(क) कवित्त (ख) सवैया

घनानंद

सप्रसंग व्याख्या

(क) कवित्त

  1. बहुत दिनान को अवधि आसपास परे, खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को। कहि कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को।। झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास है कै, अब ना घिरत घन आनँद निदान को। अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान, चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को।।

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित ‘कवित्त’ शीर्षक कविता का अंश है। यह घनानंद की रचना है, जो रीतिकाल के प्रमुख स्वच्छंदतावादी कवि हैं।

प्रसंग कवि ने अपनी प्रेमिका सुजान के अंतिम दर्शन की अभिलाषा को इस काव्यांश में व्यक्त किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि सुजान से बिछुड़े काफी समय बीत गया है। मैं उससे मिलने की आशा को त्याग नहीं पाता। वैसे अब मेरे प्राण शीघ्रता से निकलता चाहते हैं। उसने मेरे आग्रह पर आने का वादा किया था। मेरे प्राण उसके वादों का सम्मान कर मिलने की आस लिए अब तक अटके हुए हैं, किंतु वे भी अब इन झूठे वादों से ऊब गए हैं। अब मेरे प्राणों को मेरी बातों पर विश्वास नहीं रहा।

कवि कहता है कि प्रेमिका के आने की झूठी बात पर विश्वास करने से मन उदास हो जाता है। अब न तो प्रिय का समाचार लाने वाले बादल घिरते हैं और न आनंद की वर्षा होती है। कवि घनानंद प्रेमिका सुजान की निष्ठुरता से विचलित होकर चाहते हैं कि अब प्राण निकल ही जाएँ। कवि की इच्छा है कि प्राण निकलने के बाद सुजान को उसकी विरह व्यग्रता से अवगत करावें।

शब्दार्थ दिनान दिनों से आस-पास आशारूपी फंदा; अरबरनि हड़बड़ाहट; आवन आना; गहि = पकड़कर; बतियानि की बातों की; पत्यानि = विश्वास; पयान प्रयाण; निदान रोग का लक्षण; सनमान सम्मान

काव्य-सौंदर्य

  1. आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौलों?

कहा मो चकित दसा त्यों न दीठि डोलिहै?

मौन हू सौं देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू,

कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।

जान घनआनंद यों मोहिं तुम्हैं पैज परी,

जानियैगो टेक टरें कौन धौ मलोलिहै।।

रुई दिए रहौगे कहाँ लौ बहरायबे की?

कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै।

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित ‘कवित्त’ शीर्षक का अंश है। स्वच्छंदतावादी रीतिमुक्त कवि घनानंद ने इस ‘कवित्त’ की रचना की है।

प्रसंग प्रेमिका से मिलने की आशा, उसके द्वारा की जाने वाली आनाकानी तथा बातों को अनसुना करने जैसे व्यवहार को कवि ने इस काव्यांश में प्रस्तुत किया है।

व्याख्या कवि अपनी प्रेमिका को संबोधित करता हुआ कहता है कि तुम मेरी बातों को अनसुनी कर दर्पण में कब तक अपना चेहरा देखती रहोगी ? उस दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिंब तुम्हारा ही है, मेरा नहीं। कब तक तुम मेरी व्यथा की ओर ध्यान नहीं दोगी? अर्थात् एक न एक दिन तुम्हें मेरी ओर देखना ही होगा। तुमने मुझसे न बोलने का जो प्रण धारण किया है, उसका कब तक तुम पालन करोगी। एक न एक दिन तुम्हारा यह प्रण अवश्य टूटेगा और तुम मुझसे बात करोगी।

घनानंद कहते हैं कि तुमने मुझसे न बोलने का जो प्रण लिया है, उसके टूटने पर तुम्हें ही पछताना पड़ेगा। इस तरह कानों में रुई डालकर बैठने से काम नहीं चलेगा। कभी न कभी मेरी करुण पुकार तुम्हारे कानों में अवश्य पड़ेगी अर्थात् तुम्हें मेरी बात अवश्य सुननी पड़ेगी।

शब्दार्थ आनाकानी टालने की बात; आरसी अँगूठे में पहनने वाला दर्पण; दीठि दृष्टि; कितेक कितने; कूक भरी पुकार भरी; मूकता चुप्पी; पैज बहस; टेक जिद

