पद
विद्यापति
सप्रसंग व्याख्या
- के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास।।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पति आए।।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल।।
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।।
संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) के ‘पद’ शीर्षक कविता का भाग है। यह ‘मैथिल-कोकिल’ कवि विद्यापति की ‘पदावली’ का अंश है।
प्रसंग इस पद में नायिका की विरह-व्यथा को चित्रित किया गया है। कवि राधा तथा कृष्ण के माध्यम से सामान्य नायक-नायिका की विरहाकुलता का वर्णन कर रहा है।
व्याख्या नायिका राधा कृष्ण के गोकुल से मथुरा-प्रवास के कारण दुखी है। वह कहती है कि कौन मेरा संदेश लेकर प्रियतम के पास जाएगा। श्रावण महीने के आगमन से हृदय का दुख अधिक तीव्र हो गया है। भवन में प्रिय के बिना अर्थात् अकेले रहना संभव नहीं हो रहा। राधा सखियों को संबोधित करती हुई कहती है कि संसार में दूसरों के दुख को समझने वाला कोई नहीं। श्रीकृष्ण मेरे मन का हरण कर अपने साथ ले गए हैं। वे गोकुल छोड़कर मथुरा चले गए हैं पर हम मथुरा जाकर अपयश के भागी बनना नहीं चाहते।
विद्यापति नायिका को संबोधित करते हुए उसे संबल देते हैं तथा कहते हैं कि हृदय में आशा का संचार करो। तुम्हारे प्रिय अवश्य ही कार्तिक मास तक आ जाएँगे। वस्तुतः राधा को सांत्वना देने के लिए गोपिकाएँ भी यही कह रही हैं।
शब्दार्थ के कौन; पतिया पत्र, संदेश; लए जाएत ले जाएगा; सहए सहा जाता; भेल = हुआ; साओन = श्रावण, सावन; एकसरि = अकेली; अनकर दूसरों का; दारुन = कठिन; पतिआए = विश्वास करना; आओ आएगा; धरु धारण करना
काव्य-सौंदर्य
- कवि विद्यापति ने विरहिणी नायिका की दशा का सुंदर वर्णन किया है। भाषा में माधुर्य गुण व्याप्त है।
- गेयात्मक शैली में रचित पद मुक्तक की विशेषता को सामने लाते हैं। ये वियोग शृंगार के अद्वितीय पद हैं।
- अनुप्रास, रूपक तथा विरोधाभास अलंकारों का प्रयोग है।
- नायिका राधा की विरहावस्था का मार्मिक तथा स्वाभाविक चित्रण है। कवि ने सावन महीने की वर्षा में विरहिणी की व्यथा की तीव्रता का सुंदर वर्णन किया है।
- सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए।।
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।।
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।।
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।।
लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख।।
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक।।
संदर्भ यह काव्यांश कवि विद्यापति की ‘पदावली’ से लिया गया है जो पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) के अंतर्गत ‘पद’ शीर्षक कविता में संकलित है।
प्रसंग इस काव्यांश में नायिका राधा की सखियाँ उससे प्रणय के अनुभव की जानकारी चाहती हैं। राधा अपनी व्याकुलता को प्रणय का अनुभव बताती है।
व्याख्या नायिका अपनी सखियों से कहती है कि हे सखी ! मेरे प्रणय-अनुभव के बारे में तुम क्या पूछती हो ? मैं उस प्रेम का क्या वर्णन करूँ जो प्रतिक्षण नया सा लगता है। कई जन्मों से मैं उनके रूप को निहारती आ रही हूँ, किंतु मैं अब तक तृप्त नहीं हो पाई हूँ। मेरे नेत्र उनका रूप देखकर अघाते नहीं। मैं अपने प्रियतम भगवान श्री कृष्ण की मधुर बोली को सुनती आ रही हूँ किंतु मेरे कान आज भी तृप्त नहीं हुए हैं। मैंने अपने प्रिय के साथ वसंत की कई रातें प्रणय-लीला में व्यतीत की हैं, किंतु अब भी मिलन के आनंद की उत्कंठा बनी हुई है। यह आनंद अवर्णनीय है। लाखों वर्षों तक अपने हृदय में प्रिय को रखने के बाद भी हृदय की भावनाओं का शमन नहीं हुआ है। मुझ से प्रणय-अनुभव क्या पूछती हो कृष्ण के प्रेम रस का पान कितनों ही ने किया है किंतु कोई प्रेम की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सका है।
विद्यापति कहते हैं कि लाखों में कोई एक भी नहीं मिला जो कृष्ण-प्रेम की पूर्णता को प्राप्त कर चुका हो। वस्तुतः यह प्रेम शाश्वत है।
शब्दार्थ कि क्या; पुछसि पूछती हो; मोए मेरा; सेह वही; पिरिति प्रीति; बखानिअ = वर्णन करना; निहारल = देखा; तिरपित = तृप्ति; भेल = हुए; सेहो = वही; केलि आनंद; तइओ तब भी; बिदगध दुखी; अनुमोदए अनुमोदन
काव्य-सौंदर्य
- ‘निहारल नयन’ में अंत्यानुप्रास, ‘हिअ हिअ’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार, ‘हिअ जरनि’ में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग देखा जा सकता है।
- कृष्ण के रूप में क्षण-क्षण नवीनता का वर्णन अन्य कृष्ण भक्त कवियों ने भी किया है।
3.
कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूदि रहए दु नयान।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि,
कर देइ झाँपइ कान।।
माधब, सुन-सुन बचन हमारा।
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि-
गुनि-गुनि प्रेम तोहारा।।
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ,
पुनि तहि उठइ न पारा।
कातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि
नयन गरए जल-धारा।।
तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन
चौदसि-चाँद-समान।
भनइ विद्यापति सिबसिंह नर-पति
लखिमादेइ-रमान।।
संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) के ‘पद’ शीर्षक कविता का हिस्सा है। यह मैथिली तथा हिंदी के प्रसिद्ध कवि विद्यापति की रचना ‘पदावली’ का अंश है।
प्रसंग इस काव्यांश में कवि ने विरहिणी प्रियतमा का दुख से भरा चित्र प्रस्तुत किया है। दुख के कारण नायिका के नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं। वह दुर्बल होती जा रही है।
व्याख्या कवि नायिका की विरहावस्था का वर्णन करते हुए कहता है कि नायिका विरह के आवेग को सहन नहीं कर पा रही है। राधा पुष्पों से लदे बाग को देखकर अपनी आँखें बंद कर लेती है। पुष्पित बागों को देखकर उसका दुख बढ़ जाता है। कोयल की मधुर वाणी, भँवरों के कलरव से उसका हृदय उद्विग्न हो जाता है और वह अपने दोनों कान बंद कर लेती है।
कवि कृष्ण को संबोधित करता हुआ कहता है कि हे कृष्ण! तुम मेरी बात सुनो। वह सुंदरी राधा जब तुम्हारे गुण अथवा सुंदरता का बखान किसी को सुनाती है या स्मरण में लाती है तो उसकी व्यग्रता अधिक विस्तृत हो जाती है। तुम्हारी प्रेम-भावना उसे अधिक व्यग्र कर रही है।
राधा के दैन्य भाव का चित्रण करते हुए कवि कहता है कि राधा इतनी दुर्बल हो गई है कि वह चल नहीं पाती। वह चलते-चलते जमीन पर बैठ जाती है। वह असहाय तथा दीन-दृष्टि से चारों ओर देख रही है। उसकी आँखों से आँसुओं का बहना बंद नहीं होता है। कृष्ण के विरह में नायिका पूर्णिमा के पूर्ण चंद्र से घटते-घटते चतुर्दशी का लुप्तप्राय चाँद होती जा रही है।
कवि विद्यापति यह पद रानी लखिमा देवी तथा अपने आश्रयदाता राजा
शिवसिंह को समर्पित करते हुए कहते हैं कि नरपति शिवसिंह अपनी रानी लखिमा देवी के साथ रमण करते हैं।
शब्दार्थ कुसुमित खिला हुआ; कानन वन; हेरि देखकर; दु दोनों; कलाव ध्वनि; नयान नेत्र; मधुकर भौंरा; झाँपइ बंद करना भेल हुए; दूबरि दुर्बल
काव्य-सौंदर्य
- मैथिली भाषा की रचना में संस्कृत के तत्सम शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है। कुसुमित, कानन, कोकिल, कलाव, मधुकर इत्यादि तत्सम शब्द हैं।
- ‘कुसुमित कानन’, कोकिल-कलरव, ‘धरनी-धरि-धरि’ में अनुप्रास अलंकार हैं। ‘गुनि-गुनि’, ‘सुन-सुन’, ‘छन-छन’ में पुनरुक्ति प्रकाश है। ‘कमलमुखि’ में रूपक तथा ‘चौदसि चाँद समान’ में उपमा अलंकार प्रयुक्त हुआ है।
- प्रकृति का आलंबन-रूप में चित्रण हुआ है। संयोग की अवस्था में जो प्राकृतिक उपकरण सुख देने वाले होते हैं वही वियोगावस्था में दुखदायी प्रतीत होते हैं। कवि ने प्रकृति के सुंदर रूप से नायिका के विरह में हुई वृद्धि को चित्रित किया है।
प्रश्न-अभ्यास
1. प्रियतमा के दुख के क्या कारण हैं?
