Chapter -2, Lost Spring
By- Anees Jung
(Lesson with Vocabulary & Hindi Translation)
‘Sometimes I find a Rupee in the garbage’
“Why do you do this?” I ask Saheb, whom I encounter every morning, scrounging for gold in the garbage dumps, of my neighbourhood. Saheb left his home long ago. Set amidst the green fields of Dhaka, his home is not even a distant memory. There were many storms, that swept away their fields and homes, his mother tells him. That’s why they left, looking for gold in the big city, where he now lives.
“I have nothing else to do,” he mutters, looking away.
“Go to school,” I say glibly, realising immediately how hollow, the advice must sound.
“There is no school in my neighbourhood. When they build one, I will go.”
“If I start a school, will you come?” I ask, half-joking. “Yes,” he says, smiling broadly.
A few days later I see him running up to me. “Is your school ready?”
“It takes longer to build a school,” I say, embarrassed at having made a promise that was not meant. But promises like mine, abound in every corner of his bleak world.
After months of knowing him, I ask him his name. “Saheb-e-Alam,” he announces. He does not know what it means. If he knew its meaning — lord of the universe — he would have a hard time believing it. Unaware of what his name represents, he roams the streets with his friends, an army of barefoot boys who appear like the morning birds and disappear at noon. Over the months, I have come to recognise each of them.
“Why aren’t you wearing chappals?” I ask one.
“My mother did not bring them down from the shelf,” he answers simply.
“Even if she did, he will throw them off,” adds another who is wearing shoes, that do not match. When I comment on it, he shuffles his feet and says nothing. “I want shoes,” says a third boy who has never owned a pair all his life. Travelling across the country, I have seen children walking barefoot, in cities, on village roads. It is not lack of money but a tradition to stay barefoot, is one explanation. I wonder if this is only an excuse, to explain away a perpetual state of poverty.
कठिन शब्दार्थ : Garbage कूड़ा-कचरा । encounter मिलती हूँ। scrounging खोजबीन करते हुए। dumps ढेर | amidst के बीच। swept away बहा ले गये। mutters अस्पष्ट बोलता है। glibly लापरवाही के साथ। hollow खोखली। half-joking थोड़े मजाक में। broadly खुलकर। embarrassed असमंजस में। bleak नीरस एवं निराशापूर्ण | announces जोर से बोलता है। universe विश्व। roams भटकता है। barefoot नंगे पैर। shelf ताक। shuffles इधर-उधर घसीटता है। owned स्वामित्व रखा। tradition परम्परा । excuse बहाना । perpetual स्थायी।
हिन्दी अनुवाद- ‘कभी-कभी मुझे कूड़े-कचरे में एक रुपया मिल जाता है।
“तुम यह क्यों करते हो?” मैं साहेब से पूछती हूँ, जिससे मेरा सामना प्रत्येक सुबह होता है, और जो मेरे पडौस में कूड़े-कचरे के ढेरों में, सोने की खोजबीन करता रहता है। साहेब ने अपना घर काफी समय पूर्व छोड़ दिया था। ढाका के हरे-भरे खेतों के बीच स्थित, उसका घर अब दूर की स्मृति भी नहीं रह गया है। कई तूफान जो उनके खेतों, एवं घरों को बहा ले गये थे, उसकी माँ उसे बताती है। इसी कारण वे छोड़कर आ गये, सोने की तलाश करने, बड़े शहर में जहाँ वह अब रहता है। “मुझे करने को कुछ और काम नहीं है”, वह दूसरी ओर देखते हुए उत्तर देता है। “स्कूल जाया करो”, मैं लापरवाही के साथ कहती, तुरन्त यह महसूस करते हुए कि, मेरी सलाह कितनी निरर्थक एवं खोखली प्रतीत होगी।
“मेरे पडौस में कोई स्कूल नहीं है। जब वे स्कल बना देंगे, तो मैं चला जाऊँगा।” “अगर मैं एक स्कूल शुरू कर दूं, तो क्या तुम आओगे?” मैं पूछती हूँ, थोड़े मजाक के साथ। “हाँ”, वह कहता है, खुलकर मुस्कराते हुए। कुछ दिनों बाद, मैं उसे अपने पास दौड़कर आते हुए देखती हूँ। “क्या आपका स्कूल तैयार हो गया है?” “स्कूल बनाने में काफी ज्यादा समय लगता है”, मैं असमंजस में उत्तर देती हूँ, एक ऐसा वादा करने के कारण, जिसे पूरा करने का कोई मन्तव्य नहीं था। लेकिन मेरे जैसे वादे, उसकी नीरस एवं निराशापूर्ण दुनिया के हर कोने में भरे पड़े रहते हैं।
