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(क) यह दीप अकेला (ख) मैंने देखा, एक बूँद
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
सप्रसंग व्याख्या
(क) यह दीप अकेला
- यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है-गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा?
पनडुब्बा-ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा?
यह समिधा-ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय-यह मेरा-यह मैं स्वयं विसर्जित-
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' (भाग-2) में संकलित कविता 'यह दीप अकेला' का भाग है। 'यह दीप अकेला' कविता प्रसिद्ध कवि अज्ञेय के काव्य-संग्रह 'बावरा अहेरी' से ली गई है।
प्रसंग व्यक्ति की सार्थकता समाज में तो है ही, वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व में भी महत्त्वपूर्ण है। उसके भीतर बड़ी संभावनाएँ हैं। इन संभावनाओं के बीच भी उसका
महत्त्व समाज के साथ चलने में है। कवि अपनी इसी भावना को काव्यांश में स्पष्ट करता है।
व्याख्या कवि अज्ञेय दीप को प्रतीक रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह दीप अपनी सारी विशिष्टताओं के साथ सामने आता है। अपनी विशिष्टताओं के कारण ही अकेला दीप गर्व के साथ प्रज्वलित है, लेकिन कवि समष्टि के साथ एकता में विश्वास करता है, इसीलिए वह दीप को पंक्ति में देने की बात करता है। दीप की सार्थकता पंक्ति में है।
'दीप' वैसा जन है, वह व्यक्तित्व है जिसके गीत अकेले भी अपनी धुन और लय से प्रभावित करते हैं। कवि उसे ऐसा गोताखोर मानता है जो अकेले ही समुद्रतल से सच्चा मोती ला सकता है। यह समिधा है। वह अपने आप को जीवन की सच्ची व्याख्या के लिए सुलगाने की क्षमता रखता है। यह दीप स्वयं को विसर्जित कर मानवता को प्रकाश देने की शक्ति रखता है। कवि इस प्रकाश को विस्तार देने के लिए ही दीप को पंक्ति में देने की बात करता है।
अज्ञेय इस कविता में समष्टि तथा व्यष्टि के महत्त्व को क्रमशः 'पंक्ति' तथा 'दीप' के प्रतीक-रूप में रखकर जीवन संबंधों को स्पष्ट कर रहे हैं। 'दीप' व्यक्ति का प्रतीक है तथा 'पंक्ति' समाज का। व्यक्ति में असीम संभावनाएँ हैं। वह अपनी विशिष्टताओं से आलोकित है। उसमें असीम आत्मविश्वास है। उसका अकेलापन उसे भयभीत नहीं करता। वह लघु है किंतु उसमें लघुता का भाव नहीं है। कवि उसे उसके विश्वास के कारण विभिन्न प्रतीकों में देखता है। इन विशेषताओं के साथ ही कवि उसकी सार्थकता समाज में देखता है। समाज से कट कर मनुष्य का अस्तित्व बरकरार तो रह सकता है किंतु उसकी विशिष्टताओं का लाभ उठाने से मानवता वंचित रह जाती है। कवि ने इसी भावना को यहाँ व्यक्त किया है।
शब्दार्थ कृती भाग्यवान, कुशल; पनडुब्बा गोताखोर; समिधा यज्ञ की सामग्री; बिरला बहुतों में एक; विसर्जित त्यागा हुआ
काव्य-सौंदर्य
- साहित्यिक खड़ीबोली हिंदी में तत्सम शब्दों का सुंदर प्रयोग है।
- अज्ञेय अपनी कविता में प्रतीकात्मक शैली में विराट दर्शन को कुछेक शब्दों में कहने की शक्ति रखते हैं। व्यक्ति और समाज के संबंध को प्रतीक के माध्यम से सामने लाते हैं। 'दीप' व्यक्ति तथा 'पंक्ति' समाज का प्रतीक है।
- प्रयोगवादी मुक्तक शैली का प्रयोग कर कविता में अनुप्रास और वक्रोक्ति अलंकार को स्थान देते हैं।
- सृजनशील प्रतिभा को गीतकार, गोताखोर तथा समिधा के माध्यम से बताया गया है।
- व्यक्तिवाद तथा समाजवाद को संपृक्ति देने की विचारधारा अज्ञेय की कविता में स्पष्ट है।