उत्तर विद्यापति की नायिका दुखी है। उसके प्रिय दूर मथुरा-प्रवास में हैं। नायिका राधा अपने प्रिय कृष्ण के पास अपना संदेश भेजना चाहती है किंतु भेज नहीं पाती। उसके विरह को श्रावण का महीना और अधिक उद्दीप्त कर रहा है। अपने प्रिय के बिना उसे भवन में रहना असंभव प्रतीत होता है। उसे अकेला घेर लेता है। अपने प्रिय के वियोग के कारण नायिका राधा दुखी है।
कवि मानता है कि नायिका के दुख को पुष्पों से लदे वन तथा कोयल की कूक अधिक बढ़ा रहे हैं। वह पुष्पों से लदे वन को देखना नहीं चाहती, अतः आँखें बंद कर लेती है। कोयल की कूक तथा भँवरों का गुनगुनाना उसकी पीड़ा में वृद्धि ही करते हैं। नायिका की विरह वेदना को प्रकृति के विविध उपादान बढ़ाते ही हैं।
- कवि ‘नयन न तिरपित भेल’ के माध्यम से विरहिणी नायिका की किस मनोदशा को व्यक्त करना चाहता है?
उत्तर नायिका विरह की अवस्था में है। वह विरहिणी है। उसकी सखियाँ उससे प्रणय-अनुभव के बारे में पूछती हैं। नायिका सखियों से कहती है कि तुम मेरे प्रणय अनुभव के बारे में क्या पूछती हो ! मेरा प्रेम तो नित्य-प्रति नूतन रूप ग्रहण करता है। मैं अपने प्रिय के रूप को कई जन्मों से देख रही हूँ, पर आज तक आँखें तृप्त नहीं
हुई हैं अर्थात् इन आँखों में प्रिय के रूप को बार-बार निहारने की इच्छा बनी ही रहती है।
कवि नायिका के प्रेम को विस्तार देता है। संयोग तथा वियोग की दशाओं में नायिका अपने प्रिय की निकटता की अनुभूति हर समय महसूस करती रहती है। वह मानती है कि उसके प्रिय कृष्ण का रूप क्षण-क्षण परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तित होते ये रूप इतने मोहक हैं कि नायिका राधा हर रूप को अपने हृदय में बसाना चाहती है किंतु वह इससे भी तृप्त नहीं हो पाती। नायिका को लगता है कि उसकी आँखें आज भी अपने प्रिय के उस निरन्तर नवीनता धारण करने वाले रूप का दर्शन करना चाहती हैं।
कवि विद्यापति ने ‘नयन न तिरपित भेल’ के माध्यम से विरह शृंगार के विराट रूप को व्यक्त करने में सफलता पाई है।
3. नायिका के प्राण तृप्त न हो पाने का कारण अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर नायिका राधा का प्रेम अद्वितीय है। वह कई जन्मों से कृष्ण के रूप का दर्शन करती आ रही है। संयोग की अवस्था में कृष्ण तथा राधा विभिन्न लीलाओं के माध्यम से एक-दूसरे को पा लेते थे लेकिन अब इस विरहावस्था में नायिका अपने प्रिय को हृदय में बसा लेना चाहती है। उनके गुणों तथा प्रीति का वर्णन करना नायिका के लिए संभव नहीं हो रहा। नित्य-प्रति नवीन रूप धारण करने के कारण कृष्ण का हर रूप मनमोहक होता है। यही कारण है कि नायिका का मन कृष्ण के रूप-दर्शन के बाद भी तृप्त नहीं हैं और उसकी प्यास बराबर बढ़ती ही जा रही है।
कवि नायिका की व्यग्रता को चित्रित करने के लिए मानवीय तथा प्राकृतिक परिवर्तनों का आश्रय लेता है। कवि मानता है कि संयोग की अवस्था क्षणिक होती है और विरह की दीर्घ। विरह ही प्रेम को परिमार्जित करता है। उसका मानना है कि लाखों में भी कोई एक ऐसा प्रेमी नहीं मिला, जिसने प्रेम में अपने प्राण को तृप्त कर लिया हो। वस्तुतः प्रेम में संयोग की अपेक्षा वियोग अधिक प्रभावी होता है।
- ‘सेह पिरित अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए’ से लेखक का क्या आशय है?
