत-व्याख्या –
- समन्ततः = सर्वतः,
- पुष्पभारसमृद्धानि = पुष्पाणां भारः पुष्पभार;
- तेन समृद्धानि सम्पन्नानि,
- सर्वतः = समन्ततः,
- पुष्पिताग्राभिः = पुष्पितपुष्पैः,
- लताभिः उपगूढानि = परिपूर्णानि
- शिखराणि = पर्वतशिखराणि (सन्ति)।
व्याकरणात्मक टिप्पणी –
(i) वसन्तौ पर्वतशिखराणि पुष्पैः लताभिश्च उपगूढानि जातानि। तेषां इयं शोभा मनमुग्धकारी प्रतीयते।
(ii) अस्मिन् पद्ये अनुष्टुप् वृत्तं अनुप्रासाश्चालंकारः।
(iii) पुष्पभारसमृद्धानि-पुष्पाणां भारेण समृद्धानि (षष्ठी एवं तृतीया तत्पु. समास)।
पुष्पिताग्राभिः – पुष्पिताः अग्रभागाः यासांताः ताभिः च (बहुव्रीहि)।
उपगूढानि – उप + गुह् + क्त। (नपु. प्र. पु. ब. व.)।
3. पतितैः पतमानैश्च……………………………………………. समन्ततः॥3॥
अन्वयः – सौमित्रे! पश्य, समन्ततः पतितैः पतमानैः च पादपस्थै च कुसुमैः क्रीडन् इव मारुतः (अस्ति)॥3॥
कठिन-शब्दार्थ –
- समन्ततः = चारों ओर से।
- पतितैः = गिरे हुए।
- पतमानैः = गिरते हुये।
- पादपस्थैः = पेड़ों पर स्थित।
- कुसुमैः = पुष्पों से।
- क्रीडन्निव = मानो खेलता हुआ सा।
- मारुतः = वायु।
प्रसंग : प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती:’ के ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह श्लोक वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के प्रथम सर्ग से संकलित है। इसमें राम लक्ष्मण को वसन्त ऋतु में बहने वाली वायु का वर्णन करते हुए कह रहे हैं
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – हे लक्ष्मण! देखो, (इस वसन्त ऋतु में) चारों ओर से गिरे हुए तथा गिरते हुए एवं पेड़ों पर विद्यमान फूलों से मानो क्रीड़ा करता हुआ पवन विद्यमान है।
विशेष – यहाँ पम्पासरोवर पर वसन्तकालीन वायु का रमणीय वर्णन किया गया है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
अन्वयः – अयं श्लोकः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘ऋतुचित्रणम्’ इति पाठात् उद्धृतः। वस्तुतः अयं पाठः आदिकवि वाल्मीकिः विरचितात् ‘रामायण’ महाकाव्यात् संकलितः अस्ति। अत्र सीता विरहितः रामः लक्ष्मणेन साकं पम्पासरोवर स्थितानां वृक्षाणां सौन्दर्यमवलोक्य तान् वर्णयति
संस्कृत-व्याख्या –
- सौमित्रे ! = हे सुमित्रानन्दन!
