(क) तोड़ो (ख) वसंत आया
रघुवीर सहाय
सप्रसंग व्याख्या
(क) वसंत आया
- जैसे बहन ‘दा’ कहती है
ऐसे किसी बँगले के किसी तरु (अशोक) पर कोई चिडिया कुऊकी
चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराये पाँव तले
ऊँचे तरुवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराए पत्ते
कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो
खिली हुई हवा आई, फिरकी-सी आई, चली गई।
ऐसे, फुटपाथ पर चलते चलते-चलते।
कल मैंने जाना कि वसंत आया।
संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित कविता ‘वसंत आया’ का अंश है। यह कविता कवि रघुवीर सहाय की रचना है।
प्रसंग कवि ने इस काव्यांश में प्रकृति तथा मनुष्य के संबंधों को स्पष्ट किया है। उसका मानना है कि मनुष्य प्रकृति के परिवर्तनों को भूल रहा है। वह इसी चेतना को काव्यांश में स्पष्ट करता है।
व्याख्या कवि उपर्युक्त काव्यांश में वसंत के आने की आहट को किस तरह पहचान लेता है, उसका वर्णन किया गया है। कवि कहता है कि जिस प्रकार छोटी बहन बड़े भाई को ‘दा’ कहकर पुकारती है, उसी प्रकार किसी घर के बाहर खड़े अशोक के पेड़ पर बैठी चिड़िया चहचहाकर कुछ कहती है।
- बहन का ‘दा’ कहकर भाई को पुकारना यह बताता है कि वह घर आ गई है, उसी तरह वसंत ऋतु में बोलने वाली चिड़िया मानो अपने आगमन को सूचित करती है। उसका आगमन ऋतु परिवर्तन का संकेत देता है।
- पेड़ों से गिरे सूखे पत्तों का लाल बजरी वाले फुटपाथ पर पैरों तले रखकर चुरमुर की आवाज देना, सुबह की ठंडी हवा का कुछ गर्म हो जाना यह संदेश देता है कि उनका शिशिर के शीत के स्थान पर बसंत का सुहाना मौसम आ गया है। फुटपाथ पर चलते-चलते अचानक ही लेखक ने अनुभव किया कि वसंत ऋतु आ गई है।
कवि को चिड़िया के चहचहाने, पीले पत्तों के गिरने तथा गर्म हवा के चलने से वसंत आने का अहसास होता है। ये प्राकृतिक परिवर्तन वसंत आगमन के सूचक हैं।
इस ‘भाग-दौड़’ में कवि का हृदय ही इन परिवर्तनों को जान पाता है, जबकि आम इंसान इन परिवर्तनों के प्रति संवेदनहीन ही बना रहता है।
शब्दार्थ दा बड़े भाई का संबोधन; कुऊकी कोयल की बोली; चुरमुराए = चरमराने की आवाज; तरुवर सुंदर पेड़; पियराए पीले; फिरकी गोल घूमती वस्तु
- ‘वसंत आया’ कविता के इस अंश में कवि ने सहज तथा सरल शब्दों का प्रयोग किया है। कविता को अधिक यथार्थ बनाने के लिए कुऊकी, चुरमुराए, पियराए, फिरकी जैसे देशज शब्दों का प्रयोग किया गया है। तरू, तरूवर जैसे तत्सम शब्दों के साथ ही कुऊकी, चुरमुराए, पिचराए, जैसे आंचलिक (देशज) शब्दों का प्रयोग भाषा को सहजता का दिग्दर्शन करता है।
- मुक्तक काव्य में चित्रात्मकता को महत्त्व दिया गया है। पुनरुक्ति प्रकाश, उपमा तथा मानवीकरण अलंकारों को कविता में रथान मिला है। ‘वसंत’ का मानवीकरण किया गया है।
- चुरमुर जैसे ध्वन्यात्मक शब्द चित्रात्मकता के सहायक हैं। मनुष्य के महानगरीय व्यस्त जीवन की ओर संकेत करते हैं। ध्वन्यार्थकता की व्यंजना के साथ कवि ने मनुष्य की भौतिकतावादी प्रवृत्तियों पर व्यंग्य किया है।
