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Chapter 10 नीतिनवनीतम्

पाठ-परिचय – प्रस्तुत पाठ ‘मनुस्मृति’ के कतिपय श्लोकों का संकलन है जो सदाचार की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहाँ माता-पिता तथा गुरुजनों को आदर और सेवा से प्रसन्न करने वाले अभिवादनशील मनुष्य को मिलने वाले लाभ की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त सुख-दुःख में समान रहना, अन्तरात्मा को आनन्दित करने वाले कार्य करना तथा इसके विपरीत कार्यों को त्यागना, सम्यक् विचारोपरान्त तथा सत्यमार्ग का अनुसरण करते हुए कार्य करना आदि शिष्टाचारों का उल्लेख भी किया गया है। 

पाठ के श्लोकों के अन्वय, कठिन शब्दार्थ एवं हिन्दी-भावार्थ –
 
1. अभिवादनशीलस्य ……………………………….. आयुर्विद्या यशो बलम्॥ 
अन्वयः – नित्यम् अभिवादनशीलस्य (तथा) वृद्धोपसेविनः आयुः विद्या यशः बलम् (इति) चत्वारि तस्य वर्धन्ते।
 
कठिव-शब्दार्थ :  

  • अभिवादनशीलस्य = प्रणाम करने के स्वभाव वाले के। 
  • वृद्धोपसेविनः = (वृद्ध + उपसेविन) बड़ों की सेवा करने वाले के। 
  • वर्धन्ते = बढ़ते हैं। 

हिन्दी भावार्थ – प्रस्तुत श्लोक में अभिवादन एवं बड़े लोगों की सेवा के महत्त्व को दर्शाते हुए कहा गया है कि जो हमेशा अभिवादनशील एवं बड़े लोगों की सेवा करने वाले होते हैं, उनकी आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती हैं।

2. यं मातापितरौ क्लेशं ……………………………… कर्तु वर्षशतैरपि॥ 
अन्वयः – नृणां सम्भवे मातापितरौ यं क्लेशं सहेते, तस्य निष्कृतिः वर्षशतैः अपि कर्तुम् न शक्या। 

कठिन-शब्दार्थ : 

  • नृणाम् = मनुष्यों के। 
  • सम्भवे = जन्म देने में। 
  • मातापितरौ = (माता च पिता च, द्वन्द्वसमासः) माता और पिता। 
  • निष्कृतिः = निस्तार। 

हिन्दी भावार्थ – प्रस्तुत श्लोक में माता-पिता के महत्त्व को दर्शाते हुए कहा गया है कि मनुष्यों को जन्म देने, उनके पालन-पोषण में जो कष्ट सहन करते हैं, उस कष्ट का निस्तारण मनुष्य सौ वर्षों में भी नहीं कर सकता। अर्थात् माता-पिता के उपकार एवं कष्टों का निस्तारण करना असम्भव है।
 
3. तयोर्नित्यं प्रियं ………………………………………. तपः सर्वं समाप्यते॥ 
अन्वयः – नित्यं तयोः आचार्यस्य च सर्वदा प्रियं कुर्यात्। तेषु त्रिषु एव तुष्टेषु सर्वं तपः समाप्यते। 

कठिन-शब्दार्थ : 

  • कुर्यात् = करना चाहिए। 
  • तुष्टेषु = सन्तुष्ट, प्रसन्न होने पर। 
  • समाप्यते = समाप्त होता है। 

हिन्दी भावार् थ- प्रस्तुत पद्य में कहा गया है कि माता, पिता व गुरु को प्रिय लगने वाला कार्य ही हमेशा करना चाहिए। क्योंकि उन तीनों के प्रसन्न होने पर ही सम्पूर्ण तप का फल मिल जाता है। माता, पिता व गुरु की सेवा ही सबसे बड़ा तप है। इनके सन्तुष्ट न रहने पर बाकी तप भी व्यर्थ है।

4. सर्वं परवशं दुःखं ……………………… लक्षणं सुखदुःखयोः॥ 
अन्वय – सर्वं परवशं दुःखम्, सर्वम् आत्मवशं सुखम्। सुखदु:खयोः एतत् लक्षणं समासेन विद्यात्। 

कठिन-शब्दार्थ : 

  • परवशम् = दूसरों के अधीन, वश में। 
  • आत्मवशम् = स्वतन्त्र, स्वयं के वश में। 
  • समासेन = संक्षेप में। 
  • विद्यात् = जानना चाहिये। 

हिन्दी भावार्थ – प्रस्तुत पद्य में सुख-दुःख का लक्षण संक्षेप में देते हुए कहा गया है कि सभी तरह से पराधीन होना ही दुःख कहलाता है तथा सभी तरह से स्वतन्त्र रहना ही सुख कहलाता है। यही सुख व दुःख का लक्षण संक्षेप में जानना चाहिए। 

5. यत्कर्म कुर्वतोऽस्य ……………………………… विपरीतं तु वर्जयेत्॥ 
अन्वयः – यत् कर्म कुर्वतः अस्य अन्तरात्मनः परितोषः स्यात्, तत् (कर्म) प्रयत्नेन कुर्वीत। विपरीतं (कर्म) तु वर्जयेत्।
 
कठिन-शब्दार्थ : 

  • कुर्वतः = करते हुए का। 
  • अन्तरात्मनः = अन्तरात्मा (हृदय) की। 
  • परितोषः = सन्तोष। 
  • कुर्वीत = करना चाहिए।
  • वर्जयेत् = त्याग देना चाहिए। 

हिन्दी भावार्थ – प्रस्तुत श्लोक में करने योग्य कर्म के बारे में कहा गया है कि जो कर्म (कार्य) करने से हमारी अन्तरात्मा (हृदय) को सन्तोष प्राप्त होता है, वह कार्य प्रयत्नपूर्वक शीघ्रता से करना चाहिए, किन्तु जो इसके विपरीत हो अर्थात् जिस कार्य से हृदय को सन्तोष प्राप्त नहीं हो, उस कार्य को छोड़ देना चाहिए। 

6. दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं …………………….. पूतं समाचरेत्॥ 
अन्वयः – दृष्टिपूतं पादं न्यसेत्। वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। सत्यपूतां वाचं वदेत्। मनःपूतं समाचरेत्। 

कठिन-शब्दार्थ : 

  • दृष्टिपूतम् = नेत्रों से पवित्र (देखकर)। 
  • पादम् = पैर को। 
  • न्यसेत् = रखना चाहिए। 
  • वाचम् = वाणी को। 
  • मनःपूताम् = मन से पवित्र। 
  • समाचरेत् = आचरण करना चाहिए। 

हिन्दी भावार्थ – प्रस्तुत श्लोक में नीतिगत व्यावहारिक उपदेश देते हुए कहा गया है कि आँखों से अच्छी प्रकार से देखकर ही आगे पैर रखना चाहिए। वस्त्र से छना हुआ अर्थात् शुद्ध किया हुआ पानी ही पीना चाहिए। हमेशा सच | बोलना चाहिए तथा मन से पवित्र अर्थात् छल-कपट से रहित आचरण ही करना चाहिए।

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