काव्य-सौंदर्य

(क) सवैया

  1. तब तौ छबि पीवत जीवत है, अब सोचन लोचन जात जरे। हित-तोष के तोष सु प्रान पले, विललात महा दुख दोष भरे। घनआनंद मीत सुजान बिना, सब ही सुख-साज-समाज टरे। तब हार पहार से लागत हे, अब आनि कै बीच पहार परे।।

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित ‘सवैया’ शीर्षक से उद्धृत है। रीतिकाल के स्वच्छंदतावादी कवि घनानंद इसके रचयिता हैं।

प्रसंग कवि अपनी प्रेमिका से दूर जाकर मिलन तथा विरह की अवस्थाओं का अंतर स्पष्ट करता है।

व्याख्या कवि अपनी प्रेमिका ‘सुजान’ को संबोधित करता हुआ कहता है कि जब तुम मेरे निकट थी तब तो मैं तुम्हारी छवि का रसपान करते हुए जीवित रहता था और अब विरह की अवस्था में हृदय के दुखों का यही कारण है। संयोग की अवस्था में मेरे प्राणों को संतोष का बोध होता था, अब वियोग की दशा में महान दुख से मैं व्याकुल हूँ। यह दुख महादोष से भरा है।

कवि घनानंद कहते हैं कि हे, प्रिय सुजान ! तुम्हारे बिना सुख-सुविधा के सारे सामान दूर हो गए हैं और जीवन में सुख का अभाव हो गया है। मेरे तुम्हारे मिलन के समय तुम्हारे गले का हार पहाड़ की तरह अवरोध बन जाते थे, पर अब तो अवरोध रूपी पहाड़ ही सामने खड़ा है। मिलन संभव प्रतीत नहीं होता।

शब्दार्थ छवि पीवत शोभा का पान करना; लोचन नेत्र; तोष संतोष; बिललात व्याकुल; मीत मित्र; साज सामान; टरे हट गए; हार माला; कै कर

काव्य-सौंदर्य

  1. पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यौ। ताही के चारु चरित्र बिचित्रनि यों पचिकै रचि राखि बिसेख्यौ। ऐसो हितो हितपत्र पवित्र जो आन-कथा न कहूँ अवरेख्यौ। सो घनआनंद जान अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यौ।

संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित ‘सवैया’ शीर्षक से लिया गया है। इस ‘सवैया’ की रचना रीतिमुक्त कवि घनानंद ने की है।

प्रसंग इस काव्यांश में कवि अपने द्वारा भेजे गए प्रेम-पत्र को प्रेमिका द्वारा बिना पढ़े ही फाड़ दिए जाने से हताश होकर अपनी मन स्थिति व्यक्त करता है।

व्याख्या कवि कहता है कि मैंने पूर्ण प्रेम के महामंत्र को, पूरी निष्ठा के साथ, खूब सोच-विचार कर बड़ी शुद्धता के साथ अपने ह्दयरूपी पत्र में लिखा है। यह पत्र विचित्र है क्योंकि ऐसा प्रेम-पत्र आज तक लिखा ही नहीं गया। मैंने इस पत्र में अपनी प्रेमिका के सुंदर रूप तथा चरित्र को चित्रित किया है। इस पत्र को मैंने बड़ी तन्मयता तथा मन की पवित्रता से लिखा है। साथ ही इसमें ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया है कि प्रेमिका इसे पढ़कर नाराज हो। मैंने इस पत्र में अपने एकनिष्ठ प्रेम का ही वर्णन किया है।

कवि घनानंद कहते हैं कि मेरी प्रेमिका सुजान ने जानबूझकर अज्ञानी की भाँति बिना पढ़े, बिना देखे ही पत्र के टुकड़े कर दिए तथा इसे पढ़ने का प्रयास भी नहीं किया। यदि वह इस पत्र को पढ़ लेती तो उसे मेरे हृदय में स्थित प्रेम-भाव का आभास हो जाता।

शब्दार्थ पन = प्राण; मधि मध्य; सोधि शुद्ध; लेख्यौ लिखा है ताही उसके; चारु = सुंदर; पचिकै = आश्चर्य; बिसेख्यौ = विशेष रूप से, परिश्रम के साथ; हित पत्र प्रेम पत्र; अजान अज्ञानी

काव्य-सौंदर्य

प्रश्न-अभ्यास

1. कवि ने ‘चाहत चलन ये संदेसो ले सुजान को’ क्यों कहा है?

