Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप

Textbook Questions and Answers

लघूत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में नाबालिग की स्थिति की साझेदारी फर्म में उसकी स्थिति से तुलना कीजिए। 
उत्तर:
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में किसी भी व्यक्ति का प्रवेश संयुक्त हिन्दू परिवार में जन्म लेने के साथ ही हो जाता है। इसीलिए ऐसे परिवार वाले व्यवसाय में नाबालिग भी जन्म से ही सदस्य होता है। उसकी स्थिति सह समांशी की होती है तथा जोखिम स्पष्ट एवं निश्चित होती है। परन्तु साझेदारी चूँकि दो लोगों के बीच कानूनी अनुबन्ध पर आधारित होती है वे लाभ-हानि को बाँटने का समझौता करते हैं। चूंकि एक नाबालिग कानूनन किसी के साथ वैध अनुबन्ध नहीं कर सकता है, इसलिए वह किसी फर्म में साझेदार नहीं बन सकता है। फिर भी साझेदारी फर्म में सभी साझेदार चाहें तो वे सर्वसम्मति से नाबालिग को फर्म के लाभों में भागीदार बना सकते हैं। ऐसी स्थिति में उसका दायित्व फर्म में लगायी गई उसकी पूँजी तक ही सीमित रहेगा। 

प्रश्न 2. 
यदि पंजीयन ऐच्छिक है तो साझेदारी फर्म स्वयं को पंजीकृत कराने के लिए वैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए क्यों इच्छुक रहती है? समझाइए। 
उत्तर:
भारतीय साझेदारी अधिनियम के अनुसार साझेदारी फर्म का पंजीयन कराना अनिवार्य नहीं होकर ऐच्छिक होता है। अतः फर्म का चाहें तो पंजीयन करवाया जा सकता है और चाहें तो नहीं भी। किन्तु फर्म का पंजीयन नहीं कराने की स्थिति में फर्म का साझेदार अपनी फर्म अथवा अन्य साझेदारों के विरुद्ध मुकदमा दायर नहीं कर सकता है। फर्म भी अन्य पक्षों के विरुद्ध मुकदमा नहीं चला सकती है। इसके साथ ही यह साझेदारों के विरुद्ध मुकदमा नहीं चला सकती है। यही कारण है कि इन कमियों को दूर करने के लिए साझेदारी फर्म अपना पंजीकरण कराने के लिए इच्छुक रहती है। 

प्रश्न 3. 
एक निजी कम्पनी को उपलब्ध महत्त्वपूर्ण सुविधाओं को बताइए। 
उत्तर:
एक निजी कम्पनी को उपलब्ध महत्त्वपूर्ण सुविधाएँ-

प्रश्न 4. 
सहकारी समिति किस प्रकार जनतान्त्रिक एवं धर्म-निरपेक्षता का आदर्श प्रस्तुत करती है? 
उत्तर”
एक सहकारी समिति का प्रबन्ध उसके सदस्यों द्वारा अपने में से निर्वाचित प्रबन्ध समिति द्वारा किया जाता है। समिति के प्रबन्ध में सभी सदस्यों का समान अधिकार होता है। प्रत्येक सदस्य केवल एक ह उसके पास समिति के कितने ही अंश क्यों न हों। अतः सहकारी समिति में एक व्यक्ति एक मत’ के सिद्धान्त का पालन किया जाता है। इस प्रकार सहकारी समिति जनतन्त्र का आदर्श प्रस्तुत करती है। 

सहकारी समिति में सदस्यता अनिवार्य नहीं होती है। कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से सदस्य बन सकता है या सदस्यता छोड़ सकता है। कोई भी व्यक्ति चाहे वह अमीर हो या गरीब, किसी भी जाति, धर्म, रंग, प्रान्त का ही क्यों न हो, समिति का सदस्य बन सकता है। इस प्रकार सहकारी समिति में सदस्यों में किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं किया जाता है और न ही किसी सदस्य को विशेषाधिकार दिया जाता है। इसीलिए यह कहा जाता है कि सहकारी समितियाँ धर्म-निरपेक्षता का आदर्श प्रस्तुत करती हैं। 

प्रश्न 5. 
‘प्रदर्शन द्वारा साझेदार’ का क्या अर्थ है? समझाइए।। 
उत्तर:
प्रदर्शन द्वारा साझेदार-जब कोई व्यक्ति आम जनता में यह प्रचार करे कि वह साझेदारी फर्म का साझेदार है, परन्तु वास्तव में वह ऐसा नहीं हो तो वह प्रदर्शन द्वारा साझेदार कहलाता है। ऐसा साझेदार फर्म के ऋणों के भुगतान के लिए उत्तरदायी होता है क्योंकि अन्य व्यक्तियों या पक्षों की दृष्टि में वह साझेदार भी होता है। यदि ऐसा साझेदार अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहता है तो उसे तुरन्त अपनी स्थिति स्पष्ट कर यह बताना होगा कि वह साझेदार नहीं है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह इस आधार पर हुई किसी भी प्रकार की हानि के लिए तीसरे पक्ष के प्रति उत्तरदायी होगा। 

प्रश्न 6. 
50 शब्दों में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
(क) कर्ता 
(ख) सार्वमुद्रा 
(ग) कृत्रिम व्यक्ति 
(घ) शाश्वत उत्तराधिकार। 
उत्तर:
(क) कर्ता-संयक्त हिन्द परिवार में व्यवसाय का प्रबन्ध एवं संचालन परिवार के मखिया द्वारा किया जाता है। यह मुखिया ही कर्ता कहलाता है। यही परिवार के व्यवसाय का सर्वेसर्वा होता है। परिवार के अन्य सदस्यों को मुखिया की अनुमति के बिना व्यवसाय में हस्तक्षेप करने तथा कोई अनुबन्ध या समझौता करने का अधिकार नहीं होता है। 

(ख) सार्वमुद्रा-एक कम्पनी की सार्वमुद्रा हो भी सकती है और नहीं भी। इस पर कम्पनी का नाम लिखा होता है जो कम्पनी के हस्ताक्षर का कार्य करती है। यदि कम्पनी की सार्वमुद्रा है तो वह कम्पनी के प्रपत्रों पर अनिवार्य रूप से लगी होनी चाहिए। यदि कम्पनी की सार्वमुद्रा न हो तो प्रपत्रों पर हस्ताक्षर करने वाला व्यक्ति संचालक मण्डल के संकल्प से प्राधिकृत होना चाहिए। 

(ग) कृत्रिम व्यक्ति-कम्पनी का जन्म कम्पनी कानून द्वारा होता है, प्राकृतिक व्यक्ति की तरह नहीं। यह प्राकृतिक व्यक्ति की तरह सांस नहीं ले सकती, खा नहीं सकती, दौड़ नहीं सकती, बात नहीं कर सकती तथा स्वयं के हस्ताक्षर नहीं कर सकती है। इसीलिए इसे एक कृत्रिम व्यक्ति माना जाता है। लेकिन यह एक प्राकृतिक व्यक्ति की तरह अपनी सम्पत्ति रख सकती है, ऋण व उधार ले सकती है, अनुबन्ध कर सकती है, दूसरों पर मुकदमा कर सकती है, दूसरे इस पर मुकदमा कर सकते हैं।