महीनों तक उसे जानने के बाद, मैं उससे उसका नाम पूछती हूँ। “साहेब-ए-आलम”, वह जोर से बोलता है। वह नहीं जानता कि, इसका तात्पर्य क्या होता है। अगर वह इसका अर्थ जाने,—संसार का मालिक तो उसे विश्वास करने में बड़ी कठिनाई होगी। अपने नाम के अर्थ से अनभिज्ञ रहते हुए, वह अपने दोस्तों के साथ गलियों में भटकता है, नंगे पैरों वाले लड़कों की फौज, जो सुबह के पक्षियों की भाँति प्रकट होते हैं, और दुपहर तक गायब हो जाते हैं। इतने महीनों के बाद, मैं उन्हें पहचानने लगी हूँ, प्रत्येक को।
“तुम चप्पलें क्यों नहीं पहने हो?” मैं एक लड़के से पूछती हूँ। “मेरी माँ ने उन्हें (चप्पलों को) ताक से नीचे नहीं उतारा।” उसने सरलता से जवाब दिया। “अगर उसने उतार कर दे भी दिया होता तो भी, वह उन्हें फेंक देगा”, दूसरे लड़के ने बताया, जिसने बेमेल जूते पहन रखे थे। जब मैं इस पर टिप्पणी करती हूँ, तो वह अपने पैरों को इधर-उधर घसीटता है, और कुछ भी नहीं कहता है।
“मुझे जूतों की आवश्यकता है”, तीसरा लड़का कहता है जिसके पास, जिन्दगी भर से जूते नहीं रहे । देश-भर में घूमते हुए, मैंने बच्चों को नंगे पैर चलते देखा है, शहरों में, गाँव की सड़कों पर। ऐसा पैसों की कमी के कारण नहीं है, बल्कि नंगे पैर रहना एक परम्परा है, यह एक स्पष्टीकरण है। मुझे आश्चर्य होता है कि, क्या यह एक बहाना मात्र है, दरिद्रता की एक स्थायी स्थिति को समझा डालने का।
I remember a story a man from Udipi once told me. As a young boy he would go to school past an old temple, where his father was a priest. He would stop briefly at the temple, and pray for a pair of shoes. Thirty years later, I visited his town and the temple, which was now drowned in an air of desolation. In the backyard, where lived the new priest, there were red and white plastic chairs. A young boy dressed in a grey uniform, wearing socks and shoes, arrived panting and threw his school bag on a folding bed.
Looking at the boy, I remembered the prayer, another boy had made to the goddess, when he had finally got a pair of shoes, “Let me never lose them.” The goddess had granted his prayer. Young boys like the son of the priest, now wore shoes. But many others, like the ragpickers in my neighbourhood remain shoeless.
कठिन शब्दार्थ : Priest पुजारी। drowned डूबा हुआ। desolation खालीपन। panting हाँफता हुआ। rag pickers कचरा इकट्ठा करने वाले।
हिन्दी अनुवाद- मुझे एक कहानी याद है, जिसे उडीपी के एक व्यक्ति ने, एक बार मुझे सुनाई थी। एक छोटे लड़के के रूप में, वह एक पुराने मन्दिर के पास से गुजर कर स्कूल पहुँचता था, जहाँ उसके पिता पुजारी थे। वह मन्दिर पर थोड़े समय के लिए रुकता था, और जूतों की एक जोड़ी के लिए प्रार्थना करता था। तीस वर्ष बाद, मैं उसके नगर तथा उसके मन्दिर में गई, जहाँ अब खालीपन एवं उजाड़ का वातावरण था। पिछवाड़े में, जहाँ अब नया पुजारी रहता था, वहाँ लाल एवं सफेद प्लास्टिक की कुर्सियाँ थीं। एक लड़का जिसने स्लेटी रंग की वर्दी, जुर्राबें तथा जूते पहन रखे थे, हाँफता हुआ आया और, उसने अपना स्कूल का थैला, सिमट जाने वाले पलंग पर फेंक दिया।
लड़के की ओर देखते हुए, मुझे दूसरे लड़के की प्रार्थना का स्मरण हुआ. जो उसने देवी माँ से की थी, जब उसे अन्त में जूते प्राप्त हो गये थे, “मैं इन्हें कभी न खोऊँ।” देवी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली थी। वर्तमान पुजारी के पुत्र के जैसे लड़के, अब जूते पहनते थे। किन्तु कई अन्य, जैसे मेरे पड़ोस में कचरा बीनने वाले लड़के, आज भी जूतों के बिना ही हैं।
My acquaintance with the barefoot ragpickers, leads me to Seemapuri, a place on the periphery of Delhi, yet miles away from it, metaphorically. Those who live here are squatters, who came from Bangladesh back in 1971. Saheb’s family is among them. Seemapuri was then a wilderness. It still is, but it is no longer empty. In structures of mud, with roofs of tin and tarpaulin, devoid of sewage, drainage or running water, live 10,000 ragpickers.
