(क) एक कम (ख) सत्य

विष्णु खरे

सप्रसंग व्याख्या

(क) एक कम

  1. 1947 के बाद से

इतने लोगों को इतने तरीकों से

आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है

कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है

पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए

तो जान लेता हूँ

मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है

मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी

या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर और

एक मामूली धोखेबाज़

लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच लज्जा परेशानी

या गुस्से पर आश्रित

तुम्हारे सामने बिलकुल नंगा निर्लज्ज और निराकांक्षी

मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से

मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं

मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम

कम से कम एक आदमी से तो निश्चित रह सकते हो

संदर्भ प्रस्तुत कविता पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित है। आधुनिक जीवन शैली को आधार बना कर कवि विष्णु खरे ने ‘एक कम’ कविता की रचना की है।

प्रसंग स्वतंत्र भारत की परिस्थितियों एवं सामाजिक विसंगतियों को कवि विष्णु खरे बेबाकी के साथ सामने रखते हैं।

व्याख्या आजादी के संघर्ष में कुर्बानियाँ देने वाले सेनानियों ने सुंदर तथा सुखद भविष्य की कल्पनाएँ की थीं। लोगों ने गुलामी को देखा था। पराधीनता से मुक्ति मिलने के बाद स्वाधीन देश में जीने की स्वतंत्र संकल्पना से उत्साहित लोगों को स्वशासन में उन्नति की प्रवृत्ति दिखी, किंतु जल्दी ही लोगों का यह स्वप्न खंडित हो गया। समाजविरोधी और स्वार्थी लोग मालामाल होते गए। धन संचय की प्रक्रिया में संलग्न लोगों ने नैतिक मान्यताओं को महत्त्व नहीं दिया। अनैतिक तरीकों से धन कमाने से आस्थावान, ईमानदार तथा संवेदनशील जनता का मोहभंग होने लगा।

भ्रष्ट तथा अनैतिक लोग आगे बढ़ गए तथा ईमानदार लोग औरों के सामने हाथ फैलाने को मजबूर हो गए। कवि जब किसी को हाथ फैलाए भीख माँगते देखता है तो उसे वह व्यक्ति ईमानदार और नैतिक लगता है। वह भिखारी बेईमान न बन सकने वाला प्राणी है, जिसका हिस्सा किसी बेईमान ने हड़प लिया है।

कवि इस विषम स्थिति में अपने को लाचार मानता है। वह शोषक वर्ग में शामिल होकर अनैतिक प्रवृत्तियों में संलग्न नहीं होना चाहता। ईमानदार तथा बेबस लोगों के संघर्ष में वह बाधा नहीं बनना चाहता। उसके शोषकों के साथ न जुड़ने से ईमानदार लोगों की लड़ाई का एक अवरोध दूर हो गया है। वह अनैतिक तथा भ्रष्ट लोगों से होड़ भी नहीं करना चाहता।

कवि ईमानदार तथा समाज के आस्थावान लोगों को आश्वस्त करते हुए कहता है कि मैं किसी का हिस्सा हड़पना नहीं चाहता। वह सहानुभूति के स्तर पर समाज के नैतिक लोगों के साथ है।

शब्दार्थ गतिशील विकास करने वाला; आश्रित निर्भर; निर्लज्ज लज्जाहीन;

निराकांक्षी = इच्छारहित; प्रतिद्वंद्वी विरोधी; निश्चित = चिंताहीन; होड़ प्रतिस्पर्द्धा

काव्य-सौंदर्य

(ख) सत्य

  1. जब हम सत्य को पुकारते हैं

तो वह हमसे परे हटता जाता है

जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से

भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में

सत्य शायद जानना चाहता है

कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं

कभी दिखता है सत्य

और कभी ओझल हो जाता है

और हम कहते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं

जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर

कि ठहरिए स्वामी विदुर

यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर

वे नहीं ठिठकते

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित कविता ‘सत्य’ से लिया गया है। इस कविता की रचना प्रसिद्ध कवि विष्णु खरे ने की है।