- और यह कैलेंडर से मालूम था
अमुक दिन अमुक बार मदनमहीने की होवेगी पंचमी
दफ्तर में छुट्टी थी-यह था प्रमाण
और कविताएँ पढ़ते रहने से यह पता था
कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल
आम बौर आवेंगे
रंग-रस-गंध से लदे-फँदे दूर के विदेश के
वे नंदन-वन होवेंगे यशस्वी
मधुमस्त पिक भौंर आदि अपना-अपना कृतित्व
अभ्यास करके दिखावेंगे
यही नहीं जाना था कि आज के नगण्य दिन जानूँगा
जैसे मैंने जाना, कि वसंत आया।
संदर्भ यह काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में रघुवीर सहाय द्वारा रचित कविता ‘वसंत आया’ का हिस्सा है। प्रगतिवाद तथा नई कविता के समर्थ कवि रघुवीर सहाय मानव मन की संवेदनहीनता को बेबाकी से सामने लाते हैं। जीवन की भागदौड़ में फँसे व्यस्त मानव का वातावरण के प्रति उदासीन होते जाने को कविता में स्पष्ट किया गया है।
प्रसंग कवि ने इस काव्यांश में आधुनिक तथा भौतिकतावादी जीवन जीने वाले मनुष्य की प्रकृति से दूरी के कारण उसकी बढ़ती असंवेदना को स्पष्ट किया है।
व्याख्या आधुनिक समय में मनुष्य भाव शून्य तथा मशीनीकृत हो गया है। कवि मनुष्य की आधुनिकता तथा भौतिकतावादी प्रवृत्ति पर व्यंग्य करता है। उसे वसंत पंचमी का आना कैलेंडर से मालूम पड़ता है। कार्यालय की छुट्टी तथा कविताओं से वसंत के आने का पता चलता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य सांसारिकता में सिमटकर रह गया है। महानगरों की व्यस्त जिंदगी और जीवनयापन के उपायों से जूझता मनुष्य कैलेंडर से ही जान पाता है कि अमुक दिन वसंत पंचमी का त्यौहार है। दफ्तर में होने वाली छुट्टी इस तथ्य का सत्यापन करती है कि वसंत वास्तव में आ गया है। प्रकृति से दूर, ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं वाले महानगर में कवि अपनी पढ़ी हुई कविताओं में वर्णित वसंत की कामना करता है। वह सोचता है कि कहीं ढाक के फूलों से भरे जंगल जलते से लग रहे होंगे। आम्रवनों में आम के वृक्षों पर बौर आ गया होगा। अपने घर गाँव के रंग-बिरंगे फूलों की सुगंध से भरे उपवन इस महानगर में उसे विदेश जैसे लगते हैं। वह कामना करता है कि ऋतु परिवर्तन पर प्रकृति रूप-रस और गंध से भर जाएगी। कोयल की कूक और भँवरों की गुंजार वातावरण को भर देगी। दफ्तर की छुट्टी से वसंत पंचमी का आगमन जानकर वह हताश हो जाता है कि जीवन की भागदौड़ में वह प्राकृतिक सौंदर्य न जाने कहाँ छूट गया है। यह तो एक साधारण-सा दिन है जिसमें उत्सव जैसा कुछ भी नहीं है।
शब्दार्थ मदनमहीने वसंत का महीना; दहर-दहर = धधक-धधक कर; दहकना = लपट के साथ जलना; ढाक = पलाश; मधुमस्त = फूलों का रस पीकर मस्त; पिक कोयल; कृतित्व कार्य; नगण्य जो गिनती के योग्य न हो
काव्य-सौंदर्य
- ‘दहर दहर दहकेंगे’ में अनुप्रास तथा ‘अपना-अपना’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। ‘वसंत’ का मानवीकरण हुआ है।
- काव्यांश में प्रकृति का आलंबन रूप में चित्रण हुआ है।
- आंचलिक और तत्सम शब्दों का एक साथ प्रयोग भाषा के प्रवाह में बाधक नहीं है।
(ख) तोड़ो
3.
तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्थर ये चट्टानें
ये झूठे बंधन टूटें
तो धरती को हम जानें
सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है
अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है
आधे आधे गाने
संदर्भ नई कविता में समाजवादी विचारों से प्रभावित कवि रघुवीर सहाय ने ‘तोड़ो’ कविता लिखी है। उपर्युक्त काव्यांश ‘तोड़ो’ कविता का हिस्सा है, जो पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित है।
प्रसंग कवि धरती तथा मन की प्रवृत्ति को तुलनात्मक रूप में सामने रख दोनों में परिवर्तन की प्रक्रिया का आह्वान करता है।
व्याख्या कवि कहते हैं कि रूढ़ियों और परंपरा की चट्टानों को तोड़कर मनुष्य जीवन के रस-स्रोत को पा सकता है। जिस प्रकार चट्टानों को तोड़कर भूमि समतल हो जाने पर पृथ्वी के रस-स्रोत से जल लेकर दूर्वादल यानी दूब उगता है उसी प्रकार सामाजिक वर्जनाओं के बंधन तोड़कर ही मनुष्य उन्मुक्त हो जाता है। ये रूढ़ियाँ और वर्जनाएँ मनुष्य को घुटन और संकुचित जीवन देती हैं, परंतु जब वह इन सड़ी-गली परम्पराओं को त्याग देता है तो विकास और ज्ञान की हवा उसकी ऊब को दूर कर उसमें जीने की उमंग भर देती है।
जब मनुष्य के मन में ऊब आती है तो उसके गान भी अधूरे-अधूरे से लगते हैं। उसकी मानसिक सरसता का लोप हो जाता है।
शब्दार्थ दूब घास; व्यापी व्याप्त; चरती-परती बंजर पोसेगी पुष्ट करेगी; गोड़ो लगाना
काव्य-सौंदर्य
- ‘तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो’ तथा ‘गोड़ो, गोड़ो, गोड़ो’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- काव्यांश में पत्थर, धरती, दूब, बंजर, परती इत्यादि प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।
- तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये ऊसर बंजर तोड़ो ये चरती परती तोड़ो सब खेत बनाकर छोड़ो मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को? गोड़ो गोड़ो गोड़ो
संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित कविता ‘तोड़ो’ का अंश है। इस कविता की रचना कवि रघुवीर सहाय ने की है।
प्रसंग कवि मन की संवेदनहीनता तथा शुष्कता को समाप्त कर नव-निर्माण का आह्वान कर मनुष्य को अपनी दुर्बलताओं से दूर करना चाहता है।
व्याख्या कवि बंजर धरती की उर्वरा शक्ति को लौटाने के लिए उसे तोड़ने की बात करता है। हल चला कर बंजर धरती को फिर से उपजाऊ बनाया जा सकता है। उसी प्रकार आज की व्यस्तता से उपजे तनाव और आक्रोश को कम करने के लिए जीवन में भी परिवर्तन अपेक्षित है। जिस प्रकार नव-निर्माण के लिए पहले से स्थित भवन या भूमि को ध्वस्त करना पड़ता है उसी प्रकार मानव को आनन्द और प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपनी जीवन-शैली में परिवर्तन करना चाहिए। इसके लिए यदि उसे कुछ चली आती परम्पराओं में कुछ परिवर्तन करना पड़े अथवा उन्हें छोड़ना पड़े तो उसके लिए निस्संकोच कदम बढ़ाना चाहिए।
शब्दार्थ बंजर बेकार; तोड़ो तोड़ने की क्रिया
काव्य-सौंदर्य
- देशज शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिंदी में काव्यांश प्रभावशाली बन पड़ा है।
- मुक्तक प्रतीकात्मकता, लाक्षणिक शब्द, मुक्तक छन्द तथा प्रयोगवादी शैली में कविता में धरती तथा मानव-मन की भावनाओं को स्पष्ट किया गया है।
- अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश तथा मानवीकरण अलंकार काव्यांश में प्रयुक्त हुआ है। काव्यांश को तुकांत बनाने का प्रयास किया गया है।
प्रश्न-अभ्यास
वसंत आया
1. वसंत आगमन की सूचना कवि को कैसे मिली?
