बारहमासा
सप्रसंग व्याख्या
- अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दुख सो जाइ किमि काढ़ी।। अब धनि देवस बिरह भा राती। जरै बिरह ज्यों दीपक बाती।।
काँपा हिया जनावा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।।
घर घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रँग लै गा नाहू।।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिरै फिरै रँग सोई।।
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधौ भै छारा।।
यह दुख दगध न जानै कंतू। जोबन जनम करै भसमंतू।।
पिय सौं कहेहु सँदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग।।
संदर्भ प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित ‘बारहमासा’ शीर्षक कविता से ली गई है। यह प्रसिद्ध कवि मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ का अंश है।
प्रसंग चित्तौड़ के राजा रत्नसेन के सिंहलद्वीप प्रवास के दौरान रानी नागमती के विरह को विविध ऋतुओं के माध्यम से कवि जायसी ने व्याख्यायित किया है।
व्याख्या रानी नागमती अगहन महीने के माध्यम से अपनी विरह का वर्णन करती हुई कहती है कि इस महीने दिन छोटा हो गया तथा रातें बड़ी हो गई हैं। यह बड़ी रातें विरह का प्रसार ही करती हैं। वह विरह में उसी प्रकार जल रही है, जैसे दीपक में बत्ती। उसका हृदय काँप रहा है। शीत ऋतु का प्रकोप प्रिय के साथ रहने पर ही कम होता है। नगर की स्त्रियों ने नवीन वस्त्र धारण कर शृंगार किया, किंतु नागमती का रंग-रूप तो उसके पति के साथ ही चला गया। राजा रत्नसेन के लौट आने पर ही वह रूप पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता है। ठंडक को आग जलाकर भगाया जा सकता है पर यह ठंडक ही हृदय की आग बन जल रही है और हृदय धीरे-धीरे राख हो रहा है। प्रिय मेरे इस दुख को नहीं समझ रहा कि उसके विरह में मेरा जीवन और जन्म नष्ट हो रहा है।
नागमती भँवरे तथा काग के माध्यम से संदेश भेजती है कि जाकर मेरे स्वामी से कहना कि एक विरहिणी के जलने से उठे धुएँ ने हमें काला कर दिया है अर्थात् हमारा कालापन धुएँ की कालिख का परिणाम है।
शब्दार्थ देवस दिवस; निसि रात्रि; दूभर कठिन; हिया हृदय; जनावा प्रतीत होना; सीऊ शीत; पीऊ प्रेमी; बहुरा लौटकर; सियरी ठंडी; दगधै जलना; भै हुई; कंतू पति
काव्य-सौंदर्य
- अवधी भाषा के साथ संस्कृत के तत्सम शब्दों का अर्द्ध-तत्सम रूप काव्यांश को माधुर्य प्रदान कर रहा है।
- प्रतीकों के साथ वियोग-शृंगार का चित्रात्मक रूप सामने आता है। अभिधात्मकता का प्रयोग काव्य-संवेदना को प्रभावी बनाता है।
- दोहा तथा चौपाई के माध्यम से कडवक शैली में जायसी ने अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है। विरह का मानवीकरण अतुलनीय है।
- पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा।। बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कँपि कँपि मरौं लेहि हरि जीऊ।। कंत कहाँ हौं लागौं हियरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।। सौर सुपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।। चकई निसि बिछुैै दिन मिला। हौं निसि बासर बिरह कोकिला।। रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसें जिऔं बिछोही पँखी।। बिरह सैचान भँवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।। कत ढरा माँसू गरा हाड़ भये सब संख। धनि सारस होइ ररि मुई आइ समेटहु पंख।।
संदर्भ यह काव्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित कविता ‘बारहमासा’ से ली गई है। यह जायसी के प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक रचना ‘पद्मावत’ का अंश है।
प्रसंग रानी नागमती अपने प्रेमी राजा रत्नसेन के दूर चले जाने पर विभिन्न ऋतुओं के दौरान अपने विरह की बाह्य तथा आंतरिक स्थिति को बता रही हैं, जिसे कवि ने शब्दों में ढाला है।