प्रसंग सत्य मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा संबल है। पर यह हमसे दूर जा रहा है। कवि ने इस कविता में विदुर तथा युधिष्ठिर के माध्यम से इसे दिखाने का प्रयास किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि हम जब भी सत्य के निकट जाना चाहते हैं, तो वह हमसे दूर चला जाता है। महाभारत की कथा का आश्रय लेकर कवि कहता है कि

विदुर युद्ध से पूर्व कौरवों के मंत्री थे तथा युद्ध के बाद पांडवों के मंत्री बने। युधिष्ठिर उन्हें रोकना चाहते थे, पर वे घने जंगलों की ओर चले गए। सत्य यही है। विदुर सत्य का प्रतीक पात्र है। सभी उसे प्राप्त करना चाहते हैं पर वह हमसे दूर हो जाता है।

सत्य यह जानना चाहता है कि हम उसके पीछे कहाँ तक भटकते हैं। सत्य को पाना आसान नहीं है। आज के युग में सत्य की पहचान कठिन हो गई है क्योंकि सत्य कभी तो दिखाई देता है और कभी हमारी आँखों से ओझल हो जाता है। हम सत्य के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करके, उसे रोकना चाहते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे युधिष्ठिर विदुर को रोकना चाहते हैं, लेकिन सत्य विदुर की तरह ही भागा चला जाता है। सत्य किसी निष्ठावान की पुकार सुनकर भी नहीं रुकता। उसका रुकना तो दूर, उसे ठिठकता हुआ भी किसी ने नहीं देखा है।

शब्दार्थ परे दूर; गुहारते आवाज लगाते हुए; ओझल निगाह से दूर; दुहाई देना विश्वास दिलाना

काव्य-सौंदर्य

  1. यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य लेकिन पलटकर सिर्फ खड़ा ही रहता है वह दृढ़निश्चयी अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें और उसमें से उसी का हलका-सा प्रकाश जैसा आकार समा जाता है हममें जैसे शमी वृक्ष के तने से टिककर न पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को निर्निमेष देखा था अंतिम बार और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीरे आगे बढ़कर

मिल गया था युधिष्ठिर में

सिर झुकाए निराश लौटते हैं हम

कि सत्य अंत तक हमसे कुछ नहीं बोला

हाँ हमने उसके आकार से निकलता वह प्रकाश-पुंज देखा था

हम तक आता हुआ

वह हममें विलीन हुआ या हमसे दूर होता हुआ आगे बढ़ गया

संदर्भ यह काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित ‘सत्य’ कविता शीर्षक से उद्धृत है। इसकी रचना विष्णु खरे ने की है।

प्रसंग कवि युधिष्ठिर के संकल्प के माध्यम से सत्य के प्रति व्यक्ति की निष्ठा को दर्शाना चाहता है।

व्याख्या कवि कहते हैं कि सत्य को प्राप्त करने अथवा खोज करने के लिए व्यक्ति में युधिष्ठिर जैसी संकल्प शक्ति होनी चाहिए। जीवन में निरंतर सच्चाई की खोज में लगे व्यक्ति को संभव है कि कहीं उसके दर्शन हो जाएँ। कभी-कभी सत्य हमें अपने सामने खड़ा-सा प्रतीत होता है किन्तु उसका ध्यान हमारी ओर नहीं रहता। यदि सत्य से साक्षात्कार के समय वह हमारी ओर देख लेता है तो ऐसा आभास होता है जैसे सारा मन-प्राण एक नई शक्ति से भर गया है। सत्य के एक बार देख लेने मात्र से एक नवीन ऊर्जा का संचार होता है।