उत्तर कवि मानता है कि चिड़िया के चहचहाने, चलते हुए सड़क के किनारे गिरे पियराए (पीले) पत्तों की चरमराहट तथा सवेरे छह बजे फुटपाथ पर टहलते समय हल्की गर्म तथा खिली हुई हवा जब गोल-गोल घूमती हुई शरीर को स्पर्श करती है तो वसंत के आगमन की सूचना मिलती है। किंतु आधुनिक जीवन शैली की व्यस्तता के कारण उसे प्रकृति के इस बदलते रूप का जैसे पता ही नहीं चलता। ऐसी स्थिति में मनुष्य का प्रकृति से संबंध बिखरता जा रहा है। कवि मानता है कि कैलेंडर से उसे वसंत के आगमन की सूचना मिलती है। यह जीवन की भाग-दौड़ और मशीनीकरण जीवन का परिणाम है।
- ‘कोई छह बजे सुबह……….. फिरकी सी आई, चली गई’-पंक्ति में निहित भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर ‘कोई छह बजे सुबह…………फिरकी-सी आई, चली गई’ पंक्तियों के माध्यम से कवि स्पष्ट करना चाहता है कि वसंत ऋतु के आने पर प्रातःकाल की हवा अत्यंत स्वच्छ, शीतल और सुगंधित होती है। उसके मंद-मंद झोंके मन को बहुत सुखद प्रतीत होते हैं। वह देर तक नहीं रहती है।
3. वसंत पंचमी के अमुक दिन होने का प्रमाण कवि ने क्या बताया और क्यों?
उत्तर महानगरों में पड़ों का अभाव, वनों की निरंतर कटाई तथा व्यस्त जीवन शैली ने मनुष्य को प्रकृति से दूर कर दिया है। जिंदगी की भागदौड़ में वह प्रकृति में आए परिवर्तनों को महसूस करने में असमर्थ है। कोयल की कूक, पीले पत्तों का गिरना तथा हल्की गर्म हवा का चलना आदि का मनुष्य को पता ही नहीं चलता है। ऐसे में प्रकृति का परिवर्तनशील रूप उसे प्रभावित नहीं कर पाता। कवि के कार्यालय में जब वसंतपंचमी का अवकाश हुआ, तब उसे वसंत पंचमी के उत्सव का पता चला। यह ज्ञान उसे कैलेंडर के माध्यम से हुआ। यंत्रीकृत जीवन की व्यस्तता मनुष्य को प्रकृति से दूर कर रही है।
- ‘और कविताएँ पढ़ते रहने से आम बौर आवेंगे’-में निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर कवि कहता है कि आधुनिक जीवन शैली में हमें ऋतु परिवर्तन के कारण प्रकृति में आए बदलाव को देखने का समय ही नहीं है। हमें कविताएँ पढ़कर ही पता चलता है कि वसंत में ढक के जंगल कैसे दहकते हैं तथा आम पर बौर कैसे आते
हैं? इस प्रकार कवि ने उन पर व्यंग्य किया हैं जो प्रकृति के परिवर्तनों को अनदेखा करते हैं तथा शब्द जाल बुनकर प्रकृति का गुणगान करते हैं।
- अलंकार बताइए
(क) बड़े-बड़े पियराए पत्ते
(ख) कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो
(ग) खिली हुई हवा आई, फिरकी-सी आई, चली गई
(घ) कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल
उत्तर (क) पुनरुक्तिप्रकाश और अनुप्रास अलंकार।
(ख) उत्प्रेक्षा और मानवीकरण अलंकार।
(ग) मानवीकरण और उपमा अलंकार।
(घ) पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास और मानवीकरण अलंकार।
- किन पंक्तियों से यह ज्ञात होता है कि आज मनुष्य प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य की अनुभूति से वंचित है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर आज का मनुष्य अतिव्यस्तता का जीवन जी रहा है। वह महानगरों में निवास करता है जहाँ न तो पेड़ों के झुरमुट हैं और न आसपास वन ही रह गए हैं। कंकरीट के जगत सरीखी ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं से घिरा और जीवनयापन की भागदौड़ में लगा मानव ऋतु परिवर्तन के साथ प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों को देख-समझ ही नहीं पाता। भैतिकतावादी जीवन जीने वाला मनुष्य प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य की अनुभूति से दूर होता चला जा रहा है।