(घ) शाश्वत उत्तराधिकार-कम्पनी का निर्माण एवं समापन कम्पनी कानून द्वारा ही होता है। कम्पनी का अस्तित्व पृथक् होने के कारण इसके सदस्यों की मृत्यु होने, पागल या दिवालिया होने आदि का इसके अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यहाँ तक कि कम्पनी के सभी सदस्यों की मृत्यु होने पर भी इसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता है। कम्पनी के सदस्यों का कम्पनी में आने-जाने पर भी इसका अस्तित्व बना रहता है। अतः कम्पनी को शाश्वत उत्तराधिकार प्राप्त है। 

दीर्घ उत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1. 
एकल स्वामित्व फर्म से आप क्या समझते हैं? इसके गुणों एवं सीमाओं को समझाइए। 
उत्तर:
एकल स्वामित्व का अर्थ-एकल स्वामित्व वाला व्यापार उस व्यवसाय को कहते हैं जिसका स्वामित्व, प्रबन्धन एवं नियन्त्रण एक ही व्यक्ति के हाथों में होता है तथा वही सम्पूर्ण लाभ पाने का अधिकारी तथा हानि के लिए उत्तरदायी होता है। व्यावसायिक स्वामित्व का यह स्वरूप विशेषकर उन क्षेत्रों में प्रचलन में है जिनमें व्यक्तिगत सेवाएँ प्रदान की जाती हैं। जैसे-ब्यूटी पार्लर, नाई की दुकान तथा फुटकर व्यापार की दुकान चलाना। 

गुण या लाभ-एकाकी स्वामित्व के प्रमुख गुण या लाभ निम्न प्रकार हैं-
1. शीघ्र निर्णय-एकल स्वामी को व्यवसाय से सम्बन्धित निर्णय लेने की बहुत अधिक स्वतन्त्रता होती है क्योंकि उसे किसी दूसरे से सलाह लेने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए वह शीघ्र निर्णय लेकर व्यावसायिक सुअवसरों का लाभ उठा सकता है। 

2. गोपनीयता-एकल स्वामी व्यवसाय में अकेले ही निर्णय लेने का अधिकार रखता है। इसलिए वह व्यापार संचालन के सम्बन्ध में सूचनाओं को गुप्त रख सकता है तथा गोपनीयता बनाये रख सकता है। 

3. प्रत्यक्ष प्रोत्साहन-एकल स्वामी चूँकि अकेला ही स्वामी होता है इसलिए उसे लाभ में किसी के साथ हिस्सा बँटाने की आवश्यकता नहीं है। इससे उसे कठिन परिश्रम करने के लिए अधिकतम प्रोत्साहन मिलता है। 

4. उपलब्धि का एहसास-एकल स्वामित्व में व्यवसायी द्वारा अपने स्वयं के लिए काम करने से व्यक्तिगत सन्तुष्टि प्राप्त होती है। इस बात का एहसास कि वह स्वयं ही अपने व्यवसाय की सफलता के लिए उत्तरदायी है, न केवल उसे आत्म-सन्तोष प्रदान करता है वरन् स्वयं की योग्यता एवं क्षमता में विश्वास की भावना भी पैदा करता है। 

5. सरल प्रारम्भ एवं अन्त-एकल व्यापार प्रारम्भ करने में एवं बंद करने में किसी प्रकार की कोई वैधानिक कार्यवाही नहीं करनी पड़ती है। बड़ी सुगमता से एकल व्यापार शुरू किया जा सकता है और सरलता से चलाया जा सकता है और बंद भी किया जा सकता है। 

6. मितव्ययिता-एकल व्यापारी स्वयं ही अपने व्यापार की देखभाल करता है, स्वयं ही सारे प्रबन्धकीय कार्यों का निष्पादन करता है तथा स्वयं ही सारी नीतियों को निर्धारित करता है। वह अपने धन को अधिक से अधिक उपयोगी एवं लाभप्रद कार्यों में लगाता है। फलतः एकल व्यापार में मितव्ययिता अधिक होती है। 

7. व्यक्तिगत सम्पर्क-एकाकी व्यापारी उपभोक्ता से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित कर अपने व्यक्तित्व व प्रभाव से उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। वह उपभोक्ताओं को उनकी व्यक्तिगत रुचि के अनुसार उनकी आवश्यकताओं को पूरा कर लाभ उठा सकता है। 

8. पूर्ण नियन्त्रण-एकल व्यापार में स्वामी को व्यापार के प्रबन्ध की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। अतः वह अपनी इच्छानुसार इसका नियोजन एवं नियन्त्रण कर सकता है। इस प्रकार उसका व्यापार पर पूर्ण नियन्त्रण बना रहता है। 

9. सतर्कता-व्यापार का पूर्ण भार अकेले व्यापारी पर ही होता है अतः वह बड़ी सतर्कता से व्यापार का संचालन करता है। 

10. आत्मविश्वास-एकल व्यापारी अपने समस्त कार्यों की देखरेख स्वयं ही करता है। अतः उसमें आत्मविश्वास की भावना का जागृत होना स्वाभाविक है। 

सीमाएँ-एकल स्वामित्व में उपर्युक्त लाभों या गुणों के होते हुए भी निम्नलिखित कुछ सीमाएँ भी हैं-
1. सीमित संसाधन-एक एकाकी स्वामी के संसाधन उसकी व्यक्तिगत बचत एवं दूसरों से ऋण लेने तक ही सीमित रहते हैं। फलत: व्यापार का आकार सामान्यतः छोटा ही रहता है तथा उसके विस्तार की सम्भावना भी कम होती है। 

2. सीमित जीवनकाल-एकल स्वामित्व में कानून की दृष्टि में स्वामी एवं स्वामित्व दोनों ही एक माने जाते हैं। स्वामी की मृत्यु, बीमारी तथा दिवालिया होने से व्यवसाय प्रभावित होता है। इस प्रकार एकाकी स्वामित्व वाले व्यापार का जीवनकाल सीमित ही होता है। 

3. असीमित दायित्व-एकल स्वामित्व वाले व्यापार में असीमित उत्तरदायित्व होने के कारण व्यापारी ऐसे कार्य नहीं कर सकता, जिनमें अधिक जोखिम होती है। व्यवसाय के असफल होने की स्थिति में या व्यवसाय हानि में संचालित होता है तो व्यवसायी को सारे दायित्व व ऋणों का निपटारा स्वयं को ही करना पड़ता है। 