They have lived here, for more than thirty years without an identity, without permits but with ration cards, that get their names on voters’ lists, and enable them to buy grain. Food is more important for survival, than an identity.
“If at the end of the day, we can feed our families. and go to bed without an aching stomach, we would rather live here, than in the fields, that gave us no grain,” say a group of women in tattered saris. when I ask them why they left, their beautiful land of green fields and rivers. Wherever they find food, they pitch their tents, that become transit homes.
Children grow up in them, becoming partners in survival. And survival in Seemapuri means, rag-picking. Through the years, it has acquired the proportions of a fine art. Garbage to them is gold. It is their daily bread, a roof over their heads, even if it is a leaking roof. But for a child, it is even more.
कठिन शब्दार्थ : Acquaintance जान-पहचान । periphery सीमा। metaphorically उपमा की दृष्टि से। squatters सार्वजनिक भूमि पर अवैध रूप से कब्जा जमा कर रहने वाले I wilderness उजाड़। structures झोंपड़ियाँ । sewage गंदे पानी का निकास। drainage जमीन के अन्दर गंदे पानी आदि के पाइपों की व्यवस्था। running water नलों से मिलने वाला पीने योग्य पानी। identity पहचान। permits आज्ञा-पत्र । aching दर्द करता हुआ। tattered फटी हुई, चिथड़ा। pitch गाड़ देते हैं। transit अस्थायी। proportions आकार, कलेवर । fine art ललित कला।
हिन्दी अनुवाद- नंगे पैर कचरा बीनने वालों से मेरा परिचय, मुझे सीमापुरी ले जाता है, जो दिल्ली की सीमा पर है. लेकिन अन्य प्रकार से इससे (दिल्ली से) मीलों दूर है। जो लोग यहाँ रहते हैं, वे अवैध रूप से सरकारी भूमि पर कब्जा जमाए बैठे हैं। ये बंगलादेश से 1971 में आये थे। साहेब का परिवार भी इन्हीं में से एक है। तब सीमापुरी एक उजाड स्थान था। अभी भी यह ऐसा ही है, किन्तु अब यह खाली नहीं है। मिट्टी से बने मकानों में, जिन पर टीन तथा त्रिपालों की छतें हैं, जो गंदे पानी के निकास, जमीन के अन्दर गंदगी ले जाने वाले पाइपों की व्यवस्था, अथवा पीने योग्य नल के पानी की व्यवस्था से रहित हैं, दस हजार कचरा बीनने वाले लोग रहते हैं।
ये लोग 30 से भी अधिक वर्षों से यहाँ रह रहे हैं, बिना किसी पहचान के, बिना आज्ञा-पत्र के, किन्तु राशन कार्ड के सहित, जिससे उनके नाम मतदाता सूची में शामिल हो जाते हैं. और उन्हें अनाज खरीदने में समर्थ बना देते हैं। भोजन जीवन के लिए अधिक आवश्यक होता है, पहचान की अपेक्षा ।
“अगर दिन के अन्त में हम अपने परिवारों को भोजन खिला सकते हैं. और बिना पेट में दर्द के सो सकते हैं, तो हम यहाँ रहना चाहेंगे बजाय, उन खेतों पर जो हमें अनाज नहीं देते थे,” ऐसा औरतों के एक समूह का कहना है, जो फटी पुरानी साड़ियाँ पहने हैं, जब मैं उनसे पूछती हूँ कि उन्होंने हरे-भरे खेतों, तथा नदियों वाली जमीन को क्यों छोड़ दिया था। जहाँ भी उन्हें भोजन मिल जाता है, वे अपना तंबू वहीं गाड़ देते हैं, जो उनके अस्थायी घर बन जाते हैं।
बच्चे इनमें बड़े होते हैं, और जिन्दा रहने में भागीदार बनते हैं। और सीमापुरी में जिन्दा रहने के मायने हैं, कचरा बीनना। वर्षों की अवधि में कचरा बीनना, एक ललित कला का कलेवर ग्रहण कर चुका है। कचरा उन लोगों के लिए सोना (स्वर्ण) होता है। यह कचरा उनकी रोजाना की रोटी, उनके सिरों पर एक छत, फिर यह टपकने वाली छत ही क्यों न हो, होता है। लेकिन एक बच्चे के लिए, यह इससे भी कुछ अधिक होता है।
“I sometimes find a rupee, even a ten-rupee note,” Saheb says, his eyes lighting up. When you can find a silver coin in a heap of garbage, you don’t stop scrounging, for there is hope of finding more. It seems that for children, garbage has a meaning different, from what it means to their parents. For the children it is wrapped in wonder, for the elders it is a means of survival.
One winter morning, I see Saheb standing by the fenced gate, of the neighbourhood club, watching two young men dressed in white, playing tennis. “I like the game,” he hums, content to watch it standing behind the fence. “I go inside when no one is around,” he admits. “The gatekeeper lets me use the swing.”