- ‘प्रकृति मनुष्य की सहचरी है’ इस विषय पर विचार व्यक्त करते हुए आज के संदर्भ में इस कथन की वास्तविकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से रचित मानव देह प्रकृति की उपेक्षा कर ही नहीं सकती। जीवन के दो आवश्यक तत्व जल और वायु उसे प्रकृति ही देती है। भोजन की आवश्यकताएँ भी यही पूरी करती है। सूर्य की ऊष्मा और चांद की शीतलता उसके जीवन का आधार है। वर्षा का जल, मेघों की गर्जना, बिजली की चमक और इंद्रधनुष वास्तव में जीवन के उतार चढ़ाव के द्योतक हैं। नीले आकाश का विस्तार, धरती की सहनशीलता और सागर की उत्ताल तरंगे उच्च जीवन लक्ष्यों को प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं।
आधुनिक जीवन में मनुष्य प्रकृति से दूर जा रहा है। प्राकृतिक परिवर्तनों को मनुष्य महसूस करने में असमर्थ हो गया है, पर प्रकृति अपनी चित्ताकर्षक प्रवृत्तियों से अपनी ओर लगातार खींचती रहती है।
8. ‘वसंत आया’ कविता में कवि की चिंता क्या है? उसका प्रतिपाद्य लिखिए।
उत्तर ‘वसंत आया’ कविता में कवि की चिंता है कि जीवन की व्यस्तता और धनोपार्जन की अँधी दौड़ ने मनुष्य को प्रकृति से दूर कर दिया है। अपने आस-पास हो रहे प्रकृति के परिवर्तनों से वह अनजान होता जा रहा है। त्यौहारों का आना उसे मौसम का बदलाव नहीं बल्कि कलैंडर की तारीख या दफ्तर की छुट्टी बताती है।
यह व्यस्तता उसे यंत्रमानव के रूप में ढालती जा रही है जिसकी संवेदनाएँ धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही हैं।
तोड़ो
- ‘पत्थर’ और ‘चट्टान’ शब्द किसके प्रतीक हैं?
उत्तर कवि ने ‘पत्थर’ और ‘चट्टान’ शब्दों का प्रयोग उन बाधाओं के लिए किया है, जो सृजन के मार्ग में बाधक बन जाती हैं। इन्हें नष्ट करके तथा तोड़ कर ही नव-निर्माण किया जा सकता है। खेत से पत्थर, कंकड़ आदि निकालने पर ही खेत उपजाऊ बनता है। इसी प्रकार से साहित्यकार रूढ़ियों के बंधनों से मुक्त होकर ही श्रेष्ठ साहित्य की रचना कर सकता है।
2. कवि को धरती तथा मन की भूमि में क्या-क्या समानताएँ दिखाई पड़ती हैं?
उत्तर कवि ने धरती तथा मन की भाव-भूमि में अत्यधिक समानताएँ देखी हैं। धरती में रस है किंतु इस रस को सतह तक आने में पत्थर तथा चट्टानें बाधा हैं। कवि इस बाधा को समाप्त करना चाहता है। वह धरती के सतह पर उर्वर खेत बनाना चाहता है। यही स्थिति मनुष्य के मन की है। मानव-मन में ऊब तथा खीझ ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं जो हृदय के पटल को शांत तथा कोमल बने रहने से रोकती हैं। परंपरागत रूढ़ियों में जकड़ा मनुष्य मन अपनी स्वच्छ तथा स्वस्थ प्रवृत्तियों को आकार नहीं दे पाता। कवि ने धरती तथा मन की भाव-भूमि में अत्यधिक समानताएँ देखी हैं।
3. भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए
मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को
हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को?