4. सीमित प्रबन्ध योग्यता-एकाकी व्यापार के स्वामी पर प्रबन्ध से सम्बन्धित कई उत्तरदायित्व रहते हैं। शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो जो सभी क्षेत्रों में सर्वगुण- सम्पन्न हो। उसमें सीमित प्रबन्ध योग्यता होती है। संसाधनों के अभाव में भी वे योग्य, अनुभवी एवं महत्त्वाकांक्षी कर्मचारियों को न तो भर्ती कर सकते हैं और न ही उन्हें रोके रख सकते हैं। 

5. हानि का भार-एकल व्यापारी को अपने व्यापार की सम्पूर्ण हानि का भार स्वयं ही वहन करना होता है क्योंकि वह अकेला ही व्यापार का स्वामी होता है। अतः अधिक हानि होने पर उसका व्यवसाय समाप्त भी हो सकता है। 

6. जल्दबाजीपूर्ण निर्णय-एकल व्यापारी अपने व्यापार सम्बन्धी निर्णय करने में पूर्णतया स्वतन्त्र होता है। इसलिए वह कभी-कभी जल्दीबाजी में ऐसे निर्णय ले लेता है जो उसके लिए हानिकारक सिद्ध हो जाते हैं। 

7. सीमित ख्याति-एकाकी व्यापार में अकेला व्यक्ति स्वामी होता है अतः व्यवसाय की ख्याति भी सीमित ही होती है। 

प्रश्न 2. 
साझेदारी के विभिन्न प्रकारों में व्यावसायिक स्वामित्व तुलनात्मक रूप से लोकप्रिय क्यों नहीं है? इसके गुणों एवं सीमाओं को समझाइए। 
उत्तर:
साझेदारी-साझेदारी उन व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध को कहते हैं जो ऐसे कारोबार (व्यापार) के लाभ को आपस में बाँटने के लिए सहमत हुए हों, जिसे उन सबके द्वारा अथवा उन सबकी ओर से किसी व्यक्ति द्वारा चलाया जाता हो। 

एकल स्वामित्व में निहित दोषों के कारण एवं विकल्प के रूप में साझेदारी स्वरूप का जन्म हुआ। साझेदारी संगठन के अनेक गुण या लाभ होने के कारण कई व्यक्ति साझेदारी संगठन स्वरूप को अपनाना पसन्द करते हैं। 

साझेदारी के गुण-साझेदारी संगठन के कुछ प्रमुख गुण या लाभ निम्नलिखित हैं-
1. सरल स्थापना एवं अन्त-साझेदारी व्यापार को सरलता से स्थापित किया जा सकता है। इस व्यवसाय को स्थापित करने के लिए कुछ अधिक खर्च नहीं करना पड़ता और न ही विशेष कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना होता है। साझेदारी फर्म का पंजीकरण अनिवार्य नहीं होता है अतः बन्द करना भी आसान होता है।

2. अधिक पूँजी-साझेदारी स्वरूप में एकल स्वामित्व की तुलना में अधिक पूँजी जुटायी जा सकती है। क्योंकि फर्म के सभी साझेदार इसमें पूँजी लगाते हैं। इसमें ऋण इत्यादि भी अधिक आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं। 

3. जोखिम का विभाजन-साझेदारी फर्म को चलाने में निहित जोखिम को सभी साझेदार बाँट लेते हैं। इससे किसी एक साझेदार पर पड़ने वाला आर्थिक बोझ कम हो जाता है और वह तनाव व दबाव-मुक्त रह सकता है। 

4. गोपनीयता-साझेदारी संगठन में फर्म के लिए अपने खातों को प्रकाशित करना एवं ब्यौरा देना कानूनी रूप से आवश्यक नहीं होता है। इसलिए वह अपने व्यावसायिक कार्यों के सम्बन्ध में सूचना को गुप्त रख सकते हैं। 

5. सन्तुलित निर्णय-साझेदारी संगठन में लिये जाने वाले निर्णय सन्तलित होते हैं। क्योंकि प्रत्येक साझेदार विशिष्टता लिये हुए होता है। अतः वे मिलकर सन्तुलित निर्णय ले सकते हैं। 

6. प्रबन्ध में मितव्ययिता-व्यवसाय के अन्य प्रारूपों की अपेक्षा साझेदारी संगठन के व्यवसाय में सम्पूर्ण व्यवस्था अपेक्षाकृत कम खर्च में ही सम्पन्न हो जाती है। प्रबन्ध व्यवस्था चूँकि प्रायः साझेदार स्वयं ही करते हैं, इस कारण पेशेवर प्रबन्धक को दी जाने वाली एक बड़ी धन-राशि को बचाया जा सकता है। 

7. आवश्यकतानुसार व्यवसाय में परिवर्तन-साझेदारी प्रारूप में एक गुण यह भी है कि इसके माध्यम से किये जाने वाले व्यवसाय को समय, परिस्थिति व आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जा सकता है। 

8. आपसी सहयोग की भावना को बल-साझेदारों द्वारा मिलकर कार्य करने की प्रवृत्ति के कारण आपसी सहयोग व प्रेम, आत्मीयता की भावना का विकास होता है। 

9. कार्य के प्रति प्रत्यक्ष प्रेरणा-साझेदारी में साझेदारों को यह स्पष्ट रूप से पता रहता है कि जो लाभ होगा वह उन्हें ही मिलेगा और यदि हानि होती है तो हानि को भी उन्हें ही वहन करना होगा। इसलिए वे अधिक सावधानी से तथा मन लगाकर कार्य करते हैं। 

10. सम्बन्ध-विच्छेद करना सरल-साझेदारी फर्म में प्रत्येक साझेदार को साझेदारी से सम्बन्ध विच्छेद करने में पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। यदि कोई साझेदार किसी कारण से दोषी हो तो अन्य साझेदार भी उसे फर्म से आसानी से अलग कर सकते हैं। 

साझेदारी के दोष/सीमाएँ-उपर्युक्त सब लाभों के बावजूद भी साझेदारी संगठन प्रारूप को अनेक लोग अन्य व्यावसायिक संगठनों की तुलना में कम पसन्द करते हैं क्योंकि- 
1. सीमित साधन-साझेदारी संगठन में साझेदारों की संख्या सीमित होती है। इसलिए बड़े पैमाने के व्यावसायिक कार्यों के लिए तथा बढ़ते हुए व्यवसाय के लिए उनके द्वारा लगायी गई पूँजी अपर्याप्त ही रहती है। 

2. असीमित दायित्व-साझेदारी फर्म में प्रत्येक साझेदार का दायित्व असीमित ही रहता है। फर्म का प्रत्येक साझेदार व्यापार का प्रतिनिधि एवं स्वामी दोनों ही होता है। एक साझेदार द्वारा व्यापार संचालन में किये गये सम्पूर्ण कार्यों के लिए साझेदार सामूहिक एवं व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होते हैं। 

3. परस्पर विवाद की सम्भावना-साझेदारी का संचालन सब साझेदार मिलकर करते हैं। निर्णय सर्वसम्मति से लिये जाते हैं। कुछ मामलों में यदि मतभेद है तो इससे साझेदारों के बीच विवाद पैदा हो सकता है। 