- पश्य = अवलोकय,
- समन्ततः = सर्वतः,
- पतितैः = भूमौ लुण्ठितैः,
- पतमानैः = ये भूमौ पतन्तः वर्तन्ते,
- पादपस्थैः च = ये च वृक्षेषु संलग्नाः सन्ति,
- कुसुमैः = पुष्पैः,
- मारुतः = पवनः,
- क्रीडन् इव = क्रीडां कुर्वन्निव प्रतिभाति॥
व्याकरणात्मक-टिप्पणी –
(i) पतितैः – पत् + क्त (तृतीया ब. व.)।
पतमानैः – पत् + शानच् (तृ. ब. व.)।
पादपस्थैः = पादपेषु स्थितैः (सप्तमी तत्पु.)।
क्रीडन्निव – क्रीडन् + इव। क्रीड् + शतृ।
(ii) अस्मिन् श्लोके अनुष्टुप् छन्दः अनुप्रासश्चालंकारः।
4. क्वचित्प्रकाशं…………………………………………….शान्तमहार्णवस्य ॥ 4॥
अन्वयः – क्वचित् प्रकाशम् क्वचित् अप्रकाशम् प्रकीर्ण अम्बुधरम् नभः विभाति। क्वचित्-क्वचित् शान्तमहार्णवस्य यथा पर्वतसन्निरुद्धं रूपम् (विभाति)॥4॥
कठिन-शब्दार्थ –
- क्वचित् = कहीं पर।
- अप्रकाशम् = अंधेरा।
- प्रकीर्ण = फैले हुए हैं।
- अम्बुधरम् = बादल।
- नभः = आकाश।
- विभाति = शोभा दे रहा है।
- पर्वतसन्निरुद्धम् = पर्वतों से घिरे हुए।
- महा-अर्णवस्य = महासमुद्र के।
प्रसंग : यह श्लोक ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। मूलतः महर्षि वाल्मीकि विरचित ‘रामायण’ के “किष्किन्धाकाण्ड’ से संकलित इस पद्य में आदिकवि वाल्मीकि ने वर्षा ऋतु का वर्णन किया है –
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – (वर्षा ऋतु में) कहीं पर प्रकाश (उजाला) है तो कहीं पर अप्रकाश (अन्धेरा) है। जिसमें सर्वत्र बादल फैले हुए हैं, ऐसा आकाश शोभा दे रहा है। कहीं-कहीं पर शान्त महासागर के समान पर्वतों से घिरे हुए रूप को धारण किये हुए है। भाव यह है कि समुद्र का स्वरूप वर्षा ऋतु में ऐसा हो जाता है, जैसे कि वह पहाड़ों से घिरा हुआ हो।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
अन्वयः – अयं श्लोकः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शाश्वती’ इत्यस्य ‘ऋतुचित्रणम्’ इति शीर्षक पाठात् उद्धृतः। मूलतः पाठोऽयं आदिकवि वाल्मीकि विरचित रामायणस्य किष्किन्धाकाण्डात् संकलितः। अस्मिन् पद्ये वर्षाऋतो: वर्णनं कृतम्
संस्कृत-व्याख्या –
- क्वचित् = कुत्रचित्, प्रकाशं,
- क्वचित् अप्रकाशं = प्रकाश रहित अन्धकारम् वा,
- नभः = गगनम्
- प्रकीर्णाम्बुधरं = प्रकीर्णं अम्बुधरं, मैधैः व्याप्तम्,
- विभाति = सुशोभितं वर्तते,
- क्वचित् क्वचित् = यदाकदा,
- पर्वत सन्निरुद्धं = पर्वतैः
- सन्निरुद्धम् = आवृतम्,
- शान्तमहार्णवस्य = सुशान्त सागरस्य रूपं,
- यथा = इव,
- विभाति = सुशोभितं भवति।
व्याकरणात्मक-टिप्पणी –
(i) शान्तमहार्णवः-शान्तः च असौ महार्णवः तथा, महान् च असौ आर्णवः महार्णवः (कर्मधारय समास)। निरुद्धः-निः + रुध् + क्त। प्रकीर्णाम्बुधरम्-प्रकीर्णम् अम्बुधरम्। प्रकीर्ण + अम्बुधरम् (दीर्घ सन्धि)। प्रकीर्णम्-प्र + कृ + क्त। ..
(ii) अत्र उपजाति छन्द, उपमा अलंकारः।
5. समुद्वहन्तः सलिलातिभारं………………………………………..पुनः प्रयान्ति॥5॥
अन्वयः – सलिल अतिभारं सम् उद्वहन्तः बलाकिनः वारिधराः नदन्तः महीधराणाम् महत्सु शृङ्गेषु विश्रम्य विश्रम्य पुनः प्रयान्ति॥5॥
कठिन – शब्दार्थ :
- सलिल = जल।
- सम् – उद्वहन्तः = धारण करते हुए।