- यह मधु है-स्वयं काल की मौना का युग-संचय, यह गोरस-जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय, यह अंकुर-फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय, यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुतः इसको भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
संदर्भ यह अज्ञेय की काव्य-रचना 'यह दीप अकेला' कविता का अंश है। 'यह दीप अकेला' कविता कवि के काव्य-संग्रह 'बावरा अहेरी' में संकलित है।
प्रसंग काव्यांश में कवि व्यक्तिवाद को महत्त्व देने हुए भी समाज के निर्माण में एक व्यक्ति की दृढ़ता को सामने लाने का प्रयास करता है।
व्याख्या अज्ञेय ने एक व्यक्ति की अस्मिता को मधु, गोरस तथा अंकुर जैसे प्रतीकों के रूप में रखा है। व्यक्ति का व्यक्तित्व मधु के समान है जो काफ़ी समय तक संचित करने के बाद ही सामने आता है। यह कामधेनु का अमृतरूपी पवित्र दूध है। यह व्यक्तित्व अंकुर की तरह समस्त बाधाओं को तोड़कर बाहर आने की क्षमता रखता है। यह निर्भय भाव से सूर्य से शक्ति भर प्रकाश की कामना में है। कवि ने इसे गर्व से भरे तथा स्नेहयुक्त दीप के रूप में देखा है, पर वह उस अकेले दीप को पंक्ति में देना चाहता है।
कवि का मानना है कि व्यष्टि का निर्माण मधु, दूध तथा अंकुर के समान स्वयं होता है। इनकी अंतर्निहित शक्ति के कारण ही इनका अस्तित्व है, परन्तु इसकी सार्थकता केवल समष्टि के साथ है।
शब्दार्थ मधु = शहद; गोरस = दूध; मौना = पिटारा; पूत = पवित्र; अयुत : = पृथक
काव्य-सौंदर्य
- कवि का मानना है कि विशिष्टता का महत्त्व समष्टि में ही है। किसी भी व्यक्तिगत सृजनशीलता को समाज में अर्थ यहीं मिलता है। श्रेष्ठ या अद्वितीय होना ही व्यक्ति का गुण नहीं है, बल्कि समष्टि के साथ ही विशिष्टता सार्थक हो सकती है।
- कवि ने अद्वैतवादी दर्शन को काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी है।
- रूपक, अतिशयोक्ति, अंत्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग कवि अपनी अभिव्यक्ति को स्पष्ट करने के लिए करता है।
- यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा, वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा; कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कडुवे तम में यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र, उल्लंब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश 'यह दीप अकेला' कविता से लिया गया है। यह कविता कवि अज्ञेय के काव्य-संग्रह 'बावरा-अहेरी' में संकलित है।
प्रसंग कवि इस काव्यांश में व्यक्ति को समाज से जुड़ने से मिली सार्थकता को महत्त्व देता है। प्रतीकों के माध्यम से कवि समष्टि तथा व्यष्टि के संबंध को निर्धारित करता है।
व्याख्या कवि मानता है कि 'दीप' का अस्तित्व छोटा है, लेकिन उसकी लघुता उसके विश्वास को सीमित नहीं करती। वह असीम विश्वास के साथ सतत प्रज्वलित होकर अपनी अस्मिता को बनाए रखने में सक्षम है। संसार में व्याप्त अवगुणों, कष्टों तथा बाधाओं के बीच उसका संघर्ष महत्त्व रखता है। दीप सदा द्रवित तथा जागरूक रहकर आँखों में स्नेह ले, बाँहें फैलाकर संसार को अपने भीतर का प्रकाश दे रहा है। अकेला दीप अपनी बौद्धिकता, अपनी श्रद्धा के साथ सतत ज्योति फैला रहा है। कवि इस दीप को, जो गर्व से भरा तथा स्नेहपूरित है, एक पंक्ति को सौंपना चाहता है।