उत्तर नायिका राधा की सखियाँ, उससे प्रेम में प्राप्त अनुभव के बारे में जानना चाहती हैं। नायिका अपनी सखियों को संबोधित करती हुई कहती है कि हे, सखियों ! तुम मेरे प्रणय अनुभव के बारे में क्या पूछती हो ? यह प्रेम तथा अनुराग तो वर्णन से परे है। यह प्रेम नित्य-प्रति नवीन रूप ग्रहण कर रहा है। इस प्रेम का वर्णन करना
कठिन है। जैसे-जैसे इसका वर्णन किया जाएगा, वैसे-वैसे उसमें परिवर्तन दृष्टिगत होगा।
क्षण-प्रतिक्षण बदलते इस प्रेम के कारण नायिका की आँखें अपने प्रिय के दर्शन से अब तक तृप्त नहीं हुई हैं। नायिका मानती है कि कई जन्मों से मैं अपने प्रिय श्री कृष्ण के रूप को निहारती आ रही हूँ, लेकिन अब तक आँखों की प्यास जस की तस है। इसका कारण कृष्ण के रूप तथा सौंदर्य में नित्य होने वाला परिवर्तन है।
कवि स्पष्ट करना चाहता है कि राधा और कृष्ण का प्रेम सांसारिक-प्रेम नहीं बल्कि आध्यात्मिक प्रेम है। सांसारिक-प्रेम का संबंध केवल एक जन्म का होता है जबकि आध्यात्मिक प्रेम का विस्तार कई जन्मों में होता है। ऐसा प्रेम हमेशा नूतन तथा चिरस्थायी होता है।
5. कोयल और भौरों के कलरव का नायिका पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर संयोग अथवा मिलन की स्थिति में जो बातें तथा प्राकृतिक उपादान प्रेम का आलंबन बनते हैं, वही विरह की अवस्था में प्रेमी की उद्दीपन की प्रवृत्तियों को और बढ़ा देते हैं। जब कृष्ण राधा के निकट होते हैं, तो कोयल के कूकने की ध्वनि तथा भौरों का कलरव प्रेम को उद्दीप्त करने वाले साधन बन जाते हैं किंतु कृष्ण के मथुरा चले जाने पर यही नायिका के विरह को अधिक तीव्र करते हैं।
नायिका कोयल की कूक तथा भौरों के कलरव को सुनकर अपने कानों को बंद कर लेती है। इनकी मधुर ध्वनि को सुन उसे अपने मिलन की मादक अवस्था का स्मरण हो जाता है, जिससे नायिका का दुख बढ़ जाता है। वस्तुतः विरह की अवस्था में कोयल तथा भौरों के कलरव नायिका को झकझोर देते हैं। वह इन्हें सुनना नहीं चाहती।
- कातर दृष्टि से चारों तरफ प्रियतम को ढूँढ़ने की मनोदशा को कवि ने किन शब्दों में व्यक्त किया है?
