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Chapter 5 Rights (अधिकार)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अधिकार क्या हैं और वे महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार क्या हो सकते हैं?
उत्तर-
‘अधिकार’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के दो शब्दों ‘अधि’ और ‘कार’ से मिलकर हुई है। जिनका क्रमशः अर्थ है ‘प्रभुत्व’ और ‘कार्य’। इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में अधिकार का अभिप्राय उस कार्य से है, जिस पर व्यक्ति का प्रभुत्व है। मानव एक सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज के अन्तर्गत ही व्यक्तित्व के विकास के लिए उपलब्ध सुविधाओं का उपभोग करता है। इन सुविधाओं अथवा अधिकारों के उपयोग से ही व्यक्ति, अपने शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक विकास का अवसर प्राप्त करता है। संक्षेप में, अधिकार मनुष्य के जीवन की यह अनिवार्य परिस्थिति है, जो विकास के लिए आवश्यक है तथा जिसे राज्य और समाज द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है।
अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार निम्नलिखित हो सकते हैं-

  1. सम्मान और गरिमापूर्ण जीवन बसर करने के लिए अधिकारों का दावा किया जा सकता है।
  2. अधिकारों की दावेदारी का दूसरा आधार यह है कि वे हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं।

प्रश्न 2.
किन आधारों पर यह अधिकार अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक माने जाते हैं?
उत्तर-
17 वीं और 18वीं सदी में राजनीतिक सिद्धान्तकार तर्क प्रस्तुत करते थे कि हमारे लिए अधिकार प्रकृति या ईश्वर प्रदत्त हैं। हमें जन्म से वे अधिकार प्राप्त हैं। परिणामस्वरूप कोई व्यक्ति या शासक उन्हें हमसे छीन नहीं सकता। उन्होंने मनुष्य के तीन प्राकृतिक अधिकार चिह्नित किए। थे-जीवन को अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार और सम्पत्ति का अधिकार। अन्य विभिन्न अधिकार इन बुनियादी अधिकारों से ही निकले हैं। हम इन अधिकारों का दावा करें या न करें, व्यक्ति होने के कारण हमें यह प्राप्त हैं। यह विचार कि हमें जन्म से ही कुछ विशिष्ट अधिकार प्राप्त हैं, बहुत शक्तिशाली अवधारणा है, क्योंकि इसका अर्थ है जो ईश्वर प्रदत्त है और उन्हें कोई मानव शासक या राज्य हमसे छीन नहीं सकता।

प्रश्न 3.
संक्षेप में उन नए अधिकारों की चर्चा कीजिए, जो हमारे देश में सामने रखे जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, आदिवासियों के अपने रहवास और जीन के तरीके को संरक्षित रखने तथा बच्चों के बँधुआ मजदूरी के खिलाफ अधिकार जैसे नए अधिकारों को लिया जा सकता है।
उत्तर-
वर्तमान में कुछ नए अधिकारों की चर्चा होने लगी है। उनमें प्रमुख हैं-
1. अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार – यह अधिकार सांस्कृतिक अधिकारों के अन्तर्गत रखा जा सकता है। अब विभिन्न भाषा-भाषी राज्यों में यह माँग उठने लगी है कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जाए, क्योंकि मातृभाषा को सीखने और उसके माध्यम से शिक्षा पाने का उन्हें पूर्ण अधिकार है।
2. अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाएँ खोलने का अधिकार – अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा और उसके विकास के लिए कुछ अल्पसंख्यक इस प्रकार की शिक्षण संस्थाओं को प्रारम्भ करने के लिए इसे अधिकार के रूप में मानने लगे हैं। भारत में यह सुविधा प्रदान की गई है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों में अन्तर बताइए। हर प्रकार के अधिकार के उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर-
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों में अन्तर
UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 5 Rights 4

प्रश्न 5.
अधिकार राज्य की सत्ता पर, कुछ सीमाएँ लगाते हैं। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
अधिकार राज्य को कुछ विशिष्ट तरीकों से कार्य करने के लिए वैधानिक दायित्व सौंपते हैं। प्रत्येक अधिकार निर्देशित करता है कि राज्य के लिए क्या करने योग्य है और क्या नहीं। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति के जीवन जीने का अधिकार राज्य को ऐसे कानून बनाने के लिए बाध्य करता है। जो दूसरों के द्वारा क्षति पहुँचाने से उसे बचा सके। यह अधिकार राज्य से माँग करता है कि वह व्यक्ति को चोट या नुकसान पहुँचाने वालों को दण्डित करे। यदि कोई समाज अनुभव करता है कि जीने के अधिकार को आशय अच्छे स्तर के जीवन का अधिकार है, तो वह राज्य से ऐसी नीतियों के अनुपालन की अपेक्षा करता है, जो स्वस्थ जीवन के लिए स्वच्छ पर्यावरण और अन्य आवश्यक निर्धारकों का प्रावधान करे।

अधिकार केवल यह ही नहीं बताते कि राज्य को क्या करना है, वे यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार कहता है कि राज्य केवल । अपनी मर्जी से उसे गिरफ्तार नहीं कर सकता। अगर वह गिरफ्तार करना चाहता है तो उसे इस । कार्यवाही को उचित ठहराना पड़ेगा, उसे किसी न्यायालय के समक्ष इस व्यक्ति की स्वतन्त्रता में कटौती करने का कारण स्पष्ट करना होगा। इसलिए किसी व्यक्ति को पकड़ने के लिए पहले गिरफ्तारी का वारण्ट दिखाना पुलिस के लिए आवश्यक होता है, इस प्रकार अधिकार राज्य की सत्ता पर कुछ सीमाएँ लगाते हैं।

दूसरों शब्दों में, कहा जाए तो हमारे अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतन्त्रता की मर्यादा का उल्लंघन किए बिना काम करे। राज्य सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न सत्ता हो सकता है, उसके द्वारा निर्मित कानून बलपूर्वक लागू किए जा सकते हैं, लेकिन सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य का अस्तित्व अपने लिए नहीं बल्कि व्यक्ति के हित के लिए होता है। इसमें जनता का ही अधिक महत्त्व है औ सत्तात्मक सरकार को उसके ही कल्याण के लिए काम करना होता है। शासक अपनी कार्यवाहियों के लिए जबावदेह है और उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि कानून लोगों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए ही होते हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
“अधिकार वह माँग है, जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है। यह कथन किसका है?
(क) हॉलैण्ड
(ख) बोसांके
(ग) वाइल्ड
(घ) ऑस्टिन
उत्तर-
(ख) बोसांके।