कवि मानता है कि व्यक्ति की शक्ति और क्षमता की समाज में ही सार्थकता है। व्यक्ति का आत्मविश्वास उसे जो महत्त्व देता है, उसको आकृति समाज के अंतर्गत ही मिलती है।
शब्दार्थ लघुता थोड़ा (छोटा); कुत्सा ईर्ष्या, निंदा; अवज्ञा अनादर; उल्लंब उठाकर
काव्य-सौंदर्य
- कवि इस कविता में 'दीपक' के सुंदर दृश्य बिंब का अंकन करता है। प्रकाश को हमारी संस्कृति में ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। 'दीप' तथा 'पंक्ति' क्रमशः 'व्यष्टि' तथा 'समष्टि' के प्रतीक हैं।
- कवि ने कविता में मनुष्य की दृढ़ता को महत्त्व दिया है। 'लघुता' को किसी भी प्रकार से अस्तित्व पर हावी नहीं होने दिया गया है। यह आशावाद की कविता भी है। व्याप्त संघर्षों के बीच मनुष्य की अस्मिता का स्थिर रहना आशावाद ही है।
- काव्यांश में मानवीकरण अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है। 'दीप' की आँखें तथा उठी भुजाएँ मानवीकरण अलंकार का उदाहरण हैं।
(ख) मैंने देखा, एक बूँद
4.
मैंने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से
रंग गई क्षणभर
ढलते सूरज की आग से।
मुझ को दीख गया;
सूने विराट् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से !
संदर्भ प्रयोगवाद तथा नई कविता आंदोलन को दिशा देने वाले कवि अज्ञेय की कविता 'मैंने देखा, एक बूँद' 'अरी ओ करुणा प्रभामय' काव्य-संग्रह से ली गई है।
प्रसंग अक्षेय ने क्षण के महत्त्व तथा क्षणभंगुर विश्व की चेतना को एक छोटी-सी कविता में स्पष्ट किया है। कवि बूँद के माध्यम से लघु के विराट में विलीन होने की प्रक्रिया को भी दर्शाता है।
व्याख्या कवि प्रकृति से लिए गए प्रतीक के माध्यम से दर्शन की दुरूह प्रवृत्तियों को सहज ढंग से कविता में रखता है। कवि ने एक बूँद को सागर की लहरों के बीच उछलते हुए देखा है। वह उछली बूँद सूर्य की सायंकालीन लालिमा से अनुरंजित हो जाती है। कवि को बूँद की उछलने और पुनः सागर में विलीन होने की प्रक्रिया लघु के विराट में समाहित हो जाने की प्रक्रिया दिखी। कवि मानता है कि बूँद का अपनापन सागर से है जिस कारण वह अपने अस्तित्व को समाप्त कर सागर में समाहित होती है। यह तत्त्व-ज्ञान भी है। बंधन मुक्ति का साधन है। बूँद सागर में विलीन होकर अपनी अमरता की प्रक्रिया को दिशा देती है, उसी प्रकार मनुष्य भी ईश्वरीय प्रवृत्तियों में विलीन होकर अपनी नश्वरता के राग से मुक्त होने की क्षमता रखता है। बूँद रूपी जीवात्मा अपनी उपलब्धियों का आलोक फैलाकर सागर रूपी परमात्मा में विलीन हो जाती है।
कवि ने बूँद का अलग अस्तित्व नहीं माना। उसका मानना है कि बूँद सागर का अंश है जो उसी में समाहित होकर अमर हो सकती है। मनुष्य का जीवन भी इसी प्रकार समाज से जुड़ा है। मनुष्य अपनी आंतरिक क्षमता से चमकता जरूर है, किंतु अंततः उसका अस्तित्व समाज के साथ समाहित होकर ही संभव है।
(क) यह दीप अकेला (ख) मैंने देखा, एक बूँद
शब्दार्थ आलोक प्रकाश; उन्मोचन मुक्ति; नश्वरता नष्ट होना
काव्य-सौंदर्य
- भाषा तत्सम शब्द प्रधान है। मुक्तक शैली में प्रतीकों के माध्यम से अस्तित्ववादी दर्शन को समझाने का प्रयास कवि ने किया है। यह प्रयोगवाद की प्रमुख रचना है।
- प्रतीकों के माध्यम से व्यक्ति तथा समाज, लघु तथा विराट, मनुष्य तथा ईश्वर के संबंधों को स्पष्ट किया गया है। अनुप्रास अलंकार तथा अन्योक्ति का प्रयोग दिखाई देता है।
प्रश्न-अभ्यास
यह दीप अकेला
- 'दीप अकेला' के प्रतीकार्थ को स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि कवि ने स्नेह भरा, गर्व भरा एवं मदमाता क्यों कहा है?