- बलाकिनः = बगुलों से युक्त।
- वारिधराः = बादल।
- नदन्तः = गर्जना करते हुए।
- महीधराणाम् = पर्वतों की।
- शृङ्गेषु = चोटियों पर।
- विश्रम्य = विश्राम करके।
- प्रयान्ति = चल पड़ते हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत श्लोक ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह वाल्मीकि विरचित रामायण के ण्ड के अट्ठाईसवें सर्ग से संकलित किया गया है। इसमें आदिकवि वाल्मीकि ने वर्षा ऋतु का सुन्दर व स्वाभाविक चित्रण किया है
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – पानी के अत्यधिक भार को वहन करते हुए बगुलों से युक्त बादल, गर्जना करते हुए पर्वतों की बड़ी-बड़ी चोटियों पर विश्राम कर-करके (पुनः) (आकाश की ओर) चल पड़ते हैं।
विशेष – यहाँ वर्षाकाल में आकाश में उमड़ते हुए बादलों की शोभा का सुन्दर एवं यथार्थ वर्णन किया गया है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
अन्वयः – श्लोकोऽयं अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘ऋतुचित्रणम्’ इति पाठात् अवतरितः। मूलतोऽयं पाठः आदिकवि वाल्मीकि-विरचितात् रामायण महाकाव्यात् संकलितः। अस्मिन् श्लोके श्रीरामः लक्ष्मणं प्रति वर्षाऋतोः आगमनं वर्णयति
संस्कृत-व्याख्या –
- सलिलातिभारम् = जलस्य प्रभूतं भारम्,
- समुद्वहन्तः = सम्यक् रूपेण वहन्तः
- बलाकिनः = बलाकानां (बकानां) पंक्तिभिः शोभिता:
- वारिधराः = मेघाः,
- नदन्तः = गर्जन्तः,
- महीधराणाम्’ = पर्वतानाम्,
- महत्सु शृंगेषु = च्चशिखरेषु,
- विश्रम्य विश्रम्य = पुनः पुनः विश्रामं कृत्वा,
- पुनः = भूयः,
- प्रयान्ति = प्रयाणं कुर्वन्ति॥
व्याकरणात्मक-टिप्पणी –
(i) समुद्वहन्तः – सम् + उद् + वह् + शतृ (बहुवचन)।
नदन्तः -नद् + शतृ (ब. व.)।
विश्रम्य – वि + श्रम् + ल्यप्।
(ii) उपजाति छन्द। अनुप्रासोऽलंकारः।
6. वहन्ति वर्षन्ति………………………………..”शिखिनः प्लवङ्गाः ॥6॥
अन्वयः – नद्यः वहन्ति, घनाः वर्षन्ति, मत्तगजाः नदन्ति, वनान्ताः भान्ति, प्रियाविहीनाः ध्यायन्ति, शिखिनः नृत्यन्ति, प्लवङ्गाः समाश्वसन्ति ॥ 6॥
कठिन-शब्दार्थ :
- घनाः = बादल।
- मत्तगजाः = मतवाले हाथी।
- नदन्ति = चिंघाड़ते हैं।
- वनान्ताः = वन प्रदेश के भाग।
- भान्ति = शोभित हो रहे हैं।
- शिखिनः = मोर।
- प्लवडाः = मेंढक।
- समाश्वसन्ति = प्रसन्न होते हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत श्लोक ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। इस पद्य में आदिकवि वाल्मीकि ने वर्षा ऋतु के विविध दृश्यों का सुन्दर चित्रण किया है –
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – वर्षा ऋतु में नदियाँ बहती हैं। बादल वर्षा करते हैं। मदमस्त हाथी चिंघाड़ते हैं। वन प्रदेश के भाग सुशोभित होते हैं। अपनी प्रियाओं से वियुक्त जन ध्यान करके उन्हें याद करते हैं। मोर नाचते हैं। मेंढक प्रसन्न होते हैं।
विशेष – यहाँ वर्षाकाल में प्रसन्नचित्त पशु-पक्षी, प्रकृति व मानव-हृदय का दृश्य उपस्थित किया गया है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
अन्वयः -अस्मिन् श्लोके वर्षाऋतो: वर्णनं कृतम्। कविना निगदितम् यत् वर्षाकाले –