प्रश्न 2.
“अधिकार कुछ विशेष कार्यों को करने की स्वतन्त्रता की उचित माँग है।” यह कथन किसका है?
(क) वाइल्ड
(ख) बेनीप्रसाद
(ग) श्रीनिवास शास्त्री
(घ) ग्रीन
उत्तर-
(क) वाइल्ड।

प्रश्न 3.
अधिकारों की उत्पत्ति के प्राकृतिक सिद्धान्त के समर्थकों में कौन नहीं है?
(क) हॉब्स
(ख) बर्क
(ग) रूसो
(घ) लॉक
उत्तर-
(ख) बर्क।

प्रश्न 4.
अधिकारों के सामाजिक कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्त के समर्थक कौन हैं?
(क) बेन्थम
(ख) रूसो
(ग) रिची
(घ) लॉस्की
उत्तर-
(क) बेन्थम।

प्रश्न 5.
अधिकारों के वैधानिक सिद्धान्त के समर्थक हैं
(क) गिलक्राइस्ट
(ख) अरस्तू
(ग) हॉलैण्ड
(घ) जैफरसन
उत्तर-
(ग) हॉलैण्ड। .

प्रश्न 6.
“अपने कर्तव्य का पालन करो, अधिकार स्वतः तुम्हें प्राप्त हो जाएँगे।” यह किसका कथन |
(क) महात्मा गांधी
(ख) बेनीप्रसाद
(ग) श्रीनिवास शास्त्री
(घ) ग्रीन
उत्तर-
(क) महात्मा गांधी।

प्रश्न 7.
लॉस्की के अधिकार सम्बन्धी विचार उनकी किस कृति में मिलते हैं?
(क) दि ग्रामर ऑफ दि पॉलिटिक्स
(ख) पॉलिटिक्स
(ग) रिपब्लिक
(घ) लॉज
उत्तर-
(क) दि ग्रामर ऑफ दि पॉलिटिक्स। |

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार किसे कहते हैं?
उत्तर–
अधिकार वह माँग है, जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य क्रियान्वित करता है।

प्रश्न 2.
अधिकारों की एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर-
डॉ० बेनीप्रसाद के अनुसार, “अधिकार वे सामाजिक दशाएँ हैं, जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं।”

प्रश्न 3.
अधिकारों के दो भेद बताइए।
उत्तर-
(i)सामाजिक अधिकार,
(ii) राजनीतिक अधिकार।

प्रश्न 4.
दो मूल अधिकारों के नाम लिखिए।
उत्तर-
(i) समानता का अधिकार,
(ii) स्वतन्त्रता का अधिकार।

प्रश्न 5.
अधिकार के किन्हीं दो तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर–
अधिकार के दो तत्त्व निम्नवत् है।
(i) सार्वभौमिकता और
(ii) राज्य का सरंक्षण।

प्रश्न 6.
अधिकारों का कौन-सा सिद्धान्त सर्वाधिक सन्तोषप्रद है?
उत्तर-
अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त सर्वाधिक सन्तोषप्रद है।

प्रश्न 7.
दो मानवाधिकारों को लिखिए।
उत्तर-
(i) स्वतन्त्रता का अधिकार
(ii) समानता का अधिकार।

प्रश्न 8.
नागरिक का एक राजनीतिक अधिकार बताइए।
उत्तर–
नागरिक का एक राजनीतिक अधिकार है-मतदान का अधिकार।

प्रश्न 9.
कानूनी अधिकार कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-
कानूनी अधिकार दो प्रकार के होते है।
(i) सामाजिक अधिकार तथा
(ii) राजनीतिक अधिकार।

प्रश्न 10.
कानूनी अधिकार के सिद्धान्त के दो समर्थकों के नाम लिखिए।
उत्तर-
(i) बेन्थम,
(ii) ऑस्टिन।

प्रश्न 11.
लॉक द्वारा बताए गए किन्हीं दो प्राकृतिक अधिकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
(i) स्वतन्त्रता का अधिकार,
(ii) सम्पत्ति का अधिकार।

प्रश्न 12.
विदेशियों को राज्य में प्राप्त होने वाले कोई दो अधिकार लिखिए।
उत्तर-
(i) जीवन रक्षा का अधिकार,
(ii) पारिवारिक जीवन व्यतीत करने का अधिकार।

प्रश्न 13.
नागरिक के दो प्राकृतिक अधिकार बताइए।
उत्तर-
(i) जीवन का अधिकार,
(ii) सम्पत्ति का अधिकार।

प्रश्न 14.
अधिकारों के समाज कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्तों का समर्थन किस विचारक ने किया है?
उत्तर–
अधिकारों के समाज कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्तों का समर्थन लॉस्की ने किया है।

प्रश्न 15.
अधिकारों के आदर्शवादी सिद्धान्त के समर्थक किन्हीं दो विचारकों के नाम बताइए।
उत्तर-
थॉमस हिल ग्रीन एवं बोसांके।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किन्हीं चार महत्त्वपूर्ण सामाजिक अधिकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर–
व्यक्ति के चार महत्त्वपूर्ण सामाजिक अधिकार निम्नलिखित हैं

  1.  जीवन-सुरक्षा का अधिकार- प्रत्येक मनुष्य को जीवन का अधिकार है। यह अधिकार | मौलिक तथा आधारभूत है, क्योंकि इसके अभाव में अन्य अधिकारों का अस्तित्व महत्त्वहीन है।
  2.  समानता का अधिकार- समानता का तात्पर्य है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति के रूप में व्यक्ति का समान रूप से सम्मान किया जाए तथा उसे उन्नति के समान अवसर प्रदान किए जाएँ।
  3.  स्वतन्त्रता का अधिकार- स्वतन्त्रता का अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में अपरिहार्य है। स्वतन्त्रता के अधिकार के आधार पर व्यक्ति अपनी इच्छा से बिना किसी बाह्य बन्धन के अपने जीवन के विकास का ढंग निर्धारित कर सकता है।
  4.  सम्पत्ति का अधिकार- समाज में व्यक्ति वैध तरीकों से सम्पत्ति का अर्जन करता है। अत: उसे यह अधिकार होना चाहिए कि वह स्वतन्त्र रूप से अर्जित किए हुए धने का उपयोग स्वेच्छा से अपने व्यक्तित्व विकास के लिए कर सके।