उत्तर कवि अज्ञेय अस्तित्ववादी हैं। मनुष्य की अस्मिता तथा क्षमता पर उनका भरोसा है। 'यह दीप अकेला' कविता में 'दीप' को प्रतीक के रूप में रखकर अक्षेय ने मनुष्य की क्षमता तथा विशिष्टताओं को दर्शाया है। वह मानता है कि व्यक्ति अपनी छोटी-सी हैसियत में भी अपने आत्म-विश्वास तथा मनुष्यता से प्रेम के कारण स्नेह, गर्व और आशावादी मस्ती में लीन रहता है। कवि व्यक्ति के इस गुण के कारण उसे स्नेह भरा, गर्व भरा और मदमाता कहता है। लेकिन कवि व्यक्ति की इस विशिष्टता को समाज में अंतर्निहित करने के लिए उसे समाज का अंग भी बनाना चाहता है।
- यह दीप अकेला है 'पर इसको भी पंक्ति को दे दो' के आधार पर व्यष्टि का समष्टि में विलय क्यों और कैसे संभव है?
उत्तर 'दीप' व्यक्ति का प्रतीक है जबकि 'पंक्ति' समाज का प्रतीक है। समाज का निर्माण व्यक्ति से होता है। व्यक्ति का हित समाज के साथ है। व्यष्टि की शक्ति समष्टि में अंतर्निहित होती है। समष्टि में विलय से ही व्यष्टि की सार्थकता है। कवि दीप (व्यक्ति या व्यष्टि) की विशिष्टताओं से परिचित है। वह जानता है कि दीप अकेला भी आत्म-विश्वास को जीवित रख सकता है, किंतु उस आत्म-विश्वास की सार्थकता पंक्ति के साथ मिल जाने से है। पंक्ति में जाकर ही दीप अपने प्रकाश (ज्योति) को दूसरों के हित में लगा सकता है। कवि व्यक्ति की उपलध्धियों के व्यापक उपयोग के लिए 'दीप' को 'पंक्ति' में देना चाहता है।
3. 'गीत' और 'मोती' की सार्थकता किससे जुड़ी है?
उत्तर गीत की लयात्मकता तथा मधुरता का संबंध गायक के प्रस्तुतीकरण से है। यदि गायक गीत को भावानुकूल नहीं गाए तो गीत की सार्थकता नहीं रह जाती। उसी प्रकार गोताखोर मोती लाने समुद्र के गर्त में जाता है। जब तक गोताखोर मोती को समुद्र तल पर नहीं लाता, तब तक उसकी कीमत का पता नहीं चलता। समुद्र के गर्त में पड़ा मोती अर्थहीन है।
कवि 'गीत' तथा 'मोती' को सृजन का प्रतीक मानता है। इसकी सृजनात्मकता गीतकार (गायक) के लय तथा सुर पर आधारित है। 'मोती' का अस्तित्व भी इसी रूप में है।
- 'यह अद्वितीय-यह मेरा-यह मैं स्वयं विसर्जित'-पंक्ति के आधार पर व्यष्टि के समष्टि में विसर्जन की उपयोगिता बताइए।
उत्तर कवि व्यष्टि का महत्त्व समष्टि के साथ विलय में मानता है। वह मानता है कि जब तक व्यष्टि अहंकार-शून्य होकर समष्टि में समाहित होने की चेतना से युक्त नहीं होगा, तब तक व्यष्टि एवं समष्टि को संपूर्णता के साथ परिभाषित करना संभव नहीं है। व्यक्ति समाज की शक्ति है और समाज में ही व्यक्ति की अस्मिता को महत्त्व मिल सकता है।
कवि 'दीप' अर्थात् व्यष्टि को अद्वितीय मानता है। वह दीप को पंक्ति में शामिल कर उसे सार्थकता देना चाहता है। यह 'दीप' व्यक्ति का प्रतीक है। कवि इसे इसी कारण 'यह अद्वितीय-यह मेरा-यह मैं स्वयं विसर्जित' कहकर, व्यक्ति के जीवन की सार्थकता को समाज में दर्शाता है।
- 'यह मधु है......तकता निर्भय'-पंक्तियों के आधार पर बताइए कि 'मधु', 'गोरस' और 'अंकुर' की क्या विशेषता है?