4. स्थायित्व एवं निरन्तरता का अभाव-किसी भी साझेदार की मृत्यु, अवकाश ग्रहण करने, दिवालिया होने अथवा पागल होने से साझेदारी समाप्त हो जाती है। इसे सभी की सहमति से कभी भी समाप्त किया जा सकता है। फलतः इसमें स्थिरता एवं निरन्तरता का अभाव रहता है। 

5. जनसाधारण के विश्वास में कमी-साझेदारी संगठन में फर्म की वित्तीय नाओं एवं अन्य सम्बन्धित जानकारियों का प्रकाशन करना कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं है, इसलिए जन-साधारण को फर्म की वित्तीय स्थिति की सही जानकारी नहीं हो पाती। इससे जनता का फर्म के प्रति विश्वास कम ही रहता है। 

6. निर्णय में देरी-साझेदारी व्यापार में महत्त्वपूर्ण निर्णयों को सर्वसम्मति से लिये जाने की दशा में कई बार निर्णय लेने में देरी हो जाती है। इससे कई बार व्यवसाय में आने वाले अच्छे अवसर हाथ से निकल जाते हैं। 

7. हित-हस्तान्तरण पर रोक-साझेदारी फर्म का कोई भी साझेदार फर्म में अपने हित (हिस्से) को बिना अन्य साझेदारों की सहमति के किसी अन्य व्यक्ति के नाम हस्तान्तरित नहीं कर सकता है। 

प्रश्न 3. 
एक उपयुक्त संगठन का स्वरूप चुनना क्यों महत्त्वपूर्ण है? उन घटकों का विवेचन कीजिए जो संगठन के किसी खास स्वरूप के चुनाव में सहायक होते हैं। 
उत्तर:
व्यावसायिक संगठन के विभिन्न स्वरूप हैं। प्रत्येक स्वरूप के अपने-अपने लाभ-दोष हैं। कोई भी स्वरूप ऐसा नहीं है जो निर्विवाद हो । व्यवसायी के द्वारा यदि व्यावसायिक स्वामित्व के गलत स्वरूप का चुनाव कर लिया जाता है तो वह अत्यन्त घातक सिद्ध हो सकता है, यहाँ तक कि उसका और उसके व्यवसाय का अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है। इसीलिये व्यवसायी के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपने व्यावसायिक स्वामित्वं के उपयुक्त प्रारूप का चुनाव करे। लेकिन उचित स्वरूप का चयन कई महत्त्वपूर्ण घटकों पर निर्भर करता है। एक व्यवसायी को निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण घटकों को ध्यान में रखकर अपने व्यावसायिक स्वामित्व के प्रारूप का चयन करना चाहिए-

1. प्रारम्भिक लागत-व्यावसायिक संगठन का चुनाव करते समय सर्वप्रथम उसको शुरू करने में आने वाली प्रारम्भिक लागत पर ध्यान दिया जाना चाहिए। जिन व्यवसायों में कम प्रारम्भिक लागत आती हो उनके लिए एकल स्वामित्व तथा साझेदारी स्वरूप लोकप्रिय है। थोड़ी अधिक पूँजी की आवश्यकता वाले व्यवसाय के लिए निजी कम्पनी प्रारूप उपयुक्त हो सकता है। किन्तु जिन व्यवसायों में बड़े पैमाने पर प्रारम्भिक लागत चाहिए व अधिक पूँजी की आवश्यकता हो उनके लिए सार्वजनिक कम्पनी प्रारूप उपयुक्त माना जा सकता है। 

2. दायित्व-व्यावसायिक संगठन के स्वरूप का चुनाव करते समय यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उसमें सदस्यों का दायित्व किस प्रकार का रहेगा। एकल स्वामित्व व साझेदारी में स्वामियों का दायित्व असीमित होता है। संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में केवल कर्ता का दायित्व असीमित रहता है। सहकारी समितियों एवं कम्पनियों में सदस्यों का दायित्व सीमित होता है। विनियोजकों के लिए कम्पनी रूपी प्रारूप अधिक उचित माना जाता है क्योंकि इसमें उनका दायित्व सीमित रहता है। 

3. व्यवसाय की प्रकृति-व्यावसायिक संगठन का स्वरूप उसके द्वारा किये जाने वाले व्यवसाय की प्रकृति के अनुकूल ही होना चाहिए। कई व्यवसाय ऐसे होते हैं जिनके लिए एकल स्वामित्व श्रेष्ठ रहता है, कुछ के लिए साझेदारी र कम्पनी प्रारूप उपयुक्त माना जाता है। जहाँ ग्राहक से सीधे सम्पर्क की आवश्यकता है जैसे नाई की दुकान या परचून की दुकान वहाँ एकल स्वामित्व अधिक उपयुक्त रहेगा। बड़ी निर्माणी इकाइयों के लिए जहाँ ग्राहक से सीधे व्यक्तिगत सम्पर्क की आवश्यकता नहीं है, कम्पनी स्वरूप को अपनाया जा सकता है। जहाँ पेशेवर सेवाओं की 
आवश्यकता होती है वहाँ साझेदारी अधिक उपयुक्त रहती है। 

4. व्यवसाय का आकार-व्यावसायिक संगठन के उचित स्वरूप का चुनाव करते समय व्यवसाय के आकार को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। छोटे फुटकर व्यापारी, लघु एवं कुटीर उद्योग आदि के लिए एकल स्वामित्व तथा संजीव पास बुक्स साझेदारी उपयुक्त है, क्योंकि थोड़ी पूँजी तथा सामान्य प्रबन्ध योग्यता द्वारा इन्हें आसानी से संचालित किया जा सकता है और इनकी जोखिम को वहन किया जा सकता है। किन्तु अधिक पूँजी एवं प्रबन्धकीय योग्यता की अधिक आवश्यकता हो तो कम्पनी प्रारूप उपयुक्त माना जाता है। 

5. नियन्त्रण की सीमा-यदि व्यवसायी व्यवसाय पर एवं उसके प्रबन्ध पर व्यक्तिगत नियन्त्रण रखना चाहता है तो एकल स्वामित्व या साझेदारी उपयुक्त मानी जाती है किन्तु यदि वह व्यवसाय के संचालन का भार विशिष्ट प्रबन्धकों को सौंपना चाहता है तो कम्पनी प्रारूप अधिक उपयुक्त रहेगा। 

6. प्रबन्धन की योग्यता-एकल स्वामी के लिए प्रचालन के सभी क्षेत्रों में विशेषज्ञों की सेवाएँ प्राप्त करना कठिन होता है क्योंकि इन पर अधिक खर्चा आता है, जबकि अन्य प्रकार के संगठन जैसे साझेदारी एवं कम्पनी में इसकी सम्भावना अधिक रहती है। कार्य-विभाजन के कारण प्रबन्धक कुछ क्षेत्रों में विशिष्टता प्राप्त कर लेते हैं जिससे निर्णयों में श्रेष्ठता बढ़ जाती है। लेकिन लोगों के विचारों में भिन्नता के कारण टकराव की स्थिति भी पैदा हो सकती है। इसके अतिरिक्त यदि संगठन के कार्यों की प्रकृति जटिल है तथा जिनमें पेशेवर प्रबन्धन की आवश्यकता हो तो कम्पनी स्वरूप उचित रहता है। इस प्रकार व्यवसाय के कार्यों की प्रकृति एवं पेशेवर प्रबन्ध की आवश्यकता संगठन के स्वरूप के चयन को प्रभावित करते हैं। 