व्याख्या पूस के महीने में जाड़े से शरीर थर-थर काँप रहा है। सूर्य को भी मानो जाड़े का आभास हो रहा है और वह लंका की दिशा को तपा रहा है। विरह की तीव्रता के कारण ठंड को सहन करना कठिन हो रहा है। नागमती कहती है कि मैं काँप-काँप कर मरी जा रही हूँ और यह शीत जान लेने पर तुली है। हे, स्वामी ! तुम कहाँ हो, मैं तुम्हारे हृदय से लगना चाहती हूँ। रास्ते अनेक हैं किंतु मुझे निकट की वस्तु भी नहीं दिख रही। गर्म कपड़े तथा बिस्तर भी ठंड को बढ़ा रहे हैं, लगता है सभी बर्फ में डूबे हुए हैं।
नागमती कहती है कि चकई रात में बिछुरने के बाद दिन होते ही अपने प्रेमी चकवा से मिल लेती है, पर मैं तो वह कोयल हूँ जो दिन-रात अपने प्रियतम को पुकारती रहती हूँ। रात को मैं अकेली हो जाती हूँ। कोई सखी भी साथ नहीं रहती। मैं अपने जोड़े से अलग हुई चिड़िया की भाँति कैसे जीवित रह सकती क्योंकि विरह रूपी बाज घूम रहे हैं तथा मेरे शरीर को हिंसक दृष्टि से देख रहे हैं। यह मुझे जीते जी खाना चाहते हैं और मरने पर भी नहीं छोड़ना चाहते।
नागमती कहती है कि विरह की अधिकता के कारण आँसुओं की जगह मेरा खून आँखों से बह रहा है। मांस गल गया है तथा हड्डियाँ शंख के समान खोखली हो गई हैं। वह पति को संदेश भेजती है कि नागमती सारस की तरह अपने जोड़े से बिछुड़,
प्रिय का नाम रट-रटकर मर गई, इसलिए उसके प्रिय आए और उसके पंख समेट ले। अर्थात् विरह के कारण शरीर का जो ढाँचा बना है उसे वह आकर समेट ले।
शब्दार्थ सुरुज सूरज; लंक लंका; दिसि दिशा; भा होना; दारुन कठिन; हियरूँ हृदय; सौर ओढ़ने वाले वस्त्र; सुपेती हलका; हिवंचल बर्फ; सैचान बाज; रकत रक्त
काव्य-सौंदर्य
- अवधी के ठेठ रूप को काव्यांश में देखा जा सकता है। संस्कृतनिष्ठ शब्दों की जगह स्थानीय शब्दों के प्रयोग से भाषा प्रवाहमय हो गई है।
- कवि को सूर्य के दक्षिणायन होने की भौगोलिक दशा का ज्ञान है। विरह की अधिकता के लिए चकवा, चकई तथा कोयल की उत्प्रेक्षा प्रभावपूर्ण बन पड़ी है।
- लागेउ माँह परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला।।
पहल पहल तन रुई जो झाँपै। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँपै।।
आई सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ।।
एहि मास उपजै रस मूलू। बिरह पवन होइ मारैं झोला।।
नैन चुवहिं जस माँहुट नीरू। गियँ नहिं हार रही होइ डोरा।।
टूटहिं बुंद परहिं जस ओला। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।।
केहिक सिंगार को पहिर पटोरा। तूँ सो भัवर मोर जोबन फूलू।।
तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उड़ावा झोल।।
संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश ‘बारहमासा’ शीर्षक कविता का अंश है, जो पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित है। यह मलिक मुहम्मद जायसी की रचना ‘पद्मावत’ से ली गई है।
प्रसंग माघ महीने में नागमती की स्थिति की तुलना मौसम में आ रहे बदलाव से तथा विरह के तीव्र होते जाने के रूप में की गई है।
व्याख्या माघ महीना के शुरू होते ही पाला पड़ने लगा है। विरह की वेदना का विस्तार मृत्यु की तरह हो गया है। पहले तो मैंने शीत से बचने के लिए शरीर को रुई से ढका, किंतु हृदय की धड़कन तथा शरीर का कंपन घटने की जगह बढ़ने ही लगा। इस महीने में जैसे सूर्य के ताप में थोड़ी बहुत गर्मी रहती है, लेकिन स्वामी के आने पर ही शीत से मुक्ति मिल सकती है। उसके बिना जाड़ा नहीं छूटेगा।
नागमती कहती है कि वैसे भी इस महीने में काम भावना प्रबल होती है; ऊपर से विरह-रूपी पवन का झोंका इसे और तीव्र कर रहा है। आँखों से आँसू वर्षा की बूँदों की तरह टपक रहे हैं। इस विरह-जल के कारण शरीर को बाण के समान दुख मिल रहा है। अर्थात् आँसू की बूँद ओलों के समान बरस रही हैं। उसके जल का स्पर्श बाण की पीड़ा दे रहा है। नागमती कहती है कि इस विरहावस्था में किसके लिए शृंगार करूँ तथा किसके लिए रेशमी वस्त्र धारण करूँ। मेरा गला सूख गया है, इसमें हार कैसे पहनूँ?