संस्कत-व्याख्या –
- नद्यः = सरितः,
- वहन्ति = प्रवहन्ति
- घनाः = मेघाः
- वर्षन्ति = जलवर्षा कर्वन्ति
- मत्तगजाः = मदमस्त द्विपाः
- नदन्ति = गर्जन्ति
- वनान्ताः = वन प्रदेशाः
- भान्ति = शोभन्ते
- प्रियाविहीनाः = प्रियाविरहिताः जनाः
- ध्यायन्ति = प्रियायाः ध्यानं कुर्वन्ति
- शिखिनः = मयूराः
- नृत्यन्ति = नृत्यं कुर्वन्ति, प्लवङ्गाः
- समाश्वसन्ति = प्रसन्नाः भवन्ति।
व्याकरणात्मक-टिप्पणी-
(i) अस्मिन् पद्ये इन्द्रवज्रा छन्द वर्तते।
(ii) वैदर्भीरीत्या शोभनप्रयोगः अत्रं कृतः।
(iii) मत्तगजा: – मत्तः चासौ गजः ते च (कर्मधारय)।
वनान्ताः – वन + अन्ताः (दीर्घ सन्धि)। प्रियाविहीना: प्रियया विहीनाः (तृ. तत्पुरुष)।
विहीना – वि उपसर्ग + हा धातु + क्त।
शिखिनः – शिखा + णिनि (ब. वचन)।
7. जलं प्रसन्नं…………………………………… वर्षव्यपनीतकालम्॥7॥
अन्वयः – कुसुमप्रहासम् प्रसन्नम् जलम्, क्रौञ्चस्वनम्, विपक्वम् शालिवनम्, मृदुः वायुः च विमलः चन्द्रः च वर्षव्यपनीतकालं शंसन्ति ॥7॥
कठिन-शब्दार्थ :
- कुसुमप्रहासम् = खिले हुए फूलों से युक्त।
- प्रसन्नम् = स्वच्छ।
- क्रौञ्चस्वनम् = क्रौञ्च पक्षी की आवाज।
- विपक्वम् = पका हुआ।
- शालिवनम् = धान का खेत।
- मृदुः = कोमल।
- विमलः = स्वच्छ।
- वर्षव्यपनीतकालम् = वर्षा ऋतु व्यतीत होने के समय को।
- शंसन्ति = बतला रहे हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती’ (प्रथम भाग) के द्वितीय पाठ ‘ऋतुचित्रणम्’ से उद्धृत है। यह महाकवि वाल्मीकि द्वारा विरचित आदिकाव्य ‘रामायण’ के किष्किन्धाकाण्ड के तीसवें सर्ग से संकलित किया गया है। इसमें वर्षा ऋतु के अनन्तर आने वाली शरद् ऋतु का चित्रण किया गया है –
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – खिले हुए फूलों से युक्त स्वच्छ जल, क्रौञ्च पक्षी की आवाज, पका हुआ धान का खेत, कोमल शीतल पवन एवं स्वच्छ चन्द्रमा-वर्षा ऋतु व्यतीत होने के बाद आने वाली शरद् ऋतु की सूचना दे रहे हैं अर्थात् ये सभी दृश्य शरद् ऋतु के आगमन के सूचक हैं।
विशेष – यहाँ कवि ने वर्षाकाल के समाप्त होने के बाद शरद् ऋतु के आगमन पर प्रकृति के स्वरूप का सुन्दर एवं यथार्थ चित्रण किया है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
अन्वयः – प्रस्तुत पद्यं अस्माकं पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती’ प्रथम भागस्य ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठात् समुद्धतोस्ति। मूलतः अयं श्लोकः महाकविवाल्मीकिविरचितात् रामायणस्य किष्किन्धाकाण्डात् संकलितः। अस्मिन् शरदऋतो: चित्रणं कृतम्
संस्कृत-व्याख्या –
- कुसुमपरासम् = पुष्पित सुमनैर्युक्तम्
- प्रसन्नम् = स्वच्छम्
- जलम् = सलिलम्
- क्रौञ्चस्वनम् = क्रौञ्चपक्षीणाम् स्वनम्
- विपक्वम् = परिपक्वम्
- शालिवनम् = शाले: वनम् इति
- शालिवनम् = शालिक्षेत्राणि
- मृदुः = कोमलं
- वायुः = अनिलः
- विमलः = स्वच्छ :
- चन्द्रः = चन्द्रमा एतानि सर्वाणि वर्षव्यपनीत
- कालम् = वर्षा ऋतौः समाप्ते: समयम् अर्थात् शरद् ऋतो: समयम्
- शंसन्ति = कथयन्ति।
व्याकरणात्मक-टिप्पणी –
(i) वर्षा ऋतोः अनन्तरं शरद ऋतोः आगमनं भवति। तस्मिन् ऋतौ सर्वत्र स्वच्छं जलं. विमलः चन्द्रमा, परिपक्वम् शालि क्षेत्राणि दृश्यन्ते।
