Chapter 5 Thinking (चिन्तन)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1
चिन्तन (Thinking) से आप क्या समझते हैं ? अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। चिन्तन के विषयक में स्पीयरमैन द्वारा प्रतिपादित नियमों का भी उल्लेख कीजिए। चिन्तन से आप क्या समझते हैं?
या
चिन्तन का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। (2009, 11, 12, 16)
या
चिन्तन को परिभाषित कीजिए। (2008)
उत्तर
जीवन के विकास क्रम में मनुष्य की सर्वोच्च स्थिति (पशुओं की तुलना में) बुद्धि, विवेक एवं चिन्तन जैसी उच्च मानसिक क्रियाओं के कारण है। पशु किसी चीज को देखकर उसका प्रत्यक्षीकरण कर पाते हैं, किन्तु मनुष्य उस वस्तु के अभाव में न केवल उसका प्रत्यक्षीकरण कर लेते हैं अपितु उसके विषय में पर्याप्त रूप से सोच-विचार भी सकते हैं। यह सोच-विचार या चिन्तन (Thinking) मनुष्य का ऐसा स्वाभाविक गुण है जिसकी बढ़ती हुई प्रबलता उसे अधिक-से-अधिक श्रेष्ठता की ओर उन्मुख करती है।
चिन्तन का अर्थ
कल्पना एवं प्रत्यक्षीकरण के समान ही चिन्तन भी एक महत्त्वपूर्ण ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है। जो वस्तुओं के प्रतीकों (Symbols) के माध्यम से चलती है। इस आन्तरिक प्रक्रिया में प्रत्यक्षीकरण एवं कल्पना दोनों का ही मिश्रण पाया जाता है। मनुष्य अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों का सामना करता है। कुछ परिस्थितियाँ सुखकारी होती हैं तो कुछ दु:खकारी। दुःखकारी परिस्थितियाँ समस्या पैदा करती हैं और उनका समाधान खोजने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य विभिन्न मानसिक प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में, शारीरिक रूप से प्रचेष्ट होने से पहले वह उस समस्या का समाधान अपने मस्तिष्क में खोजता है। इसके लिए मस्तिष्क उस समस्या के विभिन्न पक्षों का विश्लेषण प्रस्तुत कर सम्बन्धित विचारों की एक श्रृंखला विकसित करता है। समुद्र की लहरों के समान एक के बाद एक विचार उठते हैं जिनके बीच से समस्या का सम्भावित समाधान प्रकट होता है। समस्या का समाधान मिलते ही चिन्तन की मानसिक प्रक्रिया रुक जाती है। अतएव चिन्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कोई मनुष्य किसी समस्या का समाधान खोजता है।
चिन्तन की परिभाषा
मनोवैज्ञानिकों ने चिन्तन को निम्न प्रकार परिभाषित किया है
- जे०एस०रॉस के अनुसार, “चिन्तन ज्ञानात्मक रूप में एक मानसिक प्रक्रिया है।
- वुडवर्थ के शब्दों में, “किसी बाधा पर विजय प्राप्त करने का तरीका चिन्तन कहलाता है।”
- बी०एन० झा के मतानुसार, “चिन्तन एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें मन किसी विचार की गति को प्रयोजनात्मक रूप में नियन्त्रित एवं नियमित करता है।”
- रायबर्न के अनुसार, “चिन्तने ईच्छा सम्बन्धी वह प्रक्रिया है, जो असन्तोष के फलस्वरुप उत्पन्न होती है और प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर उक्त इच्छा की सन्तुष्टि करती है।”
- वारेन के अनुसार, “चिन्तन एक विचारात्मक प्रक्रिया है, जिसका स्वरूप प्रतीकात्मक होता है। इसका प्रारम्भ व्यक्ति के समक्ष उपस्थित किसी समस्या अथवा क्रिया से होता है। इसमें प्रयास-मूल की क्रियाएँ निहित रहती है, किन्तु समस्या के प्रत्यक्ष प्रभाव से प्रभावित होकर चिन्तन प्रक्रिया अन्तिम रूप से समस्या समाधान की ओर उन्मुख होती है।”
- जॉनड्यूवी के अनुसार, “चिन्तन किसी विश्वास या अनुमानित ज्ञान का उसके आधारों एवं निष्कर्षों के माध्यम से सक्रिय सतत् तथा सतर्कतापूर्वक विचार करने की प्रक्रिया होती है।
चिन्तन का स्वरूप
चिन्तन में व्यक्ति किन्हीं समस्याओं का हल अपने मस्तिष्क में खोजता है; अतएव वुडवर्थ नामक मनोवैज्ञानिक ने चिन्तन को मानसिक खोज (Mental Exploration) का नाम दिया है। हल खोजने की इस क्रियात्मक प्रक्रिया में प्रयास एवं भूल विधि के अन्तर्गत मन में कई प्रकार के विचार जन्म लेते हैं जिनमें से सर्वाधिक उपयुक्त विचार छाँटकर ग्रहण कर लिया जाता है। चिन्तन को प्रतीकात्मक व्यवहार (Symbolic Behaviour) इसलिए कहा जा सकता है, क्योकि यह प्रतीकों के प्रति प्रतिक्रिया है न कि प्रत्यक्ष वस्तु के प्रति। वस्तुओं का प्रत्यक्ष रूप से अभाव होने पर भी उनकी स्मृति/प्रतीक की उपस्थिति में चिन्तन का जन्म सम्भव है। इस दृष्टि से चिन्तन में अमूर्तकरण का भी सहयोग रहता है। चिन्तन प्रतीकों के मानसिक समायोजन (या प्रहस्तन) की क्रिया है जिसमें विचारों के विश्लेषण के साथ-साथ उनका संश्लेषण भी उपयोगी है। चिन्तन के दौरान व्यक्ति के मन में उपस्थित विचार क्रमबद्ध रूप से निहित रहते हैं तथा उन विचारों में एक तारतम्य एवं सम्बन्ध पाया जाता है। जैसे ही व्यक्ति के सम्मुख कोई समस्या उपस्थित होती है, चिन्तन का यह स्वरूप क्रियाशील हो जाता है। तथा विचार सम्बन्धी मानसिक प्रहस्तन के द्वारा व्यक्ति उपयुक्त हल खोज लेता है।
चिन्तन के विषय में स्पीयरमैन के नियम
चिन्तन की जटिल प्रक्रिया में विश्लेषण और संश्लेषण और इस प्रकार पृथक्करण और संगठन ये दोनों प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं। संश्लेषणात्मक दृष्टि से ज्ञान का संगठन होता है जिसका आधार स्मृति एवं कल्पनाएँ हैं। विश्लेषणात्मक दृष्टि से कल्पनाओं का आधार पृथक्करण है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्पीयरमैन द्वारा प्रतिपादित पृथक्करण सम्बन्धी नियमों का अध्ययन, चिन्तन की व्याख्या में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। स्पीयरमैन द्वारा पृथक्करण के दो मुख्य नियम बताये गये हैं
(I) सम्बन्धों का पृथक्करण तथा
(II) सह-सम्बन्धों का पृथक्करण।
(I) सम्बन्धों का पृथक्करण
सम्बन्धों का पृथक्करण चिन्तन के विषय में स्पीयरमैन द्वारा प्रतिपादित पहला नियम है। यह नियम बताता है कि चिन्तन की प्रक्रिया में जब किसी व्यक्ति के सामने कुछ वस्तुएँ रखी जाती हैं तो वह उनके बीच सम्बन्धों की खोज कर लेता है। इन सम्बन्धों का आधार आकार, निकटता व दूरी आदि होते हैं। ये सम्बन्ध ‘वास्तविक सम्बन्ध हैं।
वास्तविक सम्बन्ध–प्रमुख वास्तविक सम्बन्धों के आधार निम्नलिखित हैं