7. निरन्तरता-यदि व्यवसाय को स्थायी ढाँचे की आवश्यकता है तो कम्पनी प्रारूप अधिक उचित रहता है जबकि थोड़ी अवधि के व्यवसायों के लिए एकल स्वामित्व अथवा साझेदारी स्वरूप को प्राथमिकता दी जा सकती है। अतः व्यावसायिक संगठन के स्वरूप का चुनाव करते समय यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि व्यवसाय को कितने स्थायित्व की आवश्यकता है। उसी के आधार पर व्यवसाय के स्वरूप का चयन किया जाना चाहिए। 

8. कर का भार-व्यवसाय के विभिन्न स्वरूपों पर कर की तुलनात्मक मात्रा भी उसके स्वरूप का चुनाव करते समय ध्यान रखनी चाहिए। यदि सम्भावित लाभ की मात्रा अधिक हो सकती है तो कम्पनी संगठन में कर का भार अपेक्षाकृत कम होगा अन्यथा एकल स्वामित्व तथा साझेदारी संगठन उपयुक्त है। 

9. वैधानिक औपचारिकताएँ तथा सरकारी नियन्त्रण की सीमा-वैधानिक औपचारिकताओं तथा सरकारी नियन्त्रण की सीमा विभिन्न व्यावसायिक स्वामित्व के स्वरूपों में अलग-अलग है। यह व्यवसायी व्यवसाय में अधिक वैधानिक औपचारिकताएं पूरी करना नहीं चाहता है तथा सरकारी नियन्त्रण कम चाहता है तो एकल स्वामित्व तथा साझेदारी संगठन उचित है अन्यथा कम्पनी संगठन अधिक उपयुक्त माना जाता है। 

10. विकास एवं विस्तार की सम्भावना-यदि व्यवसाय के विकास एवं विस्तार की अत्यधिक सम्भावना है तो इस दृष्टि से कम्पनी संगठन सर्वोत्तम है। 

प्रश्न 4. 
सहकारी संगठन स्वरूप के लक्षण, गुण एवं सीमाओं का विवेचन कीजिए। विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियों को भी संक्षेप में समझाइए। 
उत्तर:
सहकारी संगठन-सहकारी संगठन उन व्यक्तियों का एक संगठन है जो अपने आर्थिक हितों के संवर्द्धन के लिए स्वेच्छा से समानता व परस्पर सहायता के आधार पर कार्य करते हैं । ये संगठन लाभ कमाने के लिए नहीं अपितु अपने सदस्यों की आवश्यकताओं व हितों की पूर्ति के लिए कार्य करते हैं। ये संगठन सहकारिता के प्रमुख सिद्धान्त ‘एक सबके लिए सब एक के लिए’ के आधार पर संचालित किये जाते हैं। 

लक्षण-सहकारी संगठन स्वरूप के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-

गुण-सहकारी संगठन के कुछ प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

सीमाएँ-सहकारी संगठन की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं- 

सहकारी समितियों के प्रकार- 
1. उपभोक्ता सहकारी समितियाँ-इन समितियों का गठन उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए किया जाता है। इसके सदस्य वे उपभोक्ता होते हैं, जो बढ़िया किस्म की वस्तुएँ उचित मूल्य पर प्राप्त करना चाहते हैं। इन समितियों का उद्देश्य मध्यस्थ को समाप्त करना ही होता है। 

2. उत्पादक सहकारी समितियाँ-इन समितियों की स्थापना छोटे उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए की जाती है। समितियों का उद्देश्य बड़े पूँजीपतियों के विरुद्ध खड़े होना तथा छोटे उत्पादकों की सौदा करने की शक्ति को बढ़ाना है। यह समिति सदस्यों को कच्चा माल, उपकरण एवं अन्य आगतों की आपूर्ति करती है तथा बिक्री के लिए उनके उत्पादों को खरीदती है। 

3. विपणन सहकारी समितियाँ-विपणन सहकारी समितियों का गठन छोटे उत्पादकों को उनके उत्पादों को बेचने में सहायता करने के उद्देश्य से किया जाता है। इन समितियों का उद्देश्य बिचौलियों को समाप्त करना और उत्पादों के लिए अनुकूल बाजार सुरक्षित कर सदस्यों की प्रतियोगी स्थिति में सुधार करना है। समिति प्रत्येक सदस्य के उत्पाद को एकत्रित करके इन्हें सर्वोत्तम मूल्य पर बेचने का प्रयास करती है। 

4. कृषक सहकारी समितियाँ-इन समितियों के सदस्य वे किसान होते हैं जो मिलकर कृषि कार्यों को करना चाहते हैं। समिति का उद्देश्य बड़े पैमाने पर कृषि का लाभ उठाना एवं उत्पादकता को बढ़ाना है। ऐसी समितियाँ सदस्यों . को अच्छा बीज, खाद, मशीन एवं अन्य आधुनिक तकनीक उपलब्ध कराती हैं। 

5. सहकारी ऋण समितियाँ-इन समितियों की स्थापना सदस्यों को आसान शर्तों पर सरलता से कर्ज उपलब्ध कराने के लिए की जाती है। इसमें वे व्यक्ति सदस्य बनना चाहते हैं जो ऋणों के रूप में वित्तीय सहायता चाहते हैं। 

6. सहकारी आवास समितियाँ-इन समितियों की स्थापना सीमित आय के लोगों को उचित लागत पर मकान बनाने में सहायता करने के लिए की जाती है। इस समिति का उद्देश्य अपने सदस्यों की आवासीय समस्याओं का समाधान करना है। इस समिति के वे व्यक्ति सदस्य बनते हैं जो उचित मूल्य पर आवास प्राप्त करने के इच्छुक होते हैं। 

प्रश्न 5. 
एक संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय एवं साझेदारी में अन्तर कीजिए। 
उत्तर:
एक संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय एवं साझेदारी में अन्तर- 
1. अनुबन्ध-संयुक्त हिन्दू परिवार में बालक जन्म लेने के साथ ही व्यापार में अपने हिस्से का अधिकारी हो जाता है, जबकि साझेदारी व्यवसाय प्रारम्भ करने से पूर्व साझेदारों के बीच अनुबन्ध या समझौता किया जाना आवश्यक है। 

2. पंजीयन-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के पंजीयन की आवश्यकता ही नहीं होती है, जबकि साझेदारी फर्म का पंजीयन करवाना ऐच्छिक होता है। 