गोड़ो गोड़ो गोड़ो
उत्तर कवि कहता है कि जिस प्रकार मिट्टी को अच्छी प्रकार से जोतने से उसमें रस आ जाता है और वह बीज के अंकुरित होने में सहायक हो जाती है, उसी प्रकार से जब हम अपने मन में व्याप्त खोज को नष्ट कर देंगे तो निर्मल मन में श्रेष्ठ
सृजन हो सकेगा। इसलिए व्यर्थ की काट-छाँट कर नष्ट कर देने से ही नव-निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है।
4. कविता का आरंभ ‘तोड़ो तोड़ो तोड़ो’ से हुआ है और अंत ‘गोड़ो गोड़ो गोड़ो’ से। विचार कीजिए कि कवि ने ऐसा क्यों किया?
उत्तर कवि रघुवीर सहाय जनता के कवि हैं। वह नव-निर्माण की आकांक्षा से प्रेरित हैं। ‘तोड़ना’ विध्वंस का प्रतीक है तथा ‘गोड़ना’ नव-निर्माण की प्रक्रिया का वाहक है। विध्वंस सृजन के लिए जरूरी है। बिना पुरातन के ध्वंस के नवीन का सृजन असंभव है। पुरातन प्रवृत्तियों को तोड़ना सहज नहीं है। कवि इन प्रवृत्तियों के ध्वंस की कठिनाई से भिज्ञ है। वह जानता है कि बिना बार-बार प्रहार के पुरातन प्रवृत्तियों का ध्वंस संभव नहीं है। बार-बार प्रहार की प्रक्रिया को दर्शाने के लिए कवि ने ‘तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो’ से कविता का आरंभ किया है। सृजन की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए ‘गोड़ो, गोड़ो, गोड़ो’ की आवृत्ति हुई है।
5. ये झूठे बंधन टूटें
तो धरती को हम जाने
यहाँ पर झूठे बंधनों और धरती को जानने से क्या अभिप्राय है?
उत्तर जब तक मनुष्य मन की संकीर्णता, अंध-विश्वास तथा रूढ़ियों के बंधन में जकड़ा रहेगा, तब तक वह जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा ग्रहण नहीं कर सकता। मन की सरसता तथा जीवन की सहजता के लिए बंधनों से मुक्ति अनिवार्य है। कवि इन बंधनों से मुक्ति के बाद ही मानवता के विकास और उन्नयन को संभव मानता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार धरती पर रस ऊपर आने की प्रक्रिया में बाधक पत्थरों तथा चट्टानों को हटाने के बाद उसके इस तत्व जल को ऊपर लाया जा सकता है। कवि उपरोक्त झूठे बंधनों को मानव मन के विकास के लिए बाधक प्रवृत्ति मानता है। पत्थर तथा चट्टान भी धरती के रस को सतह तक आने में बाधक तत्व हैं।
6. ‘आधे-आधे गाने’ के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर किसी कार्य में सफलता एकाग्रता तथा दृढ़ता से संभव है। जब तक पूरे मन से काम नहीं किया जाता विकास तथा विस्तार संभव नहीं है। मन में खीझ तथा ऊब असहज प्रवृत्तियाँ हैं। जब मन एकाग्र नहीं होगा, उसकी भावनाएँ तरंगित नहीं हो सकती। हृदय के अंदर एक अधूरेपन का भाव संगृहीत होगा। इस अधूरेपन में संवेदना की पूर्णता संभव नहीं है। अंधविश्वास रूढ़ियों और परम्पराओं में जकड़े मानव की उपलब्धि आधी-अधूरी होती है। इसी भाव को व्यक्त करने के लिए ‘आधे-आधे गाने’ का प्रयोग किया गया है।