(1) गुण– प्रत्येक वस्तु का अपना एक विशेष गुण होता है और इस गुण के साथ ही वस्तु का वास्तविक सम्बन्ध बोध होता है। नींबू खट्टा होता है। खट्टापन नींबू का विशेष गुण है तथा नींबू व खट्टेपन में एक ऐसा वास्तविक सम्बन्ध है जिसे किसी भी दशा में पृथक् नहीं किया जा सकता।
(2) कालगत सम्बन्ध- कालगत सम्बन्ध वस्तुओं के बीच समय का वास्तविक सम्बन्ध है। राम प्रतिदिन 9.30 बजे प्रात: स्कूल के लिए रवाना होता है। 9.30 बजते ही उसके मन में चलने का विचार आ जाता है। यह 9.30 बजे तथा स्कूल चलने का कालगत सम्बन्ध है।
(3) स्थानगत सम्बन्ध- कुछ वस्तुएँ एक ही स्थान पर साथ-साथ पायी जाती हैं। उदाहरणार्थ-फाउण्टेन पेन और उसका ढक्कन एक ही जगह साथ-साथ मिलते हैं। अब जब वस्तुएँ स्थान के आधार पर सम्बन्धित हों तो यह विशेष सम्बन्ध होता हैं।
(4) कार्य-कारण सम्बन्ध– प्रत्येक क्रिया किसी-न-किसी कारणवश होती है। यदि वर्षा हो रही है तो आसमान में बादल अवश्य होंगे। बादल वर्षा का कारण है। इस भॉति किसी घटना को उसके कारण-विशेष से वास्तविक सम्बन्ध कार्य कारण सम्बन्ध कहलाएगा।
(5) वस्तुगत सम्बन्ध– हिमालय की ऊँची चोटियों पर चाँदी जैसी बर्फ चमक रही है। यहाँ पहाड़ की चोटी तथा बर्फ में वस्तुगत वास्तविक सम्बन्ध बोध होता है। |
(6) निर्माणात्मक सम्बन्ध- किसी भी वस्तु का निर्माण अन्य सहायक सामग्रियों द्वारा होता है। इस प्रकार निर्माणक एवं निर्मित वस्तु के मध्ये एक अभिन्न तथा वास्तविक सम्बन्ध पाया जाता है। कुर्सी का लकड़ी से तथा घड़े का मिट्टी से वास्तविक सम्बन्ध है।
विचारात्मक सम्बन्ध–विचारात्मक सम्बन्ध हृदयगत एवं आन्तरिक होते हैं। इनके निम्नलिखित आधार हो सकते हैं
- समानता—इसके अन्तर्गत विभिन्न वस्तुओं में गुणों की समानता के आधार पर चिन्तन का जन्म होता है।
- समीपता-वस्तुओं के समीप रहने पर उनमें सम्बन्ध बोध होता है; जैसे–चाँद-तारा।
- पूर्वपक्ष एवं निष्कर्ष-पूर्वपक्ष एवं निष्कर्ष के बीच विचारात्मक सम्बन्ध पाया जाता है। रात के समय कुत्ते के लगातार भौंकने का सम्बन्ध किसी अजनबी वस्तु या व्यक्ति की उपस्थिति से होता है। यहाँ कुत्ते का भौंकना पूर्वपक्ष है तथा अजनबी विषय-वस्तु की उपस्थिति का बोध निष्कर्ष है।
- नियोजनात्मक सम्बन्ध-कुछ सम्बन्ध नियोजन के आधार पर होते हैं। बहन और भाई के मध्य नियोजनात्मक सम्बन्ध है।
(II) सह-सम्बन्धों का पृथक्करण
स्पीयरमैन के अनुसार, सह-सम्बन्धों के पृथक्करण की प्रक्रिया को सरल बनाने की दृष्टि से किसी शब्द को सम्बन्ध के संकेत के साथ उपस्थित किया जाना आवयश्यक है। उदाहरण के तौर पर–यदि कहें कि गाजर का रंग लाल है और मूली का रंग? तो उत्तर मिलेगा-सफेद। इसी प्रकार मिर्च तीखी है और चीनी? तो उत्तर होगा-मीठी। मिलने वाला उत्तर सह-सम्बन्धों के पृथक्करण पर आधारित होता है।
प्रश्न 2
वैध चिन्तन’ से क्या तात्पर्य है? वैध चिन्तन के लिए अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
या
वैध चिन्तन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ बताइए। (2018)
उत्तर
वैध चिन्तन का आशय
यदि चिन्तन की प्रक्रिया के परिणामतः निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो उसे ‘वैध चिन्तन (Valid Thinking) कहा जाएगा। सामान्यतः चिन्तन का निर्धारित लक्ष्य किसी समस्या-विशेष का समाधान खोजना होता है; अतः सफल या प्रामाणिक चिन्तन वह चिन्तन है, जिसमें समस्या का हल निकल आये। प्रामाणिक चिन्तन, सभी भाँति तटस्थ एवं बाह्य प्रभावों से मुक्त होता है। हमें जानते हैं कि
आत्मगत सुझावों, संवेगों तथा अन्धविश्वासों से युक्त चिन्तने दोषपूर्ण हो जाता है। दोषपूर्ण चिन्तन की वैधता एवं उपयोगिता समाप्त हो जाती है। वैध, प्रामाणिक एवं दोषमुक्त चिन्तन के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं।
चिन्तन की अनुकूल परिस्थितियाँ या प्रभावित करने वाली दशाएँ। अच्छे चिन्तन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ या प्रभावित करने वाली दशाएँ निम्नलिखित हैं
(1) सबल प्रेरणा (Strong Motivation)– चिन्तन की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए प्रेरणा बहुत आवश्यक है। प्रेरणा की अनुपस्थिति में दोषमुक्त एवं व्यवस्थित चिन्तन सम्भव नहीं है। वस्तुतः चिन्तन की शुरुआत किसी समस्या से होती है। यह समस्या चिन्तन के लिए स्वत: ही एक प्रेरणा का कार्य करती है। व्यक्ति का सम्बन्ध समस्या से जितना, गहरा होगा, वह उसके समाधान हेतु उतनी ही गम्भीरता से कार्य करेगा। बाहरी प्रेरणाएँ जितनी अधिक सबल होंगी, चिन्तन भी उतना ही अधिक प्रबल होगा। इस प्रकार, प्रामाणिक चिन्तन के लिए सबल प्रेरणाएँ पर्याप्त रूप से सहायक समझी जाती हैं।
(2) रुचि (Interest)– रुचि, चिन्तन को प्रभावित करने वाली एक मुख्य दशा है। रुचि होने पर व्यक्ति सम्बन्धित समस्या के समाधान हेतु पूर्ण मनोयोग से प्रयास करता है। अपनी आदत के मुताबिक अरोचक विषयों से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु चिन्तन करने के लिए या तो व्यक्ति प्रचेष्ट ही नहीं होगा और यदि अनमने मन से चेष्टा करेगा भी तो उसे पूर्ण नहीं करेगा।
(3) अवधान (Attention)- चिन्तन के पूर्व और चिन्तन की प्रक्रिया के दौरान सम्बन्धित समस्या की ओर व्यक्ति का अवधान (ध्यान) होना चाहिए। समस्या पर अवधान केन्द्रित न होने से चिन्तन करना सम्भव नहीं हो पाता।
(4) बुद्धि (Intelligence)– चिन्तन का बुद्धि से सीधा सम्बन्ध है। चिन्तन एक बौद्धिक या मानसिक प्रक्रिया है; अतः बुद्धि का क्षेत्र या मात्रा चिन्तन में सहायक होती है। बुद्धि से सम्बन्धित तीनों पक्ष-अन्तर्दृष्टि, पूर्वदृष्टि तथा पश्चात् दृष्टि के सम्यक् एवं समन्वित प्रयोग से चिन्तन की सफलता सुनिश्चित होती है। देखने में आया है कि अधिक बुद्धिमान व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक सफल चिन्तक बन जाता है।
(5) सतर्कता (Vigilence)- वैध चिन्तन के लिए सतर्कता एक अनुकूल दशा है। चिन्तन के दौरान सतर्कता बरतने से भ्रान्त धारणाओं तथा गलतियों से बचा जा सकता है। इसके अलावा सतर्कता नवीन उपायों तथा विधियों का भी ज्ञान कराती है, जिन्हें आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जा सकता है।