(ii) प्रसन्नम् – प्र + सद् + क्त।
कुसुमप्रहासम् – कुसुमाना प्रहासम् (षष्ठी तत्पु.)।
प्रहासम् – प्र + हस् + घञ् प्रत्यय।
विपक्वम् – वि + पच् + क्त।
वायुर्विमलश्च – वायुः + विमलः + च (विसर्ग, रुत्व एवं सत्व)।
व्यपनीत – वि + अप + नी + क्त।
शालिवनम् – शालिनां वनम् (ष. तत्पु.)।
(iii) अत्रोपजाति छन्द।
8. लोकं सुवृष्टया……………………………………………………. नभस्तोयधराः प्रयाताः॥8॥
अन्वयः – तोयधराः सुवृष्ट्या लोकं परितोषयित्वा, नदीः तटाकानि च पूरयित्वा, वसुधाम् च निष्पन्नशस्याम् कृत्वा, नभः त्यक्त्वा प्रयाताः॥8॥
कठिन-शब्दार्थ :
- तोयधराः = बादल।
- सवष्टया = अच्छी वर्षा से।
- परितोषयित्वा = सन्तष्ट करके।
- तटाकानि = तालाबों को।
- पूरयित्वा = भरकर।
- वसुधाम् = पृथ्वी को।
- निष्पन्नशस्याम् = पूरा हो गया है खेती-बाड़ी का कार्य जिसका।
- प्रयाताः = चले गये हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत श्लोक ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। मूलतः यह वाल्मीकि विरचित आदिकाव्य रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के तीसवें सर्ग से संकलित किया गया है। इसमें वर्षाकाल की समाप्ति उपरान्त शरद् ऋतु का वर्णन है –
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – बादल अच्छी वर्षा से संसार के प्राणियों को संतुष्ट करके, नदियों एवं तालाबों को भरकर तथा पृथ्वी को खेती-बाड़ी का कार्य सम्पन्न होने वाली बनाकर, आकाश को छोड़कर चले गये हैं। अर्थात् वर्षा ऋतु की समाप्ति हो गई है तथा शरद् का आगमन हो गया है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
प्रसङ्ग: – अयं श्लोकः अस्माकं पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती’ प्रथमभागस्य ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक् पाठात् उद्धृतः। अस्मिन् पद्ये कविना शरदऋतो: वर्णनं कृतम्
संस्कृत-व्याख्या –
- लोकं = संसारं जगत् वा,
- सुवृष्ट्या = शोभनवृष्ट्या,
- परिपोषयित्वा = सन्जुष्टं कृत्वा,
- नदीतटाकानि = सरितः तगाडाश्च
- पूरयित्वा = सम्पूर्य
- वसुधाम् = पृथिवीम्
- निष्पन्नशस्याम् = निष्पन्नं कृषि कार्यं यस्याः
- कृत्वा = विधाय,
- नभः = गगनं खं वा,
- त्यक्त्वा = विहाय,
- तोयधराः = मेघाः
- प्रयाताः = प्रयाणं कृताः, गताः। गगनात् मेघाः विलुप्ताः।
व्याकरणात्मक-टिप्पणी –
(i) अस्मिन् पद्ये उपजाति वृत्तमस्ति।
(ii) वृष्ट्या – वृष् + क्तिन् (तृतीया एकवचन)।
परितोषयित्वा – परि + तुष् + णिच् + क्त्वा।
पूरयित्वा – पूर् + णिच् + क्त्वा।
निष्पन्न: – निस् + पद् + क्त।
त्यक्त्वा – त्यज् + क्त्वा।
प्रयाताः – प्र + या + क्त।
9. रविसङ्क्रान्तसौभाग्य ………………………………………………….. न प्रकाशते ॥9॥
अन्वयः – रविसङ्क्रान्तसौभाग्यः तुषार अरुणमण्डल: निःश्वास-अन्ध: आदर्श इव चन्द्रमा न प्रकाशते॥
विसङक्रान्तसौभाग्यः = सर्य के द्वारा जिसका प्रकाश मलिन कर दिया गया है।
तुषारारुणमण्डलः = तुषार से जिसका मण्डल अरुण वर्ण का कर दिया गया है।
निःश्वासान्धः = श्वास से मलिन किये गये।
आदर्शः = दर्पण, शीशा।