नागमती कहती है कि प्रिय, मैं तुम्हारे बिना इतना सूख गई हूँ कि मेरा शरीर हल्का हो गया है और यह तिनके के समान हिल रहा है। विरह की अग्नि इस तिनके को जलाना तथा विरह-पवन इसे उड़ा देना चाहती है।
शब्दार्थ जड़काला मृत्यु; सूर सूर्य; नाहाँ पति; मूलू जड़ में; माँहुट बादल; झोला झोंका; पटोरा रेशमी वस्त्र; गियँ = गरदन; तिनुवर = तिनका
काव्य-सौंदर्य
- ‘पहल पहल’ तथा ‘हहलि हहलि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। शरीर को तिनका के समान तथा विरह के कारण उसके जलने या उड़ने में अतिशयोक्ति अलंकार का सुंदर प्रयोग है।
- भाषा की मधुरता प्रभावित करती है। ‘दोहा’ तथा ‘ चौपाई’ छंद का सुंदर प्रयोग मिलता है। सात-सात चौपाई के बाद दोहे का प्रयोग कडवक शैली का उदाहरण है।
- फागुन पवन झँकोरै बहा। चौगुन सीउ जाइ किमि सहा।। तन जस पियर पात भा मोरा। बिरह न रहै पवन होइ झोरा।। तरिवर झरै झरै बन ढाँखा। भइ अनपत्त फूल फर साखा।। करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कहाँ भा जग दून उदासू।। फाग करहि सब चाँचरि जोरी। मोहि जिय लाइ दीन्हि जसि होरी।। जौं पै पियहि जरत अस भावा। जरत मरत मोहि रोस न आवा।। रातिहु देवस इहै मन मोरें। लागौं कंत छार? जेऊँ तोरें।। यह तन जारौं छार कै कहौं कि पवन उड़ाउ। मकु तेहि मारग होइ परौं कंत धरैं जहँ पाउ।।
संदर्भ यह काव्यांश ‘बारहमासा ‘ शीर्षक कविता का भाग है, जो पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ (भाग-2) में संकलित है। ‘बारहमासा’ कविता जायसी की रचना ‘पद्मावत’ के ‘नागमती-विरह वर्णन’ खंड से ली गई है।
प्रसंग फागुन महीने में चलने वाली हवा शीत को अधिक तीव्र करती है। नायिका का विरह-ताप भी इस दौरान अधिक बढ़ जाता है।
व्याख्या फागुन के महीने में हवा के झोंकों से ठंड में अत्यधिक वृद्धि होती है। इस समय ठंड को सहना कठिन है। नागमती कहती है कि मेरा शरीर पत्ते के समान पीला पड़ गया है तथा विरह तो जैसे हवा का झोंका बन गई है। संभव है वह मुझे समाप्त कर दे। वन में खड़े पलाश के पत्ते झड़कर गिर रहे हैं तथा शाखाओं में फूल लग गए हैं। सभी वनस्पतियों में उल्लास का संचार हुआ है, इसके विपरीत मेरा दुख तो और बढ़ गया है। सब लोग फाग में आनंदित हो रहे हैं, किंतु मेरे हृदय में होली की आग जल रही है।
यदि मेरे स्वामी मुझे इस अवस्था में देखते तो मुझे अपने जलने पर क्रोध नहीं आता क्योंकि वे यह तो देख लेते कि मैं उनके विरह में कितनी वेदना सह रही हूँ। नागमती कहती है कि दिन-रात मेरे मन में यही इच्छा है कि अपने स्वामी की सेवा में लगी रहूँ।
नागमती की आकाँक्षा है कि वह अपने शरीर को जलाकर भस्म कर दे और फिर पवन से कहे कि मेरे इस भस्म को उन रास्तों पर उड़ा ले जाना, जिन से होकर मेरे स्वामी के चरण आगे बढ़ें। अर्थात् नागमती अपने स्वामी के चरणों में अपने जीवन को सफल मानती हैं।