Saheb too is wearing tennis shoes, that look strange over his discoloured shirt and shorts. “Someone gave them to me,” he says in the manner of an explanation. The fact that, they are discarded shoes of some rich boy, who perhaps refused to wear them, because of a hole in one of them, does not bother him. For one who has walked barefoot, even shoes with a hole is a dream come true. But the game he is watching so intently, is out of his reach.
This morning, Saheb is on his way to the milk booth. In his hand is a steel canister. “I now work in a tea stall down the road,” he says, pointing in the distance. “I am paid 800 rupees and all my meals.” Does he like the job? I ask. His face, I see, has lost the carefree look. The steel canister seems heavier, than the plastic bag he would carry, so lightly over his shoulder. The bag was his. The canister belongs to the man, who owns the tea shop. Saheb is no longer his own master!
कठिन शब्दार्थ : Lighting up चमक उठती हुई। wrapped लिपट हुआ। fenced बाड़ लगा हुआ। hums गुनगुनाता हुआ बोलता है। content सन्तुष्ट। discarded त्यागे हुए। intently ध्यान से। carefree बेफिक्र।
हिन्दी अनुवाद- “मुझे कभी-कभी एक रुपया मिल जाता है, यहाँ तक कि दस रुपये का नोट भी”, साहेब कहता है, उसकी आँखें चमक उठती हैं। जब आपको कचरे के ढेर में, चाँदी का एक सिक्का मिल जाता है तो, आप छान-बीन बन्द नहीं कर देते हैं, क्योंकि और अधिक पीने की उम्मीद जो रहती है। ऐसा लगता है कि बच्चों के लिए, कचरे का एक अलग ही अर्थ होता है, उनके माता-पिता के लिए अर्थ की तुलना में। बच्चों के लिए कचरा आश्चर्य में लिपटी चीज होता है, बड़ों के लिए यह जिन्दा रहने का साधन होता है।
सर्दी की एक सुबह, मैं साहेब को पडौस के क्लब के बाड लगे दरवाजे के पास खडा देखती हैं. जो सफेद वस्त्र पहने हुए दो युवकों को, टेनिस खेलता देख रहा है। “मैं इस खेल को पसन्द करता हूँ”, वह गुनगुनाकर बोलता है तथा, वह इसे बाड़ के पीछे खड़े रहते हुए देखकर ही सन्तुष्ट है। “मैं अन्दर चला जाता हूँ, जब कोई भी आसपास नहीं होता है”, वह स्वीकार करता है। “द्वारपाल मुझे झूला काम में लेने देता है।”
साहेब भी टेनिस के जूते पहने हुए है, जो उसके रंग उड़ चुकी कमीज, तथा निकर के साथ अटपटे दिखायी देते हैं। “किसी ने मझे ये जते दिए थे” वह स्पष्टीकरण के रूप में कहता है। यह
धनाढ्य लड़के के ठुकराये हुए जूते थे, जिसने शायद इन्हें पहनने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि, किसी एक जूते में छिद्र हो गया था, जो साहेब को परेशान नहीं करता है। नंगे पैरों से चलने वाले एक व्यक्ति के लिए, छिद्र वाले जूते भी, किसी स्वप्न के सच हो जाने से कम नहीं होते। लेकिन जिस खेल को वह इतने ध्यान से देख रहा है, वह उसकी पहुँच से बाहर है।
इस सुबह साहेब दूध के बूथ की ओर जा रहा है। उसके हाथ में एक स्टील का कनस्तर है। “अब मैं उधर सड़क पर चाय की एक थड़ी पर काम करता हूँ।” वह दूर की ओर इशारा करते हुए बोलता है। “मुझे 800 रु. तथा सभी वक्त का भोजन मिलता है।” क्या उसे काम पसन्द है? मैं पूछती हूँ। मैं देखती हूँ कि उसके चेहरे ने निश्चिन्तता का भाव खो दिया है। स्टील का कनस्तर, उस प्लास्टिक के थैले से अधिक भारी प्रतीत होता है. जिसे वह अपने कंधे पर इतनी आसानी से ढोया करता था। वह थैला उसी का था। कनस्तर उस व्यक्ति का है, जो चाय की । दुकान पर स्वामित्व रखता है। साहेब अब स्वयं का मालिक नहीं रहा।
“I want to drive a car”
Mukesh insists on being his own master. “I will be a motor mechanic,” he announces.
“Do you know anything about cars?” I ask.
“I will learn to drive a car,” he answers, looking straight into my eyes. His dream looms like a mirage, amidst the dust of streets, that fill his town Firozabad, famous for its bangles. Every other family in Firozabad is engaged, in making bangles. It is the centre of India’s glass-blowing industry, where families have spent generations, working around furnaces, welding glass, making bangles for all the women in the land it seems.