प्रश्न 2.
अधिकारों के महत्त्व की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर–
अधिकारों का महत्त्व निम्नलिखित दृष्टियों से है

  1.  व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकार बहुत ही आवश्यक हैं।
  2.  अधिकार समाज और राष्ट्र की उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  3.  अधिकार प्रजातन्त्र का आधार हैं। प्रो० बार्कर के अनुसार, “व्यक्ति के अधिकारों के स्पष्ट दर्शन से ही स्वतन्त्रता का विचार एक वास्तविक अर्थ प्राप्त करता है। उसके अभाव में स्वतन्त्रता एक खोखली या निरर्थक एवं व्यक्तिवाद एक काल्पनिक वस्तु रह जाता है।”
  4.  अधिकार सुदृढ़ एवं कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक हैं।
  5.  सच्चे अर्थों में किसी नागरिक से अधिकारों के अभाव में आदर्शवादिता की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

प्रश्न 3.
अधिकारों के अस्तित्व के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर-
यह बात सर्वमान्य है कि व्यक्ति अपने अधिकारों का प्रयोग सामाजिक पृष्ठभूमि में करता है। अधिकारों की अवधारणा के मूल में यह बात स्पष्टयता परिलक्षित होती है कि व्यक्ति अधिकारों का प्रयोग अपने हित में करने के साथ-साथ सामाजिक हितों में भी करे। जब तक कोई अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत नहीं है, तब तक वह अस्तित्वहीन ही रहता है; उदाहरणार्थ-नागरिक को अपनी इच्छानुसार जीवन-यापन करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन साथ-ही-साथ उसका यह कर्तव्य भी बन जाता है कि उसकी यह स्वेच्छा सामाजिक एवं नैतिक मानदण्डों को पूरा करती है कि नहीं। यदि आपके अधिकार सामाजिक व नैतिक मर्यादा का उल्लंघन करते हैं, तो इन्हें सामाजिक स्वीकृति नहीं दी जा सकती। इस पर अधिकारों के अस्तित्व के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक है। समाज कभी भी व्यक्ति के जुआ खेलने, मद्यपान करने, वेश्यावृत्ति करने तथा दूसरे का अहित करने के अधिकार को मान्यता प्रदान नहीं करता है। समाज केवल उन्हीं अधिकारों को स्वीकृति प्रदान करता है जो समाज में सहयोग, भाई-चारे तथा सामंजस्य की भावना को सुदृढ़ करते हैं।

प्रश्न 4.
मानव गरिमा पर काण्ट के क्या विचार थे?
उत्तर–
अन्य प्राणियों से अलग मनुष्य की एक गरिमा होती है। इस कारण वे अपने आप में बहुमूल्य हैं। 18वीं सदी के जर्मन दार्शनिक इमैनुएल काण्ट के लिए इस साधारण विचार का गहन अर्थ था। • उनके लिए इसका आशये था कि प्रत्येक मनुष्य की गरिमा है और मनुष्य होने के नाते उसके साथ इसी के अनुकूल व्यवहार किया जाना चाहिए। मनुष्य अशिक्षित हो सकता है, गरीब या शक्तिहीन हो सकता है। वह बेईमान अथवा अनैतिक भी हो सकता है फिर भी वह एक मनुष्य है और न्यूनतम ही सही, प्रतिष्ठा पाने का अधिकारी है। काण्ट के लिए लोगों के साथ गरिमामय बरताव करने का अर्थ था उनके साथ नैतिकता से पेश आना। यह विचार उन लोगों के लिए एक सम्बल था जो लोग सामाजिक ऊँच-नीच के विरुद्ध मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किन्हीं चार राजनीतिक अधिकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
नागरिकों के चार प्रमुख राजनीतिक अधिकार निम्नलिखित हैं

  1.  मतदान का अधिकार- लोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था में नागरिकों को प्रदत्त मतदान का अधिकार अन्य अधिकारों में सबसे महत्त्वपूर्ण है। इस अधिकार द्वारा नागरिक अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करके विधायिकाओं में भेजते हैं।
  2.  निर्वाचित होने का अधिकार– प्रत्येक नागरिक को निर्वाचित होने का अधिकार प्राप्त होता है। जब तक नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता है तब तक वे शासन-संचालन में भाग नहीं ले सकते हैं। इस अधिकार की प्राप्ति की लिंग, जाति, सम्प्रदाय, धर्म आदि का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  3.  सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार-  प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता, क्षमता तथा अनुभव के आधार पर सरकारी पद प्राप्त करने का समान अवसर एवं अधिकार होना चाहिए। इसमें किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए।
  4.  प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार- इस अधिकार के आधार पर नागरिक असुविधा, कष्ट अथवा असामान्य परिस्थितियों में प्रार्थना-पत्र द्वारा राज्य का ध्यान अपनी समस्याओं की ओर आकृष्ट कर सकते हैं।

प्रश्न 2.
मौलिक अधिकार क्या हैं? मौलिक अधिकारों का महत्त्व लिखिए।
उत्तर–
वे अधिकार, जो मानव-जीवन के लिए मौलिक तथा आवश्यक हैं तथा जिन्हें संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किया जाता हैं तथा संविधान में प्रदत्त प्रावधानों के अन्तर्गत इनकी सुरक्षा की भी व्यवस्था होती है, ‘मौलिक अधिकार’ कहलाते हैं।