(6) लचीलापन (Flexibility)– चिन्तन में लचीलापन अनिवार्य है। व्यक्ति की मनोवृत्ति में लचीलापन रहने से चिन्तन में स्वतन्त्रता आती है। रूढ़िगत एवं अन्धविश्वास से युक्त चिन्तन संकुचित एवं सीमित रह जाता है। चिन्तन में देश-काल एवं पात्रानुसार परिवर्तन आने चाहिए। स्पष्टतः यह चिन्तन में लचीलेपन के गुण से ही सम्भव है। |
(7) पर्याप्त समय (Enough Time)– चिन्तन के लिए समय की पाबन्दी लगाना उचित नहीं है। चिन्तन करते समय चिन्तक को यह ज्ञात नहीं रहता कि उसे किसी समस्या पर विचार करने में कितना समय लगेगा। अतः चिन्तन में स्वाभाविकता लाने के लिए समय की सीमा कठोर नहीं होनी चाहिए। चिन्तन के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध रहना चाहिए।
(8) गर्भीकरण (Incubation)– गर्भीकरण अथवा सेने से अण्डे में बच्चा तैयार हो जाता है। जो समयानुसार पूर्ण रूप में आसानी से बाहर आ जाता है। गर्भीकरण का विचार चिन्तन की मानसिक प्रक्रिया के लिए एक अनुकूल दशा है। कभी-कभी लगातार एवं अवधानपूर्ण चिन्तन के बावजूद भी समस्या का समुचित हल नहीं निकल पाता। ऐसी दशा में चिन्तन के साथ जोर-जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए और उसे कुछ समय के लिए स्थगित कर देना चाहिए। इसे मानसिक विश्राम भी कहते हैं। गर्भीकरण की क्रिया में व्यक्ति समस्या से बेखबर अन्य कार्यों में उलझा रहता है। उसका मस्तिष्क समस्या को सेता रहता है। उचित समय पर समस्या का हल स्वतः ही मस्तिष्क में उभर आता है।
चिन्तन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ
जिस प्रकार वैध चिन्तन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हैं, उसी प्रकार कुछ ऐसी परिस्थितियाँ भी हैं जो अच्छे चिन्तन को ऋणात्मक के रूप से प्रभावित करती हैं तथा उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं। इस तरह की परिस्थितियाँ चिन्तन को मैला करती हैं; अत: वैध चिन्तन के लिए इनसे बचाव अनिवार्य है।
चिन्तन एक महत्त्वपूर्ण मानसिक प्रक्रिया है जो न केवल समस्या-समाधान की ओर उन्मुख होती। है अपितु व्यक्ति की अभिवृत्तियों तथा गहराई से परिवर्तित करने की क्षमता रखती है। यही कारण है कि प्रारम्भ से मानव को प्रगति और अधोगति, रीति-रिवाज तथा अन्धविश्वास शुद्ध चिन्तन के स्रोत को प्रदूषित करते हैं।
इसके अतिरिक्त यदि व्यक्ति किन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रसित होगा या उसका रवैया किसी वस्तु/व्यक्ति विशेष के लिए पक्षपातपूर्ण होगा तो इसका विपरीत असर चिन्तन पर अवश्य पड़ेगा। भावुक व्यक्तियों का चिन्तन किसी एक दिशा में प्रवाहित हो जाता है, सम्भव है वह भ्रामक या त्रुटिपूर्ण दिशा हो। गलत सुझाव भी चिन्तन को विकासग्रस्त बना देते हैं।
चिन्तन में वस्तुओं की वास्तविक उपस्थिति जरूरी नहीं होती, बल्कि हम उस वस्तु या उद्दीपक का कुछ प्रतीक (Symbols) तथा प्रतिमाएँ (Images) मन में बना लेते हैं और उन्हीं के आधार पर चिन्तन करते हैं। दोषपूर्ण प्रतीक या प्रतिमाएँ दोषपूर्ण चिन्तन को जन्म दे सकती हैं।
चिन्तन की वैधता संप्रत्ययों की वैधता पर भी निर्भर करती है। संप्रत्यय जितने ही सरल तथा स्पष्ट होते हैं, चिन्तन उतना ही सरल होता है। जटिल और विशिष्ट संप्रत्ययों से सम्बन्धित चिन्तन अधिक स्पष्ट नहीं होता है।
स्पष्टतः चिन्तन के उपकरण; यथा—पदार्थ, संकेत, प्रतीक, प्रतिमा तथा संप्रत्यय; अपनी जटिलता, अस्पष्टता या दोषों के कारण वैध चिन्तन के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं।
प्रश्न 3
व्यक्ति के चिन्तन में भाषा की क्या भूमिका है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। (2009)
या
चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा के स्थान एवं योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
यह सत्य है कि चिन्तन की विकसित प्रक्रिया केवल मनुष्यों में ही पायी जाती है अर्थात् केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो व्यवस्थित चिन्तन करता है तथा उससे लाभान्वित भी होता है। मनुष्यों द्वारा चित्तने की उन्नत प्रक्रिया को सम्पन्न करने में सर्वाधिक योगदान भाषा का है। विकसित भाषा भी मनुष्य की ही एक मौलिक क्षमता है। मनुष्यों के अतिरिक्त किसी अन्य प्राणी को विकसित भाषा की क्षमता उपलब्ध नहीं है।
भाषा एक ऐसा प्रबल एवं व्यवस्थित माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों का आदान-प्रदान किया करते हैं तथा सभी सामाजिक अन्तक्रियाएँ स्थापित किया करते हैं। भाषा का मुख्य रूप शाब्दिक ही होता है तथा भाषा में विभिन्न प्रतीकों को प्रयोग किया जाता है। जहाँ तक चिन्तन की प्रक्रिया का प्रश्न है, इसमें भी भाषा द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। वास्तव में, चिन्तन की प्रक्रिया को हम आत्म-भाषण या आन्तरिक सम्भाषण भी कह सकते हैं।
चिन्तन में भाषा की भूमिका मानवीय चिन्तन अपने आप में एक अत्यधिक तथा विकसित प्रक्रिया है। मानवीय चिन्तन में भाषा की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
चिन्तन में भाषा की भूमिका का विवरण निम्नलिखित
(1) निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हमारी चिन्तन की प्रक्रिया सदैव शब्दों अथवा भाषा के माध्यम से सम्पन्न होती है। मॉर्गन तथा गिलीलैण्ड ने इससे सम्बन्धित परीक्षण किये तथा स्पष्ट किया कि चिन्तन में भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भाषा में चिह्नों का प्रयोग होता है तथा ये विचारों के माध्यम की भूमिका निभाते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि शब्द-विन्यास विचारों के संकेत के रूप में भूमिका निभाते हैं।
(2) चिन्तन की प्रक्रिया में स्मृति की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जहाँ तक व्यक्ति के विचारों की स्मृति का प्रश्न है, उसके निर्माण का कार्य भी भाषा द्वारा होता है। व्यक्ति के विचार उसके मस्तिष्क में मानसिक संस्कारों के रूप में स्थान ग्रहण कर लेते हैं तथा जब कभी आवश्यकता पड़ती है तो यही मानसिक संस्कार भाषा के आधार पर सरलता से याद कर लिये जाते हैं।