Mukesh’s family is among them. None of them know that, it is illegal for children like him, to work in the glass furnaces with high temperatures, in dingy cells without air and light; that the law, if enforced, could get him and all those 20,000 children out of the hot furnaces, where they slog their daylight hours, often losing the brightness of their eyes.
Mukesh’s eyes beam as he volunteers to take me home, which he proudly says is being rebuilt. We walk down stinking lanes choked with garbage, past homes that remain hovels with crumbling walls, wobbly doors, no windows, crowded with families of humans and, animals coexisting in a primeval state. He stops at the door of one such house, bangs a wobbly iron door with his foot, and pushes it open. We enter a half-built shack.
In one part of it, thatched with dead grass, is a firewood stove over which sits, a large vessel of sizzling spinach leaves. On the ground, in large aluminium platters, are more chopped vegetables. A frail young woman is cooking, the evening meal for the whole family. Through eyes filled with smoke, she smiles. She is the wife of Mukesh’s elder brother. Not much older in years, she has begun to command respect as the bahu, the daughter-in-law of the house, already in charge of three men. — her husband, Mukesh and their father.
When the older man enters, she gently withdraws behind the broken wall and, brings her veil closer to her face. As custom demands, daughters-in-law must veil their faces before male elders. In this case the elder is an impoverished bangle maker. Despite long years of hard labour, first as a tailor, then a bangle maker, he has failed to renovate a house, send his two sons to school. All he has managed to do is, teach them what he knows, — the art of making bangles.
कठिन शब्दार्थ : Insists जोर देता है looms अस्पष्ट । mirage मृगमरीचिका | glass-blowing काँच को आकार देना। furnaces भट्टियाँ। welding जोड़ना। Illegal गैर-कानूनी। dingy गंदी एवं अन्धेरी। cells कोठरियाँ। slog मेहनत करते हैं। beam चमकने लगती हैं। volunteers स्वेच्छा प्रकट करता है। stinking बदबूदार। hovels टूटी फूटी झोंपड़ियाँ । wobbly डगमगाते हुए। co-existing साथ-साथ रहते हुए। primeval आदिकालीन। bangs ठोकर मारता है। thatched फूस का छप्पर। sizzling छन-छन की ध्वनि के साथ उबलता हुआ। frail पतली-दुबली। veil चूंघट। impoverished कंगाल एवं शक्तिहीन। renovate मरम्मत करना।
हिन्दी अनुवाद-“मैं कार चलाना चाहता हूँ।” । मुकेश स्वयं का स्वामी होने पर जोर देता है। “मैं एक मोटर सुधारने वाला मिस्त्री बनूँगा।” वह घोषणा करता है। ‘क्या तुम कारों के बारे में कुछ जानते हो?” मैं पूछती हूँ। “मैं कार चलाना सीख लूँगा”, वह उत्तर देता है, सीधे मेरी आँखों में देखते हुए। उसका स्वप्न मृगमरीचिका की भाँति, फिरोजाबाद नामक उसके शहर की गलियों में, भरी धूल के बीच अस्पष्ट दिखाई देता है। यह शहर यहाँ की चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। फिरोजाबाद का हर दूसरा परिवार, चूड़ियाँ बनाने में लगा है। काँच उद्योग का केन्द्र है, जहाँ के परिवारों ने कई पीढियाँ, भट्टियों के चारों ओर काम करते हुए, काँच जोड़ते हुए तथा देश की सभी औरतों के लिए चूड़ियाँ बनाते हुए बिता दी हैं, ऐसा प्रतीत होता है।
मुकेश का परिवार भी इन्हीं में से एक है। उनमें से कोई भी नहीं जानता है कि उस जैसे बच्चों के लिए ऊँचे तापक्रम वाली भट्टियों में, गंदी अंधेरी कोठरियों में, जहाँ हवा एवं रोशनी का अभाव है. काम करना गैर कानूनी है; कि अगर कानून को लागू किया जाये तो वह, उसे तथा उन सभी 20,000 बच्चों को गर्म भट्टियों से बाहर निकलवा सकता है. जहाँ वे दिन का समय कड़ी मेहनत करते हुए गुजारते हैं, प्रायः अपनी आँखों की चमक खो देते हुए। मुकेश की आँखें प्रसन्नता से चमक उठती हैं.