प्रसंग : प्रस्तुत श्लोक ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। इस श्लोक में महाकवि वाल्मीकि ने हेमन्त ऋतु के आ जाने से चन्द्रमा की निष्प्रभता का चित्रण किया है –
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – सूर्य के द्वारा जिसका प्रकाश मलिन कर दिया गया है, तुषार से जिसका मण्डल (घेरा) अरुण वर्ण का कर दिया गया है (इस प्रकार का) तथा श्वास से मलिन किये गये दर्पण के समान चन्द्रमा प्रकाशित नहीं हो रहा है अर्थात् हेमन्त ऋतु में चन्द्रमा की कान्ति फीकी पड़ गई है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
अन्वयः – श्लोकोऽयं अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘ऋतुचित्रणम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलतः अयं पाठः आदिकविवाल्मीकिविरचितात् रामायण महाकाव्यात् संकलितोऽस्ति। अत्र रामानुजः लक्ष्मणः हेमन्तऋतुमाधृत्य कथयति –
संस्कृत-व्याख्या –
(हेमन्तकाले) रविसङ्क्रान्तसौभाग्यः = रवि = सूर्येण,
सङ्क्रान्तः = अतिक्रान्तः
सौभाग्यः = प्रकाश:
मलिनीकृतः तुषारारुणमण्डलाः = तुषार = हिमकणैः,
अरुणमण्डलः = रक्तमण्डलः
चन्द्रमा = निशाकरः,
निःश्वासेन = दीर्घश्वासेन,
अन्धः = मलिन:
आदर्श इव = दर्पणवत्,
न प्रकाशते = न शोभते।
व्याकरणात्मक-टिप्पणी –
(i) सक्रान्तः – सम् + क्रम् + क्त।
सङ्क्रान्तसौभाग्यः = सङ्क्रान्तः सौभाग्यः यस्य सः (बहुव्रीहि)।
तुषारारुणमण्डल: – तुषारेण अरुण मण्डलः (तृ. तत्पु.)।
अरुणमण्डल: – अरुणश्चासौ मण्डलः (कर्मधारय)।
निःश्वासान्धः – नि:श्वास + अन्धः (दीर्घ सन्धि), निःश्वासेन अन्धः (तृ. तत्पु.)।
(ii) अस्मिन् श्लोके उपमाऽलंकारः, अनुष्टुप् छन्द।
10. वाष्पसञ्छन्नसलिला ………………………….. भान्ति साम्प्रतम्॥10॥
अन्वयः – साम्प्रतम् वाष्पसञ्छन्नसलिला: रुतविज्ञेयसारसाः हिमाद्रबालुकाः सरितः तीरैः भान्ति।
कठिन-शब्दार्थ :
- वाष्पसञ्छन्नसलिला: = भाप से ढके हुए जल वाली।
- रुत = ध्वनि, आवाज।
- विज्ञेय = विशेष रूप से जानने योग्य।
- बालुकाः = रेत।
- सरितः = नदियाँ।
- भान्ति = प्रतीत होती हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती’ प्रथम भाग के ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। मूलतः यह श्लोक वाल्मीकि विरचित रामायण के अरण्यकाण्ड से संकलित है। इस श्लोक में शिशिर ऋतु का चित्रण किया गया है-
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – इस समय अर्थात् शिशिर ऋतु में भाप से ढके हुए जल वाली, सारसों की आवाज से विशेष रूप से जानने योग्य, बर्फ से शीतल गीली रेत वाली नदियाँ (अपने) किनारों से प्रतीत हो रही हैं।
विशेष – यहाँ नदियों पर शिशिर ऋतु के प्रभाव का सुन्दर एवं स्वाभाविक चित्रण हुआ है। नदियों में जल दिखलाई नहीं देता है, अपितु बर्फ से उठती हुई भाप ही दिखाई देती है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
प्रसङ्ग: – अयं श्लोकः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘ऋतुचित्रणम्’ इति पाठात् उद्धृतः। मूलरूपेण अयं पाठः आदिकवि वाल्मीकिविरचितात् ‘रामायण’ महाकाव्यात् संकलितोऽस्ति। सीताराम लक्ष्मणाः गोदावर्याः तीरे पञ्चवट्यां निवसन्ति। तत्रैवायतः हेमन्तकालः। तमवलोक्य लक्ष्मणः कथयति