3. वैधानिक औपचारिकताएँ-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के लिए वैधानिक औपचारिकताओं की बहुत ही कम आवश्यकता होती है, जबकि साझेदारी व्यवसाय में फर्म के पंजीयन के लिए कई वैधानिक औपचारिकताओं को पूरा किया जाना आवश्यक होता है। 

4. दायित्व-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में सदस्य का दायित्व सीमित होता है किन्तु कर्ता का दायित्व असीमित होता है, जबकि साझेदारी व्यवसाय में साझेदारों की देयता असीमित होती है सीमित देयता वाली साझेदारी को छोड़कर। 

5. ऋण लेना-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में ऋण लेने का अधिकार केवल कर्ता का होता है, जबकि साझेदारी व्यवसाय में कोई भी साझेदार व्यवसाय के लिए ऋण ले सकता है। 

6. सदस्यों की संख्या-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में जितने सदस्य होते हैं वे सभी व्यवसाय के सदस्य माने जाते हैं। साझेदारी फर्म में कम-से-कम दो और अधिकतम 50 साझेदार हो सकते हैं। 

7. मृत्यु का प्रभाव-संयक्त हिन्द परिवार व्यवसाय के कर्ता की मत्य का परिवार के कार्य संचालन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि साझेदारी में साझेदार की मृत्यु हो जाने से प्रायः साझेदारी व्यवसाय समाप्त हो जाता है। 

8. पूँजी-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में पूर्वजों की सम्पत्ति लगी होती है, जबकि साझेदारी फर्म में साझेदारों की सम्पत्ति लगी होती है। 

9. निरन्तरता-सं युक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में कर्त्ता की मत्य पर भी आगे व्यवसाय चलता रहता है, जबकि साझेदारी फर्म में फर्म का अस्तित्व साझेदारों के अस्तित्व से प्रभावित रहता है। साझेदार की मृत्यु होने, पागल या दिवालिया होने का फर्म के अस्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। 

10. प्रबन्ध एवं नियन्त्रण-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय कर्ता के प्रबन्ध एवं नियन्त्रण में रहता है, जबकि साझेदारी फर्म पर सभी साझेदारों का प्रबन्ध एवं नियन्त्रण रहता है। 

प्रश्न 6. 
आकार एवं संसाधनों की सीमाओं के होते हुए भी लोग एकल व्यवसाय को अन्य संगठनों की तुलना में प्राथमिकता क्यों देते हैं? 
उत्तर:
एकल व्यवसाय को अन्य संगठनों की तुलना में प्राथमिकता देने के कारण-एकल स्वामित्व वाले व्यवसाय में एक व्यक्ति ही उस व्यवसाय का स्वामी होता है। इस अकेले व्यक्ति की अपनी सीमाएँ होती हैं। उसके द्वारा किये जाने वाले व्यवसाय का आकार लघु ही होता है तथा संसाधन भी सीमित होते हैं। इन सबके बावजूद भी एकल स्वामित्व में निम्नलिखित कुछ गुण होते हैं जिनके कारण ही लोग अन्य संगठनों की तुलना में प्राथमिकता देते हैं- 

1. शीघ्र निर्णय-एकल स्वामी को व्यवसाय से सम्बन्धित निर्णय लेने की बहुत अधिक स्वतन्त्रता होती है क्योंकि उसे किसी दूसरे से सलाह लेने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए वह शीघ्र निर्णय लेकर व्यावसायिक सुअवसरों का लाभ उठा सकता है। यही कारण है कि व्यक्ति एकल व्यवसाय को अन्य संगठनों की तुलना में प्राथमिकता देते हैं। 

2. गोपनीयता-एकल स्वामित्व वाले व्यवसाय को प्राथमिकता देने का एक कारण यह भी है कि इसमें गोपनीयता अत्यधिक रहती है। क्योंकि इसमें स्वामी अकेला ही निर्णय लेने का अधिकार रखता है। वह व्यापार संचालन के सम्बन्ध में सूचनाओं को गुप्त रख सकता है। 

3. प्रत्यक्ष प्रोत्साहन-एकल व्यवसाय का स्वामी अकेला व्यक्ति ही होता है। इसलिए उसे व्यवसाय के लाभ में हिस्सा बँटाने की जरूरत नहीं होती है। इससे उसे कठिन परिश्रम करने के लिए अधिकतम प्रोत्साहन मिलता है। इस कारण भी लोग एकल व्यवसाय को प्राथमिकता देते हैं। 

4. उपलब्धि का एहसास-एकल व्यवसाय में व्यवसायी द्वारा अपने स्वयं के लिए कार्य करने से व्यक्तिगत सन्तुष्टि प्राप्त होती है। इस बात का एहसास कि वह स्वयं ही. अपने व्यवसाय की सफलता के लिए उत्तरदायी है, न केवल उसे आत्म-सन्तोष प्रदान करता है वरन् स्वयं की योग्यता एवं क्षमता में विश्वास की भावना भी पैदा करता है। 

5. सरल प्रारम्भ-एकल व्यवसाय प्रारम्भ करने में किसी प्रकार की कोई वैधानिक औपचारिकता पूरी नहीं करनी होती है। एकल व्यवसाय को आसानी से शुरू किया जा सकता है और सरलता से चलाया जा सकता है। इस प्रकार का गुण भी लोगों को इस प्रकार के प्रारूप का चुनाव करने में अत्यधिक सहायक होता है। 

6. मितव्ययिता-एकाकी व्यापारी स्वयं ही अपने व्यवसाय की देखभाल करता है, स्वयं ही सारे प्रबन्धकीय कार्यों का निष्पादन करता है तथा स्वयं ही नीतियों को निर्धारित करता है। वह अपने धन को अधिक से अधिक उपयोगी एवं लाभप्रद कार्यों में लगाता है। फलतः एकल व्यापार में मितव्ययिता अधिक होती है क्योंकि इन सब कार्यों के लिए उसे अलग से कुछ खर्च नहीं करना पड़ता है। 

7. व्यक्तिगत सम्पर्क-एकल व्यवसायी उपभोक्ता से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित कर अपने व्यक्तित्व व प्रभाव से उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। उपभोक्ताओं को उनकी व्यक्तिगत रुचि के अनुसार उनकी आवश्यकताओं को पूरा कर लाभ उठाता है। 

8. पूर्ण नियन्त्रण-एकल व्यापार में स्वामी को व्यापार के प्रबन्ध की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। अतः वह अपनी इच्छानुसार इसका नियोजन एवं नियन्त्रण कर सकता है। इस प्रकार उसका व्यापार पर पूर्ण नियन्त्रण बना रहता है। 

9. सामाजिक उपयोगिता-एकल व्यवसाय न केवल समाज में लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाता है वरन उनकी आवश्यकता, रुचि व माँग के अनुरूप वस्तुएँ उपलब्ध कराता है। इससे राष्ट्रीय आय के समान वितरण की सम्भावना बनी रहती है। साथ ही पूँजी के विकेन्द्रीकरण को भी बढ़ावा मिलता है। 