उत्तर कवि का अपनी प्रेमिका सुजान के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव है। अपने अंतिम समय में कवि उसे संदेश भेजना चाहता है। उसके प्राण अधरों तक आकर टिक गए हैं। वह चाहता है कि ये प्राण उसकी प्रेमिका सुजान तक उसका संदेश ले जाएँ, जिससे उसे कवि की स्थिति का पता चल सके।

कवि मानता है कि बहुत दिनों से आशारूपी फंदा गले से लटक रहा है। प्राण हड़बड़ाहट में निकलने ही वाले हैं। इन निकलते प्राणों को मैंने इसी आशा में रोक रखा है कि एक दिन तो प्रेमिका के दर्शन होंगे। कवि के झूठे विश्वास के बादल

मिलन का जल नहीं बरसाते। प्रेयसी की निष्ठुरता कवि को दुख देती है। इस स्थिति में वह चाहता है कि प्राण निकल ही जावें और प्रेमिका को कवि का संदेश पहुँचा दें।

2. कवि मौन होकर प्रेमिका के कौन-से प्रण पालन को देखना चाहता है?

उत्तर नायिका कवि की पुकार को सुनकर भी अनसुनी कर रही है। वह अपने दर्पण को देखकर शृंगार में व्यस्त है। कवि को नायिका का यह बहाना अच्छा नहीं लगता। नायिका की उपेक्षा से कवि दुखी होता है, वह ‘मौन’ की प्रक्रिया में प्रेयसी के आचरण का अवलोकन करता है। कवि अपने मौन के सहारे नायिका के ‘न देखने’ तथा ‘न बोलने’ के प्रण को देखना चाहता है। कवि को लगता है कि एक दिन उसका मौन ही नायिका को बोलने पर विवश कर देगा। नायिका ने न बोलने का जो प्रण पालन करने का विचार किया है, वह जल्दी ही समाप्त हो जाएगा।

कवि मानता है यद्यपि नायिका ने अपने कानों को बंद करने के लिए जो रुई डाल रखी है, वह मेरी मौत हो जाने के कारण जल्दी ही कवि की बातें सुनने को विवश होगी।

3. कवि ने किस प्रकार की पुकार से ‘कान खोलि है’ की बात कही है?

उत्तर कवि अपनी प्रेमिका को पुकारता है। प्रेमिका नायिका उसकी पुकार को अनसुनी कर दर्पण में अपना चेहरा निहारती है। कवि का नायिका के प्रति एकनिष्ठ प्रेम है। वह उसके उपेक्षापूर्ण व्यवहार से दुखी है। उसे लगता है कि नायिका ने उसे ‘न देखने’ तथा उससे ‘नहीं बोलने’ का प्रण कर रखा है। लेकिन कवि को विश्वास है कि वह उसके प्रण को अपनी ‘कूकभरी मूकता’ अर्थात् ‘पुकार भरी मौन’ से तोड़ने में सफल होगा। जब उसका प्रण समाप्त होगा तो कानों में रुई डालकर मेरी बातों को अनसुनी करने के बदले उसे कान खोलकर मेरे प्रणय-निवेदन को सुनना ही पड़ेगा।

कवि कहता है कि वह कब तक अपने कानों को बंद कर बहाना करती रहेगी, उसे एक न एक दिन मेरी बातों को सुनना ही पड़ेगा।

  1. पहले सवैये के आधार पर बताइए कि प्राण पहले कैसे पल रहे थे और अब क्यों दुखी हैं?

उत्तर कवि कहता है कि संयोग की अवस्था में नायिका की रूप-छवि का पान करते हुए, जिस निकटता का अहसास हो रहा था, वही विरह की अवस्था में आँखों को दुख देने लगा है। संयोग में संतोष के कारण प्राण को शांति मिलती थी, वही

वियोग में अतिशय व्यग्रता से भर गए हैं। कवि मानता है कि विरह की व्यथा के कारण सारे सुख-साधन अधूरे लगते हैं। सुजान के बिना सुख का विधान बेकार है।

कवि कहता है कि जो हार मिलन के समय पर्वत की तरह अवरोधक बन जाते थे, वही पहाड़ (पर्वत) अब बीच में आकर मिलन में बाधा बन गए हैं। कवि का मानना है कि मिलन की दशा में प्राणों को अत्यधिक सुख का अनुभव हुआ, जबकि विरह की अवस्था में प्राण अधरों तक आ गए हैं।