संस्कृत-व्याख्या –
- साम्प्रतम् = इदानीम्,
- वाष्पसञ्छान्नसलिलाः = वाष्प = तुषारकणैः
- सञ्छन्न सलिला: = सम्यगाच्छादितजलाः
- हिमाद्रेबालुकातीरैः = हिमकणैः सिक्तरजोमयतटैः
- सरितः = नद्यः (तथा च)
- रुतविज्ञेय सारसाः = स्वरेण अभिज्ञानमानाः सारसाः पक्षीविशेषाः,
- भान्ति = शोभन्ते।
व्याकरणात्मक-टिप्पणी –
(i) वाष्पसज्छन्नसलिल: – वाष्पेण सम्यक् आच्छन्नं सलिलं यासां ताः नद्यः (ब. वी.)।
सञ्छन्न – सम् + छद् + क्त।
विज्ञेय – वि + ज्ञा + यत्।
रुतविज्ञेय – रुतेन विज्ञेय (तृतीया तत्पु.)। हिमाः हिमेन आर्द्रः (तृ. तत्पु.)।
(ii) अस्मिन् श्लोके अनुष्टुप् छन्द वर्तते।
11. हंसो यथा ………………………………………… तथाम्बरस्थः ॥11॥
अन्वयः – यथा हंसः राजतपञ्जरस्थः, यथा सिंहः मन्दरकन्दरस्थः, यथा वीरः गर्वितकुञ्जरस्थः च, तथा अम्बरस्थ: चन्द्रः अपि बभ्राज॥
कठिन-शब्दार्थ :
- राजतपञ्जरस्थः = पिंजरे में पड़ा शोभित होता है।
- मन्दरकन्दरस्थः = मन्दराचल की कन्दरा में स्थित।
- गर्वितकुञ्जरस्थः = गर्व से युक्त हाथियों में स्थित।
- अम्बरस्थः = आकाश में स्थित।
- बभ्राज = सुशोभित हो रहा था।
प्रसंग : प्रस्तुत श्लोक ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड के पञ्चम सर्ग से संकलित किया गया है। इसमें चन्द्रमा के उदय होने का सुन्दर चित्रण किया गया है –
हिन्दी अनुवाद/व्याख्या – जिस प्रकार चाँदी के पिंजरे में स्थित हंस शोभित होता है, जिस तरह मन्दर पर्वत की कन्दरा (गुफा) में स्थित शेर शोभित होता है और जिस प्रकार गर्व से परिपूर्ण हाथी की पीठ पर वीर स्थिर होकर शोभित होता है, उसी प्रकार (उदित होता हुआ) चन्द्रमा आकाश के मध्य में शोभित हो रहा था। . विशेष – यहाँ शिशिर ऋतु में आकाश में स्थित धवल चन्द्रमा की शोभा का विविध उपमानों से सुन्दर चित्रण किया गया है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या –
अन्वयः – अयं श्लोकः ‘ऋतुचित्रणम्’ शीर्षक पाठात् उद्धृतः। मूलत: अयं पाठः वाल्मीकिरामायणस्य सुन्दरकाण्डात् संकलितः। अस्मिन् श्लोके चन्द्रोदयस्य मनोहारी वर्णनं कृतम्।
संस्कृत-व्याख्या :
- राजतपञ्जरस्यः = रजतेन निर्मितं राजतं तच्च पञ्जरं राजत- पञ्जरं
- तत्र तिष्ठतीति राजतपञ्जरस्थः = रुप्यनिर्मित पञ्जर
- स्थितो हंसः = चक्राङ्गः
- यथा = येन प्रकारेण (शोभते) मन्दरकन्दरस्यः मन्दरस्य कन्दरं मन्दरकन्दरं तत्र तिष्ठतीति
- मन्दरकन्दरस्थः = मन्दराचलगुहास्थितः
- सिंहो = मृगेन्द्रः
- एवं, गर्वितकुञ्जरस्थः = गर्वितश्चासौ कुञ्जरो गर्वित कुञ्जरस्तत्र तिष्ठतीति गर्वित
- कुञ्जरस्थः = मदोन्मत्त गज
- स्थितो वीरो = शूरः (भ्राजते)
- तथा = तेन प्रकारेण
- अम्बरस्थः = गगनमध्य स्थितः
- चन्द्रः = चन्द्रमा अपि
- बभ्राज = रराज।
व्याकरणात्मक-टिप्पणी –
(i) अस्मिन् पद्ये उपमा यमकाऽलंकारौ स्तः।
(ii) प्रस्तुत पद्ये इन्द्रवज्रा वृत्तमस्ति।
(iii) पञ्जरस्थ: – पञ्जरे स्थितः (सप्तमी तत्पु.)।
चन्द्रोऽपि – चन्द्रः + अपि (विसर्ग, पूर्वरूप)।
तथाम्बरस्थः – तथा + अम्बरस्थः (दीर्घ सन्धि)।
मन्दरकन्दरस्थ: – मन्दरस्य कन्दरस्थ (ष. तत्पु.)।