मौलिक अधिकारों का महत्त्व

  1.  मौलिक अधिकार प्रजातन्त्र के आधार स्तम्भ हैं। ये व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक तथा नागरिक जीवन के प्रभावात्मक उपयोग के एकमात्र साधन हैं। मौलिक अधिकारों द्वारा उन आधारभूत स्वतन्त्रताओं तथा स्थितियों की व्यवस्था की जाती है जिसके अभाव में व्यक्ति उचित रूप से अपना जीवनयापन नहीं कर सकता है।
  2.  मौलिक अधिकार किसी व्यक्ति विशेष, वर्ग अथवा दल की तानाशाही को रोकने का प्रमुख साधन हैं। मौलिक अधिकार सरकार एवं बहुमत के अत्याचारों से व्यक्ति की, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों की रक्षा करते हैं।
  3.  मौलिक अधिकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा सामाजिक नियन्त्रण के मध्य उचित सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
  4.  मौलिक अधिकार नागरिकों को न्याय तथा उचित व्यवहार की सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये राज्य के बढ़ते हुए हस्तक्षेप तथा व्यक्ति की स्वतन्त्रता के मध्य उचित सन्तुलन स्थापित करते हैं।

प्रश्न 3.
राजनीतिक अधिकारों से क्या तात्पर्य है? प्रमुख राजनीतिक अधिकार कौन-से हैं?
उत्तर-
राजनीतिक अधिकार
डॉ० बेनीप्रसाद के अनुसार, “राजनीतिक अधिकारों का तात्पर्य उन व्यवस्थाओं से है, जिनमें नागरिकों को शासन कार्य में भाग लेने का अवसर प्राप्त होता है अथवा नागरिक शासन प्रबन्ध को प्रभावित कर सकते हैं।” राजनीतिक अधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित अधिकारों की गणना की जा सकती है|

  1.  मत देने का अधिकार- अपने प्रतिनिधियों के निर्वाचन के अधिकार को ही मताधिकार कहते हैं। यह अधिकार लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली के अन्तर्गत प्राप्त होने वाला महत्त्वपूर्ण अधिकार है। और इस अधिकार का प्रयोग करके नागरिक अप्रत्यक्ष रूप से शासन प्रबन्ध में भाग लेते हैं। आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में विक्षिप्त, दिवालिये और अपराधियों को छोड़कर अन्य वयस्क नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त है। सामान्यतया 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके भारतीय नागरिकों को मताधिकार प्राप्त है।
  2.  निर्वाचित होने का अधिकार- मताधिकार की पूर्णता के लिए प्रत्येक नागरिक को निर्वाचित होने का अधिकार भी प्राप्त होता है। निर्धारित अर्हताओं को पूरा करने पर कोई भी नागरिक किसी भी राजनीतिक संस्था के निर्वाचित होने के लिए चुनाव लड़ सकता है।
  3.  सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार- व्यक्ति का तीसरा राजनीतिक अधिकार सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार है। राज्य की ओर से नागरिकों को योग्यतानुसार उच्च सरकारी पद प्राप्त करने की सुविधा होनी चाहिए। इस अधिकार के अन्तर्गत किसी भी नागरिक को धर्म, वर्ण तथा जाति के आधार पर सरकारी पदों से वंचित नहीं किया जाएगा। डॉ० बेनीप्रसाद के अनुसार, “इस अधिकार का यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को सरकारी पद प्राप्त हो। जाएगा, वरन् इसका यह अर्थ है कि उन सभी व्यक्तियों को सरकारी पद की प्राप्ति होगी, जो उस पद को पाने की योग्यता रखते हैं।”
  4.  आवेदन-पत्र देने का अधिकार- प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार भी प्राप्त होना चाहिए कि | वह आवेदन-पत्र देकर सरकार का ध्यान अपनी समस्याओं की ओर आकर्षित कर सके।
  5.  विदेशों में सुरक्षा का अधिकार- राज्य को चाहिए कि वह अपने उन नागरिकों, जो विदेशों में जाते हैं, की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करे।

प्रश्न 4.
अधिकारों के तत्त्व अथवा लक्षणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
अधिकार के तत्त्व अथवा लक्षण
अधिकार के अनिवार्य तत्त्वों, लक्षणों अथवा विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित हैं

  1.  अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं- अधिकार के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक है। जब किसी माँग को समाज स्वीकार कर लेता है, तब वह अधिकार बन जाती है। प्रो० आशीर्वादी लाल के अनुसार, “प्रत्येक अधिकार के लिए समाज की स्वीकृति अनिवार्य होती है। ऐसी स्वीकृति के अभाव में अधिकार केवल कोरे दावे रह जाते हैं।”
  2.  सार्वभौमिक– अधिकार सार्वभौमिक होते हैं अर्थात् अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्रदान किए जाते हैं। अधिकारों की सार्वभौमिकता ही कर्तव्यों को जन्म देती है।
  3.  राज्य का संरक्षण- अधिकारों को राज्य का संरक्षण मिलना भी अनिवार्य है। राज्य के संरक्षण में ही व्यक्ति अपने अधिकारों का समुचित उपभोग कर सकता है। बार्कर के शब्दों में, “मानव चेतना स्वतन्त्रता चाहती है, स्वतन्त्रता में अधिकार निहित हैं तथा अधिकार राज्य की माँग करते हैं।”
  4.  अधिकारों में सामाजिक हित की भावना निहित होती है— अधिकारों में व्यक्तिगत स्वार्थ के साथ-साथ सार्वजनिक हित की भावना भी विद्यमान होती है।
  5.  कल्याणकारी स्वरूप- अधिकारों का सम्बन्ध मुख्यतः व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से होता है। इस कारण अधिकार के रूप में केवल वे ही स्वतन्त्रताएँ और सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक होती हैं। इस प्रकार अधिकारों का स्वरूप कल्याणकारी होता है।
  6. समाज की स्वीकृति- अधिकार उन कार्यों की स्वतन्त्रता का बोध कराता है जो व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए उपयोगी होते हैं। समाज की स्वीकृति का यह अभिप्राय है कि व्यक्ति अपने अधिकारों का प्रयोग समाज के अहित में नहीं कर सकता।