महाभारत के प्रसंग के अनुसार युधिष्ठिर ने विदुर को शमी वृक्ष के तने से टिका देखा था। जब विदुर ने अपलक दृष्टि से उनकी ओर देखा तो एक विशेष प्रकार का प्रकाश विदुर की ओर से आकर युधिष्ठिर में समा गया। इसी प्रकार जब कभी सत्य हमारे आसपास होता है तो हमारे शरीर में भी वह आलोक की तरह समा जाता है। किन्तु कभी-कभी सच हमारे पास ठहरता नहीं, बस पास से निकल जाता है।

सच हमेशा बदलता रहता है। उसका कोई निश्चित या स्थिर रूप नहीं है। जो एक के लिए सत्य है वही दूसरे के लिए असत्य हो सकता है। जैसे विदुर ने बिना कुछ कहे अपने तेज को युधिष्ठिर में प्रविष्ट कर दिया था वैसे ही कभी-कभी जाने अनजाने सत्य हमारे अंदर समा जाता है। पर कभी-कभी वह हमारी अनदेखी कर पास से निकल जाता है। हम उसे प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं।

शब्दार्थ संकल्प = प्रतिज्ञा; निर्निमेष = बिना पलक झपकाए; आलोक प्रकाश; विलीन समा जाना

काव्य-सौंदर्य

4.

हम कह नहीं सकते

न तो हममें कोई स्फुरण हुआ और न ही कोई ज्वर

किंतु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते हैं

कैसे जानें कि सत्य का वह प्रतिबिंब हममें समाया या नहीं

हमारी आत्मा में जो कभी-कभी दमक उठता है

क्या वह उसी की छुअन है

जैसे

विदुर कहना चाहते तो वही बता सकते थे

सोचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट नीचा किए

युधिष्ठिर ने

खांडवप्रस्थ से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए।

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश विष्णु खरे की कविता ‘सत्य’ से लिया गया है, जो पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित है।

प्रसंग कवि सत्य को आधुनिक संदर्भों में जानना चाहता है। वह अपने जीवन में सत्य की सत्ता के अस्तित्व को समझना चाहता है।

व्याख्या सत्य एक शाश्वत सत्ता है। इसका निश्चित रूप संसार के प्रत्येक प्राणी में समाया हुआ है। यह सत्य हमारे पास से गुजरता है, हमारा स्पर्श करता है, किंतु इसकी कोई निश्चित प्रवृत्ति नहीं है। जिस सत्य का संचार हमारे हृदय में होता है, उसे दूसरे अपने ढंग से ग्रहण करते हैं। यह जानना कठिन है कि सत्य हमारी आंतरिक चेतना का अंग बना है या नहीं। कभी-कभी मन में बहुत तीव्र उठने वाली भावना को हम आत्मा की आवाज के रूप में सत्य मान लेते हैं।

कवि कहता है कि विदुर युधिष्ठिर की पुकार पर कुछ कह सकते थे। युधिष्ठिर ने जो विदुर से जानना चाहा वह विदुर के बिना कहे ही युधिष्ठिर की आत्मा का अंग बन गया था। वन भूमि से राजधानी की ओर लौटते हुए युधिष्ठिर ने सिर झुकाकर विचार किया होगा कि यदि विदुर कुछ कहना चाहते तो बोलकर बता सकते थे।

आज के युग में मनुष्य की द्वंद्वात्मकता उसे स्थिर नहीं कर पाती, वह सत्य को समझ नहीं पाता।

शब्दार्थ स्फुरण कंपन; ज्वर बुखार; प्रतिबिंब परछाई; दमक चमक; छुअन स्पर्श। इंद्रप्रस्थ दिल्ली का पुराना नाम