जब वह मुझे उसके घर ले जाने की स्वेच्छा प्रकट करता है, जिसके लिए वह गर्व से कहता है कि, उसे पुनः बनाया जा रहा है। हम दुर्गन्ध से भरी, कचरे से अटी पड़ी गलियों में चलते हैं, उन घरों के पास से जो टूटती हुई दीवारों वाली गंदी झौंपड़ियाँ ही हैं, जिनके दरवाजे डगमगाने वाले हैं, जो खिड़कियों से रहित हैं, जिनमें मनुष्यों एवं जानवरों के परिवार आदिम युग की भाँति साथ-साथ जीते हैं। वह ऐसे ही एक घर के दरवाजे पर रुकता है, अपने पैर से डगमग करते लोहे के दरवाजे पर धक्का मारता है, और इसे धकेल कर खोल देता है।
हम एक अर्द्ध-निर्मित कुटिया में प्रवेश करते हैं। इसके एक हिस्से में जो सूखी घास के छप्पर से ढका है, लकड़ी से जलने वाला चूल्हा है जिस पर एक बड़ा बरतन रखा है, जिसमें छन-छन की आवाज के साथ पालक की पत्तियाँ उबल रही हैं। जमीन पर, बड़ी एलुमिनिअम की थालियों में और कटी हुई सब्जियाँ रखी हैं। एक पतली-दुबली युवती सारे परिवार के लिए शाम का भोजन पका रही है। धुएँ से भरी आँखों से वह मुस्कराती है। वह मुकेश के बड़े भाई की पत्नी है। अधिक उम्र की न होते हुए भी उसने, परिवार की बहू के रूप में सम्मान प्राप्त करना शुरू कर दिया है। पहले से ही उस पर तीन लोगों-उसका पति, मुकेश तथा उनके पिता की जिम्मेदारी है।
जब अधिक उम्र का व्यक्ति घर में प्रवेश करता है, तो वह आहिस्ता से टूटी हुई दीवार के पीछे चली जाती है. और अपना धूंघट अपने चेहरे के निकट ले आती है। जैसी कि प्रथा है, बड़ी उम्र के पुरुषों के समक्ष बहुओं को, अपने चेहरे पूँघट से ढक लेने होते हैं। इस मामले में बड़ी उम्र का पुरुष, चूड़ियाँ बनाने वाला एक शक्तिहीन एवं कंगाल व्यक्ति है। वर्षों तक की लम्बी मेहनत के बावजूद, पहले एक दर्जी के रूप में तथा, फिर एक चूड़ी बनाने वाले के रूप में, वह अपने घर की मरम्मत कराने में असफल रहा है. तथा अपने दो पुत्रों को स्कूल नहीं भेज सका है। केवल वह उन्हें वही सब सिखा पाया है, जो वह स्वयं जानता है,—चूड़ियाँ बनाने की कला।
“It is his karam, his destiny,” says Mukesh’s grandmother, who has watched her own husband go blind, with the dust from polishing the glass of bangles. “Can a God-given lineage ever be broken?” she implies. Born in the caste of bangle makers, they have seen nothing but bangles — in the house, in the yard, in every other house, every other yard, every street in Firozabad. Spirals of bangles — sunny gold, paddy green, royal blue, pink, purple, every colour born out of the seven colours of the rainbow. — lie in mounds in unkempt yards, are piled on four-wheeled handcarts, pushed by young men along the narrow lanes of the shanty town.
And in dark hutments, next to lines of flames of flickering oil lamps, sit boys and girls with their fathers and mothers, welding pieces of coloured glass into circles of bangles. Their eyes are more adjusted to the dark, than to the light outside. That is why they often end up losing their eyesight, before they become adults.
Savita, a young girl in a drab pink dress, sits alongside an elderly woman, soldering pieces of glass. As her hands move mechanically, like the tongs of a machine, I wonder if she knows the sanctity of the bangles, she helps make. It symbolises an Indian woman’s suhaag, auspiciousness in marriage. It will dawn on her suddenly, one day when her head is draped with a red veil, her hands dyed red with henna, and red bangles rolled onto her wrists. She will then become a bride. Like the old woman beside her, who became one many years ago.
She still has bangles on her wrist, but no light in her eyes. “Ek waqt ser bhar khana bhi nahin khaya,” she says, in a voice drained of joy. She has not enjoyed even one full meal, in her entire lifetime, — that’s what she has reaped! Her husband, an old man with a flowing beard, says, “I know nothing except bangles. All I have done is make a house ,for the family to live in.”