प्रश्न 5.
राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के अधिकार को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार
राज्य के प्रति निष्ठा एवं भक्ति रखना और राज्य की आज्ञाओं का पालन करना व्यक्ति का कानूनी दायित्व होता है। अतः व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का कानूनी अधिकार तो प्राप्त हो ही नहीं सकता, परन्तु व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार अवश्य प्राप्त होता है। शासन के अस्तित्व का उद्देश्य सामान्य जनता का हित सम्पादित करना होता है। जब शासन जनता के हित में कार्य न करे, तब व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का केवल नैतिक अधिकार ही प्राप्त नहीं है, वरन् । यह उसका नैतिक कर्त्तव्य भी है। इस सम्बन्ध में सुकरात का मत था कि यदि व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है तो राज्य द्वारा प्रदान किए गए दण्ड को भी स्वीकार करना उसका कर्तव्य है। व्यक्तिवादी तथा अराजकतावादी विचारकों ने व्यक्ति द्वारा राज्य का विरोध करने के अधिकार का समर्थन किया है। गांधी जी के अनुसार, “व्यक्ति का सर्वोच्च कर्तव्य अपनी अन्तरात्मा के प्रति होता है।” अत: अन्तरात्मा की आवाज पर राज्य का विरोध भी किया जा सकता है। राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इस अधिकार का प्रयोग राज्य एवं समाज के हित से सम्बन्धित सभी बातों पर विचार करके तथा विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को शासन की आलोचना करने एवं अपना दल बनाने का भी अधिकार होता है। लोकतान्त्रिक देशों में राज्य के प्रति विरोध का अधिकार जनता की इस भावना से परिलक्षित होता है कि वह राज्य के प्रति अपना दायित्व निष्ठापूर्वक न निभा रहे प्रतिनिधियों को आगे सत्ती का अवसर प्रदान नहीं करती।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार की परिभाषा देते हुए उसका वर्गीकरण कीजिए।
या
अधिकार से क्या तात्पर्य है? अधिकार के प्रकार लिखिए।
उत्तर-
अधिकार मुख्यतया हकदारी अथवा ऐसा दावा है जिसका औचित्य सिद्ध हो। अधिकार की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
ऑस्टिन के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति की वह क्षमता है, जिसके द्वारा वह अन्य व्यक्ति अथवा व्यक्तियों से कुछ विशेष प्रकार के कार्य करा लेता है।”
ग्रीन के अनुसार, “अधिकार मानव-जीवन की वे शक्तियाँ हैं, जो नैतिक प्राणी होने के नाते व्यक्ति को अपना कार्य पूरा करने के लिए आवश्यक हैं।”
बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह माँग है, जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य क्रियान्वित करता है।”
हॉलैण्ड के अनुसार, “अधिकार किसी व्यक्ति की वह क्षमता है, जिससे वह अपने बल पर नहीं, अपितु समाज के बल से दूसरों के कार्यों को प्रभावित कर सकता है।”
प्रो० लॉस्की के अनुसार, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं, जिनके अभाव में सामान्यतः कोई व्यक्ति अपने उच्चतम स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता।”
गार्नर के अनुसार, “नैतिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के व्यवसाय की पूर्ति के लिए आवश्यक शक्तियों को अधिकार कहा जाता है।”
श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, “अधिकार समुदाय के कानून द्वारा स्वीकृत वह व्यवस्था, नियम या रीति है, जो नागरिक के सर्वोच्च नैतिक कल्याण में सहायक हो।”
डॉ० बेनीप्रसाद के अनुसार, “अधिकार वे सामाजिक दशाएँ हैं, जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि-

  1.  अधिकार सामाजिक दशाएँ हैं।
  2.  अधिकार व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक तत्त्व हैं।
  3.  अधिकारों द्वारा ही व्यक्तिगत और सामाजिक प्रगति सम्भव है।
  4.  अधिकारों को समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है।

अधिकारों का वर्गीकरण (रूप अथवा प्रकार)

साधारण रूप से अधिकारों को निम्नलिखित रूपों अथवा प्रकारों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है

  1.  प्राकृतिक अधिकार- प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं, जो प्राकृतिक अवस्था में मनुष्यों को प्राप्त थे। परन्तु ग्रीन ने प्राकृतिक अधिकारों को आदर्श अधिकारों के रूप में माना है। उसके | अनुसार, ये वे अधिकार हैं, जो व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक हैं और जिनकी प्राप्ति समाज में ही सम्भव है।
  2.  नैतिक अधिकार- ये वे अधिकार हैं, जिनका सम्बन्ध मानव के नैतिक आचरण से होता है। इनका स्वरूप अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्य-पालन में अधिक निहित होता है।
  3.  कानूनी अधिकार- कानूनी अधिकार वे हैं, जिनकी व्यवस्था राज्य द्वारा की जाती है और जिनका उल्लंघन कानून द्वारा दण्डनीय होता है। लीकॉक के अनुसार, “कानूनी अधिकार के विशेषाधिकार हैं, जो एक नागरिक को अन्य नागरिकों के विरुद्ध प्राप्त होते हैं तथा जो राज्य की सर्वोच्च शक्ति द्वारा प्रदान किए जाते हैं और (उसी के द्वारा) रक्षित होते हैं।”

कानूनी अधिकार दो प्रकार के लेते हैं
(i) सामाजिक या नागरिक अधिकार (social or Civil Rights) तथा
(ii) राजनीतिक अधिकार (Political Rights)।

प्रश्न 2.
सामाजिक या नागरिक अधिकारों को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-
सामाजिक या नागरिक अधिकार
सामाजिक या नागरिक अधिकार राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होते हैं। मुख्य सामाजिक अधिकार निम्नलिखित हैं