10. सतर्कता-व्यापार का पूर्ण भार अकेले व्यापारी पर ही होता है। अतः वह बड़ी सतर्कता से व्यापार का संचालन करता है। 

11. आत्मविश्वास-एकल व्यापारी अपने समस्त कार्यों की देखरेख स्वयं ही करता है। अतः उसमें आत्म विश्वास की भावना जागृत होना स्वाभाविक है। 

12. व्यक्तिगत सेवाएँ-व्यवसाय का यह स्वरूप विशेष रूप से उन क्षेत्रों में प्रचलन में अत्यधिक रहता है जिनमें व्यक्तिगत सेवाएँ प्रदान की जाती हैं जैसे ब्यूटी पार्लर, नाई की दुकान, पान की दुकान एवं छोटे पैमाने के व्यापार जैसे किसी क्षेत्र में एक फुटकर व्यापार की दुकान चलाना आदि। ये ऐसे व्यवसाय हैं जिनके संचालन के लिए एकल स्वामित्व स्वरूप सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है।

उपर्युक्त सभी गुण एकल स्वामित्व में इस प्रकार के हैं जिनका फायदा उठाने के लिए लोग एकल स्वामित्व को चुनने में प्राथमिकता देते हैं। 

व्यावहारिक प्रश्न- 

प्रश्न 1. 
किस संगठन स्वरूप में एक स्वामी के व्यापारिक करार अन्य स्वामियों को भी बाध्य कर देते हैं? उत्तर के समर्थन में कारण दीजिए। 
उत्तर:
व्यावसायिक स्वामित्व का साझेदारी संगठन स्वरूप ऐसा स्वरूप है जिसमें एक स्वामी के व्यापारिक करार अन्य स्वामियों को भी बाध्य कर देते हैं क्योंकि यह निम्न कारणों से होता है-

1. एजेन्सी के सम्बन्ध-साझेदारी संगठन में फर्म के सभी साझेदारों के मध्य एजेन्सी के सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं। इसमें प्रत्येक साझेदार फर्म का स्वामी एवं एजेण्ट दोनों ही होता है। साझेदार-एजेण्ट के रूप में कोई कार्य करता है तो वह अपने कार्यों के लिए अन्य साझेदारों (स्वामियों) को बाध्य कर सकता है। स्वामी के रूप में कार्य करने पर वह अन्य साझेदारों के लिए भी बाध्य होता है। 

2. पृथक् वैधानिक अस्तित्व नहीं-साझेदारी संगठन में फर्म तथा साझेदारों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व नहीं रहता है। जो व्यक्ति साझेदारी समझौता करते हैं वे व्यक्तिगत रूप से साझेदार व सामूहिक रूप से फर्म कहलाते हैं। फर्म पर लागू होने वाले सभी अनुबन्ध साझेदारों पर भी समान रूप से लागू होते हैं। एक साझेदार द्वारा फर्म के लिए लिये गये ऋण को फर्म अथवा सभी साझेदारों द्वारा चुकाना पड़ता है। 

प्रश्न 2. 
एक संगठन की व्यावसायिक परिसम्पत्तियों की राशि 50,000 रुपये है लेकिन अदत्त देय राशि 80,000 रुपये हैं। लेनदार निम्न स्थितियों में क्या कार्यवाही कर सकते हैं ? 
(क) यदि संगठन एक एकल स्वामित्व इकाई है। 
(ख) यदि एक संगठन साझेदारी फर्म है जिसमें एन्थोनी और अकबर साझेदार हैं तो लेनदार इन दो में से किस साझेदार के पास अपनी लेनदारी के भुगतान हेतु सम्पर्क साध सकते हैं। कारण सहित समझाइए। 
उत्तर:
(क) एकल संगठन की स्थिति में किसी भी प्रकार की देयता के लिए एकल स्वामी स्वयं ही उत्तरदायी रहेगा। क्योंकि उसके व्यवसाय का तथा उसका अस्तित्व एक ही होता है, अलग-अलग नहीं। लेनदार एकल स्वामी के विरुद्ध कार्यवाही कर अदत्त देय राशि वसूल कर सकते हैं। 

(ख) साझेदारी फर्म में एन्थोनी और अकबर साझेदार हैं तो लेनदार दोनों में से किसी को भी अपनी लेनदारी के भुगतान के लिए बाध्य कर सकता है और किसी से भी इसके लिए सम्पर्क साध सकता है क्योंकि साझेदारी फर्म में प्रत्येक साझेदार फर्म के ऋण के लिए संयुक्त रूप से तथा पृथक्-पृथक् रूप में उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं। प्रत्येक साझेदार एक-दूसरे के एजेण्ट के रूप में भी कार्य करता है। 

प्रश्न 3. 
किरन एक एकल व्यवसायी है। पिछले दशक में उसका व्यवसाय पड़ोस के एक कोने की दुकान से, जिसमें वह नकली आभूषण, बैग, बालों की क्लिप, नेल पॉलिश आदि बेचती थी, से बढ़कर तीन शाखाओं वाली फुटकर श्रृंखला में बदल गया है। यद्यपि वह सभी शाखाओं के विभिन्न कार्यों को स्वयं देखती है, परन्तु अब सोच रही है कि व्यवसाय के बेहतर प्रबन्धन के लिए उसे एक कम्पनी का निर्माण करना चाहिए या नहीं। उसकी योजना देश के अन्य भागों में शाखाएँ खोलने की भी है। 
(क) एकल स्वामी बने रहने के दो लाभों को समझाइए। 
(ख) संयुक्त पूँजी कम्पनी में परिवर्तित करने के दो लाभ बतलाइए। 
(ग) राष्ट्रीय स्तर पर व्यवसाय करने के निर्णय पर संगठन के स्वरूप के चुनाव में उसकी भूमिका क्या होगी? 
(घ) कम्पनी के रूप में व्यवसाय करने के लिए उसे किन-किन कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना होगा? 
उत्तर:
(क) एकल स्वामी बने रहने के लाभ-एकल स्वामी बने रहने के निम्न दो लाभ होंगे 
1. गोपनीयता-एकल स्वामी अकेले ही निर्णय लेने का अधिकार रखता है। इसलिए वह व्यापार संचालन के सम्बन्ध में समस्त सूचनाओं को गुप्त रख सकती है तथा व्यवसाय के सम्बन्ध में गोपनीयता बनाये रख सकती है। 
2. प्रत्यक्ष प्रेरणा-एकल व्यवसाय में एक व्यक्ति ही स्वामी होता है। इसलिए उस एकल स्वामी को अपने व्यवसाय से प्राप्त होने वाले लाभ को किसी को बाँटने की जरूरत नहीं होती है। वह जितनी मेहनत करेगी उसी के प जो भी व्यवसाय में लाभ होगा वह उसी का रहेगा। अतः एकल व्यवसाय में प्रत्यक्ष प्रेरणा स्वामी को मिलती है। 