काव्य-सौंदर्य

प्रश्न-अभ्यास

एक कम

  1. कवि ने लोगों के आत्मनिर्भर, मालामाल तथा गतिशील होने के लिए किन तरीकों की ओर संकेत किया है? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर कवि ने स्वतंत्र भारत का सत्य सामने रखा है। उसने माना है कि आज जो आत्मनिर्भर, मालामाल तथा गतिशील है, उसके पीछे उसकी नकारात्मक गतिविधियों का हाथ है। आजादी के संघर्ष के दौरान नेताओं ने एक ऐसे देश की कल्पना की थी, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति दूसरे के लिए जीता है। किंतु उनका स्वप्न खंडित हो गया। लोगों ने स्वतंत्रता का अपने अनुसार लाभ उठाया। भ्रष्ट आचरण, बेईमानी तथा शोषण के बल पर लोग मालामाल होने लगे। ऐसे लोगों ने देश की आंतरिक व्यवस्था को खोखला कर दिया। निष्ठा तथा आस्था के साथ समाज के प्रति संवेदना रखने वाले ईमानदार लोग ठोकरें खाने तथा भीख माँगने को मजबूर हो गए।

  1. हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को कवि ने ईमानदार क्यों कहा है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर कवि मानता है कि भ्रष्ट आचरण तथा बेईमानी के माध्यम से आज लोग धनवान बनते जा रहे हैं। जो लोग धन के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाते हैं, आज

उनके पास धन की बरसात हो रही है। झूठ बोलना, दूसरों को धोखा देना तथा शोषण के माध्यम से आगे निकलने की कला में जो माहिर हैं, वही प्रतिष्ठित हैं।

कवि जब किसी व्यक्ति को हाथ फैलाए भीख माँगते देखता है तो उसे लगता है कि उस व्यक्ति ने बेईमानी तथा भ्रष्ट आचरण को नहीं अपनाया बल्कि उसके हिस्से को भी किसी ने हड़प लिया है। कवि ऐसे लोगों को ईमानदार मानता है।

3. कवि ने स्वयं को लाचार, कामचोर, धोखेबाज क्यों कहा है?

उत्तर कवि समाज की विसंगतियों से क्षुब्ध है। वह भ्रष्ट तथा बेईमान लोगों के कृत्यों का प्रभाव समाज में देखता है। हाथ फैलाने वाले ईमानदार लोगों के संघर्ष से कवि सहानुभूति रखता है, किंतु उनकी सहायता नहीं कर पा रहा। अपनी दुर्बलता को कवि लाचार तथा कामचोर के रूप में देखता है। वह ईमानदार लोगों को सहायता नहीं करके उनके संघर्ष को कमजोर कर रहा है। कवि इसे स्वीकार कर स्वयं को धोखेबाज मानता है। वह भ्रष्टाचार, बेईमानी तथा शोषण के नग्न रूप को देखता हुआ भी चुप है। वह ईमानदार तथा संवेदनशील जनता की दुर्दशा को देख रहा है, किंतु कुछ भी कर पाने में असमर्थ है।

4. ‘मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं’ से कवि का क्या अभिप्राय है?

उत्तर कवि में भ्रष्ट, बेईमान तथा शोषक वर्ग का विरोध करने का आत्मिक साहस नहीं है। वह मानता है कि ऐसे लोगों की दुनिया बड़ी है जो समाज के संवेदनशील तथा आस्थावान लोगों का शोषण कर रहे हैं। कवि ऐसे सफेदपोश वर्ग का प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं है। उसकी सहानुभूति ईमानदार लोगों के साथ है। वह समाज की विसंगतियों को दिशा देने वाले वर्ग के साथ संघर्ष नहीं कर सकता, लेकिन वह असामाजिकता का हिस्सेदार भी नहीं बन सकता। कवि भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ शक्ति संचित नहीं कर पाने वाले वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। वह यह भी जानता है कि समाज को खोखला कर रहे वर्ग से प्रतिद्वंद्विता का हथियार उसके पास नहीं है।

5. भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए

(क) 1947 के बाद से……….गतिशील होते देखा है।

(ख) मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ……..एक मामूली धोखेबाज।

(ग) तुम्हारे सामने बिल्कुल………लिया है हर होड़ से।

उत्तर (क) इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने स्पष्ट किया है कि पराधीनता से मुक्ति मिलने के बाद जल्दी ही आदमी के सुंदर स्वप्न खंडित हो गए। भ्रष्ट तंत्र स्थापित हो गया। धन संचय की प्रक्रिया में लोगों ने नैतिकता को महत्त्व नहीं दिया। सब तरफ बेईमानी, रिश्वतखोरी, जमाखोरी, जातिवाद, आतंकवाद का वातावरण व्याप्त हो गया और लोग अपने स्वार्थ के अतिरिक्त किसी और की चिंता नहीं करते।