शब्दार्थ अनपत्त पत्तों से रहित; बनाफति वनस्पति; हुलासू उत्साह रहित; चाँचरि रंग डालना; पियहि पिया; मकु मानो
काव्य-सौंदर्य
- इस काव्यांश में विरहदग्ध नायिका को एक गृहस्थ स्त्री के रूप में दिखाया गया है। सामाजिक मर्यादा का ऐसा चित्रण प्रेम कथाओं में कम ही है।
- तद्भव शब्दों से युक्त अवधी का सुंदर साहित्यिक रूप यहाँ मिलता है। प्रतीकों के माध्यम से विरह को तीव्र बनाया गया है। प्रकृति का मानवीकरण किया गया है। उपमा अलंकार के साथ अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है। ‘झरै-झरै’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
प्रश्न-अभ्यास
- अगहन मास की विशेषता बताते हुए विरहिणी (नागमती) की व्यथा-कथा का चित्रण अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर अगहन के महीने में दिन छोटे तथा रातें लंबी होने लगती हैं। इस समय
शीत ऋतु अपना प्रकोप दिखाने लगती है। ठंड की अधिकता के कारण लोग गर्म ऊनी कपड़ों तथा रूई से बने ओढ़ने वाले वस्त्रों का उपयोग प्रारंभ कर देते हैं। ठंड से बचने के लिए आग जलाई जाती है, जिससे वातावरण गर्म होता है।
नागमती अपने प्रिय के विरह में अत्यधिक दुखी है। उसका दुख भी ठंड की तरह बढ़ता जा रहा है। उसकी विरह वेदना बत्ती की तरह, उसके शरीर-रूपी दीपक को जला रही है। उसका हृदय विरह से उसी प्रकार काँप रहा है, जैसे ठंड से शरीर काँपता है। स्त्रियाँ शृंगार इत्यादि के बाद नवीन वस्त्र धारण कर रही हैं, जबकि नागमती का रूप-रंग उसके स्वामी के साथ ही चला गया है। उसका हृदय विरह की आग से जल कर राख हो रहा है।
नागमती अपनी व्यथा को भँवरे तथा काग के माध्यम से पति तक भेजती है। वह भँवरे तथा काग से कहती है कि जाकर मेरे स्वामी से कहना कि एक विरहिणी विरह की आग से जल गई है और उसके धुएँ से हमारा शरीर काला हो गया है।
- ‘जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा’ पंक्ति के संदर्भ में नायिका की विरह-दशा का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर नागमती अपने स्वामी चित्तौड़ नरेश रत्तसेन के सिंहल-द्वीप प्रवास करने के दौरान विरह का अनुभव करती है। उसे लगता है कि पूस की ठंड ने उसकी विरह को बढ़ा दिया है। उसका हृदय काँप रहा है। इस स्थिति में उसके पति का उसे हृदय से लगाना जरूरी हो गया है। सारे वस्त्र, बिस्तर तथा गर्म-ऊनी कपड़े जैसे बर्फ से भीग गए हैं। उसे गर्म कपड़ों में भी विरहाधिक्य के कारण शीत का अनुभव होता है।
नागमती कहती है कि रात को बिछुड़ने के बाद चकई पुनः प्रातःकाल चकवे से मिल जाती है, पर उसका विरह तो दिन-रात बढ़ता ही जा रहा है। वह वैसी चिड़िया के समान है जिसका जोड़ा बिखर गया है। इस अकेली चिड़िया पर विरह रूपी बाज की आँखें लगी हैं और वह उसे जीते जी तो छोड़ेगा ही नहीं बल्कि मरने पर भी शायद ही छोड़े।
नागमती विरह की स्थिति में स्वयं को चिड़िया तथा विरह को बाज के प्रतीक रूप में रखती है।