उत्तर नायिका राधा अपने प्रिय श्री कृष्ण के मथुरा चले जाने के कारण विरह-वेदना से पीड़ित है। वह विरह-ताप में जल रही है। वह अपने प्रियतम को चारों ओर कातर दृष्टि से ढूँढ़ने का प्रयास करती है। विरहाधिक्य के कारण नायिका अत्यंत कमजोर हो गई है। अपने प्रिय कृष्ण के गुण तथा सौंदर्य का वर्णन करते हुए उसके आँखों से आँसुओं की धारा प्रवाहित हो रही है। प्रिय को खोजने हेतु राधा अपनी दुर्बलता के कारण चल नहीं पाती। वह थोड़ी दूर चल कर जमीन पर बैठ जाती है। कृष्ण पक्ष की चौदहवीं तिथि की तरह क्षीण होती जाती राधा कातर दृष्टि से इधर-उधर देखती है। विरह की अवस्था में उसकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई है।
कवि राधा की शारीरिक तथा मानसिक अवस्था को दर्शा कर विरह की प्रवृत्तियों को सामने लाता है। प्रेम में विरह के कारण नायिका को बहुत दुख उठाना पड़ता है।
7. निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए
तिरपित, छन, बिदगध, निहारल, पिरिति, साओन, अपजस, छिन, तोहारा, कातिक।
उत्तर तृप्त, क्षण, विदग्ध, निहार, प्रीति, श्रावण, अपयश, क्षीण, त्वम्, कार्तिक।
- निम्नलिखित का आश्य स्पष्ट कीजिए
(क) एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए।।
(ख) जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल सुति पथ परस न गेल।।
(ग) कुसुमति कानन हेरि कमलमुखि, मूदि रहए दु नयान।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर देइ झाँपइ कान।।
उत्तर (क) नायिका कहती है कि प्रिय के बिना मुझसे अब इस भवन में अकेले रहा नहीं जाता। हे सखि! इस संसार में इस दुःख की पीड़ा को कौन अनुभूत कर सकता है अर्थात् जो विरह के दुःख को भोगता है, वही इसकी पीड़ा को समझ सकता है। मेरी विरह की पीड़ा का अनुमान मेरे सिवा कोई भी करने में समर्थ नहीं है अर्थात् मैं अकेली ही इस विरह की असहनीय पीड़ा को सहन कर रही हूँ।
(ख) प्रस्तुत पद में नायिका अपने प्रियतम को जन्म-जन्मांतर से देखने के बाद भी तृप्त न होने की व्यथा अपनी सहेली से कहती है। हे सखि! मैं जन्म-जन्मांतर से अपने प्रिय के सुंदर स्वरूप को निहारती रही, फिर भी उनके दर्शनों से मेरे नेत्र तृप्त नहीं हुए। उनकी प्रेममय मधुर वाणी को मैं निरंतर सुनती रही परंतु मेरे कानों की संतुष्टि नहीं हुई अर्थात् नायिका अपने प्रिय के साथ रहने की अभिलाषी है।
(ग) कवि ने इस काव्यांश में नायिका की विरहावस्था को चित्रित किया है। नायिका विरह के आवेग को सहन नहीं कर पा रही है। राधा पुष्पों से झुके वृक्षों और विविध रंग के पुष्पों से सुसज्जित बाग को देखकर अपनी आँखें बंद कर लेती है। पुष्पित बाग उसके दुःख को और बढ़ा देते हैं। कोयल की वाणी, भँवरों के गुँजन से उसका हृदय उद्विग्न हो जाता है। वह अपने कान बंद कर लेती है।
योग्यता-विस्तार
- पठित पाठ के आधार पर विद्यापति के काव्य में प्रयुक्त भाषा की पाँच विशेषताएँ उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर विद्यापति की भाषा की पाँच प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं
- तत्सम शब्दों का प्रयोग
- तद्भव शब्दों का प्रयोग
के पतिऊ …………….. साओन मास।
3. भावात्मकता
मोर मन हरि हर लए मेल रे अपनो मन मेल
- चित्रात्मकता
धरनीधरि चाँद समान।
- मुहावरों ओर लोकोक्तियों का प्रयोग
विद्यापति कातिक मान।
- विद्यापति और जायसी प्रेम के कवि हैं। दोनों की तुलना कीजिए।
क्र.सं. विद्यापति जायसी
- सौंदर्य और प्रेम के सिद्ध प्रेम की पीर के कवि। कवि।
- पदावली में राधा-कृष्ण के पद्मावत में राजा रत्नसेन रानी माध्यम से प्रेम को नागमती और पद्मावती के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है। एक लौकिक प्रेम कथा को अलौकिक रूप प्रदान करने का प्रयास।
- राधा कृष्ण पर और कृष्ण राजा रत्नसेन और नागमती की विरह राधा पर अनुरक्त। व्यथा पर प्रकाश डाला है।
- इनमें प्रेमाभूति अनिवार्य है। प्रेम सूफी मान्यताओं के अनुरूप है। प्रेम में सदा नवीनता है। पद्मावती के दिव्य प्रेम में विरह की इसलिए अतृप्ति भाव बना ही पीड़ा को सहन करने की शक्ति है। रहता है। जायसी के काव्य में प्रेम के अन्तर्गत संयोगावस्था के प्रेम की किया जाने वाला त्याग उसे अलौकिक स्मृतियाँ वियोगावस्था में बना देता है विरह को और बढ़ा देती हैं।