(3) जहाँ तक चिन्तन की प्रक्रिया की अभिव्यक्ति का प्रश्न है, उसमें भी भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्ति द्वारा किये गये चिन्तन की अभिव्यक्ति भी भाषा के ही माध्यम से होती है। व्यक्ति अपने विचारों को अन्य व्यक्तियों के सम्मुख सदैव भाषा के ही माध्यम से प्रस्तुत करता है।समाज में व्यक्तियों के विचारों का आदान-प्रदान भी भाषा के ही माध्यम से होता है। कोई भी व्यक्ति अपने विचारों को लिखित भाषा के माध्यम से संगृहीत कर सकता है। चिन्तन की प्रक्रिया विचारों के माध्यम से चलती है तथा विचार भाषा के माध्यम से प्रस्तुत किये जाते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि चिन्तन में भाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
(4) चिन्तन की प्रक्रिया को कम समय में पूर्ण होने में भी भाषा का सर्वाधिक योगदान होता है। भाषा द्वारा विचारों की विस्तृत श्रृंखला को सीमित रूप प्रदान किया जा सकता है। इस प्रकार चिन्तन की प्रक्रिया को भी सीमित बनाया जा सकता है।
(5) चिन्तन तथा भाषा में अन्योन्याश्रिता का भी सम्बन्ध है। जहाँ एक ओर चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा का योगदान है वहीं दूसरी ओर भाषा के विकास में भी चिन्तन द्वारा उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया जाता है। व्यक्ति के विचारों के समृद्ध होने के साथ-साथ चिन्तन का विकास होता है तथा चिन्तन एवं विचार के विकास का भाषा के विकास पर भी विशेष प्रभाव पड़ता है।
(6) हम जानते हैं कि समस्त साहित्य की रचना भाषा के माध्यम से हुई है। सम्पूर्ण साहित्य व्यक्ति को चिन्तन के लिए प्रेरित करता है तथा साहित्य-अध्ययन के माध्यम से व्यक्ति की चिन्तन-क्षमता का भी विकास होता है। इस दृष्टिकोण से भी चिन्तन के क्षेत्र में भाषा का योगदान उल्लेखनीय है।
प्रश्न4
चिन्तन की प्रक्रिया के तत्वों के रूप में प्रतिमाओं एवं प्रतीकों का सामान्य परिचय दीजिएतथा चिन्तन की प्रक्रिया में इनके योगदान को भी स्पष्ट कीजिए। चिन्तन की प्रक्रिया के सन्दर्भ में प्रत्यय-निर्माण की प्रक्रिया को भी स्पष्ट कीजिए।
या
चिन्तन में प्रत्ययों तथा प्रतिमाओं की क्या भूमिका है? (2008)
उत्तर
प्रतिमाएँ और प्रतीक
चिन्तन एकं जटिल मानसिक प्रक्रिया है जिसमें प्रत्यक्ष, प्रतिमा, प्रत्यय तथा प्रतीक इत्यादि तत्त्वों का प्रहस्तन होता हैं। इन समस्त तत्त्वों की चिन्तन की प्रक्रिया में विशिष्ट भूमिका रहती है। सच तो यह है कि चिन्तन की वास्तविक प्रक्रिया इन्हीं तत्त्वों के माध्यम से चलती है। अपने संक्षिप्त परिचय के साथ चिन्तन में इनका योगदान निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत है
(1) प्रतिमा (Images)- वास्तविक या प्रत्यक्ष वस्तु के सामने से हट जाने पर भी जब उसके गुणों का अनुभव ज्ञानेन्द्रियाँ करती हैं तो इसे हम ‘प्रतिमा’ कहते हैं। ‘प्रतिमा’ वास्तविक उत्तेजक की अनुपस्थिति में ही बनती है। व्यक्ति के भूतकालीन अनुभव प्रतिमाओं के रूप में उसके मस्तिष्क में विद्यमान रहते हैं। आँखों के सम्मुख रखी सुन्दर तस्वीर की सूचना दृष्टि स्नायुओं द्वारा मस्तिष्क को पहुँचायी गयी और हमने उसका प्रत्यक्षीकरण कर लिया। एकान्त में बाँसुरी की मीठी तान की सूचना मस्तिष्क को मिली और हमने उस ध्वनि का प्रत्यक्षीकरण कर लिया।
किसी ने अचानक ही तस्वीर को आँखों के सामने से हटा लिया और बाँसुरी की आवाज भी आनी बन्द हो गयी। तस्वीर सामने न होने पर भी उसकी शक्ल कुछ समय तक आँखों के सामने छायी रहती है। इसी प्रकार बाँसुरी बन्द होने पर भी उसकी आवाज कानों में कुछ समय तक गूंजती रहती है। यह बाद तक चल रही तस्वीर की शक्ल तथा बाँसुरी की गूंज प्रतिमा है। प्रतिमाएँ कई प्रकार की हो सकती हैं; जैसे-दृश्य, श्रवण, स्वाद, स्पर्श तथा गन्ध से सम्बन्धित प्रतिमाएँ। मानस पटल पर प्रतिमाओं की स्पष्टता इस बात पर निर्भर करती है। कि उससे सम्बन्धित घटना या तथ्य हमारे जीवन को कितनी गहराई तक प्रभावित कर पाये। गहरे प्रभाव स्पष्ट प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं।
चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमा का योगदान– चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमाओं का काफी योगदान रहता है। पूर्व-अनुभव तो यथावत् मस्तिष्क में नहीं रहते, किन्तु उनके अभाव में मानसिक प्रतिमाएँ अवश्य रहती हैं। व्यक्ति की समस्त चिन्तन इन प्रतिमाओं के इर्द-गिर्द ही चलता रहता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि चिन्तन में प्रतिमाएँ अनिवार्य नहीं हैं और न ही ये चिन्तन में अधिक सहायता ही कर पाती हैं। लोग प्रतिमाओं के स्थान पर प्रतीकों का प्रयोग कर लेते हैं।
(2) प्रतीक (Symbols)- प्रतीक’ वास्तविक वस्तु के स्थानापन्न के रूप में कार्य करते हैं। वास्तविक वस्तु के अभाव में मस्तिष्क में उसका ध्यान दो प्रकार से आता है—प्रथम, प्रतिमा के रूप में जब मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों के सम्मुख वस्तु का स्थूल रूप ही प्रतीत हो रहा हो और द्वितीय, प्रतीक के रूप में जो उस वस्तु का सूक्ष्म प्रतिनिधित्व करता हो। ज्यादातर विचार-प्रक्रिया के अन्तर्गत वस्तु की प्रतिमा मस्तिष्क में न आने पर उसके प्रतीक को प्रयोग कर लिया जाता है। उदाहरणार्थ–किसी व्यक्ति या वस्तु का नाम एक प्रतीक है जो उसकी अनुपस्थिति में सूक्ष्म प्रतिनिधित्व कर उसका बोध करा देता है। क्रॉसिंग पर लाल बत्ती रुकने तथा हरी बत्ती चलने का प्रतीक है। किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में ये प्रतीक चिह्नों में बदल जाते हैं; जैसे—-गणित में *, , +, –, ×, ÷ ,—,= आदि के चिह्न प्रयोग में आते हैं।
चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतीक का योगदान–प्रतीक चिन्तने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रतीक और चिह्न चिन्तन में मिलकर एक साथ कार्य करते हैं तथा इनके माध्यम से चिन्तन के किसी कार्य को सुगमता एवं शीघ्रता से पूरा कर लिया जाता है। उदाहरण के तौर पर विचार (चिन्तन) करते समय एक नजदीक के रिश्तेदार ‘मोहन’ का प्रसंग आता है तो उसकी अनुपस्थिति में उसका नाम ‘मोहन’ ही प्रतीक रूप में मस्तिष्क में होगा। यूँ तो दुनिया में न जाने कितने मोहन हैं, किन्तु यहाँ उस समय ‘मोहन’ एक विशिष्ट अर्थ प्रदान करता है।