(ख) कवि स्वयं को भी इस भ्रष्ट व्यवस्था का एक अंग मानता है क्योंकि वह इस भ्रष्ट व्यवस्था में अपेक्षित सुधार कर सकने में असमर्थ है। वह स्वयं को बेबस, कमजोर और धोखेबाज भी कहता है क्योंकि वह बातें तो बड़ी-बड़ी नैतिकता और ईमानदारी की करता है परन्तु समाज में व्याप्त अनैतिकता का विरोध करने में असमर्थ है।

(ग) कवि इस विषम स्थिति में स्वयं को लाचार मानता है, वह ईमानदार तथा बेबस लोगों की लड़ाई में बाधा बनना नहीं चाहता। इसलिए उनके रास्ते से हट जाता है जिससे वे स्वयं अपनी लड़ाई लड़ सके।

6. शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए

(क) कि अब जब कोई………..या बच्चा खड़ा है।

(ख) मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी……..निश्चित रह सकते हो।

उत्तर (क) कवि ने ईमानदार व्यक्तियों की दयनीय दशा का चित्रण किया है।

(ख) यहाँ कवि स्वयं के प्रति लोगों को आश्वस्त करता है कि वह उनकी प्रगति की राह का अवरोधक नहीं है।

सत्य

  1. सत्य क्या पुकारने से मिल सकता है? युधिष्ठिर विदुर को क्यों पुकार रहे हैं-महाभारत के प्रसंग से सत्य के अर्थ खोलें।

उत्तर विदुर ‘महाभारत’ युद्ध के पूर्व कौरवों के साथ थे। वैसे उन्होंने सत्य का


साथ देने के कारण युद्ध के दौरान तटस्थता अपनाई। युद्ध के बाद पांडवों के मंत्री बने, लेकिन जल्दी ही घने जंगलों की ओर चले गए। युधिष्ठिर सत्य के प्रतीक विदुर को रोकना चाहते थे। विदुर जंगल की ओर बढ़ गए। युधिष्ठिर की पुकार को सुन कर भी विदुर नहीं रुके, किंतु शमी वृक्ष के नीचे बैठे विदुर का सत्य युधिष्ठिर में समा गया। कवि मानता है कि सत्य पुकारने से नहीं, सत्यान्वेषी बनने से प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए संकल्प करना होता है तथा अपनी आत्मिक शक्ति को विस्तार देना जरूरी होता है।

2. सत्य का दिखना और ओझल होना से कवि का क्या तात्पर्य है?

उत्तर बदलते परिवेश तथा समाज के अंतर्संबंधों में आए परिवर्तन ने सत्य की पहचान को अस्थिर कर दिया है। आज के समय में सत्य की कोई स्थिर सत्ता नहीं रह गई है। वह घटनाओं, प्रवृत्तियों, पात्रों तथा परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तित होता रहता है। सत्य के इस बदलते स्वरूप के कारण हम उसे कभी साक्षात् देख पाते हैं तो कभी वह आँखों से ओझल हो जाता है। सत्य अस्थिर सत्ता है किंतु इसे दृढ़-संकल्प से अपने वश में किया जा सकता है तथा उसे आत्मा की आंतरिक शक्ति के रूप में महसूस किया जा सकता है।