  1.  जीवन-रक्षा का अधिकार- प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन की सुरक्षा चाहता है। यदि व्यक्ति को जीने का अधिकार प्राप्त न हो या उसके जीवन की सुरक्षा न हो, तो उस दशा में उसका सामाजिक जीवन कष्टदायी हो जाएगा। वह प्रत्येक क्षण अपने जीवन की सुरक्षा के लिए चिन्तित रहेगा और समाज के किसी भी कार्य में अपना योगदान नहीं कर सकेगा। भारत के परिप्रेक्ष्य में इस अधिकार को मौलिक अधिकारों (अनु० 21) के अन्तर्गत विशेष महत्त्व की स्थिति प्रदान की गई है।
  2.  सम्पत्ति का अधिकार- सम्पत्ति व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति का एक प्रमुख साधन है, . | इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार उसका उपभोग करने का अधिकार प्राप्त होना। चाहिए। इस अधिकार के अन्तर्गत व्यक्ति को सम्पत्ति अर्जित करने, खरीदने, बेचने और उसका उपभोग करने का अधिकार है। यूनानी विचारक अरस्तू का मत था कि सम्पत्ति व्यक्ति के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितनी कि परिवार या कुटुम्ब की आवश्यकता। इसके विपरीत कुछ विद्वानों का मत है कि सम्पत्ति ही सब कष्टों की जननी है। उनके अनुसार सम्पत्ति पूँजीवादी व्यवस्था को जन्म देती है और समाज में वर्ग-संघर्ष उत्पन्न करती है। अत: समाज में सम्पत्ति का न्यायपूर्ण वितरण होना आवश्यक है। सम्भवतः इसी दृष्टिकोण को देखते हुए भारत के संविधान में सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की श्रेणी से पृथक् कर दिया गया है।
  3.  शिक्षा का अधिकार- शिक्षा मानवे व्यक्तित्व के विकास की आधारशिला है। समाज और राष्ट्र का विकास शिक्षित व्यक्तियों पर ही आधारित है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए।
  4.  धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार- मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति के लिए धर्म जीवन का एक अनिवार्य तत्त्व है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी धर्म का अनुयायी होता है। अतः राज्य को धर्मनिरपेक्ष रहकर प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान करना चाहिए। जैसा कि रूसो को कथन है, “जब तक उनके सिद्धान्त नागरिकता के कर्तव्यों के प्रतिकूल न हों, व्यक्ति को उन सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु होना चाहिए, जो दूसरों के प्रति सहिष्णु है।”
  5.  लेखन एवं विचाराभिव्यक्ति को अधिकार- राज्य को चाहिए कि वह प्रत्येक व्यक्ति को लेखन, भाषण और विचाराभिव्यक्ति का अधिकार प्रदान करे। इस अधिकार द्वारा व्यक्ति का मानसिक विकास सम्भव होता है, लेकिन मनुष्य को यह अधिकार कानून की सीमा के अन्तर्गत ही प्रदान किया जाना चाहिए।
  6.  सभा करने व संगठन बनाने का अधिकार- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह एकाकी जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है; अतः उसे सभा करने या समुदाय बनाने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। लेकिन इस अधिकार का उपभोग राज्य के कानूनों की सीमा के अन्तर्गत ही होना चाहिए।
  7.  आवागमन का अधिकार- इस अधिकार के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को राज्य की सीमा के अन्तर्गत स्वतन्त्रतापूर्वक ऐक स्थान से दूसरे स्थान को जाने की सुविधा प्राप्त होनी चाहिए। गिलक्राइस्ट के अनुसार, स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने के अधिकार के अभाव में जीवन का कोई भी अर्थ नहीं है।
  8.  पारिवारिक जीवन व्यतीत करने का अधिकार- परिवार सामाजिक जीवन की आधारशिला है; अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार पारिवारिक जीवन व्यतीत करने को अधिकार भी प्राप्त होना चाहिए। परन्तु इस अधिकार का यह अर्थ कदापि नहीं है। कि परिवार समाज की नैतिक सीमाओं का उल्लंघन करे और परिवार के सदस्यों को दुराचार की शिक्षा दे। ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति के पारिवारिक जीवन में भी राज्य द्वारा हस्तक्षेप किया जा सकता है।
  9.  मनोरंजन का अधिकार- प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक श्रम करने के उपरान्त मनोरंजन की आवश्यकता होती है। अत: व्यक्ति को अवकाश के समय मनोरंजन का अधिकार भी प्राप्त होना चाहिए।
  10.  सांस्कृतिक अधिकार- इस अधिकार के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपनी भाषा एवं साहित्य को अध्ययन व विकास कर सके। अल्पसंख्यकों के लिए यह अधिकार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
  11.  व्यवसाय की स्वतन्त्रता का अधिकार- व्यवसाय की स्वतन्त्रता का अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की स्वतन्त्रता हो कि वह अपनी इच्छा तथा योग्यतानुसार व्यवसाय का चयन कर सके।

प्रश्न 3.
अधिकारों से सम्बन्धित प्राकृतिक सिद्धान्त और वैधानिक सिद्धान्त के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर-
अधिकारों को प्राकृतिक सिद्धान्त
हॉब्स, लॉक तथा रूसो आदि विद्वानों ने अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का समर्थन किया है। यह सिद्धान्त अति प्राचीन है। इसके अनुसार अधिकार प्रकृति-प्रदत्त हैं और वे व्यक्ति को जन्म के साथ ही प्राप्त हो जाते हैं। व्यक्ति प्राकृतिक अधिकारों का प्रयोग राज्य के उदय के पूर्व से ही करता आ रहा है। राज्य इन अधिकारों को न तो छीन सकता है और न ही वह इनका जन्मदाता है। टॉमस पेन के अनुसार, “प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं, जो मनुष्य के अस्तित्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आवश्यक हैं।” इस दृष्टिकोण से अधिकार असीमित, निरपेक्ष तथा स्वयंसिद्ध हैं। राज्य इन अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
आलोचना- इस सिद्धान्त में कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-

  1.  यह सिद्धान्त अनैतिहासिक है, क्योंकि जिस प्राकृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत इन अधिकारों के प्राप्त होने का उल्लेख किया गया है, वह काल्पनिक है।
  2.  ग्रीन का मत है कि समाज से प्रथक् कोई भी अधिकार सम्भव नहीं है।
  3.  यह सिद्धान्त राज्य को कृत्रिम संस्था मानता है, जो अनुचित है।
  4.  प्राकृतिक अधिकारों में परस्पर विरोधाभास पाया जाता है।
  5.  यह सिद्धान्त कर्तव्यों के प्रति मौन है, जबकि कर्त्तव्य के अभाव में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं है।

अधिकारों का कानूनी या वैधानिक सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के प्रवर्तक बेन्थम, हॉलैण्ड ऑस्टिन आदि विचारक हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार राज्य की इच्छा का परिणाम है और राज्य ही अधिकारों का जन्मदाता है। यह सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त के विपरीत है। व्यक्ति राज्य के सरंक्षण में रहकर ही अधिकारों का प्रयोग कर सकता है। राज्य ही कानून द्वारा ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करता है, जहाँ कि व्यक्ति अपने अधिकारों का स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग कर सके। राज्य ही अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि अधिकारों का अस्तित्व केवल राज्य के अन्तर्गत ही सम्भव है।
आलोचना—इस सिद्धान्त में कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-