कठिन शब्दार्थ : Destiny नियति, भाग्य। lineage वंश-परम्परा। implies अर्थ लगाती है। spirals घेरे । mounds (माउन्ड्स) = ढेर। unkempt बिना संवारे। piled ढेर के रूप में | shanty झोपड़ियों से भरे। hutments झोंपड़ियाँ। flickering टिमटिमाते। flames ज्वालाएँ। Drab भद्दा, नीरस । soldering टाँका लगाते हुए। sanctity पवित्रता। auspiciousness शुभ होना। draped लिपटा हुआ। drained रहित।
हिन्दी अनुवाद- “यह इसकी नियति है”, मुकेश की दादी बोलती है, जिसने चूड़ियों के काँच की पॉलिश करने से उड़ती धूल से अपने पति को अंधा होते हुए देखा है। “क्या ईश्वर-प्रदत्त वंश-परम्परा को तोड़ा जा सकता है?” उसका निहितार्थ होता है। चूड़ी बनाने वालों की जाति में पैदा होकर उन्होंने चूड़ियों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देखा है-घर में, अहाते में प्रत्येक दूसरे मकान में, प्रत्येक दूसरे अहाते में, फिरोजाबाद की प्रत्येक गली में। चूड़ियों के मालानुमा बंडल, चमकदार सुनहरे, धान जैसे हरे, नीले, गुलाबी, बैंगनी, इन्द्रधनुष के सात रंगों से जन्मे प्रत्येक रंग वाले–बिना संवरे अहातों में बड़े-बड़े ढेरों में पड़े होते हैं, चार पहियों वाली हाथ-गाड़ियों में ढेर लगे होते हैं, जिन्हें झोंपड़ियों के इस शहर की संकरी गलियों में युवा लोग धकेलते हैं।
और अन्धेरी झोंपडियों में टिमटिमाते दीपकों की ज्वालाओं की पंक्तियों के आगे, लडके लड़कियाँ अपने माता-पिताओं के साथ बैठे होते हैं, रंगीन काँच के टुकड़ों को चूड़ियों को गोलाकार आकृतियों में जोड़ते हुए। उनकी आँखों का समायोजन बाहर की रोशनी की अपेक्षा, अन्धेरे के साथ अधिक रहता है। इसीलिए वे प्राय: अपनी आँखों की रोशनी वयस्क होने से पूर्व ही खो देते हैं।
सविता, एक युवती एक भद्दी गुलाबी ड्रेस में एक बुजुर्ग महिला के निकट बैठती है, और काँच के टुकड़ों को जोड़ती है (टाँका लगाती है)। जब उसके हाथ मशीन के चिमटों की भाँति, यान्त्रिकता के साथ चलते हैं. तो मुझे आश्चर्य होता है कि क्या उसे पता है कि, इन चूड़ियों की पवित्रता क्या होती है, जिन्हें बनाने में वह मदद कर रही है। यह एक भारतीय स्त्री के सुहाग का प्रतीक है, जिसका अर्थ है, वैवाहिक जीवन में शुभत्व। एक दिन अचानक उसे मालूम होगा, जब उसका सिर लाल रंग के चूँघट से ढका होगा, उसके हाथ मेहंदी से लाल रंगे होंगे और लाल रंग की चूड़ियाँ उसकी कलाइयों पर सरका दी जायेंगी। तब वह एक दुल्हन बन जायेगी।
उस वृद्ध औरत के समान जो उसके पास बैठी है, जो कई वर्षों पूर्व ऐसी ही दुल्हन बनी थी। उसकी कलाई पर अभी भी चूड़ियाँ हैं, लेकिन उसकी आँखों में रोशनी नहीं है। “एक बार भी सेर भर (पेट भर) खाना नहीं खाया”, वह आनन्दरहित स्वर में कहती है। उसने पूरे जीवन-काल में एक बार भी, भरपेट भोजन का आनन्द नहीं उठाया है। यही फसल उसने काटी है। उसका पति, एक वृद्ध व्यक्ति जिसकी लहराती हुई दाढ़ी है, कहता है, “मैं चूड़ियों के अलावा और कुछ भी नहीं जानता। मैं इतना ही कर पाया हूँ कि, मैंने परिवार के रहने हेतु घर बना लिया है।”
Hearing him, one wonders if he has achieved, what many have failed in their lifetime. He has a roof over his head!
The cry of not having money to do anything, except carry on the business of making bangles, not even enough to eat, rings in every home. The young men echo the lament of their elders. Little has moved with time, it seems, in Firozabad. Years of mind-numbing toil have killed, all initiative and the ability to dream.
“Why not organise yourselves into a cooperative?” I ask a group of young men, who have fallen into the vicious circle of middlemen, who trapped their fathers and forefathers. “Even if we get organised, we are the ones who will be hauled up by the police, beaten and dragged to jail for doing something illegal,” they say.
There is no leader among them, no one who could help them see things differently. Their fathers are as tired as they are. They talk endlessly in a spiral, that moves from poverty to apathy to greed and to injustice.
Listening to them, I see two distinct worlds— one of the family, caught in a web of poverty, burdened by the stigma of caste, in which they are born; the other a vicious circle of the sahukars, the middlemen, the policemen, the keepers of law, the bureaucrats and the politicians.
Together they have imposed the baggage on the child, that he cannot put down. Before he is aware, he accepts it as naturally as his father. To do anything else, would mean to dare. And daring is not part of his growing up.
When I sense a flash of it in Mukesh I am cheered. “I want to be a motor mechanic,’ he repeats. He will go to a garage and learn. But the garage is a long way from his home. “I will walk,” he insists. “Do you also dream of flying a plane?”