उत्तर मधुमक्खियाँ मधु का संचय बूँद-बूँद कर करती हैं और इस प्रक्रिया में उनका बहुत समय लग जाता है परंतु मधुमक्खियाँ अपना यह संचयन शांत भाव से करती चली जाती हैं। उसी प्रकार से कवि के गीतों में निहित माधुर्य उसके चुपचाप किए जा रहे प्रयासों का संचित फल है। जिस प्रकार कामधेनु गाय सदैव पवित्र जीवनदायी दूध देती है, उसी प्रकार से कवि भी समाज को अपने गीतों रूपी पवित्र जीवनदायिनी दूध से पौष्टिकता प्रदान करता है। जिस प्रकार अंकुर निर्भयतापूर्वक पृथ्वी को फोड़कर सूर्य का दर्शन करता है, उसी प्रकार कवि भी अपनी कल्पनाओं को गीतों के रूप में मूर्त रूप प्रदान कर ऊँची उड़ानें भरता है।
6. भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए
(क) 'यह प्रकृत, स्वयंभू. शक्ति को दे दो।
(ख) 'यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक चिर-अखंड अपनापा।'
(ग) 'जिज्ञासु, प्रबद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो।'
उत्तर (क) उपरोक्त पंक्ति में कवि ने अंकुर को प्रकृत, स्वयंभू और ब्रह्म के समान संज्ञा दी है क्योंकि नन्हें से अंकुर में इतनी शक्ति और ऊर्जा होती है कि वह स्वयं ही धरती की कठोर छाती को फोड़कर बाहर निकल आता है और निर्भीक होकर सूर्य की ओर देखने लगता है। उसी प्रकार कवि भी ऊर्जस्वित होकर स्वयं अपने गीतों की रचना करता है और निर्भीकतापूर्वक अपने गीतों को गाता है। इसलिए इनको सम्मान प्राप्त करने का पूरा अधिकार है और कवि के हृदय में काव्य भावनाएँ उत्पन्न होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
(ख) जिस प्रकार दीपक परपीड़ा को दूर करने के लिए स्वयं अग्नि को धारण कर अंधकार को दूर करने का प्रयास करता है। वह सदैव सावधान, जागरूक तथा सबके प्रति स्नेह भाव से परिपूर्ण रहता है और भुजाएँ उठाकर सबको गले लगाने के लिए तत्पर रहता है, उसी प्रकार कवि भी समस्त कष्टों को स्वयं सहते हुए सबको अपनाने के लिए तैयार रहता है।
(ग) यह दीपक सदैव ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से भरा हुआ, ज्ञानवान तथा श्रद्धालु रहा है। अतः इसे समाज कल्याण के हितार्थ समर्पित कर दो। इसी प्रकार से कवि सामाजिक समस्याओं के प्रति जिज्ञासु, सदैव जागरूक और समर्पित होता है। इसलिए उसे भी लोक कल्याण की भावना में निरन्तर कर्मशील रहना चाहिए।
- 'यह दीप अकेला' यह प्रयोगवादी कविता है। इस कविता के आधार पर 'लघु मानव' के अस्तित्व और महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर 'प्रयोगवाद' कविता में बौद्धिकता को महत्त्व देता है। यहाँ प्रतीकों के माध्यम से शब्द और सत्य के अंतर्संबंधों को दर्शाने का प्रयास हुआ है। 'यह दीप अकेला' कविता में प्रकृति के एक महत्त्वपूर्ण आयाम के माध्यम से व्यष्टि तथा समष्टि के संबंध को दर्शाया गया है।