  1.  इस सिद्धान्त से राज्य की निरंकुशता का समर्थन होता है।
  2.  राज्य नैतिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
  3.  अधिकारों में स्थायित्व नहीं रहता है।

प्रश्न 4.
अधिकारों के ऐतिहासिक और समाज कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्तों को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-
अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों की उत्पत्ति प्राचीन रीति-रिवाजों के परिणामस्वरूप होती है। जिन रीति-रिवाजों को समाज स्वीकृति दे देता है, वे अधिकार का रूप धारण कर लेते हैं। इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार, अधिकार परम्परागत हैं तथा सतत् विकास के परिणाम हैं। इसके अतिरिक्त इनका आधार ऐतिहासिक है। इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में परम्परागत अधिकारों का बहुत अधिक महत्त्व रहा है।
आलोचना- इस सिद्धान्त के आलोचकों का मत है कि अधिकारों का आधार केवल रीति-रिवाज तथा परम्पराएँ नहीं हो सकतीं, क्योंकि कुछ परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज समाज के कल्याण में बाधक होते हैं। अत: इस दृष्टि से यह सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है।

अधिकारों का समाज-कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्त
जे०एस० मिल, जेरमी बेन्थम, पाउण्ड तथा लॉस्की आदि ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। इस सिद्धान्त का प्रमुख लक्ष्य उपयोगिता या समाज-कल्याण है। प्रो० लॉस्की के अनुसार, “अधिकारों का औचित्य उनकी उपयोगिता के आधार पर आँकना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार वे साधन हैं, जिनसे समाज का कल्याण होता है। लॉस्की का मत है, “लोक-कल्याण के विरुद्ध मेरे अधिकार नहीं हो सकते; क्योंकि ऐसा करना मुझे उस कल्याण के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है। जिसमें मेरा कल्याण घनिष्ठ तथा अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।”
इस सिद्धान्त की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं

  1.  अधिकार समाज की देन हैं, प्रकृति की नहीं।
  2.  अधिकारों का अस्तित्व समाज-कल्याण पर आधारित है।
  3.  व्यक्ति केवल उन्हीं अधिकारों का प्रयोग का सकता है, जो समाज के हित में हों।
  4.  कानून, रीति-रिवाज तथा अधिकार सभी का उद्देश्य समाज-कल्याण है।
    आलोचना- यह सिद्धान्त तर्कसंगत और उपयोगी तो है, किन्तु इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि यह सिद्धान्त समाज-कल्याण की ओट में राज्य को व्यक्तियों की स्वतन्त्रता का अपहरण करने का अवसर प्रदान करती है, लेकिन समीक्षात्मक दृष्टि से यह दोष महत्त्वहीन है।

प्रश्न 5.
अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त क्या है? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-
अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त
इसे सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार वे बाह्य साधन तथा दशाएँ हैं, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इस सिद्धान्त का समर्थन थॉमस हिल ग्रीन, बैडले, बोसांके आदि विचारक ने किया है।
इस सिद्धान्त की अग्रलिखित मान्यताएँ हैं

  1. अधिकार व्यक्ति की माँग है।
  2.  यह माँग समाज द्वारा स्वीकृत होती है।
  3.  अधिकारों का स्वरूप नैतिक होता है।
  4.  अधिकारों का उद्देश्य समाज का वास्तविक हित है।
  5.  अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक साधन हैं।

आलोचना- इस सिद्धान्त के कतिपय दोष निम्नलिखित हैं

  1.  यह सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं है; क्योंकि व्यक्तित्व का विकासे व्यक्तिगत पहलू है तथा राज्य एवं समाज जैसी संस्थाओं के लिए यह जानना बहुत कठिन है कि किसके विकास के लिए क्या आवश्यक है।
  2.  यह व्यक्ति के हितों पर अधिक बल देता है तथा समाज का स्थान गौण रखता है। अतः व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए समाज के हितों के विरुद्ध कार्य कर सकता है।
  3.  मानव-जीवन के विकास की आवश्यक परिस्थितियाँ कौन-सी हैं, इनका निर्णय कौन करेगा तथा ये किस-किस प्रकार उपलब्ध होंगी-इन बातों का स्पष्टीकरण नहीं होता है। अतः इस सिद्धान्त की आधारशिला ही अवैज्ञानिक है।
    निष्कर्ष- अध्ययनोपरान्त हम कह सकते हैं कि अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त ही सर्वोपयुक्त है, क्योंकि यह इस अवधारणा पर आधारित है कि अधिकारों की उत्पत्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व | के सर्वांगीण विकास के लिए है। राज्य तथा समाज तो केवल व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा तथा व्यवस्था करने के साधन मात्र हैं। व्यक्ति समाज के कल्याण में ही अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।

प्रश्न 6.
मानवाधिकार क्या है? मानवाधिकार प्राप्ति की दिशा में क्या कार्य हो रहे हैं?
उत्तर-
विगत कुछ वर्षों से प्राकृतिक अधिकार शब्द से अधिक मानवाधिकार शब्द का प्रयोग हो रहा है। मानवाधिकारों के पीछे मूल मान्यता यह है कि सभी लोग मनुष्य होने मात्र से कुछ चीजों को पाने के अधिकारी हैं। एक मानव के रूप में प्रत्येक व्यक्ति विशिष्ट और समान महत्त्व का है। इसका अर्थ यह है कि आन्तरिक दृष्टि से सभी समान हैं। सभी एक आन्तरिक मूल्य से सम्पन्न होते हैं और उन्हें स्वतन्त्र रहने तथा अपनी पूरी सम्भावना को साकार करने का अवसर मिलना चाहिए। इस विचार का प्रयोग नस्ल, जाति, धर्म और लिंग पर आधारित वर्तमान असमानताओं को चुनौती देने के लिए किया जाता रहा है।
अधिकारों की इसी समझदारी पर मानव अधिकार सम्बन्धी संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र बना है। यह उन दावों को मान्यता देने का प्रयास करता है, जिन्हें विश्व समुदाय सामूहिक रूप से गरिमा और आत्म-सम्मान परिपूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक मानता है।

सम्पूर्ण विश्व के उत्पीड़ित जन सार्वभौम मानवाधिकार की अवधारणा का प्रयोग उन कानूनों को चुनौती देने के लिए कर रहे हैं, जो उन्हें पृथक् करने वाले और समान अवसरों तथा अधिकारों से वंचित करते हैं। वे मानवता की अवधारणा की पुनर्व्याख्या के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिससे वे स्वयं को इसमें सम्मिलित कर सकें।