5. घनानंद की रचनाओं की भाषिक विशेषताओं को अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर रीतिकाल में घनानंद स्वच्छंदतावादी काव्य-धारा के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्हें ‘रससिद्ध’ तथा ‘रसमूर्ति’ भी कहा गया है। घनानंद के काव्य में भावपक्ष को अधिक महत्त्व मिला है। हृदय के विविध भावों को दर्शाने के लिए कवि ने भाषा की विशेषताओं का सहारा लिया है। शब्द चयन घनानंद की कविता को विशिष्ट बनाते हैं। कवि ने भाषा को पूर्ववर्ती काव्य-रूढ़ियों से बाहर निकालकर नया रूप दिया। भाषा में लाक्षणिकता तथा व्यंजनात्मकता है। लावण्य तथा भाषा की मर्मस्पर्शी चेतना कवि की संवेदना को सार्थकता के साथ रखने में पूर्णतः सफल है।

घनानंद का ब्रजभाषा पर असाधारण अधिकार है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है-‘घनानंद साक्षात रसमूर्ति तथा ब्रजभाषा काव्य के प्रधान स्तंभों में हैं। इनकी तरह विशुद्ध, सरस तथा शक्तिशाली ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ है। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व ही है।”

कवि घनानंद ने अपनी भाषा में अलंकारों का सार्थक एवं उपयुक्त प्रयोग किया है। इनके काव्य में उपमा, रूपक, श्लेष तथा विरोधाभास अलंकारों की छटा सर्वत्र दिखाई देती है।

6. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों की पहचान कीजिए।

(क) कहि कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दैं दें सनमान को।

(ख) कूक भरी मूकता बुलाय आप बोलि है।

(ग) अब न घिरत घन आनंद निदान को।

उत्तर (क) पुनरुक्तिप्रकाश एवं वक्रोक्ति।

(ख) विरोधाभास और अनुप्रास।

(ग) अनुप्रास और श्लेष।

वियोग में अतिशय व्यग्रता से भर गए हैं। कवि मानता है कि विरह की व्यथा के कारण सारे सुख-साधन अधूरे लगते हैं। सुजान के बिना सुख का विधान बेकार है।

कवि कहता है कि जो हार मिलन के समय पर्वत की तरह अवरोधक बन जाते थे, वही पहाड़ (पर्वत) अब बीच में आकर मिलन में बाधा बन गए हैं। कवि का मानना है कि मिलन की दशा में प्राणों को अत्यधिक सुख का अनुभव हुआ, जबकि विरह की अवस्था में प्राण अधरों तक आ गए हैं।

5. घनानंद की रचनाओं की भाषिक विशेषताओं को अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर रीतिकाल में घनानंद स्वच्छंदतावादी काव्य-धारा के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्हें ‘रससिद्ध’ तथा ‘रसमूर्ति’ भी कहा गया है। घनानंद के काव्य में भावपक्ष को अधिक महत्त्व मिला है। हृदय के विविध भावों को दर्शाने के लिए कवि ने भाषा की विशेषताओं का सहारा लिया है। शब्द चयन घनानंद की कविता को विशिष्ट बनाते हैं। कवि ने भाषा को पूर्ववर्ती काव्य-रूढ़ियों से बाहर निकालकर नया रूप दिया। भाषा में लाक्षणिकता तथा व्यंजनात्मकता है। लावण्य तथा भाषा की मर्मस्पर्शी चेतना कवि की संवेदना को सार्थकता के साथ रखने में पूर्णतः सफल है।

घनानंद का ब्रजभाषा पर असाधारण अधिकार है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है-‘घनानंद साक्षात रसमूर्ति तथा ब्रजभाषा काव्य के प्रधान स्तंभों में हैं। इनकी तरह विशुद्ध, सरस तथा शक्तिशाली ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ है। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व ही है।”

कवि घनानंद ने अपनी भाषा में अलंकारों का सार्थक एवं उपयुक्त प्रयोग किया है। इनके काव्य में उपमा, रूपक, श्लेष तथा विरोधाभास अलंकारों की छटा सर्वत्र दिखाई देती है।

6. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों की पहचान कीजिए।

(क) कहि कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दैं दें सनमान को।

(ख) कूक भरी मूकता बुलाय आप बोलि है।

(ग) अब न घिरत घन आनंद निदान को।

उत्तर (क) पुनरुक्तिप्रकाश एवं वक्रोक्ति।

(ख) विरोधाभास और अनुप्रास।

(ग) अनुप्रास और श्लेष।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

0:00
0:00