3. सत्य और संकल्प के अंतर्संबंध पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर सत्य का संकल्प से गहरा रिश्ता है। सत्य को बिना संकल्प के पाना असंभव है। इस कविता में विदुर सत्य का प्रतीक है। युधिष्ठिर अपने संकल्प के माध्यम से विदुर के सत्य तक पहुँचता है। सत्य को आवाज देकर नहीं रोका जा सकता। पुकारने पर सत्य ठिठकता भी नहीं। इसे आत्मसात् करने के लिए व्यक्ति को दृढ़-प्रतिज्ञ होकर सत्यान्वेषण के लिए निकलना पड़ता है। सत्य एक तेज है जो सत्यनिष्ठ तथा संकल्पी मनुष्य के अंतः में आसानी से प्रवेश पा सकता है। विदुर का सत्य युधिष्ठिर के संकल्प से उसके हृदय में समाहित हो जाता है।

  1. ‘युधिष्ठिर जैसा संकल्प’ से क्या अभिप्राय है?

उत्तर कवि का आशय है कि यदि हमें सत्याचरण करते हुए सत्य के मार्ग पर चलना है तो हमें युधिष्ठिर के समान दृढ़ निश्चयी बनकर यह प्रण करना होगा कि हम सत्य के मार्ग से कभी नहीं हटेंगे चाहे हमें कितनी भी विपत्तियों का सामना क्यों


न करना पड़े। युधिष्ठिर आजीवन सत्य के मार्ग पर चलते रहे, जिसके कारण उन्हें अपने राज्य से हाथ धोना, वनवास और अज्ञातवास में रहना पड़ा और न चाहते हुए भी कौरवों से युद्ध करना पड़ा।

5. सत्य की पहचान हम कैसे करें? कविता के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर जिस समय और समाज में हम जी रहे हैं, उसमें सत्य की पहचान कठिन है। सत्य कभी दिखता है तो कभी आँखों से ओझल रहता है। सत्य का कोई स्थिर रूप, आकार या पहचान नहीं है। सत्य की पहचान अरिथर है। आवश्यक नहीं कि एक व्यक्ति का सत्य दूसरे का भी सत्य हो। बदलते परिवेश तथा मानवीय संबंधों में परिवर्तन से सत्य की पहचान परिवर्तित हो जाती है। सत्य के प्रति संशय के विस्तार के बावजूद, यह हमारी आत्मा की आंतरिक शक्ति है। सत्य को पहचानने के लिए हमें अपनी आत्मा की आवाज को सुनना होगा।

6. कविता में बार-बार प्रयुक्त ‘हम’ कौन है और उसकी चिंता क्या है?

उत्तर कविता में बार-बार प्रयुक्त शब्द ‘हम’ आज के उन व्यक्तियों के लिए है जो सत्य को जानना चाहते हैं और सत्याचरण के मार्ग पर चलना चाहते हैं। इस ‘हम’ की सबसे बड़ी चिंता है कि वह सत्य को कैसे पहचाने ? जिस समाज और समय में वह जी रहा है उसमें सत्य की पहचान बहुत कठिन होती जा रही है। उसे सत्य का कोई स्थिर रूप, आकार अथवा पहचान दिखाई नहीं देती। उसे सत्य कभी दिखाई देता है और कभी नहीं देता।

  1. सत्य की राह पर चल। अगर अपना भला चाहता है तो सच्चाई को पकड़। इन पंक्तियों के प्रकाश में कविता का मर्म खोलिए।

उत्तर मनुष्य का कल्याण सत्य में निहित है। यह जीवन का मूल मंत्र है जो भी सत्य की राह पर चलेगा, उसका जीवन सरल हो जाता है। सत्य का मार्ग आसान नहीं है। सत्य को प्राप्त करने के लिए संकल्प-शक्ति का विस्तार करना होता है। सत्य वह सत्ता है जो कभी दिखता है तो कभी ओझल हो जाता है, किंतु सत्य मनुष्य की आत्मा की आंतरिक शक्ति है। कवि का मानना है कि यदि मनुष्यता को अपना भला सोचना है तो उसे सत्य के सन्मार्ग पर आगे बढ़ना होगा। सच्चाई को पकड़ कर ही सामाजिक संबंधों को महत्त्वपूर्ण बनाया जा सकता है।

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