प्रतीक सरल, संक्षिप्त तथा साधारण विचारों के प्रतिनिधि होते हैं; यथा—लाल रंग से बना क्रॉस का निशान (अर्थात् ‘+’) रेडक्रॉस संस्था तथा चिकित्सकों का प्रतीक है। एक विशेष प्रकार की घण्टी/सायरन की लगातार आवाज के साथ दमकल की गाड़ी का भागना आग लगने का प्रतीक है और यह आग से सम्बन्धित चिन्तन को जन्म देता है। इसी भॉति चिह्न चिन्तन की क्रियाओं में सहायता करते हैं; यथा” का अर्थ है भाग देना तथा A का अर्थ है A X A X A। वस्तुतः चिन्तन की प्रक्रिया प्रतीकों के माध्यम से संचालित होती है। प्रतीक व चिह्न चिन्तन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करते हैं तथा इनके प्रयोग से समय और शक्ति की काफी बचत होती है।
प्रत्यय प्रत्यय चिन्तन की पहली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया भिन्न-भिन्न वस्तुओं, अनुभवों, घटनाओं तथा परिस्थितियों के मध्य समानाताओं का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्यय एक प्रकार से सामान्य विचार हैं। जिनका जन्म चिन्तन द्वारा ही होता है और जो जन्म के पश्चात् पुन: चिन्तन की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योग देने लगते हैं। हमारे चारों तरफ के वातावरण में उपस्थित जितनी भी वस्तुओं का हमें बोध होता है, उतने ही प्रत्यय हमारे मस्तिष्क में बनते हैं। इस प्रकार, प्रत्ययों का सम्बन्ध हमारे मस्तिष्क में बने संस्कारों से होता है। हमारे मस्तिष्क में अगणित वस्तुओं के संस्कार एवं प्रत्यय निर्मित होते हैं।
उदाहरणार्थ-कागज, कलम, कुर्सी, पलंग, गाय, नारी, वृद्ध, मृत्यु, नैतिकता आदि-आदि के स्वरूप, रूप-रंग, गुण एवं आधार की एक प्रतिछाया मस्तिष्क में उपस्थित रहती है। किसी भी वस्तु या पदार्थ का एक सामान्य शब्द किसी-न-किसी प्रत्यय का प्रतिनिधित्व अवश्य करता है। उस शब्द को सुनते ही वस्तु की सम्पूर्ण जाति के गुण हमारे ध्यान में आ जाते हैं। प्रारम्भ में तो ये प्रत्यय अधिक विकसित नहीं होते, किन्तु व्यक्ति की आयु वृद्धि के साथ-साथ प्रत्ययों में अन्य अर्थ भी सम्मिलित होने लगते हैं और इस भाँति प्रत्यय का स्वरूप अधिक विस्तृत एवं व्यापक हो जाता है। विद्वानों के अनुसार, ये प्रत्यय चिन्तन की प्रक्रिया के आवश्यक तत्त्व हैं।
प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया मानव-मस्तिष्क में प्रत्यय का निर्माण एकदम नहीं हो जाता, अपितु प्रत्यय विशिष्ट मानसिक प्रक्रियाओं द्वारा निर्मित एवं विकसित होते हैं।
प्रत्यय निर्माण की मुख्य प्रक्रियाएँ निम्नलिखित
(1) प्रत्यक्षीकरण (Perception)- प्रत्यय निर्माण की पहली सीढ़ी विभिन्न विषय-वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण है। प्रत्ययन (Conception) की शुरुआत ही प्रत्यक्षीकरण (Perception) से होती है। बच्चा अपने जीवन के प्रारम्भ में विभिन्न वस्तुओं तथा तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है, किन्तु सिर्फ
एक वस्तु या तत्त्व का प्रत्यक्ष कर लेने (देखने) से ही प्रत्यय का निर्माण नहीं हो जाता। माना, बच्चे से एक चिड़िया देखी जिसका एक निश्चित रूप उसके मानस-पटल पर अंकित हो गया। इसके बाद वह कई प्रकार की छोटी-बड़ी, अनेक रंगों वाली, आवाजों वाली चिड़ियाँ देखता है। अनेक बार यह प्रक्रिया दोहराने पर पक्षी के स्मृति-चिह्न स्थायी एवं प्रबल होते जाएँगे। इस भॉति किसी विषय-वस्तु के प्रत्यक्षीकरण का विकास होता है और उसमें व्यापकता आती है।
(2) विश्लेषण (Analysis)- प्रत्यय निर्माण का द्वितीय चरण विशिष्ट प्रत्ययों के गुणों का विश्लेषण करना है। बच्चा जिस वस्तु का भी प्रत्यय बनाता है उसके प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में सम्बन्धित गुणों का विश्लेषण भी करता है। उदाहरणार्थ-चिड़िया का विशिष्ट रूप, उसकी चोंच की बनावट, उसका रंग, बोलने का ढंग, फुदकने तथा उड़ने का तरीका; इन सबका विश्लेषण वह मस्तिष्क से करता है।
(3) तुलना (Comparison)- विश्लेषण के बाद, बच्चा प्रत्यक्षीकरण की जाने वाली वस्तु के गुणों की तुलना, उसी जाति की अन्य वस्तुओं से करता है। वह उनके बीच समानता एवं विभिन्नता के बिन्दुओं की खोज करता है। उदाहरण के लिए सामान्य चिड़िया और मोर दोनों ही पक्षी हैं। दोनों की आकृति तो कुछ-कुछ मिलती है लेकिन मोर सामान्य चिड़िया से काफी बड़ा है, पीछे लम्बे-लम्बे सुन्दर मोर-पंख भी हैं, मोर नाचता है और नाचते समय मोर-पंखों की छत्र जैसी विशेष आकृति सामान्य पक्षियों में नहीं मिलती।।
(4) संश्लेषण (Synthesis)– विश्लेषण तथा तुलना के उपरान्त एक ही जाति के कई वस्तुओं के समान गुणों का संश्लेषण किया जाता है। एक जैसे गुणों का सामान्यीकरण करके उस वस्तु के जातीय गुणों के आधार पर सम्बन्धित वस्तु का एक रूप मस्तिष्क में धारण कर लिया जाता है।
(5) नामकरण (Naming)- किसी वस्तु का कोई विशेष रूप मस्तिष्क द्वारा धारण कर लेने के उपरान्त उसे एक खास नाम प्रदान किया जाता है। प्रत्यय का नाम उसका प्रतीक होता है।प्रत्यय निर्माण की यह प्रक्रिया बाल्यावस्था से शुरू होती है तथा नये-नये अनुभव प्राप्त करने तक चलती रहती है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1
चिन्तन की प्रक्रिया की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की प्रक्रिया की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- चिन्तन की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें अनेक मानसिक प्रक्रियाएँ निहित होती हैं। चिन्तन की प्रक्रिया का ज्ञानात्मक पक्ष सर्वाधिक विकसित होता है।
- चिन्तन की प्रक्रिया स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होती है।
- चिन्तन की प्रक्रिया में संश्लेषण तथा विश्लेषण की क्रियाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
- किसी समस्या के उत्पन्न होने की स्थिति में ही चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।
- चिन्तन की प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति का मस्तिष्क विशेष रूप से क्रियाशील रहता है।
- चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा के साथ-ही-साथ प्रत्ययों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका तथा योगदान होता है।
- चिन्तन की प्रक्रिया के माध्यम से सम्बन्धित समस्या का समाधान प्राप्त कर लिया जाता है।
- चिन्तन की प्रक्रिया अपने आप में उद्देश्यपूर्ण होती है। इस स्थिति में चिन्तन की प्रत्येक प्रक्रिया किसी-न-किसी प्रेरणा से प्रभावित होती है।
प्रश्न 2
चिन्तन के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं? (2011, 12, 16, 18)
उत्तर
चिन्तन के मुख्य प्रकारों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है-
(1) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन– सर्वाधिक रूप से सरल एवं निम्न स्तर के इस चिन्तन में चिन्तन का विषय (वस्तु) सम्मुख होने पर ही उसके विषय में चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। कुतुबमीनार को देखकर उसके विषय में उठने वाले विचारों की श्रृंखला को प्रत्यक्षात्मक चिन्तन कहा जाएगा।
(2) कल्पनात्मक चिन्तन- कल्पनात्मक चिन्तन में प्रत्ययों तथा प्रतिमाओं के आधार पर भावी जीवन, विषयों एवं परिस्थितियों पर विचार किया जाता है। इस भाँति यह कल्पनाप्रधान चिन्तन है। उदाहरणार्थ-कोई शासक या नेता अपने देश की भावी उन्नति के लिए कल्पनात्मक चिन्तन के आधार पर योजनाएँ तैयार करता है।
(3) प्रत्ययात्मक चिन्तन– प्रत्ययों, प्रतिमाओं तथा भाषा के आधार पर चलने वाला चिन्तन प्रत्ययात्मक चिन्तन होता है। इसमें पूर्व-अनुभवों की प्रधानता नहीं होती। उदाहरण के लिए—मन में किसी मकान का विचार आने पर चिन्तन किसी विशेष मकान से नहीं जुड़ता; यह सिर्फ एक सामान्य मकान से सम्बन्धित होता है और यह कोई भी सामान्य मकान हो सकता है।
(4) तार्किक चिन्तन– तार्किक चिन्तन किसी गम्भीर समस्या को लेकर पैदा होता है। कोई गम्भीर समस्या उपस्थित होने पर एक जटिल प्रकार के चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है जिसमें समस्त प्रकार के चिन्तनों का प्रयोग होता है। इस प्रकार समस्या का हल खोज लिया जाता है।
प्रश्न 3
सृजनात्मक चिन्तन की महत्त्वपूर्ण अवस्थाएँ बताइए। (2017)
उत्तर
चिन्तन के एक विशिष्ट रूप को सृजनात्मक अथवा रचनात्मक चिन्तन के रूप में जाना जाता है। सृजनात्मक चिन्तन उन्नत प्रकार का चिन्तन है तथा इसके माध्यम से ही विभिन्न रचनात्मक कार्य किए जाते हैं। समस्त वैज्ञानिक आविष्कार सृजनात्मक चिन्तन के ही परिणाम होते हैं। सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया अपने आप में व्यवस्थित प्रक्रिया होती है तथा इसकी निश्चित अवस्थाएँ या चरण होते हैं।
जिनका सामान्य परिचय निम्नवर्णित है-
(1) तथ्य एकत्र करना या तैयारी- सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया के प्रथम चरण या अवस्था में चिन्तन की समस्या से सम्बन्धित तथ्यों को एकत्र किया जाता है। इस अवस्था को तैयारी की अवस्था भी कहा जाता है। इस अवस्था में एकत्र किए गए तथ्य ही आगे चलकर समस्या समाधान में सहायक होते हैं।
(2) गर्भीकरण- चिन्तन की प्रक्रिया की इस अवस्था में आकर पहले एकत्र किए गए तथ्यों का अचेतन मस्तिष्क में मंथन किया जाता है। यह मंथन ही चिन्तन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहायक होता है तथा व्यक्ति को सम्भावित समाधान सूझता है।
(3) स्फुरणं- सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया की तीसरी अवस्था स्फुरण कहलाती है। इस अवस्था में चिन्तन के लिए ली गयी समस्या का कुछ समाधान प्राप्त होने लगता है।
(4) प्रमापन- यह अन्तिम अवस्था है। वैज्ञानिक क्षेत्र की सभी समस्याओं के प्राप्त किए गए हल की वैधता तथा विश्वसनीयता की जाँच करनी आवश्यक होती है। प्रमापन की अवस्था में इसी प्रकार की जाँच की जाती है। प्रमापन हो जाने पर सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।
प्रश्न 4
कल्पना और चिन्तन के सम्बन्ध एवं अन्तर का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
ये दोनों मानसिक क्रियाएँ एक-दूसरे की विरोधी न होकर परस्पर सहायक सिद्ध होती हैं। कल्पना यदि मानसिक प्रहस्तन (Mental Manipulation) है तो चिन्तन एक मानसिक खोज (Mental Exploration) है। कल्पना चिन्तन का एक मुख्य अवयव है तथा चिन्तन की प्रक्रिया में कल्पना का आधार लिया जाता है; अतः इन दोनों का एक-दूसरे से अलगाव सम्भव नहीं है। कल्पनाविहीन व्यक्ति सृजन की ओर नहीं बढ़ सकता। सृजन चाहे साहित्य से सम्बन्धित हो, चित्र से या शिल्प से; कल्पना प्रत्येक कला की एक पूर्व आवश्यकता है।
किन्तु कल्पना एक सीमा से बाहर जाकर अव्यावहारिक, असामान्य एवं अनुपयोगी सिद्ध होती है; अतः अत्यधिक कल्पना कष्टदायक होती है। वस्तुतः कल्पना की उपयोगिता मानव-जीवन की विभिन्न समस्याओं के समाधान तलाशने तथा नवनिर्माण के लिए सबसे अधिक प्रतीत होती है। दूसरे शब्दों में, चिन्तन से जुड़ी कल्पना महत्त्वपूर्ण एवं सार्थक है।
कल्पना और चिन्तन के पारस्परिक सम्बन्ध से उनके मध्य समानता के कुछ बिन्दु दृष्टिगोचर होते हैं तथापि उनके बीच कुछ अन्तर भी विद्यमान हैं। ये अन्तर अग्रलिखित हैं
प्रश्न 5
चिन्तन तथा स्मृति या स्मरण करने में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
विगत अनुभवों को वर्तमान में याद करना या चेतना में लाना स्मृति कहलाती है। स्मृति भी एक मानसिक प्रक्रिया है तथा चिन्तन भी एक मानसिक प्रक्रिया है। इन दोनों में विद्यमान अन्तर को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है
प्रश्न 6
चिन्तन के सन्दर्भ में प्रत्यय और प्रतिमा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चिन्तंन की प्रक्रिया में प्रत्यय (Concept) तथा प्रतिमा (Image) का विशेष महत्त्व होता है। प्रत्यय को चिन्तन की पहली प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। ये प्रक्रियाएँ पृथक्-पृथक् लगने वाली वस्तुओं, अनुभवों, घटनाओं तथा परिस्थितियों के बीच समानताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रत्यय चिन्तन से उत्पन्न होकर पुनः चिन्तन की प्रक्रिया को क्रियाशील बनाते हैं। प्रतिमाएँ व्यक्ति के भूतकालीन अनुभवों तथा स्मृतियों द्वारा बनती हैं।