'यह दीप अकेला' कविता में 'लघु मानव' के अस्तित्व को सामने लाया गया है। यह 'लघु मानव' कोई 'होलोमैन' नहीं है। वह आत्मविश्वास से प्रदीप्त मानव है, जो अपनी लघुता के बीच अपनी विशिष्टताओं के कारण प्रभावित करता है। वह अमरता का पुंज है। संघर्षों में हार नहीं मानने की क्षमता रखने वाला मनुष्य है। कवि ने 'दीप'
के माध्यम से ऐसे 'लघु मानव' का चित्र खींचा है, किंतु वह मानता है कि इस 'लघु मानव' अर्थात् 'आम आदमी' का अस्तित्व समाज के साथ ही सार्थक होता है।
मैंने देखा, एक बूँद
1. 'सागर' और 'बूँद' से कवि का क्या आशय है?
उत्तर 'सागर' विराट ब्रह्म का प्रतीक है तथा बूँद जीव का प्रतीक है। सागर का अस्तित्व बूँद के समन्वय से संभव है। बूँद की सार्थकता भी सागर के साथ सम्बद्ध होने के कारण ही है। बूँद क्षणभंगुरता का बोध कराती है। सागर से अलग बूँद की क्षणभंगुरता सूर्य की सायंकालीन लालिमा में दिख जाती है, किंतु क्षणभर में ही बूँद सागर में समाहित होकर अमरता को प्राप्त कर लेती है।
- 'रंग गई क्षणभर, ढलते सूरज की आग से'-पंक्ति के आधार पर बूँद के क्षणभर रंगने की सार्थकता बताइए।
उत्तर जीव विराट ब्रह्म की सत्ता की एक इकाई है। उसी प्रकार बूँद अनंत सागर का अंश है। सायंकालीन लालिमा युक्त सूर्य की किरणें सागर की लहरों में उछली एक बूँद को अनुरंजित कर देती हैं। यह अनुरंजित बूँद उछलकर अपना अस्तित्व दिखला जाती है। क्षणभर में अनुरंजित बूँद सागर में विलीन हो जाती है। यह उस जीव की भाँति है, जो सांसारिक अथवा भौतिकता के रंग में रंगने के बाद भी विराट ब्रह्म की सत्ता में लीन हो जाता है। सांसारिकता में रंगे जीव का अस्तित्व ब्रह्म में है, उसी प्रकार सूर्य की लालिमा से अनुरंजित बूँद का मूल भी विराट सागर ही है।
3. 'क्षण के महत्त्व' को उजागर करते हुए कविता का मूल भाव लिखिए।
उत्तर जीवन में क्षण का विशेष महत्त्व है। क्षणभर के लिए सागर की लहरों से उछली बूँद सूर्य की सायंकालीन लालिमा से अनुरंजित होती है। बूँद मनुष्य के अस्तित्व का वाचक है जो क्षणभंगुर है। वह सागर से एकाकार होकर अपनी अमरता को नवीन रूप में परिभाषित करता है।
कवि सागर से अलग बूँद की क्षणभंगुरता को स्पष्ट करता है। यह क्षणभंगुरता बूँद की है, समुद्र की नहीं। विराट के सम्मुख बूँद का समुद्र से अलग अस्तित्व वास्तव में मुक्ति की कामना के कारण ही है।
'मैंने देखा, एक बूँद' कविता जीवन में 'क्षण' के महत्त्व को प्रदर्शित करती है।