(ख) संयुक्त पूँजी कम्पनी में परिवर्तित करने के लाभ-किरन यदि अपने व्यवसाय को संयुक्त पूँजी कम्पनी में परिवर्तित करती है तो उसको निम्न लाभ प्राप्त होंगे- 
1. सीमित दायित्व-संयुक्त पूँजी कम्पनी में सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा खरीदे गये अंशों के मूल्य अथवा उनके द्वारा दी गई गारण्टी की राशि तक सीमित रहता है। इससे जो व्यक्ति कम्पनी में अपना धन विनियोजित करता है उसका दायित्व सीमित ही रहता है। इस निश्चित एवं सीमित जोखिम के कारण सामान्य व्यक्ति भी अपनी छोटी-छोटी बचतों को कम्पनी में बिना किसी अतिरिक्त जोखिम के विनियोजित कर सकता है। 

2. अधिक वित्तीय साधन-सामान्यतया कम्पनी की पूँजी छोटे-छोटे अंशों में विभाजित होती है। कम्पनी इन अंशों को जनता को निर्गमित कर अपनी आवश्यकतानुसार जितना चाहे धन जनता से प्राप्त कर सकती है। जो व्यक्ति कम्पनी में अपना धन लगाते हैं उनकी जोखिम भी सीमित ही होती है। इस प्रकार कम्पनी रूपी प्रारूप में अधिक से अधिक लोगों से धन एकत्रित किया जा सकता है। 

(ग) राष्ट्रीय स्तर पर व्यवसाय करने के निर्णय पर संगठन के स्वरूप के चुनाव में अनेक तत्त्व महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। इन तत्त्वों में व्यवसाय में लगने वाली प्रारम्भिक लागत, सदस्यों का दायित्व, व्यवसाय की प्रकृति, व्यवसाय का आकार, नियन्त्रण की सीमा, प्रबन्धन की योग्यता, निरन्तरता, कर का भार, वैधानिक औपचारिकताएँ तथा सरकारी नियन्त्रण की सीमा तथा विकास एवं विस्तार की सम्भावना आदि मुख्य हैं। प्रत्येक व्यावसायिक स्वामित्व के स्वरूप के अपने-अपने लाभ दोष हैं। इन सभी के लाभ-दोषों पर किरन को ही विचार करना होगा। इसके साथ ही उपर्युक्त तत्त्वों को ध्यान में रखते हुए ही संगठन का स्वरूप चुनना होगा। संगठन का स्वरूप यदि वह चाहे तो आवश्यकतानुसार समय-समय पर बदल भी सकती है। यदि किरन एकल संगठन का चुनाव करती है तो उसके अनेक लाभ हैं, किन्तु एकल व्यवसाय में व्यवसाय के अत्यधिक उन्नति, विकास एवं विस्तार की सम्भावना नहीं है उसका प्रबन्ध करना भी कठिन हो जायेगा अतः ऐसी दशा में किरन को संयुक्त पूँजी कम्पनी संगठन का चयन करना चाहिए। क्योंकि संयुक्त पूँजी कम्पनी स्वरूप के अनेक लाभ प्राप्त हो सकेंगे। 

(घ) कम्पनी के रूप में व्यवसाय करने के लिए पूरी की जाने वाली कानूनी औपचारिकताएँ-
1. कम्पनी का समामेलन-सर्वप्रथम किरन को कम्पनी के रूप में व्यवसाय करने के लिए कम्पनी की स्थापना या निर्माण के लिए कानूनी कार्यवाही करनी होगी। इसके लिए सम्बन्धित कम्पनी रजिस्ट्रार के यहाँ कम्पनी का पंजीकरण करवाना होगा। पंजीकरण के लिए सर्वप्रथम कुछ प्रारम्भिक क्रियाएँ करनी होती हैं जिनमें कम्पनी का प्रकार निर्धारित करना, रजिस्टर्ड कार्यालय का स्थान निर्धारित करना, प्रस्तावित संचालकों द्वारा पहचान संख्या प्राप्त करना, डिजिटल सिगनेचर प्राप्त करना, कम्पनी के नाम का चयन एवं आरक्षण करना, सीमा नियम व अन्तर्नियम तैयार करना, प्रलेखों की रजिस्ट्रार से जाँच करवाना, सीमा नियम व अन्तर्नियमों को छपवाना, मुद्रांक लगाना, तिथि अंकित करना, अभिदाताओं के हस्ताक्षर करवाना, कानूनी अपेक्षाओं की पूर्ति सम्बन्धी घोषणा प्राप्त करना, अभिदाताओं के विवरण प्राप्त करना, प्रथम संचालकों का विवरण प्राप्त करना, संचालकों की सहमति प्राप्त करना सम्बन्धित नियामक संस्थाओं से पंजीयन अथवा अनुमोदन करना तथा अन्य अनुमोदन करना।

तत्पश्चात् कम्पनी के समामेलन हेतु आवेदन करना होगा। इस आवेदन पत्र के साथ पत्राचार हेतु पते की सूचना, सीमानियम, अन्तर्नियम, सम्बन्धित नियामक संस्थ संजीव पास बुक्स कानूनी अपेक्षाओं की पूर्ति की घोषणा, अभिदाताओं तथा प्रथम संचालकों का शपथपत्र, प्रत्येक अभिदाता का विवरण, प्रथम संचालकों का विवरण व उनके हितों का विवरण, संचालकों की लिखित सहमति, नाम आरक्षण की पुष्टि करने वाले पत्र की प्रति, अभिदाताओं की ओर से प्रपत्रों पर हस्ताक्षर करने का मुख्तारनामा तथा निर्धारित शुल्क की रसीद। 

कम्पनी रजिस्टर क्रमशः सभी प्रपत्रों की जाँच-पड़ताल करता है। जब कम्पनी के द्वारा प्रस्तुत सभी प्रलेख ठीक पाये जाते हैं तो रजिस्ट्रार उन सभी प्रलेखों एवं सूचनाओं का कम्पनियों के रजिस्टर में पंजीयन कर लेता है। इस प्रकार कम्पनी का पंजीयन भी हो जाता है। इसके उपरान्त रजिस्ट्रार कम्पनी के समामेलन का प्रमाण पत्र जारी कर देता है। समामेलन के प्रमाण-पत्र में उल्लेखित तिथि को रजिस्ट्रार कम्पनी को कम्पनी का एक ‘पहचान क्रमांक’ भी आवंटित करता है तो उसी तिथि से मान्य होगा। यही ‘कम्पनी पहचान क्रमांक’ कम्पनी के समामेलन के प्रमाण पत्र में लिखा जायेगा। 

2. व्यवसाय आरम्भ-नवीन प्रावधानों के अनुसार कम्पनी अपना समामेलन का प्रमाण पत्र प्राप्त करने के साथ ही अपने व्यवसाय/कारोबार के संचालन के लिए हकदार हो जाती है। इसके पश्चात् कम्पनी को अपने व्यवसाय को आरम्भ करने के लिए अन्य किसी भी औपचारिकता का पालन नहीं करना पड़ता है। 

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