स्पर्श, गन्ध, स्वाद तथा श्रवण इत्यादि की प्रतिमाएँ बनती हैं जो धूमिल होती हैं। ये चिन्तन में सहायक हैं, किन्तु अधिक नहीं। इनकी जगह प्रतीक से काम लिया जाता है। प्रत्यय मानसिक, अमूर्त (Abstract) तथा सामान्य होता है किन्तु प्रतिमा मूर्त तथा विशिष्ट होती है। चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमा के बिना तो काम चल सकता है, किन्तु प्रत्यय के बिना नहीं। प्रत्यय, चिन्तन का अनिवार्य यन्त्र होता है।प्रत्यय तथा प्रतिमा के अन्तर को अग्रलिखित रूप से भी प्रस्तुत किया जा सकता है ।
- समस्त प्रत्यय सदैव अमूर्त तथा सामान्य होते हैं तथा इनसे भिन्न प्रतिमाएँ सदैव मूर्त तथा विशेष होती हैं। |
- प्रत्ययों के अभाव में चिन्तन की प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती, परन्तु प्रतिमाओं के अभाव में चिन्तन की प्रक्रिया सम्पन्न हो सकती है।
- कोई एक प्रत्यय एक से अधिक वस्तुओं का प्रतिनिधित्व कर सकता है, परन्तु एक प्रतिमा का सम्बन्ध केवल एक ही वस्तु से होता है।
- प्रत्ययों का विकास एक दीर्घकालिक प्रक्रिया के माध्यम से होता है, जबकि प्रतिमा का विकास सरल प्रक्रिया द्वारा होता है।
- प्रत्यय के निर्माण की प्रक्रिया जटिल होती है, जबकि प्रतिमा के निर्माण की प्रक्रिया अपेक्षाकृत रूप से सरल होती है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1
चिन्तन की प्रक्रिया पर पड़ने वाले पूर्वाग्रहों के प्रभाव को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की तटस्थ प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले कारकों में से एक मुख्य कारक है-व्यक्ति के पूर्वाग्रह। पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति बिना किसी तर्क के ही सम्बन्धित विषये अथवा व्यक्ति के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण विकसित कर लेता है। पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति सम्बन्धित विषय अथवा व्यक्ति के सन्दर्भ में तटस्थ एवं प्रामाणिक चिन्तन नहीं कर पाता तथा उसका चिन्तन पक्षपातपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए-यदि किसी व्यक्ति का पूर्वाग्रह हो कि प्रत्येक सरकारी कर्मचारी रिश्वतखोर है, तो वह किसी भी सरकारी कर्मचारी को ईमानदार नहीं मान सकता तथा इसका प्रभाव भी चिन्तन प्रक्रिया पर अवश्य पड़ता है। अतः तटस्थ चिन्तने के लिए व्यक्ति को पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिए।
प्रश्न2
चिन्तन की प्रक्रिया पर अन्धविश्वासों का क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की तटस्थ प्रक्रिया पर व्यक्ति के अन्धविश्वासों को प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किसी भी प्रकार के अन्धविश्वास से ग्रस्त व्यक्ति तटस्थ एवं सामान्य चिन्तन नहीं कर पाता है। उदाहरण के लिए कुछ व्यक्तियों का अन्धविश्वास है कि यदि किसी कार्य को प्रारम्भ करते समय कोई छींक दे तो कार्य में बाधाएँ आती हैं। इस प्रकार के अन्धविश्वास वाला व्यक्ति अपने कार्य में उत्पन्न होने वाली बाधाओं के यथार्थ कारण को जानने के लिए तटस्थ चिन्तन कर ही नहीं सकता, वह बार-बार छींकने वाले व्यक्ति को ही दोष देता है। अत: तटस्थ एवं प्रामाणिक चिन्तन के लिए व्यक्ति को हर प्रकार के अन्धविश्वासों से मुक्त होना अनिवार्य है।
प्रश्न 3
चिन्तन की प्रक्रिया पर प्रबल संवेगों का क्या प्रभाव पड़ता है।
उत्तर
प्रबल संवेगावस्था में व्यक्ति की चिन्तन की प्रक्रिया तटस्थ नहीं रह पाती है। प्रबल संवेगों की दशा में व्यक्ति शान्त एवं सन्तुलित नहीं रह पाता तथा इस स्थिति में वह प्रामाणिक चिन्तन नहीं कर पाता है। संवेगावस्था में व्यक्ति उत्तेजित हो उठता है तथा उत्तेजना की स्थिति में वैध चिन्तन प्रायः नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए-घृणा से ग्रस्त व्यक्ति सम्बन्धित विषय अथवा व्यक्ति के सन्दर्भ में तटस्थ चिन्तन कर ही नहीं सकता।
प्रश्न 4
व्यक्ति के चिन्तन पर अन्य व्यक्तियों के सुझावों का क्या प्रभाव पड़ता है? संक्षेप में बताइए।
उत्तर
तटस्थ चिन्तन मूल रूप से एक व्यक्तिगत प्रक्रिया है तथा व्यक्ति स्वयं ही इस प्रक्रिया को चलाता है, परन्तु कुछ दशाओं में अन्य व्यक्ति भी अपने-अपने सुझाव प्रस्तुत करने लगते हैं। अन्य व्यक्तियों द्वारा दिये गये सुझाव निश्चित रूप से व्यक्ति के चिन्तन को प्रभावित करते हैं तथा प्राय: उसे पर प्रतिकूल प्रभाव ही डालते हैं। अन्य व्यक्तियों के सुझावों को स्वीकार करने पर व्यक्ति का चिन्तन तटस्थ न रहकर पक्षपातपूर्ण हो जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि किसी भी गम्भीर विषय पर चिन्तन करते समय व्यक्तियों के सुझाव तो आमन्त्रित किये जा सकते हैं, परन्तु उन्हें ज्यों-का-त्यों बिना सोचे-समझे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए।
प्रश्न I. निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए
1. चिन्तन एक……….. प्रक्रिया है, जो वस्तुओं के प्रतीकों के माध्यम से चलती है।
2. किसी समस्या के मानसिक समाधान के लिए होने वाले मानसिक प्रयास को ……..कहते हैं।
3. विभिन्न प्रतीकों के मानसिक प्रहस्तन को ……….. कहते हैं।
4. चिन्तन की प्रक्रिया यथार्थ विषयों के………… के माध्यम से चलती है।
5. चिन्तन की प्रक्रिया पर सुझावों, अन्धविश्वासों तथा संवेगों का………… प्रभाव पड़ता है।
6. सुचारु चिन्तन के लिए प्रबल प्रेरणा एक………. कारक है।
7. सरल एवं व्यवस्थित चिन्तन में भाषा …………….सिद्ध होती है।
8. यदि चिन्तन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो उसे………..चिन्तन कहा जाएगा।
9. कुतुबमीनार या ताजमहल को देखकर उसके विषय में होने वाले चिन्तन को …….. कहते हैं।
10. चिन्तन के विषय में व्यवस्थित नियमों के प्रतिपादने का श्रेय ….. नामक मनोवैज्ञानिक का है।
उत्तर
1. ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया, 2. चिन्तन, 3. चिन्तन, 4. प्रतीकों, 5. प्रतिकूल, 6. सहायक, 7. सहायक, ३. वैध, 9. प्रत्यक्षात्मक चिन्तन, 10. स्पीयरमैन।
प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए
प्रश्न 1.