कुछ संघर्ष सफल भी हुए हैं, जैसे दास प्रथा का उन्मूलन हुआ। लेकिन कुछ अन्य संघर्षों में अभी तक सीमित सफलता ही प्राप्त हो सकी है। लेकिन आज भी अनेक ऐसे समुदाय हैं, जो मानवता को इस प्रकार परिभाषित करने के संघर्ष में लगे हैं जो उन्हें भी सम्मिलित करे।
विविध समाजों में जैसे-जैसे नए खतरे और चुनौतियाँ उभरती आई हैं, वैसे-वैसे ही उन मानवाधिकारों की सूची निरन्तर बढ़ती गई है जिनका लोगों ने दावा किया है। उदाहरणार्थ, हम आज प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा की आवश्यकता के प्रति बहुत सचेत हैं और इसने स्वच्छ हवा, शुद्ध जल, सुदृढ़ विकास जैसे अधिकारों की माँगें पैदा की हैं। यद्ध अथवा प्राकृतिक संकट के समय अनेक लोग विशेषकर महिलाएँ, बच्चे या बीमार जिन परिवर्तनों का सामना करते हैं उनके विषय में नई जागरूकता ने आजीविका के अधिकार, बच्चों के अधिकार और ऐसे अन्य अधिकारों की माँग भी पैदा की है। ऐसे दावे मानव गरिमा के अतिक्रमण के प्रति नैतिक आक्रोश का भाव प्रकट करते हैं और वे समस्त मानव समुदाय के लिए अधिकारों के प्रयोग और विस्तार के लिए एकजुट होने का आह्वान करते हैं।

प्रश्न 7.
अधिकार जनसाधारण पर क्या जिम्मेदारियाँ डालते हैं? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-
अधिकार न केवल राज्य पर यह जिम्मेदारी डालते हैं कि वह विशिष्ट प्रकार से काम करे बल्कि जनसाधारण पर भी जिम्मेदारी डालते हैं। उदाहरण के लिए, टिकाऊ विकास का मामला लें। हमारे अधिकार हमें याद दिलाते हैं कि इसके लिए न केवल राज्य को कुछ कदम उठाने हैं, बल्कि हमें भी इस दिशा में प्रयास करने हैं। अधिकार हमें बाध्य करते हैं कि हम अपनी निजी आवश्यकताओं और हितों के विषय में ही न सोचें, वरन कुछ ऐसी चीजों की भी रक्षा करें, जो हम सबके लिए लाभदायक हैं। ओजोन परत की रक्षा करना, वायु और जल प्रदूषण कम-से-कम करना, नए वृक्ष लगाकर और जंगलों की कटाई रोककर हरियाली बनाए रखना, पारिस्थितिकीय सन्तुलन बनाए रखना आदि ऐसी चीजें हैं, जो हम सबके लिए अनिवार्य हैं। ये जनसाधारण के लाभ की बातें हैं, जिनका पालने हमें अपनी और भावी पीढ़ियों की रक्षा के लिए भी अवश्य करना चाहिए। आने वाली पीढ़ियों को भी । सुरक्षित और स्वच्छ दुनिया प्राप्त करने का अधिकार है, इसके बिना वे बेहतर जीवन नहीं जी सकतीं।

अधिकार यह भी जिम्मेदारी डालते हैं कि हम अन्य लोगों के अधिकारों का भी सम्मान करें। टकराव की स्थिति में जनसाधारण को अधिकारों को सन्तुलित करना होता है। उदाहरणार्थ, अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार किसी को भी तस्वीर लेने की अनुमति देता है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति अपने घर में नहाते हुए किसी व्यक्ति की उसकी अनुमति के बिना तस्वीर ले ले और उसे इण्टरनेट में डाल दे, तो यह गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन होगा।
नागरिकों को अपने अधिकारों पर लगाए जाने वाले नियन्त्रणों के बारे में भी ध्यान देना होगा। अद्यतन एक विषय जिस पर बहुत अधिक चर्चा हो रही है। यह बढ़ते प्रतिबन्धों से सम्बन्धित है। ये प्रतिबन्ध कई सरकारे राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों की नागरिक स्वतन्त्रताओं पर लगा रही हैं। नागरिकों के अधिकारों और भलाई की रक्षा के लिए आवश्यक मानकर राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने का समर्थन किया जा सकता है।

लेकिन किसी बिन्दु पर सुरक्षा के लिए आवश्यक मानकर थोपे गए प्रतिबन्ध अपने-आप में लोगों में अधिकारों के लिए खतरा बन जाएँ तो? क्या आतंकी बमबारी की धमकी का सामना करते राष्ट्र को अपने नागरिकों की आजादी छीन लेने की आज्ञा दी जा सकती है? क्या उसे केवल सन्देह के आधार पर किसी को गिरफ्तार करने की अनुमति मिलनी चाहिए? क्या उसे लोगों की चिट्ठियाँ देखने यो फोन टेप करने की छूट दी जा सकती है? क्या सच कबूल करवाने के लिए उसे यातना देने का सहारा लेने दिया जाना चाहिए? ऐसी स्थितियों में यह सवाल उत्पन्न होता है कि सम्बद्ध व्यक्ति समाज के लिए खतरा तो नहीं पैदा कर रहा? गिरफ्तार लोगों को भी कानूनी सलाह प्राप्त करने का आज्ञा और दण्डाधिकारी या न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष रखने का अवसर मिलना चाहिए। नागरिक स्वतन्त्रता में कटौती करने के प्रश्न पर अत्यन्त सावधान होने की आवश्यकता है क्योंकि इनका आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है। सरकारें निरकुंश हो सकती हैं और वे उन उद्देश्यों की ही जड़ खोद सकती हैं जिनके लिए सरकारें बनती हैं—यानी लोगों के कल्याण की। इसलिए यह मानते हुए भी कि अधिकार कभी सम्पूर्ण-सर्वोच्च नहीं हो सकते, हमें अपने एवं दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने में चौकस रहने की आवश्यकता है क्योकि ये लोकतान्त्रिक समाज की बुनियाद का निर्माण करते

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