He is suddenly silent. “No,” he says, staring at the ground. In his small murmur, there is an embarrassment, that has not yet turned into regret. He is content to dream of cars, that he sees hurtling down the streets of his town. Few airplanes fly over Firozabad.
कठिन शब्दार्थ : Rings सुनाई देता है। echo दोहराते हैं। lament विलाप। mind-numbing चेतनाशून्य करने वाला। toil मेहनत। initiative पहल करने की क्षमता। cooperative सहकारिता। vicious circle कुचक्र । middlemen बिचौलिए। trapped फँसा लिया। hauled up घसीट ले जाये जायेंगे। apathy उदासीनता। web जाल। stigma कलंक। baggage बोझ। dare चुनौती देना। embarrassment शर्मिंदगी। content सन्तुष्ट । hurtling down तेजी से दौड़ती हुई।
हिन्दी अनुवाद- उसकी बात सुनकर, किसी व्यक्ति को आश्चर्य हो जाता है कि, क्या उसने वो पा लिया है. जो अन्य कई लोग, अपने जीवन काल में प्राप्त करने में असफल रहे हैं। उसके सिर पर एक छत जो है!
चूड़ियाँ बनाने के काम को करते रहने के अलावा कुछ भी अन्य कार्य करने हेतु धन का अभाव होने, खाने को भी पर्याप्त पैसा न होने, के दु:ख की कराहट हर घर में गूंजती है। युवा लोग अपने से बड़ों के विलाप को दोहराते हैं। ऐसा लगता है कि, फिरोजाबाद में समय के साथ कुछ नहीं बदला है। वर्षों की चेतना शून्य कर देने वाली मेहनत ने, पहल करने की सारी क्षमता तथा, स्वप्न देखने की सामर्थ्य को मार दिया है।
“आप लोग सहकारिता में संगठित क्यों नहीं हो जाते हैं?” मैं युवकों के एक समूह से पूछती हूँ, जो उन बिचौलियों के कुचक्र में फँस गये हैं, जिन्होंने उनके पिताओं तथा पूर्वजों को फाँस लिया था। “अगर हम संगठित हो भी जाते हैं, तो हमें ही पुलिस के द्वारा घसीट लिया जायेगा, पीटा जायेगा तथा जेल में डाल दिया जायेगा, किसी गैर-कानूनी कार्य को करने के अपराध में”, वे कहते हैं।
उन लोगों के बीच कोई मार्गदर्शक नहीं है, कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो उन्हें भिन्न प्रकार से देखने में मदद कर सके। उनके पिता उतने थके हुए हैं, जितने वे स्वयं । वे अन्तहीनता के साथ उत्तरोत्तर बोलते चले जाते हैं, गरीबी से उदासीनता, उदासीनता से लालच तथा अन्याय के बारे में।
उनकी बातें सुनते हुए मुझे दो दुनिया स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं-,एक परिवार की दुनिया जो गरीबी के जाल में फँसी है, तथा जन्म की जाति के कलंक से दबी है.दूसरी दुनिया है साहूकारों, बिचौलियों, पुलिसवालों, कानून को लागू करने वालों, नौकरशाहों तथा राजनेताओं के कुचक्र की दुनिया। दोनों ने मिलकर बच्चे पर ऐसा बोझ लाद दिया है. जिसे वह उतार नहीं सकता। एहसास होने से पूर्व ही वह, इसे उतने ही स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लेता है. जितने स्वाभाविक रूप से उसके पिता ने स्वीकार किया था। इसके अलावा कुछ और करना, चुनौती देना हो जायेगा। और चुनौती देना उसके बड़े होने का हिस्सा नहीं है।
जब मैं मुकेश में इस बात की क्षणिक चमक देखती हूँ, तो मैं प्रसन्न हो उठती हूँ। “मैं एक मोटर सुधारने वाला मिस्त्री बनना चाहता हूँ”, वह दोहराता है। वह किसी गैराज में जायेगा, और काम सीख लेगा। लेकिन गैराज उसके घर से दूर है। “मैं पैदल चल लँगा”. वह जोर देकर कहता है। “क्या तुम हवाई जहाज उडाने का स्वप्न भी देखते हो?” वह अचानक चुप हो जाता है।
“नहीं”, वह कहता है, जमीन की ओर घूरते हुए। उसकी छोटी सी गुनगुनाहट में एक लज्जा का भाव है, जो अभी पश्चात्ताप में परिवर्तित नहीं हुआ है। वह कारों का स्वप्न देख कर ही सन्तुष्ट है, जिन्हें वह अपने शहर की गलियों में, तेज गति से दौड़ती हुई देखता है। मुश्किल से ही कोई वायुयान, फिरोजाबाद के ऊपर से उड़ते हैं।