किसी समस्या के उत्पन्न होने पर उसके समाधान के लिए मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले उपाय को मनोविज्ञान की भाषा में क्या कहते हैं?
उत्तर
चिन्तन
प्रश्न 2.
समस्या के समाधान के लिए चिन्तन की प्रक्रिया के अन्तर्गत क्या किया जाता है?
उत्तर
समस्या के समाधान के लिए चिन्तन की प्रक्रिया के अन्तर्गत मस्तिष्क द्वारा उस समस्या के विभिन्न पक्षों का विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है तथा विचारों की एक श्रृंखला विकसित की जाती है।
प्रश्न 3.
चिन्तन किस प्रकार की प्रक्रिया है?
उत्तर
चिन्तन अपने आप में एक ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।
प्रश्न 4.
चिन्तन की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उक्ट
बी०एन०झा के अनुसार, “चिन्तन एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें मन किसी विचार की गति को प्रयोजनात्मक रूप में नियन्त्रित एवं नियमित करता है।”
प्रश्न 5.
वुडवर्थ के अनुसार चिन्तन से क्या आशय है? |
उत्तर
वुडवर्थ के अनुसार, चिन्तन एक मानसिक खोज है।
प्रश्न 6.
चिन्तन की प्रक्रिया मुख्य रूप से किनके माध्यम से चलती है?
उत्तर
चिन्तन की प्रक्रिया मुख्य रूप से प्रतीकों के माध्यम से चलती है।
प्रश्न 7.
चिन्तन के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर
चिन्तन के मुख्य प्रकार हैं-प्रत्यक्षात्मक चिन्तन, कल्पनात्मक चिन्तन, प्रत्ययात्मक चिन्तन तथा तार्किक चिन्तन।
प्रश्न 8.
उत्तम चिन्तन के लिए चार अनुकूल कारकों या परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
उत्तम चिन्तन के लिए चार अनुकूल कारक या परिस्थितियाँ हैं—
- प्रबल प्रेरणाएँ
- रुचि
- अवधान तथा
- बुद्धि
प्रश्न 9.
चिन्तन की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
चिन्तन की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले चार कारक हैं
- सुझाव
- पूर्वाग्रह
- अन्धविश्वास तथा
- प्रबल संवेग।
प्रश्न 10.
चिन्तन की प्रक्रिया में भाषा का क्या मुख्य योगदान है?
उत्तर
भाषा चिन्तन की प्रक्रिया को व्यवस्थित तथा सरल बना देती है।
बहुविकल्पीय प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
मनुष्य के सन्दर्भ में चिन्तन किस प्रकार का गुण है?
(क) आवश्यक
(ख) अनावश्यक
(ग) मौलिक
(घ) शारीरिक
उतर
(ग) मौलिक
प्रश्न 2.
चिन्तन के सन्दर्भ में कौन-सा कथन सत्य है?
(क) चिन्तन एक ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।
(ख) व्यवस्थित चिन्तन केवल मनुष्य का ही मौलिक गुण है।
(ग) चिन्तन की प्रक्रिया में वस्तुओं का नहीं बल्कि उनके प्रतीकों का मानसिक प्रहस्तन | होता है।
(घ) चिन्तन सम्बन्धी उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
उतर
(घ) चिन्तन सम्बन्धी उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
प्रश्न 3.
चिन्तन ज्ञानात्मक रूप में एक मानसिक प्रक्रिया है।” चिन्तन की यह परिभाषा किस मनोवैज्ञानिक द्वारा प्रतिपादित है?
(क) बी०एन०झा
(ख) वुडवर्थ
(ग) मैक्डूगल
(घ) जे०एस०रॉस
उतर
(घ) जे०एस०रॉस
प्रश्न 4.
किस प्रकार के चिन्तन में विषय-वस्तु सामने होने पर ही उसके विषय में चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है?
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन
(ग) प्रत्ययात्मक चिन्तन
(घ) तार्किक चिन्तन
उतर
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
प्रश्न 5.
चिन्तन के किस प्रकार के अन्तर्गत प्रत्यक्षों एवं प्रतिमानों के आधार पर भविष्य के विषयों एवं परिस्थितियों का चिन्तन किया जाता है?
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन
(ग) प्रत्ययात्मक चिन्तन
(घ) तार्किक चिन्तन
उतर
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन
प्रश्न 6.
किसी गम्भीर समस्या के समाधान के लिए किये जाने वाले चिन्तन को कहते हैं
(क) प्रत्यक्षात्मक चिन्तन
(ख) कल्पनात्मक चिन्तन ।
(ग) तार्किक चिन्तन
(घ) प्रत्ययात्मक चिन्तन
उतर
(ग) तार्किक चिन्तन
प्रश्न 7.
चिन्तन के विषय में सम्बन्धों के पृथक्करण तथा सह-सम्बन्धों के पृथक्करण के दो नियम किस विद्वान द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं?
(क) मैक्डूगल
(ख) फ्रॉयड
(ग) स्पीयरमैन
(घ) बी०एन०झा
उतर
(ग) तार्किक चिन्तन
प्रश्न 8.
ध्यान एवं रुचि चिन्तन की प्रक्रिया के लिए होते हैं
(क) बाधक
(ख) अनावश्यक
(ग) सहायक
(घ) व्यर्थ
उतर
(ग) सहायक
प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन-सा तत्त्व चिन्तन की प्रक्रिया में बाधक नहीं है?
(क) प्रेरणाएँ
(ख) पूर्वाग्रह
(ग) अन्धविश्वास
(घ) ये सभी
उतर
(क) प्रेरणाएँ
प्रश्न 10.
चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतीकों को अपनाने से चिन्तन की प्रक्रिया
(क) अस्त-व्यस्त हो जाती है।
(ख) सरल एवं उत्तम हो जाती है।
(ग) जटिल एवं कठिन हो जाती है।
(घ) असम्भव हो जाती है।
उतर
(ख) सरल एवं उत्तम हो जाती है।